स्वामी स्वरूपदास रचित राजस्थानी महाभारत और उनका काव्य सौंदर्य–तेजस मुंगेरिया

राजस्थानी भाषा की विशालता व समृद्धि की जब बात करें तो स्वामी स्वरूपदास चारण (बड़ली अजमेर, १८०१) का स्मरण प्रथमत: करना ज़रूरी हो जाता है। स्वरूपदास ऐसे चरित्र थे जिन्होंने भारतीय मनीषा के ऋषि शब्द को पूर्ण चरितार्थ किया है। अन्य कई कवियों की भांत वे केवल काव्य में ही ईश-उपासना नहीं करते रहे बल्कि आजीवन साधुता धारण की तथा ईश्वरोपासना में लीन रहे।
अन्य चारण कवियों की भांत स्वामी स्वरूपदास भी मत-समन्वय की हृदयगत विशालता के प्रतिनिधि स्वर हैं। इस बात को यूँ समझें कि वे निर्गुण पंथी संत धारा के दादू पंथ के अनुगामी थे लेकिन अपने ग्रंथ महाभारत में उन्होंने जिस भांत भारतीय वेदांत व कृष्ण-चरित्र का बरणन किया है यह दो भिन्न मान्यताओं को एक साथ सांभना डिंगळ काव्य की आकाशधर्मिता का प्रमुख उदाहरण है।
संस्कृत के महान नाटकों की भावभूमि महाभारत रही इतना ही नहीं भारतीय माइथोलॉजी में जितना महाभारत का प्रभाव रहा उतना समृद्ध प्रभाव महाभारत के उत्तरकाल में किसी ग्रंथ का नहीं रहा। बांग्ला से लेकर असमी व मलयालम तक में महाभारत है, आश्चर्य की बात कि त्रिभाषा तिकड़ी (खड़ी बोली, अवधी, ब्रज) में छुटपुट प्रसंगों के अलावा संपूर्ण महाभारत का वर्णन है ही नहीं। स्वामी स्वरूपदास की राजस्थानी (पिंगल-डिंगल) भाषा में रचित महाभारत का नाम ‘पांडव यशेन्दु चंद्रिका‘ है जो मूल व्यास रचित महाभारत के पर्व खंडों की भांत ही मयूख शीर्षक सोलह खंडों में विभाजित है।
डिंगळ अथवा चारणी काव्य की एक प्रमुख विशेषता यह रही कि उसने भारतीय छंदशास्त्र को संजोकर या कहें कि छंदशास्त्र की परंपरा को अपने काव्य के मार्फ़त संरक्षित किया। स्वामी स्वरूपदास जब अपने इस प्रबंधात्मक ग्रंथ के दूसरे मयूख (अध्याय) में छंद प्रकरण तथा इसके तृतीय मयूख (तृतीय अध्याय) अलंकार तथा रस प्रकरण में रस व अलंकारों का वर्णन करते हैं तो वे भारतीय काव्यशास्त्र की प्रख्यात आचार्य पंक्ति में खड़े दिखाई देते हैं। यह बात जो साहित्य के गहन अध्येता हैं वे भली प्रकार जानते हैं कि भारतीय काव्य शास्त्र के रस, स्थायी भाव, संचारी भावों की सूक्ष्म व्याख्याएं काव्य शास्त्र की समृद्धि का कितना परिचायक है, स्वामी स्वरूपदास जी के इन दो अध्याय को गुन-भनकर केवल यही कहा जा सकता है कि केवल इन दो अध्याय के बूते वे भारतीय काव्य शास्त्र की कठिन पगडंडियों को अनेक उदाहरणों की सहायता ले एक प्रकांड आचार्य की भांत ही सुलझाते हैं।
उदाहरणार्थ वे उपमा अलंकार का भेद बताते हैं कि:-
धर्म और उपमेय है, उपमा वाचक आन।
कोमल हरि पद कंज से, कम तैं उपमा ज्ञान।।
(वाचक, धर्म और उपमान और उपमेय इन चार पदों को क्रम से लाने पर उपमा (पूर्णोपमा) जानी जा सकती है। जैसे कि श्री हरि के चरण, कमल जैसे कोमल हैं। इसमें समता वाचक (से) पद, कोमलता का धर्म, कमल उपमान और श्री हरि के चरण उपमेय, इस प्रकार चारों पदार्थ उपस्थित होने से यह पूर्णोपमा अलंकार हुआ:- संदर्भ पांडव यशेंदु चंद्रिका-संपादक-चंद्रप्रकाश देवल, तृतीय मयूख)
दोनों मयूख में सौ-सौ से अधिक लक्षण पदों से रस-छंद व अलंकार शास्त्र का रीति-नीति से वर्णन उन्हें भारतीय काव्यशास्त्र का महान् अध्येता सिद्ध कराते हैं।
इसी मयूख में वे श्वेत वर्णी समधर्मा तत्त्व जगत् की व्याख्या को एक कवित्त में कहते हैं:-
‘बल बक हीरा कुंद पुंडरिक कांस भस्म,
कांचु अहि खांड हाड करिका कपास गनि।
चंदन चँवर हंस सत्ययुग दुग्ध शंख,
उड़्गन फीटक सीप चूनो शशि शेष भनि।
गंगोदक शुक्र सुधा शारदा शरद सिंधु,
सतोगुन शंकर सुदर्शन फटिक मनि।
शान्त हास्य उच्चीश्रवा नारद रु पारद तैं,
ऊजरे अधिक मन ऐसे हरिदास धनि।।
(बलभद्र, बगुला, हीरा, मोगरा, कमल, कांसा, विभुति, सर्प की कंचुकी, शक्कर, हड्डियाँ, बर्फ, कपास, चंदन, चँवर, हंस, सतयुग, दूध, शंख, तारे, फिटकरी, सीप, चूना, चंद्रमा, शेषनाग, गंगाजल, वीर्य, अमृत, सरस्वती, शरद ऋतु, क्षीरसागर, सतोगुण, महादेव, सुदर्शन चक्र, स्फटिक मणि, शांत रस, हास्य रस, उच्चीश्रवा घोड़ा, नारद और पारा आदि से भी श्री हरि के सेवकों के हृदय अत्यंत उज्ज्वल है, इसलिए वे धन्य हैं। संदर्भ:- पांडव यशेंदु चंद्रिका ग्रंथ, संपादक-चंद्रप्रकाश देवल, तृतीय मयूख)
प्रश्न पूछा जा सकता है कि महाभारत प्रबंध में रस छंद अलंकारों की बात पर दो अध्याय शामिल करने का क्या अर्थ है? लेकिन कवि ने इन दो अध्याय में रस छंद व अलंकारों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म उदाहरण देकर व्याख्याएं की कारण कि वे आरंभ में घोषणा भी करते हैं कि इस ग्रंथ को मैं जिन लक्षणों में बद्ध कर रहा हूँ उसका सतही ज्ञान तो नूतन पाठक को होना ही चाहिए। यह सजगता उन्हें भारतीय काव्य की आचार्य परंपरा से तो जोड़ती ही है साथ ही यह भी सिद्ध करती है कि डिंगळ काव्य की परंपरा भारतीय काव्यशास्त्र के अध्ययन, अनुगमन को लेकर कितनी गंभीर रही है।
पांडव यशेंदु चंद्रिका ग्रंथ की अन्य विशेषता कि कवि किसी भी जगह कथानक से भिन्न बात नहीं करते हैं, पूरे ग्रंथ में बिना किसी लाग-लपेट के व्यास रचित महाभारत का क्रमबद्ध अनुपालन है। एक-एक घटनाक्रम को बड़े ही सजीव ढंग से पेश किया है स्वामी स्वरूपदास ने। लोक भाषा में इतना सजीव चित्रांकन तथा पल-पल में बदलते छंद तथा कथ्य शैली में गहन पांडित्य के साथ महाभारत विषयक तमाम घटनाओं का बेहद गहराई से वर्णन तथा साथ में लोक जीवन की उक्तियों से लेकर वह तमाम सामग्री शामिल है जो इस ग्रंथ के बनाव में चार चाँद लगाती है।
कवि कवित्त छंदों की पांडित्यपूर्ण छटा उपस्थित करते हैं तो दोहा व पद्धरी छंद तो प्रत्येक मयूख का प्राण-तत्त्व है। कहीं चौपाई तो कहीं सवैया की अद्भुत छटा है। महाभारत का इस भांत वर्णन अन्य किसी भाषा में नहीं हुआ होगा। कवि अपने सर्जन के प्रति बेहद सजग है, वह पाठक वर्ग को कहीं यह महसूस नहीं होने देते कि वे एक कठिन शास्त्र तथा भारतीय ज्ञान-मीमांसा के महासागर से साक्षात्कार कर रहे हैं।
एक-एक प्रसंग को बेहद सुघड़ ढंग से बुना गया है।
जिस भांत कृष्णार्जुन का चरित्र मूल महाभारत का प्राण है उसी भांत स्वामी रचित महाभारत में भी कृष्णार्जुन का चरित्र ख़ास बनता गया है। कथानक में जहाँ कहीं अर्जुन या कृष्ण का प्रवेश हो वह प्रसंग इतना सम्मोहन भरा है कि कवित्व शक्ति का उत्कर्ष वहाँ उद्घाटित हो जाता है। द्रोपदी वरण का प्रसंग जितना पांडव यशेंदु चंद्रिका में सजीव बन पड़ा है उतना शायद अन्यत्र कहीं नहीं। अर्जुनादि लाक्षालय का छल-कपट झेल सीधे ही द्रुपद नगर आए हैं और उनके तन पर वस्त्र भी फटेहाल हैं। वे ग़रीब ब्राह्मण के वेश में सभा में उपस्थित होते हैं तथा स्वयंवर में भाग लेते हैं-
धनुष पै गौन महा बली पांडुनंदन को,
मत्त गजराज पै ज्यौं कहरी लसतु है।
दीन द्विज भेष अग्नि भसमावच्छन बेष,
देखी बाल-वृद्ध-युवा ब्राह्मण हसतु है।
सुयोधन आदि बड़े सूर देश देशन के
भूपन के तेज राधा बेध तैं नसतु हैं।
नाना जे पटाम्बर की कमर खुलत जात,
देखो ए फटाम्बर की कमर कसतु है।।
(महाबलवान अर्जुन धनुष की ओर ऐसे लपका जैसे मस्त हाथी पर सिंह लपकता है। राख से ढके (भस्म से आवेष्टित) शरीर पर फटे चिथड़े जैसे वेश में अर्जुन को देख कर छोटे-मोटे, बड़े-बूढ़े सभी ब्राह्मण हंस पड़े। दुर्योधन आदि बड़े-बड़े शूरवीर राजाओं के मत्स्य बेधन के प्रयत्न में रेशम के कमर-बंध खुल पड़े अर्थात् वे असफल रहे। वही यह देखो वह फटाम्बर (फटे हाल कपड़े) से धनुष उठाने को कमर कस रहा है। :- पांडव यशेन्दु चंद्रिका’-चतुर्थ मयूख, संपादक-चंद्रप्रकाश देवल)
कवि की महान प्रतिभा ने हरेक दृश्य में अपनी दृष्टि व काव्य प्रतिभा से उसमें प्राण फूंक लिए हैं। उपमा रूपक व उत्प्रेक्षा अलंकार जैसे हरेक पद में सहज प्रवृत हुए हों। कवि ने हरेक प्रसंग में नाना उदाहरणों को प्रसंगों से संबद्ध कर इस प्रबंध को समृद्ध बना दिया है। अर्जुन का मीन बेधन प्रसंग दर्शनीय इस भांत बन पड़ा है:-
‘कौन अस्त्र शस्त्र की बराबरी करैया याते,
पारथ की मैया एक जायो वार पाथ ही।
सुयोधन धृष्टकेतु जरासंध भूरीश्रवा,
और हु खिसाने नैकु छुये धनु हाथ ही।
गुन को चढान पंच बान को संधान ऐंचि,
छोरीबो रु बेधिबो लख्यो न हलनाथ ही।
पर्शन धनु को भूमि दर्शन निशान हू को,
देव पुष्प वर्षन दिखानो एक साथ ही।।
(संदर्भ:- पांडव यशेन्दु चंद्रिका’-चतुर्थ मयूख संपादक-चंद्रप्रकाश देवल)
जब अर्जुन युद्ध भूमि में शंका में घिर कर युद्धेच्छा त्याग देना चाहते हैं तो केशव का उपदेश कुछ कवि ने इस भांत बुना-
‘अर्जुन संदेह’
काके औ भतीजे मामे भागनेय साले बंधु,
बहनेउ पितामह गुरु द्विज मारिबो।
रुधिर के भूने भोग कौन ऐसो राज चहै,
यातैं श्रेय मानत हौं भिक्षा अन्न धारिबो।
पुल्कित भये हैं रोम कंपत शरीर मेरो,
विकल हृदय ताकौं कैसे कल पारिबो।
कोउ कहो सूर कोउ कायर असाधु कहो,
ऐसे जीतिबे तैं तो सदैव भलो हारिबो।।
(संदर्भ:- पांडव यशेन्दु चंद्रिका’-चतुर्थ मयूख संपादक-चंद्रप्रकाश देवल)
कृष्ण द्वारा आत्मा के अजर अमर होने की बात इस भांत बन पड़ी है-
कृष्ण उवाच:-
‘अर्जुन अखंड आतमा को नास माने मत,
पौन तैं सुषत नाहिं आगि तैं न जरिबो।
जल तैं गलत नांहिं छिदै नाहिं शस्त्रन तैं,
व्यापक अद्वैत व्योम को सो चित्त धरिबो।
जीतिबे तैं राज मरैं ही तैं लाभ स्वर्ग साज,
क्षत्रि को अनन्य धर्म उत्सव तैं लरिबो।
बारिबो न बरिबो ना गारिबो न गरीबो त्यूँ,
हारिबो न हरिबो ना मारिबो न मरिबो।।
(संदर्भ:- पांडव यशेन्दु चंद्रिका’-चतुर्थ मयूख संपादक-चंद्रप्रकाश देवल)
कृष्ण का युद्ध कारण कवि द्वारा इतना तार्किक बना दिया गया कि शेष सभी शंकाएं तिरोहित होती जान पड़ती है-
कृष्ण उवाच:-
‘प्रथम हलाहल दियो हो भीमसेन जु कौं,
दुजे लाखागेह बीच अग्नि में जराये हैं।
त्रीजे द्रोपदी को अभिमर्षन द्वै बार कीनो,
चौथे सब वैभव के अंग ही छिनाये हैं।
पंचम रसा को खोसि बन में पठाय दिये,
छठे आत शस्त्र बंध मारिबे कौं आये हैं।
एक अंग ही तैं वध दोष नहिं कृष्ण कहै,
कुरु षट अंग आतताई तैं अघाये हैं।।
प्रसंगानुकूल भाषा, संवाद कथन में सजगता, संस्कृत शब्दावली का सुंदर प्रयोग, हरेक बात में तत्त्व मीमांसा के पांडित्य की झलक, भाषाओं पर सुघड़ अधिकार तथा सबसे मुख्य बात कि व्यास रचित महाभारत के कथानक से भिन्न कुछ भी शामिल नहीं किया। अर्थात् उस एक ग्रंथ को ही आधार ग्रंथ माना तथा अन्य विभिन्न कथानक द्वंद्व को स्वीकार नहीं किया। वेद-वेदांतों का गंभीर अध्ययन उनके काव्य में स्पष्ट नज़र आ ही जाता है। जिस प्रकार भाषा व काव्य की सजगता नंददास व सुंदरदास के काव्य में देखने को मिलती है उस असाध्य परंपरा का निर्वहन स्वामी स्वरूपदास के काव्य में मिलता है। संपूर्ण सोलह मयूख में ऐसा कुछ भी दृष्टिगत नहीं होता जो कवि को मूल कथा से विलग करे। स्वामी स्वरूपदास के अन्य ग्रंथ संत (ज्ञान) काव्य धारा से प्रभावित जान पड़ते हैं, लेकिन इस विशाल काव्य ग्रंथ में वे कहीं भी अपनी पंथ मान्यताओं को जगह नहीं देते हैं। इस ईमानदारी का निर्वहन कितना कठिन है यह काव्य जगत स्वत: ही जान सकता है।
~~तेजस मुंगेरिया
Bahut hi badiya hai
Abhi time km hone ke karan padh nahi paya kal pura vishtar padhuga
Mujhe bahut hi badiya lagi
डिगंल के महान मनीषी का काव्य और उनका मूल्यांकन निश्चित ही वंदनीय है