लक्ष्मणदान कविया खैण – परिचय

…आज राजस्थानी में लिखै घणा ई है पण उणांरो लिख्यो पढां जणै सावजोग समझ सकां कै ऐ कवि वैचारिक कुंडाल़िए सूं बारै आय’र जनमन नै समझण अर उणरी कोठै में उपजी नै आपरै होठै लावण सूं शंकै। पण जनमन नै समझ’र उणरी अंतस भावना नै आपरै आखरां पिरोय बिनां हाण लाभ रै फिकर में जन जाजम माथै राखी है उणांमें लक्ष्मणदान कविया खैण रो नाम हरोल़ में है। साहित्य मनीषी कन्हैयालाल सेठिया रै आखरां में “लक्ष्मणदान कविया राजस्थानी रा लोककवि है। आंरी कवितावां जुगबोध अर जुग चेतना सूं जुड़्योड़ी है।” जिण कवि री कवितावां जुगबोध अर जुग चेतना सूं जुड़ी थकी है उवो कवि इज सही अरथां में लोककवि है।…

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भक्त कवि मुरारदानजी आशिया नोखड़ा

बीसवीं सदी में डिंगल़ रा केई सिरै कवेसर होया, जिणां आपरी सिरजणधारा सूं समाज नै नवो भावबोध अर साहित्य नै ऊंचाई दी। ऐड़ै ई विरल कवियां मांय सूं एक हा मुरारदानजी आशिया नोखड़ा। नोखड़ा आशिया चारणां रो गांम। जठै साहित्यकारां अर साहित्य सेवियां री एक लंबी श्रृंखला रैयी है। जिणांमें भैरजी आशिया, वांकजी आशिया आद कवेसर इण थल़वट में चावा हा। भैरजी रचित करनीजी रो चित इल़ोल गीत तो इतरो लोकप्रिय है कै सैंकड़ू जणां रै कंठाग्र है-

सबल़ तोरो देख सरणो, ओट लीधी आय।
भणै यूं कर जोड़ भैरूं, पड़्यो रैसूं पाय।
तो महमायजी महमाय, मोपर महर कर महमाय।।

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इयां मरै को नीं भाऊ!!

एक’र पोकरण रै आसै-पासै भयंकर काल़ पड़ियो। काल़ नै तो कीकर ई कूटर काढणो पड़सी! आ विचार नै अठै रा दो आदमी सिंध ग्या।

सिंध रै किणी गांम में पूगा, उठै उणां देखियो कै किणी धायै घर री बहुआरी गूंघटै में आपरै फल़सै रै बारलै वल़ा फूस बुहार रैयी है।

एक आदमी बोलियो ‘भइया कोई ओसाण करां ! जिको झांकल़ री ठौड़ हुवै!!’
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कहां वे लोग, कहां वे बातें ?

।।18।।
गुण नै झुरूं गंवार!

महात्मा ईशरदासजी बारठ ने कितना सटीक दोहा कहा था कि-

नेह सगा सोई सगा, तन सगा ना होय।
नेह विहूणी ईसरा, करै न सगाई कोय।।

अर्थात स्नेह ही सगे होने का आधार है। इसके उदाहरण प्रहलाद-हिरणाकश्यप-होलिका, व कंस-उग्रसेन आदि को हम देख सकते हैं, जिन्होंने सगे होते हुए भी अपनों के साथ क्या व्यवहार किया था[…]

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देगराय रा छंद

।।छंद-रैंणकी।।
मामड़ घर मात अवतरी महियल़,
सात रूप इक साथ सही।
चारण कुल़ विमल़ कियो इल चहुंवल़,
रूप दुहीता धार रही।
ओपै इणभांत सदन तव आयल,
तेज दोयदश भांण तपै।
साची सुरराय स्हाय नित सेवग, देगराय महमाय दिपै।।1[…]

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तीनूं ताल़ा दे गया

गाय वैसे तो पूरे भारत के लिए श्रद्धा का कारण रही है लेकिन राजस्थान के संदर्भ में बात करें तो हमें विदित होता है कि मध्यकाल में यहां गौ रक्षार्थ युद्ध तो लड़े ही गए साथ ही चारण देवियों ने अपनी अथवा अपने समग्र गांव के गौधन की रक्षार्थ जमर की ज्वाला में अपने आपको समर्पित कर इतिहास में नाम अमर कर दिया। ऐसी ही कहानी है हड़वेचा गांव की सुअब माऊ की।

आजसे लगभग 250वर्ष पूर्व की बात है। हड़वा व हड़वेचा गांव की सीमा पर जहां अभी सुरलाई नाडी स्थित है, वहां पर सुअब माऊ ने जमर कर अन्याय व अत्याचार का प्रतिकार करते हुए एक उज्ज्वल इतिहास रचा था।[…]

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फिर मैं जीवित रहकर क्या करूंगी?

19वीं सदी का उत्तरार्द्ध व 20वीं सदी का पूर्वार्द्ध का समय संक्रमणकाल था। इस दौर में राजाओं की सत्ता पर पकड़ शिथिल पड़ गई थी। क्योंकि उस समय के शासकों का ध्यान या तो आमोद-प्रमोद में लगा रहा या घातों-प्रतिघातों से बचाव में संलग्न रहा। जिससे मातहत लोगों ने दूरदराज के क्षेत्रों में अपनी मनमर्जी से क्षेत्राधिकार से बाहर जाकर अपने अधिकारों का दुरपयोग किया।

छोटे-छोटे अधिकारियों ने सामान्य जनता पर इस कद्र कहर ढ़ाया जिसके विरोध स्वरूप शिव (मारवाड़) के हाकिम के खिलाफ जनहितार्थ व अपने स्वाभिमान की रक्षार्थ तीन चार चारणों देवियों ने जमर कर अपना विरोध दर्ज करवाया।
उन देवियों की लोकहितैष्णा को जनसाधारण ने असाधारण रूप से अपने कंठों में संजोये रखा। ऐसी ही एक कहानी है हड़वेचा गांव की करमां माऊ के जमर की।[…]

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मैं हड़वेची बैठी हूं ना!

[…]जब यह बात जोमां की मा ने सुनी तो उन्होंने कहा कि-
“मैं हड़वेचा आई हुई हूं, जाई नहीं। जमर मैं नहीं करूंगी जमर मेरी बेटी जोमां करेगी। वो भी तो तो इसी उदर में लिटी है। ”

जब यह बात जोमां ने सुनी तो उन्होंने कहा कि-
“मिट्टी लेने के लिए हड़वेचा जाने की क्या आवश्यकता है? मैं खुद साक्षात हड़वेची यहां बैठी हूं तो फिर वहां जाने की क्या आवश्यकता है? वैसे भी हड़वेची मैं हूं मेरी मा नहीं! अतः जमर मेरी मा क्यों करेगी ? जमर तो मैं करूंगी।[…]

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मध्यकालीन राजस्थानी काव्य में रामभक्ति परंपरा

….कविवर हमीरजी रतनू के शब्दों में–
कह तपनीय पीतरंग कुरमदन, जातरूप कल़धोत जथा।
लाख जुग लग काट न लागै, कल़ंक न लागै रांम कथा।।
इस काट रहित कथा को आधार मानकर राजस्थानी कवियों ने राम महिमा और नाम निर्देशन का जो सुभग संदेश जनमानस को दिया है उनमें मेहारामायण (मेहा गोदारा), रामरासो (माधोदास दधवाड़िया) दूहा दसरथराउत रा (पृथ्वीराज राठौड़), रामरासो (सुरजन पूनिया), रामरासो रसायन (केसराज), रामरास (रूपदेवी), रामसुयश (केसोदास गाडण), रुघरास (रघुनाथ मुंहता) भक्तमाल (ब्रह्मदास बीठू), रुघनाथ रूपक (मंछाराम सेवग), रघुवर जस प्रकाश (किसनाजी आढा), के साथ नरहरिदास बारठ, पीरदान लाल़स प्रभृति नाम गिनाएं जा सकते हैं….

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मेरे वचनों की आबरू

पश्चिमी राजस्थान में गौधन की रक्षार्थ जितने प्राण इस धरा के सपूतों ने दिए हैं, उतने उदाहरण शायद अन्यत्र सुनने या पढ़ने में नहीं आए। बांठै-बांठै के पास अड़ीखंभ खड़ी पाषाण मूर्तियों के निर्जीव उणियारों पर स्वाभिमान व जनहितैष्णा-पूर्ति की आभा आज भी आलोकित होती हुई दिखाई देती है।
इस इलाके की अगर हम सांस्कृतिक यात्रा करें तो हमें ऐसे-ऐसे नर-नारियों के निर्मल चरित्र को सुनने का सौभाग्य प्राप्त होता है जिनका नामोल्लेख किताबों में नहीं मिलता।
ऐसी ही एक अल्पज्ञात कहानी है ऊजल़ां की हरखां माऊ की।[…]

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