पुस्तक समीक्षा – विडरूपता अर विसंगतियां रै चटीड़ चेपतो : ‘म्रित्यु रासौ’

यूं तो शंकरसिंह राजपुरोहित साहित्य री केई विधावां में लिखै पण इणां री असली ओळखाण अेक नामी व्यंग्य लेखक रै रूप में बणी। इणां रो पैलो व्यंग्य-संग्रै ‘सुण अरजुण’ बीसेक बरसां पैली छप्यो। औ व्यंग्य-संग्रै राजस्थानी साहित्यिक जगत में आपरी जिकी लोकप्रियता बणाई वा इणां रै समवड़ियै लेखकां नैं कम ई मिली। अबार शंकरसिंह राजपुरोहित जको व्यंग्य-संग्रै चर्चित है उणरौ नाम है- ‘म्रित्यु रासौ’।
‘म्रित्यु रासौ’ में कुल बीस व्यंग्य है। बीसूं ई व्यंग्य अेक सूं अेक बध’र अवल। बीसूं ई व्यंग्यां में मध्यम वर्ग री अबखायां अर भुगतभोगी यथार्थ जीवण रो लेखो-जोखो है तो दोगलापण, विडरूपतावां, देखापो, भोपाडफरी, छळछंद, पाखंड, अफंड आद रो सांगोपांग भंडाफोड शंकरसिंह राजपुरोहित कर्यो है।[…]

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लोक में आलोक के कवि डॉ आईदानसिंह भाटी

जैसलमेर के रेतिले गांव ‘ठाकरबा’ में जन्मे डॉ आईदानसिंह भाटी भले ही एक जाने-माने आलोचक और एक प्रखर कवि के रूप में समादृत हैं परंतु सही मायने में ये आज भी शहरी चकाचौंध में गंवई संस्कृति के प्रबल पैरोकार, संस्कारों को अपने में जीने वाले संजीदा इंसान के रूप में भी अपनी अलग पहचान रखतें हैं। वर्षों महाविद्यालयों में अध्यापन कराने व शहरी वातावरण में रहने के बावजूद भी गांव इनके जहन से निकल नहीं पाएं हैं। आज भी गांवों की आत्मीयता, अनौपचारिकता, बेबाकी, खुलापन, सहजता तो परिलक्षित होती ही है, साथ ही भाव व भाषा को भी पूरी शिद्दत के साथ अपनी पहचान बना रखा है।[…]

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एक दोहे ने कर दिया राव खेंगार का हृदय परिवर्तन

एक ऐतिहासिक घटना हेमचंद्राचार्य ने अपने ग्रंथ में अहिंसा के संदर्भ में लिखी है कि जूनागढ़ के चुडासमा शासक राव खेंगार प्रथम शिकार के बहुत शौकीन थे। इसलिए वे जीव हत्या भी बहुत किया करता थे। एक समय वे शिकार करने निकले। अपने लवाजमे सहित जूनागढ़ से बहुत आगे निकल गए एवं उनका लवाजमा काफी पीछे छूट गया और स्वयं काफी आगे निकल गए। अकस्मात एक हरिण पर उनकी नजर पड़ी तब भाला लेकर उसके पीछे घोड़ा दौड़ाया लेकिन हरिण के नजदीक पहुंच नहीं सके। हरिण तेज गति से दौड़ कर आगे निकल गया। तब राव खेंगार दोपहर तक पीछा करते हुए एक ऐसी जगह पहुंचे जहां आगे दो मार्ग आए, राव जूनागढ वाले मार्ग से आए। आगे दो मार्ग और निकले। उन तीन मार्गों के संगम पर बबूल का पेड़ था जिस पर ढुमण चारण बैठे थे। वहां राजा ने उन्हें देखा तब उनसे कि कहा अरे भाई! मेरा शिकार हरिण इन दो मार्गों में से कौनसे मार्ग पर गया है?[…]

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वीरता किणी री बपौती नीं हुवै!!

डिंगल़ रा सुविख्यात कवि नाथूसिंहजी महियारिया सटीक ई कह्यो है-

जो करसी जिणरी हुसी, आसी बिन नू़तीह!
आ नह किणरै बापरी, भगती रजपूतीह!!

अर्थात भक्ति अर वीरता किणी री बपौती नीं हुवै, ऐ तो जिको करै कै बखत माथै बतावै उणरी ईज हुवै। इणमें कोई जाति रो कारण नीं है। इण बात नै आपां दशरथ जाम (मेघवाल) री गौरवमयी बलिदान गाथा कै जोगै मेहतर री वंदनीय वीरता कै गोविंद ढोली रै अतोल त्याग कै झोठाराम पन्नू (मेघवाल़) रै बाहुबल़ री बातां रै मध्यनजर समझ सकां।[…]

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स्वातंत्र्य चेतना के प्रखर चिंतक: कविराजा बांकीदासजी आशिया

साहित्य की परिभाषा ही सब का हित संधान करने वाली होती है तो फिर इसका सृजक चाहे वो किसी भी जाति, समुदाय अथवा धर्म का क्यों न हो वो व्यष्टिपरक हितसंधान की बात कैसे सोच सकता है? क्या कबीर, रहीम, ईशरदास बारहठ आदि मनीषी केवल अपने धर्म तक ही सीमित रहे या उन्होंने उस क्षुद्र बंधनों को तोड़ा!!

इसी बात को मध्यनजर रखकर मैंने कविराजा बांकीदासजी आशिया को अनेकों बार पढ़ा। जब हम डिंगल कवि के बतौर बांकीदास जी को पढ़तें हैं तो जो आरोप डिंगल कवियों पर लगाए जाते रहें हैं वे सारे के सारे निर्मूल सिद्ध होते हैं।[…]

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करणीजी रा  छप्पय

बसुधा बीकानेर, जको जग जाहर जांणै।
सको इल़ा नम सेव, देव राजो देसांणै।
मगरै में महमाय, दाय कीधी दासोड़ी।
तूं राजै थल़राय, जेथ नवलख जुथ जोड़ी।
समरियां सदा आवै सगत, लाखी ओढण लोवड़ी।
दासोड़ी दास गिरधर दखै, मया रखै तूं मावड़ी।।1[…]

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डूंगरराय री आरती

ऊँ जय मामड़याल़ी मा जय मामड़याली।।
चारण वंश उजाल़ण चंडी,
पाल़ण प्रतपाल़ी।
आवड़ रूप अवतरी अंबा,
सातूं सतवाली।।
ऊँ जय मामड़याल़ी।।१[…]

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ईसाणंद म्हारा आदेश

आसा ईशर अवन उण, प्रगट्या मोटा पात।
भोम अहो भादरेस री, विमल़ चहुदिस बात।।

।।गीत वेलियो।।
आयो कुळ जात उजाळण अवनी
भायो भोम नमो भादरेस,
सूरै भाग सरायो सारां।
ईसर पायो पूत आदेस।।1[…]

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पुस्तक समीक्षा – पखापखी विहुणी निरख-परख

साहित्य सिरजण रै सीगै बात करां तो सगल़ां सूं अबखो अर आंझो काम है आलोचना रो। आलोचना रै पेटै काम करणियो नामचीन ई हुवै तो बदनाम ई। इण छेत्र में तो वो ई काम कर सकै जिणरै मनमें “ना काहू सों दोस्ती, ना काहू सों बैर “री भावना हुवै। हकीकत में आज इणरै ऊंधो हुय रह्यो है, आज तो आलोचना ई मूंडो काढर तिलक करण री परंपरा में बदल़ रह्यी है।
राजस्थानी आलोचना री बात करां तो आपां रै सामी आलोचकां रा नाम कमती अर पटकपंचां रा नाम ज्यादा अड़थड़था लखावै। यूं भी आलोचना करणो कोई बापड़ो विषय नीं है जिको हर कोई धसल़ मार देवै। आलोचना करणो खांडै री धार बैवणो है। जिण खांडै री धार माथै सावजोग रूप सूं बैवणो सीख लियो वो आलोचना रै आंगणै आपरी ओपती ओल़खाण दिराय सकै कै थापित कर सकै।[…]

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छंद करनीजी रा

।।छंद – रोमकंद।।
दुसटी कल़ु घोर हुवो दुख देयण, रेणव जात सुमात रटी।
महि गांम सुवाप पिता धिन मेहज, पाप प्रजाल़ण तूं प्रगटी।
इल़ जात उजाल़ण पातव पाल़ण, बात धरा पर तो वरणी।
धिन लोहड़याल़िय लाल धजाल़िय, तूं रखवाल़िय संत तणी।।1

प्रजपाल़ तुंही सरणाणिय पोखण, रोकण राड़ बिगाड़ रसा।
सबल़ापण हाकड़ धाकड़ सोखण, जोगण काज बखांण जसा।
जुध मांय अरी सिर वीजड़ झोखण, हेकण हाथ जमात हणी।
धिन लोहड़याल़िय लाल धजाल़िय, तूं रखवाल़िय संत तणी।।2[…]

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