अठै तो नानोसा री पगरखियां रुखाल़ूं !!

मारवाड़ में चारणां आऊवा री धरा माथै गोपाल़दासजी चांपावत रै संरक्षण में ‘लाखा जमर’ कियो-

आवधां बांध खटतीस अंग, भुजां लाज सबल़ां भल़ी!
रेणवां कनै गोपाल़ रा, बैठा आयर महाबल़ी!!
–खीमजी आसिया

इण जमर पछै, जिका चारण बचिया उणांनै अर गोपालदासजी नै महाराजा रायसिंहजी(बीकानेर) बीकानेर बुला लिया-

रायसिंघ बीकाण, पटो दीनो भुज पूजै।
सब्बां पायो सुक्ख, धरा वंकां सत्र धूजै।।
–खीमजी आसिया

उण बगत मारवाड़ सूं जितरा ई चारण आया उवै सगल़ा बीकानेर सूं सींथल़ आयग्या अर छवूं महीणां तक सींथल़ रै बीठवां रा मूंघा मेहमाण बणर रैया। ऊभी फसल़ां में उण मेहमाणां रा घोड़ा अर ऊंठ चरता पण कोई चूंकारो ई करलै किसी पोली पड़ी है! इण चारणां रै भेल़ा उण बगत रै मोटै मिनखां में शुमार दुरसाजी आढा ई भेल़ा हा। दुरसाजी री महत्ता आपां लक्खाजी बारठ रै इण एक दूहै सूं समझ सकां-

दुरसा डूंगरड़ैह, कुण काला छाया करै!
आढा आपांणैह, मेहर करीजै मेहवत!!

सींथल़ री भेल़प, भाईचारो अर अतिथि सत्कार री भावना सूं अभिभूत होय र कवि श्रेष्ठ दुरसाजी उण बगत कैयो –

सींयां हमीरां सांगटां, मिल़ियै जाझै मांम।
सांसण सींथल़ है सिरै, बीसासौ विसरांम!!

ऐड़ी किंवदंती है कै उण बगत सींथल़ चारणां रो सबसूं मोटो अर समरथ गांम हो, जठै आढां नै छोडर लगै-टगै चारणां री सगल़ी जातां निवास करती। रात रा जाजम माथै छंदां री छटा अर बातां रा विनाण सुणणजोग होवता। उण बगत सींथल़ में खी़वजी बीठू मौजीज अर ठावकै मिनखां में। प्रज्ञा चक्षु पण मेधा रा धणी। उणां री एक बेटी भालेरी रै आढां में परणायोड़ी सो बा बाई आपरै पिहर आयोड़ी। सांझ होई, खी़वजी कोटड़ी जावण रो विचार कियो अर आपरै दोहीतै नै हेलो कियो कै ‘आव भाणूं कोटड़ी हालां!’

कोटड़ी पूगर खींवजी आपरै दोहीतै नै कैयो कै ‘भाणूं !अठै भीड़ घणी है सो कोई नानैजी री पगरखी पोल में घसका नीं ले! सो तूं हुंसयार है! नानोसा री पगरखियां कन्नै ई बैठजा!’

विचारो आढो नानोसा री पगरखियां कन्नै ई बैठग्यो। हथाई जमी। दुरसाजी, खींवजी नै कैयो ‘हुकम! आपरै अठै बाकी तो सगल़ा चारण बसता होवैला पण आढा नीं है!

खींवजी कैयो ‘आढा तो है ही अठै! इणमें संशय री कांई बात है?’

दुरसाजी कैयो ‘कठै आढो? म्हारै सूं कोई मिल़ियो नीं, नीं इतै दिनां में देखण में आयो!’

खींवजी कैयो ‘अरे धणियां! अठै आढो कठै लाधेलो? आढो तो कठै ई पगरखियां कन्नै लाधोलै!’

दुरसाजी इचरज सूं पूछियो ‘कांई फरमायो? आढो पगरखियां कन्नै? हालो बतावो!’

खींवजी कैयो ‘पधारो मिलाय दूं!’

भाईसैण उठर बारै आया। आगे देखे तो एक आठ-नौ वरसां रो एक टाबरियो आपरी मसती में पगरखियां सूं रमै हो। दुरसाजी इचरज सूं उण टाबरिये नै पूछियो ‘भाऊ कुण है तूं?’

उण जाब दियो ‘आढो हूं हुकम!’

‘अठै कांई कर रैयो है?’ दुरसाजी पूछियो।

उण जाब दियो कै ‘हुकम! आपनै दीसै नीं!! म्है तो, म्हारै नानोसा री पगरखियां रुखाल़ रैयो हूं!’

दुरसाजी पूरो माजरो समझग्या।

~~गिरधर दान रतनू दासोड़ी

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