सूरां मरण तणो की सोच?

सूरां मरण तणो की सोच?
वीर को मृत्यु की क्या चिंता?

संदर्भपहलगाम में गोली के भय से कलमा पढ़कर प्राण बचाने के संदर्भ में

मैं आथूणै राजस्थान का निवासी हूं। जहां पग-पग पर ऐसे नर-नाहरों की पाषाण पूतलियां स्वाभिमान से सिर ताने खड़ी है, जिन्होंने धर्म, धरती, गौरक्षा और स्त्री सम्मान की रक्षार्थ सिर कट जाने पर भी रणांगण में शत्रुओं का संहार करते रहे। उन्होंने मृत्यु के आगत भय से धर्म की ध्वजा को नहीं छोड़ा‌‌। उन्होंने मरणा श्रेयष्कर समझा पर दूसरे धर्म का कलमा पढ़ना स्वीकार नहीं किया। उन्होंने स्पष्ट उद्घोषणा की कि-

धर छूटै लूटै धर्म, ग्रह कटक्कै गाय।
उण वेऴा नर आऴसै, कुऴ छत्री न कहाय।।

इन दिनों सोशल मीडिया पर एक खबर पढ़ने को मिल रही है कि पहलगाम में आतंकवादियों के समक्ष एक प्रोफेसर महोदय ने कलमा पढ़कर अपने प्राण बचाए। उन्होंने यह बात स्वयं ही बताई कि ‘मैंने अपने प्राण कलमा पढ़कर बचाए।’ उनकी यह भीरूता से भरी सूचना को पढ़कर मन व्यथित हो गया‌। आपको मेरी बात असंवेदनशीलता से भरी लग सकती है तो साथ ही आपको मेरी बात मानवता के विरुद्ध भी लग सकती है। लेकिन क्या करूं ? मैंने उन क्षत्रिय वीरों का इतिहास पढ़ा है, जिन्होंने कलमा पढ़ने से श्रेयष्कर मरना मानकर कहा-

ज़मी घरां सूं जाय, तिल न जोखो तिकण रो।
मोटो धोखो माय, जाय धरम हे जोगणी।।
पासै न पासीह, ससत्र न हाथै मर सकूं।
कालै करवासीह, सुनत रा दसतुर सह।।

अगर वे ऐसे भय के समक्ष कलमा पढ़ते तो आज हमें यह शब्द अपना ही लगता पराया नहीं। लेकिन उन वीरों ने कलमा नहीं पढ़ा-

धज मंदिर हिंदू धरम, सदग्रंथ वेद सैनाण।
मारहठै साबत मही, रंग रखिया शिव राण।।

मुगल काल में ऐसे कई वीरों के उदाहरण इतिहास व काव्य के पृष्ठ पर अंकित है कि मुगल आतंकियों की तलवार के भय से हमारे क्षत्रिय सुभटों ने न तो धर्मांतरण किया और न ही कलमा के अपवित्र शब्दों को अपनी जीव्हा से उच्चरित किया।
जो लोग कहते हैं कि हमारे में और क्षत्रियों में क्या अंतर है?उन बंधुओं से मैं एक दो बातें साझा करूंगा‌। इसे आप क्षत्रियों की प्रशंसा न माने और मानते भी हैं मान लें। क्योंकि किसी के गुणों को अनुभूत करके व्यक्ति उसके गुणों का प्रशंसक नहीं हो सकता तो आप निश्चित मानिए वो कृतघ्न ही होगा। हम तो गुणों के पूजारी रहें है-

गुण नै झुरूं गंवार, जात न झींकूं जेठजी।
हे जेठ! मैं तो गुणों को याद करके रो रही हूं न कि किसी व्यक्ति को याद करके।

मध्यकालीन बात है। जोधपुर पर महाराजा जसवंतसिंहजी प्रथम का राज्य था‌‌। दिल्ली पर आततायी औरंगजेब शासन कर रहा था। परिस्थितियां वश महाराजा उनके मनसबदार थे। लेकिन जबतक वे जिंदा रहे। औरंगजेब धर्म देवालयों को तोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा सका। खैर।

महाराजा के एक ठाकुर थे जगराम सिंहजी उदावत निमाज। उनके एक पुत्र का नाम था कुशलसिंहजी। कुशलसिंहजी को विधाता ने रूप, बाहुबल व बुद्धि चातुर्य का संयोग एक साथ दिया था। एक दिन जगराम सिंहजी अपने किशोर पुत्र कुशलसिंहजी के साथ औरंगजेब के दरबार में उपस्थित हुए। जैसे ही बादशाह ने उस किशोर को देखा। एकटक उन्हें देखता ही रहा। उनकी मुखाकृति, आंखों की निश्छलता, व आत्मविश्वास को देखकर उसकी कुटिलता जाग पड़ी। उसने कुंवर को अपने पास बुलाया और कहा ‘कुशला! तूं तो आज ही कलमा पढ़ लें और मेरे धर्म में आजा। तुझे जो चाहिए वो मांग।’

इतना सुनते मानो किसी ने सो रहे सिंह के डोका लगा दिया हो। उन्होंने कहा ‘जहांपनाह! धर्म ही कोई छोड़ने की चीज है? यह तो तो मां की कुक्षि से धारित होकर जन्मघूंटी के साथ दृढ़तर होता है। इसे तो कोई मरे हुए जमीर वाला ही छोड़ सकता है। जो भय से कलमा पढ़ लें उसकी फिर समाज में प्रतिष्ठा ही क्या है?

सत मत छोडो हे नरां, सत छोड्यां पत जाय।
कोड़ मोल रो मानवी, कवडी सटै बिकाय।।

राजपूत का धर्म ही यह है कि वो धर्म की रक्षा हर स्तर तक करें।’

बादशाह समझ गया कि सीधी अंगुली से घी निकलने वाला नहीं है। अंगुली टेड़ी करनी पड़ेगी।

बादशाह ने कहा ‘मैं तुझे कोई मुफ्त में कलमा पढ़ने का थोड़े ही कह रहा हूं‌? तेरी इच्छा पर मेरा धर्म मान। तुझे मनमाफिक धन दिया जाएगा‌।’

यह सुनते ही कुशलसिंहजी ने कहा कि ‘मेरे लिए ऐसा धन धूड़ है। धर्म कोई भला बेचने की वस्तु है! मनुष्य जन्म एकबार ही मिलता है। फिर धन कौन-सा मरने पर साथ चलता है? जब मिनख का धर्म घटता है तो फिर सब कुछ घट जाता है-

धरम घटायां धन घटै, धन घट मन घट जाय।
मन घटियां महमा घटै, घटत घटत घट जाय।।’

बादशाह ने उन्हें डराते हुए कहा कि ‘या तो कलमा पढ़ अन्यथा यह कटार तेरा कलेजा विर्दीण करते हुए निकल जाएगी।’

यह सुनकर कुशलसिंह ने कहा की ‘धर्म की रक्षार्थ मैं मृत्यु को तुच्छ मानता हूं। फिर मैं धर्म बेचकर यह मुंह कहां दिखाऊंगा? संसार जानता है कि लज्जा विहीन मनुष्य जीवित ही मरे जैसा है। इसलिए तो कहा गया है कि-

सिर जाज्यो सौ नाक सूं, नाक न जाज्यो चक्ख।
पाणी पुटक न जावज्यो, लोही जाज्यो लक्ख।।’

इस पूरे वार्तालाप को डिंगल के विख्यात कवि व अपने समय के वीर पुरुष केशरीसिंह जी बारठ रूपावास ने अपने एक गीत में लिपिबद्ध कर अमरता प्रदान कर दी।

केशरीसिंहजी लिखते हैं कि बादशाह ने तलवार निकालकर कुशलसिंह से पूछा कि ‘तुझे प्रण प्यारा है या प्राण? इस पर उस उदावत वीर ने कहा कि ‘मुझे प्रण प्रिय है। क्योंकि जो मनुष्य अभक्ष्य भोजन करके अपने प्राण बचाता है, उसे मैं धिक्कार भेजता हूं‌। क्योंकि वो तो जीवित ही मरे के समान है। आज तक धर्म त्यागने वाला इस धरती पर अमरता को प्राप्त नहीं कर सका। तो वीर को मरने से कैसा भय ? यह तो शाश्वत सत्य है कि मृत्यु तो एक दिन सभी की आनी है। मैं गाय, ब्राह्मण को पूजने वाला और राम नाम का स्मरण करने वाला हूं। अतः मैं किसी भी स्थिति में मक्का की सेवना व कलमा का जाप नहीं कर सकता‌।’

आगे कवि लिखता है कि धर्म के प्रति इतनी दृढ़ता, और आत्मविश्वास को देखकर बादशाह के खांचे ढीले पड़ गए। उसने धर्मरक्षक वीर की प्रशंसा की।

उस अमर रचना के दो-तीन पद्य उदाहरण स्वरूप रखना समीचीन समझता हूं-

बिजड़ ग्रह ओरंगजेब बोलियो,
जाणै किर रूठो जमराण।
कुशल़ा वाल्हा हुऐ जिकूं कहि,
प्रण राखिस कै राखिस प्राण।।
पूजूं गाय ब्रह्म हूं पूजूं,
सिर जावतै मको सहूं।
जिण मुख राम नाम म्हैं जपियो,
कलमा जिण मुख नोज कहूं।।
दुभर पैस रतनसी दूजो,
वडा विरद खाटै लघुवेस।
ईजत धरम सहत आंपाणै,
कुशऴै घर आयो कुशऴेस।।

इसी प्रकार मध्यकालीन एक बात का एक उदाहरण दे रहा हूं।

बाड़मेर की धरा पर सिंध के मुस्लिम लुटेरों ने अपने आतंक से यहां की जनता को भयभीत कर रखा था। ऐसे में महाराजा मानसिंह जी ने कुड़की ठाकुर बहादुर सिंहजी चांदावत को गिराब का हाकिम बनाकर भेजा। उनका एक पैर कमजोर था। इसलिए वे खोड़ा राठौड़ के नाम से प्रसिद्ध थे। उन्होंने उन आतंकियों का वो हाल किया कि उनके नाम से उनमें सिहरन पैदा हो जाती थी। एक बार उन आतंकियों में से एक आतंकी की मां ने उन्हें बहला फुसलाकर भेजा कि मुझे स्वप्न आया है कि ‘बहादुरा मर गया।’ वे लोग उस बुढ़िया के स्वप्न को सच मानकर लूटपाट करने आए। बहादुर सिंहजी की निगरानी में आते कुछ पकड़े गए और दो-तीन भागकर वापस सिंध पहुंचे। सुबह का समय था। सर्दी का मौसम था। बुढ़िया अलाव पर तप रही थी। जैसे उसने अपने लुटेरों को देखा तो चहककर लूटके समाचार पूछने लगी‌। बचकर आने वाले में से एक ने कहा कि-‘डोकरी तूं झूठ बोल रही थी। वो मरा नहीं है अपितु हमारे जो आदमी पकड़े गए हैं, बेचारे वो मरेंगे।’ यह सुनते ही बुढ़िया तमतमाकर बोली। ‘जाओ रे!मेरा दूध लज्जा दिया, ऐसा बहादुरा में क्या है?’

यह सुनकर एक लुटेरे ने कहा ‘अम्मा ! हमारी मां और बहादुर की मां में अंतर है। ‘ यह सुनते ही बुढ़िया को क्रोध आ गया। उसने पूछा कि ‘ क्या अंतर है?’ उस समय उस लुटेरे ने अलाव पर ठोकर मारी जिससे एक खीरा उछला और डोकरी के पैर को छूते हुए दूर गिरा। उस उछलते खीरे के भय से डोकरी तपाक उठी और गालियां बकते हुए बोली कि ‘मूर्ख अभी मुझे जला देता। ‘ यह सुनते ही उस लुटेरे ने कहा कि ‘अम्मा तेरे और बहादुर की मां में यही अंतर है। तूं एक चिनगारी से डरकर उछली और दूर जा खड़ी हुई। पर जब बहादुर का पिता मरा तब बहादुर की मां उसके साथ अग्नि का वरण कर स्वर्ग पहुंची थी।

हम इस तरह कलमा पढ़ने लग गए तो फिर हमारा धर्म बचेगा कैसे? इस धर्म को बचाने वाले महाराजा कर्णसिंहजी बीकानेर, दुर्गादासजी राठौड़, गोकला जाट, गुरु तेग बहादुर, छत्रपति शिवाजी जैसे अनेक वीरों की आत्मा हमें स्वर्ग से लख लानत भेज रही होगी कि ‘तुम्हें यही करना था तो हमें बलिदान देने की क्या आवश्यकता थी?

~गिरधर दान रतनू दासोड़ी

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