चारण साहित्य का इतिहास – पहला अध्याय – विषय प्रवेश
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(१) – राजस्थान की महत्ता:
राजस्थान भारत का एक महान प्रांत है। शासन एवं राजनीति की दृष्टि से इसकी सीमायें समय-समय पर बनती बिगड़ती रही हैं जिसका प्रभाव यहां के जन-जीवन पर भी पड़ता आया है। वर्तमान राजस्थान भूतपूर्व देशी राज्यों को मिला कर बनाया गया है। यह पहले राजपूताना के नाम से विख्यात था। यहां जिन राजा महाराजाओं का शासन रहा है, वे अधिकांश में राजपूत थे। सर्व-प्रथम जार्ज टामस ने इस नाम का प्रयोग किया था (१८०० ई०) तदनन्तर कर्नल टाड ने राजस्थान शब्द का प्रयोग किया (१८२९ ई०) स्वतंत्रता प्राप्ति के अनन्तर बिखरे हुए विभिन्न राज्यों को मिला कर एक संयुक्त राज्य बनाया गया जिसे आजकल राजस्थान कहते हैं।
(क) भौगोलिक: राजस्थान भारत के उत्तर-पश्चिमी भाग में स्थित है। सीमावर्ती राज्य होने से इसकी स्थिति राजनैतिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यह २३’ ३’ से ३०’ १२’ उत्तर अक्षांश एवं ६९’ ३०’ से ७८’ १७’ पूर्व देशान्तर के मध्य है। इसका आकार विषम-कोण चतुर्भुज के सदृश है। पूर्व से पश्चिम तक इसकी सबसे अधिक लंबाई ५४० मील, उत्तर से दक्षिण तक की चौड़ाई ५१० मील एवं क्षेत्रफर्ल १, ३२ २२७ वर्ग मील है। इसके उत्तर में पंजाब, पूर्व में उत्तर-प्रदेश एवं मध्य-प्रदेश, दक्षिण में मध्य-प्रदेश एवं गुजरात राज्य और पश्चिम में पाकिस्तान हैं।
राजस्थान को मरुस्थल समझ बैठना अनुचित है। इसके भीतरी भागों एवं स्थानों का पर्यटन करने पर कहीं पहाड़, कहीं मैदान, कहीं मरुस्थली एवं कहीं पठार मिलेंगे। इसकी प्राकृतिक रचना पृथक-पृथक होने से जलवायु, वर्षा, वनस्पति एवं धंधों में असमानता है। इसके मध्य में आडावळा पर्वत उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम तक फैला हुआ है। उत्तर-पश्चिम में बहुत दूर तक रेतीली भूमि है, जहां वर्षा की न्यूनता के कारण मरुस्थल है। अरावली के उत्तर-पूर्व में समतल मैदानी भाग है जो उपजाऊ है। दक्षिण-पूर्वी भाग में हाड़ौती का पठार है।
राजस्थान में अनेक जातियां निवास करती हैं जो स्थूल रूप से दो भागों में विभक्त हें-हिन्दू एवं मुसलमान। हिन्दुओं में ब्राह्मण, राजपूत, महाजन, कायस्थ, चारण, भाट, दरोगा, सुनार, दर्जी, लुहार, सुथार, कुम्हार, माली, नाई, धोबी, जाट, गूजर, मेर, कोली, घांची, कुनबी, बलाई, रेगर, भांबी, महतर आदि अनेक जातियाँ हैं। पर्वतीय भागों में गिरासिये, मीने, भील, भोगिये, बावरी, सांसी, आदि हैं। ये लोग बटोहियों को लूटने के लिए कुख्यात हैं किन्तु आजकल कृषि की ओर ध्यान दे रहे हैं। मुसलमानों में शेख, सैय्यद, मुग़ल एवं पठान मुख्य हैं। इनके अतिरिक्त रंगड़, कायमखानी, मेव, खानजादे, सिलावट, रंगरेज, जुलाहे, घोसी, भिश्ती, कसाई आदि हैं। शिया फिर्क़े के मुसलमानों में बोहरे भी हे, जो प्राय: व्यापार करते हैं। कुछ ईसाई, सिक्ख एवं पारसी भी हैं। विभाजन-काल में यहां से बहुत कम मुसलमान पाकिस्तान गये हैं किन्तु वहां से सिंधी एव पंजाबी बड़ी भारी संख्या में यहां आकर बस गये जिनमें सभी जातियों के लोग हैं। इनके यहां जम जाने से जनसंख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। राजस्थान की कुल जन-संख्या २,०१,४६,०४३ है। (पुस्तक लिखने के वर्ष १९७७ में)
किसी प्रान्त की भौगोलिक स्थिति का प्रभाव वहां के निवासियों के रहन-सहन, डील-डौल, रंग-रूप एवं खान-पान पर पड़ता ही है। राजस्थान की प्राकृतिक रचना ने यहां के मनुष्यों को स्वभाव से ही वीर एवं साहसी बनाया है। वे अपने जीवन में कठोरतम परिस्थितियों का सामना करने के लिए सदैव कटिबद्ध रहे हैं। जितना अधिक रण-कौशल यहां के योद्धाओं ने दिखाया, उतना और किसी ने नहीं। अत: इस धरती का नाम लेते ही राजपूत वीर का चित्र हमारे सामने उपस्थित हो जाता है। कर्नल टाड ने ठीक ही लिखा हैं—“राजस्थान में कोई छोटा राज्य भी ऐसा नहीं है जिसमें थर्मोपली जैसी रणभूमि न हो और शायद ही कोई ऐसा नगर मिले जहां लियोनिडास के समान मातृभूमि पर बलिदान होने वाला वीर पुरुष उत्पन्न न हुआ हो।”
(ख) ऐतिहासिक: भू-गर्भवेत्ताओं का कथन है कि राजस्थान रामायण-काल के पूर्व समुद्री जल से ढका हुआ था। महाभारत के समय इसका उत्तरी भाग जांगल एवं पूर्वी भाग मत्स्य प्रदेश कहलाता था। यहीं पर पांडवों ने गुप्त वेश में एक वर्ष व्यतीत किया था। महाभारत के युद्ध से लेकर ई० ३२१ वर्ष पूर्व तक का इतिहास नितांत अंधकारमय है। इसके पश्चात् मौर्य-वंश के प्रसिद्ध राजा चंद्रगुप्त एव उसके पौत्र सम्राट अशोक का समय आता है, जिसका इस प्रान्त पर भी अधिकार होना प्रकट होता है। जयपुर राज्य के वैराट (विराट) कस्बे से अशोक के दो शिलालेख मिले हैं (ई० सन् २५० वर्ष पूर्व) जब यूनानी (ग्रीक) लोगों ने उत्तर-पश्चिम से भारत पर आक्रमण किया, तब मिनेंडर नामक नरेश ने मध्यमिका नगर (चित्तौड़गढ़ के पास) पर भी अपना आधिपत्य स्थापित किया था। यूनान के दो राजाओं-एपोलोडाटस एवं मिनेंडर के कई सिक्के मेवाड़ में मिले है। ईसा की दूसरी शताब्दी से चौथी शताब्दी तक शक (सीथियन) लोगों का यहां के दक्षिण-पश्चिम भागों पर अधिकार होना पाया जाता है। कहते हैं, शक नरेश रुद्रनामा का राज्य मरु (मारवाड़) से लेकर साबरमती तक फैला हुआ था। चौथी शताब्दी के अंतिम भाग से लेकर छठी शताब्दी तक राजस्थान के कई भागों में मगध के गुप्त-वंश का राज्य था। सातवीं शताब्दी के आरम्भ में हर्षवर्द्धन ने थाणेश्वर एवं कन्नौज को राजधानी बना कर यहां अपनी राज्य-सीमा का विस्तार किया था। इसके शासन काल में जब चीनी यात्री हुएनसांग भ्रमण करता हुआ राजस्थान में आया, तब यह चार भागों में विभक्त था (६३९ ई. के पास)। पहला गुर्जर जिसमें जोधपुर, बीकानेर, एवं शेखावाटी का कुछ भाग था। दूसरा वधारि (बागड़) जिसमें दक्षिणी एवं मध्य का कुछ भाग था। तीसरा वैराट (विराट) जिसमें जयपुर, अलवर एवं टोंक का कुछ भाग था। चौथा, मथुरा जिसमें भरतपुर, धौलपुर एवं करौली के राज्य थे। ७वीं से ११वीं शताब्दी तक अनेक राजवंश प्रकाश में आये, जिन्होंने अपने बाहुबल से पृथक-पृथक राज्य स्थापित किए। इनमें गहलोत, पड़िहार, चौहान, भाटी, परमार, सोलंकी, नाग, यौधेय (जोहिया), तंवर, दहिया, डोडिया, गौड़, यादव, कछवाहा एवं राठोड़ के नाम उल्लेखनीय हैं। १०वीं शताब्दी में मुसलमानों के आक्रमण के समय में राजपूत राजस्थान में फैले हुए थे।
मुसलमानी एवं अंग्रेजी शासन-काल तक राजस्थान में स्वतंत्र अथवा अर्द्ध-स्वतंत्र राजा-महाराजाओं का ही प्रभुत्व रहा। कुल मिला कर यहां १९ राज्य थे जिनका क्रम क्षेत्रफल के अनुसार इस प्रकार था – मारवाड़, बीकानेर, जैसलमेर, जयपुर, मेवाड, कोटा, अलवर, टोंक, बूंदी, सिरोही, भरतपुर, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, करौली, धौलपुर, प्रतापगढ़, किशनगढ़, झालावाड़ एवं शाहपुरा। इनमें उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाडा, प्रतापगढ़ एवं शाहपुरा गहलोतों (सीसोदियों) के; बूंदी, कोटा एवं सिरोही चौहानों के करौली एवं जैसलमेर यादवों के; जयपुर एवं अलवर कछवाहों के; जोधपुर, बीकानेर एवं किशनगढ़ राठौडों के और झालावाड़ झालों के अधिकार में था। शेष धौलपुर एवं भरतपुर में जाटों तथा टोंक एवं पालनपुर में मुसलमानों का राज्य था। राजस्थान के मध्य अजमेर-मेरवाड़ा के नाम से एक छोटा सा राज्य अंग्रेजी इलाका था। १५ अगस्त, १९४७ ई० में जब भारत स्वतंत्र हुआ तब इन देशी राज्यों का एकीकरण कर दिया गया।
(ग) राष्ट्रीय एवं साहित्यिक: साहित्य, धर्म, कला एवं संस्कृति के क्षेत्र में भारत का स्थान महत्वपूर्ण रहा है। यहां के प्रत्येक प्रान्तीय इतिहास की पृष्ठ-भूमि में राष्ट्रीय, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चेतना की अपूर्व गौरव-गाथा छिपी हुई है। राजस्थान के एक हाथ में तलवार एवं दूसरे में वीणा है। तलवार के द्वारा बाह्य आक्रमणकारियों को परास्त किया गया एवं त्रस्त मानव-जीवन की रक्षा हुई। वीणा की ऊंची झंकार से ललित कलाओं को प्रोत्साहन मिला एवं राजस्थानी साहित्य का प्रस्फुटन हुआ। इससे राजस्थान राष्ट्र के ऊंचे सिंहासन पर प्रतिष्ठित हुआ। फिर तो शनै: शनै: यह साहित्यिक क्रियाशीलता का प्रधान केन्द्र बन गया। यह सच है कि नवीन प्रभावशाली परिस्थितियों के कारण इसकी गति कुंठित हो गई है किन्तु जनता अपने साहित्य एवं इतिहास को उसी आदर की दृष्टि से देखती है। इसका प्रमुख कारण हैं — प्राचीन आदर्शों के प्रति अनुराग। किसी भी जाति को अपना वर्तमान सुधारने और उज्ज्वल भविष्य बनाने में प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति की परम्पराओं को किसी न किसी अंश में स्वीकार करना ही पड़ता है। शताब्दियां बीत गई, कितने ही सिंहासन उलट गये, लेखनी ने तलवार पर विजय भी प्राप्त कर ली किन्तु रेगिस्तानी टीलों के नीचे दबी पड़ी वीरों की ललकार एवं कवियों की ओजस्विनी वाणी आज भी अतीत और वर्तमान को एकाकार करती हुई सृष्टि के कण-कण में अपना अपूर्व तेज एवं साहस बिखेर रही है। अरावली की पहाड़ियों में स्वच्छंदता से विचरण करने वाले केसरी, दहकती हुई चिताओं में कूद कर पति का साथ देन वाली वीरांगनायें, दासता की शृंखलाओं को छिन्न-भिन्न कर देने वाले स्वातंत्र्य पुजारी आज भी इस प्रान्त में बिरले नहीं हैं। इन क्षत-विक्षत दुर्गों, भग्न प्रकोष्ठों एवं ऊबड़-खाबड़ रण क्षेत्रों को दृष्टिपात कर ऐसा लगता है मानो काव्य के विभिन्न छंद साकार होकर पहरा दे रहे हों। इस वीर भूमि के कण-कण ने न जाने कितने कवियों एवं लेखकों को स्फूर्तिदायक प्रेरणा दी है!
(२) – राजस्थानी भाषा का अध्ययन:
राजस्थान की भाषा का नाम राजस्थानी है। यह भरतपुर को छोड़ कर सारे राजस्थान एवं मालवा में बोली जाती है। आधुनिक काल में इसके अतिरिक्त यहां हिन्दी, उर्दू, हिन्दुस्तानी, अंग्रेजी, सिंधी, पंजाबी, गुजराती एवं मराठी बोलने वालों की भी कमी नहीं है। राजस्थानी एवं हिन्दी बोलने वालों की संख्या क्रमश: ७० व २१.५ प्रतिशत है। शेष अन्य भाषाओं का व्यवहार करते है। आजकल शिक्षित वर्ग एवं राज्य के विभिन्न विभागों में राष्ट्र-भाषा हिन्दी का प्रचार उत्तरोत्तर बढ़ रहा है। विभाजन काल में जो हिन्दू राजस्थान में आकर बसे हैं, वे व्यवहार में राजस्थानी का प्रयोग मजे से करने लगे हैं।
(क) डिंगल शब्द की व्युत्पत्ति:- भारत की आधुनिक आर्य भाषाओं में राजस्थानी को एक पहेली का रूप दे दिया गया है। इससे आत्मीय परिचय न होने के कारण अनेक लेखकों ने इसके साथ अन्याय ही नहीं अत्याचार भी किया है। इस विवाद का आरम्भ पं० हरप्रसाद शास्त्री ने किया। फिर कुछ प्रमुख मत उपस्थित करने वालों में डा. एल. पी. टेसीटोरी (इटली), गजराज ओझा (बीकानेर), नरोत्तमदास स्वामी (बीकानेर), प्रतापनारायणसिंह (अयोध्या नरेश), उदयराज उज्वल (जोधपुर), डा. सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या (कलकत्ता) एवं डॉ० मोतीलाल मेनारिया (उदयपुर) के नाम उल्लेखनीय हैं। डॉ० टैसीटोरी तो विदेशी थे अत: उन्होंने ‘डिंगल’ शब्द का अर्थ व्रज भाषा की परिपक्व अवस्था में ‘अनियमित’ (गंवारू) से ले लिया तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। पं० हरप्रसाद शास्त्री ने अल्लू चारण (१७ वीं शताब्दी) के छप्पय की प्रथम दो पंक्तियों को पढ़ कर, जो उन्हें जोधपुर के कविराजा मुरारीदान से प्राप्त हुई थीं, ‘जंगल देश’ से ‘मरुदेश’ एवं ‘डगल’ से ‘डिंगल’ का जो अर्थ निकाला है, वह आपत्तिजनक अवश्य है। हां, ‘डगल’ से पिंगल की तुक मिलाने के लिए ‘डिंगल’ का प्रयोग अवश्य माना जा सकता है। गजराज ओझा ने कतिपय रचनाओं में ‘ड’ वर्ण की प्रचुरता देख कर पिंगल के नाम साम्य पर इसे ‘डिंगल’ कहना ठीक समझा किन्तु अनेक रचनायें ‘ड’ की विशिष्टता से शून्य हैं। उनमें वर्ण विशिष्टता के स्थान पर छंद एवं अलंकार-शास्त्र की निजी विशेषतायें अवश्य पाई जाती हैं। पुरुषोत्तमदास स्वामी एवं प्रतापनारायणसिंह ने डिम (डमरू की ध्वनि) + गल (गला) डिंगल करके महादेव को वीररस के देवता मान कर त्रुटि की है, फिर भी रौद्र रस की दृष्टि से उनके तर्क में वजन अवश्य है क्योंकि डमरू के ‘डिम् डिम्’ में जो भाषा-विज्ञान का मर्म अंतर्निहित है, वह ऊंचे स्वर से बोली जाने वाली भाषा अथवा रणभूमि में वीरों को उत्साहित करने वाली भाषा के रूप में अवश्य प्रकट होता है। डॉ० मेनारिया के मतानुसार डिंगल की उत्पत्ति ‘डींग’ (अतिरंजना) शब्द के साथ ‘ल’ प्रत्यय जोड़ने से हुई है किन्तु डिंगल के सभी वर्णन अत्युक्तिपूर्ण कहना ठीक नहीं। ऐसा कोई साहित्य नहीं, जो अत्युक्तिपूर्ण वर्णन से विहीन हो। पुन: चारणों ने सर्वत्र डींग ही हांकी हो, ऐसा नहीं माना जा सकता। डॉ० चाटुर्ज्या का मत है कि डूंगर शब्द से डिंगल की व्युत्पति हुई है जिसका अर्थ है पर्वत। इस दृष्टि से उन्होंने डिंगल का अर्थ पर्वतीय प्रदेश की भाषा से लिया है जो भ्रामक है। उदयराज उज्वल ने ‘डगल’ एवं ‘डींगल’ (ढींगल) शब्दों पर जोर देते हुए लिखा है – ‘ढींगल’ व ‘डींगल’ मिट्टी के बड़े बरतन के टूटने से जो उसका बड़ा भाग स्वत: बेडौल आकार वाला रह जाता है, उसको कहते हैं। इसका स्वरूप किसी उपाय अथवा कारीगरी से सुडौल नहीं किया गया है। डिंगल भाषा भी मानो अपने उसी असली अनघड् स्वरूप में है जिस पर व्याकरण के नियमों की कारीगरी प्राय: नहीं है अर्थात् पिंगल के समक्ष बहुत कम है। इस मत में खींचतान अधिक है। ‘डगल’ से ‘डिंगल’ बनने का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। यहां शब्द पर विचार करते-करते साहित्यिक निष्कर्ष निकाला गया है और इस बीच पिंगल भाषा-भाषियों को भी खरी-खोटी सुना दी गई है। कुछ ऐसे ही छोटे-मोटे तर्क पं० चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, डॉ० श्यामसुंदरदास, पं० रामकरण आसोपा, ठाकुर किशोरसिंह बार्हस्पत्य, कविराजा मुरारीदान, मुंशी देवीप्रसाद आदि ने भी उपस्थित किये है जिन्हें विस्तार भय से यहां नहीं दिया जा रहा है।
उपर्युक्त विद्वानों का यह मतभेद एक वाग्जाल के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। एक सीधी सी बात के लिए इतने टेढेमेढे तर्क की कोई आवश्यकता नहीं दिखाई देती। अपने-अपने स्थान पर डिंगल एवं पिंगल दोनों की पृथक-पृथक विशेषताएं है। ब्राह्मण जाति पर संस्कृत भाषा का प्रभाव अत्यन्त प्राचीन काल से पड़ता आ रहा है इसलिए पिंगल संस्कृत के अनुसार सदैव से नियमबद्ध मानी जाती है। उसमें स्वर-व्यंजन के उच्चारण का भेद, ह्रस्व दीर्घ का भेद तथा शब्दों के यथार्थ प्रयोग, व्याकरण के नियम, काव्य के चरण आदि छंद शास्त्र के नियमों की शृंखला में जकड़े हुए हैं जिन्हें छोड़ कर कवि अपनी इच्छानुसार चल नहीं सकता है। उसकी इस विषमता को देख कर प्रौढ़ चारण कवि खीझ कर पिंगल को पांगली (पंगु भाषा) भी कहते हैं। इसके प्रतिकूल डिंगल में उच्चारण भेद के कारण यह बात नहीं। डिंगल की रचनाओं के पढ़ने में उतना सौंदर्य नहीं जितना किसी चारण कवि से सुनने में है। डिंगल वीर-रस-प्रधान है और पिंगल शृंगार-रस-प्रधान। यद्यपि इनमें अन्य रसों की कमी नहीं है फिर भी पिंगल में वीर रस का अभाव है। डिंगल की रचनायें जिस गले से वीरता का भाव उत्पन्न करती है, पिंगल की शृंगार-रस-प्रधान रचनायें उससे अपना सौंदर्य खो बैठती हैं। स्पष्टत: डिंगल-डिम् + गल से बना है। डिम् का अर्थ डमरू की ध्वनि तथा गल से गले का तात्पर्य है। गले से निकल कर जो कविता डिम् डिम् की तरह वीरों के हृदय को उत्साह से भर दे उसे डिंगल कहते है। भाषा-शास्त्र एवं हिन्दू धर्म की कथाओं के अनुसार ‘डिंगल’ शब्द की यह व्युत्पत्ति निश्चय ही सत्यता के सन्निकट है।
(ख) नामकरण:- मरुभाषा, डिंगल एवं राजस्थानी — राजस्थान प्रांत की भाषा का नामकरण संस्कार ब्राह्ममुहूर्त में हुआ नहीं दिखाई देता क्योंकि एक ही भाषा के इतने विविध नाम हमें अन्यत्र कहीं नहीं दिखाई देते। घर में लाड़-प्यार से जो चाहे कहा जाय किन्तु बाहर उसके रूप और वय के हिसाब से अब सुस्पष्ट नाम की घोषणा कर देनी होगी। मरुभाषा, मारवाड़ी, डिंगल, राजस्थानी समानार्थी नामों को पढ़-सुन कर साहित्य के विद्यार्थी को संदेह में पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं।
शोध से पता चलता है कि जैसे भिन्न-भिन्न कालों में इस प्रांत के भिन्न-भिन्न नाम प्रसिद्ध हुए, वैसे ही इसकी भाषा का नाम भी कभी एक नहीं रहा। प्राचीन काल में इस प्रदेश की भाषा का नाम मरुभाषा था। उधोतन सूरि ने ‘कुवलयमाला’ ग्रंथ में, जिसकी रचना जालोर में हुई थी (७७८ ई०) जिन अठारह देशी भाषाओं के नाम पदों में दिये हैं, उनमें इसका भी उल्लेख आया है। जैनाचार्यों ने प्राय: अपने ग्रंथों की भाषा का यही नाम दिया है। अबुलफजल ने ‘आइने अकबरी’ में भारत की प्रमुख भाषाओं में मारवाड़ी का नाम गिनाया है (१७वीं शताब्दी)। प्राचीन काल का मन्थन करने पर भी डिंगल का नाम उपलब्ध नहीं होता। जैन कवि कुशललाभ के ‘पिंगल-शिरोमणि’ में सर्वप्रथम ‘उडिंगल’ तथा गुरु गोविंदसिंह के ‘विचित्र नाटक’ में सर्वप्रथम ‘पिंगल’ नाम आये हैं (१६वीं शताब्दी) सम्भवत: जब ब्रजभाषा का आविर्भाव हुआ और उसमें साहित्यिक रचनाओं की सृष्टि होने लगी तब इन दोनों के बीच पार्थक्य रेखा खींचने के लिए डिंगल नाम गढ़ने की आवश्यकता हुई हो। जैसे ब्रज का ठेठ रूप पिंगल है, वैसे ही राजस्थानी का डिंगल। यह डिंगल मरुभाषा का ही एक परिमार्जित रूप कहा जा सकता है। इसका आधुनिक नाम राजस्थानी है। यह लक्ष्य करने की बात है कि डा. ग्रियर्सन पहला विदेशी व्यक्ति था जिसने इस भूखण्ड की भाषा का नाम राजस्थानी रक्खा जो समीचीन ही प्रतीत होता है।
(ग) राजस्थानी भाषा की उत्पत्ति:- भारतीय भाषाओं की जननी संस्कृत है। शास्त्रज्ञ पंडितों ने इसे नियमों में बाँधना चाहा किन्तु यह प्राकृत का रूप ले बैठी। भाषा के बहते हुए ‘निर्मल नीर’ को रोकने की सामर्थ्य किसमें है? इसीलिए आगे देश में अपभ्रंश भाषाओं की धूम रही। वस्तुत: अपभ्रंश किसी एक देश की भाषा नहीं अपितु मागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, पैशाची एवं आवंतिका प्राकृत भाषाओं के बिगड़े हुए रूप वाली मिश्रित भाषा का नाम है। अपभ्रंश भाषा का प्रचार लाट (गुजरात), सुराष्ट्र, श्रवण (मारवाड़), दक्षिणी पंजाब, राजपूताना, अवंती, मंदसौर आदि में था। चारण कवि-कुल-शिरोमणि राजशेखर ने मरु, टक्क और भादानक प्रदेश की भाषा अपभ्रंश होना लिखा है। गुजराती के प्रसिद्ध विद्वान श्री कन्हैयालाल माणकलाल मुंशी ने इसकी सीमा गुजरात से लेकर आसाम तक बताई है। इतना निश्चित है कि जिन प्रान्तों में प्राकृतें बोली जाती थीं, उनमें ही उत्तरकाल में प्रान्त विशेष की अपभ्रंशों का प्रयोग होने लग गया था। शोध से पता चलता है कि ७वीं शताब्दी से पूर्व अपभ्रंश साहित्य की भाषा बनने लग गई थी। १०वीं शताब्दी के अन्त तक यह भाषा अपने चरम उत्कर्ष को प्राप्त हो गई। जैन ग्रंथकार देवसेन कृत ‘श्रावकाचार’ (९३३ ई०) में इसका समुन्नत रूप पाया जाता है। वैसे तो १५वीं शताब्दी तक साहित्यिक अपभ्रंश का अस्तित्व खोजा जा सकता है किन्तु यह उसका अंतकाल था। कोई भी भाषा व्याकरण के कठोर पिंजरे में बन्द रह कर अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सकती। जब प्राकृत के सदृश अपभ्रंश भी नियमों में बंध कर स्थिर हो गई तब उसका प्राकृतिक प्रवाह जन-मन के कलकण्ठों से उच्छ्वसित होने लगा। ११वीं शताब्दी में प्रान्त एवं काव्य-रीति के भेदानुसार अपभ्रंश देशी भाषाओं के रूप में स्वच्छन्द गति से प्रकट होनें लग गई थी।
इस बात का निर्णय करना कठिन है कि राजस्थानी की उत्पत्ति किस अपभ्रंश से हुई है? डा. सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या इस क्षेत्र की अपभ्रंश को सौराष्ट्री, डॉ. ग्रियर्सन नागर एवं श्री क. मा. मुंशी गुर्जरी मानते हैं। प्राचीनकाल में गुजरात के भिन्न-भिन्न विभागों के जो नाम उपलब्ध होते है उनमें काठियावाड़ का उत्तरी भाग आनर्त तथा दक्षिणी भाग सौराष्ट्र कहलाता था। साबरमती के आसपास का भू-भाग स्वभ्र और नर्मदा-ताप्ती के मध्य का देश लाट कहलाता था। इन नामों में राजस्थान अथवा उसके भू-भाग का कहीं पता नहीं है, अत: राजस्थान की अपभ्रंश को ‘सौराष्ट्री’ की संज्ञा देना भ्रमपूर्ण है। त्रिकूट लोगों के राज्यकाल में सौराष्ट्री का प्रभाव काठियावाड़ के दक्षिणी भाग सौराष्ट्र में था, राजस्थान में नहीं। भाषा विज्ञान की दृष्टि से भी सौराष्ट्री को गुजरात की भाषा मानना अधिक युक्ति-संगत है। अक्षरों की बनावट एवं संवत् का उपयोग इन्हीं की धरोहर बताई जाती है।
डॉ० ग्रियर्सन राजस्थानी की जननी नागर अपभ्रंश मानते है और उनके पद-चिन्हों का अनुकरण करते हुए राजस्थानी विद्वानों ने भी अपनी जननी का बारम्बार ‘सुमिरन’ किया है किन्तु यह नाम भी अस्पष्ट है। नागर गुजरात का, व्राचडसिन्ध का और उपनागर इन दोनों के बीच का प्रदेश माना गया है। १०-१२वीं शताब्दी तक नागर ने प्राकृत से पृथक् होकर अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को प्राप्त कर लिया था किन्तु इस समय की जो रचनायें उपलब्ध होती हैं, वे केवल भाषा-विकास की दृष्टि से ही महत्वपूर्ण है। इनमें विभक्ति, कारक-चिह्न, क्रिया आदि के प्राचीन रूप देखने को मिलते हैं। बहुत से शब्द साहित्यिक प्राकृत ढंग की याद दिलाते है। अत: इसे प्राकृताभास अर्थात् प्राकृत की रूढ़ियों से बद्ध हिन्दी भी कहा जाता है। मित्र बंधुओं ने लगभग इसी काल को पूर्वारम्भिक (६४३-१२८६ ई०) नाम दिया है जिसमें साहित्यिक रचनायें नगण्य हैं। श्री मुंशी ने मध्य देश की शौरसेनी अपभ्रंश को उसकी देश भाषा का साहित्यिक रूप माना है। इसका उदाहरण उपलब्ध नहीं होता पर यह आकारान्त भाषा है। राजस्थान के थोड़े भाग पर ही इसका प्रभाव था। कोई आश्चर्य नहीं, चारणेतर जातियों ने चरित एवं कथायें लिख कर इसमें साहित्य सेवा की हो। ९-१२ वीं शताब्दी तक इसका रूप प्राय: एकसा है किन्तु आगे चलकर अपनी पड़ोसी भाषाओं से आदान-प्रदान करती हुई ये विविध देशी भाषायें इतनी क्षिप्रता से भाग-दौड़ करने लगती हैं कि यद्यपि उनके समझने में कोई कठिनता नहीं होती तथापि उन सब की पृथक् पृथक् विशेषताएं हैं। स्यात इनका उद्गम स्थल एक मान कर विद्वानों ने उत्तरकालीन अपभ्रंश, पुरानी हिन्दी, जूनी गुजराती या पुरानी राजस्थानी को परस्पर मिला दिया है।
श्री मुंशी ने राजस्थान की अपभ्रंश को ‘गुर्जरी’ की संज्ञा दी है। ‘गुर्जरी’ शब्द गुर्जर जाति का द्योतक है। पंजाब का गुजरात, गुजरानवाला एवं बम्बई का गुजरात इसके विगत गौरव की याद दिलाता है। गुजरात इस प्रदेश का नाम इसलिए प्रसिद्ध हुआ कि यहां पर गूजरों ने दो सौ वर्ष तक राज्य किया और उनके अधीन रहने से यह देश गुर्जर (गुर्जरों से रक्षित) कहलाया। गुर्जर जाति के विषय में भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। ‘गुर्जरों का प्रारम्भिक इतिहास’ के रचयिता कुंवर यतीन्द्रकुमार वर्मा पुरातत्व-वेत्ताओं की शोध का तर्क पूर्ण विवेचन करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि गुर्जर क्षत्रिय वर्ण की संतान है और यह धारणा नितांत भ्रमपूर्ण है कि ये लोग विदेशी हैं। अपने मत की पुष्टि में उन्होंने शीर्षमापन शास्त्र एवं गोत्रादिक इतिहास की ओर संकेत किया है। गुर्जर ग्वाले (अहीर) हैं और भारत में ये लोग बहुत बड़ी संख्या में पाये जाते हैं। ये दूध, दही, घी आदि का व्यवसाय करते हैं। अत: इन्हें विदेशी कैसे माना जाये? जब हूणों ने सर्वप्रथम आक्रमण करके स्यालकोट में अपना राज्य स्थापित किया तब उनसे पीड़ित होकर गुर्जर शासकों एवं जाति के लोगों ने अपने ढोरों (चौपायों) को लेकर दक्षिणोत्तर पंजाब एवं राजस्थान की ओर बढ़ना आरम्भ किया। ५वीं शताब्दी में इसने गुजरात एवं राजस्थान पर भी अपना सिक्का जमा लिया था। शनै: शनै: अपने शौर्य पराक्रम के द्वारा इस जाति ने पृथक् राज्य स्थापित किया जिसकी मुख्य राजधानी भीनमाल (५५० ई० के आसपास) थी। प्रसिद्ध अरब यात्री अलबरूनी के लेख से (१०३० ई०) समस्त राजस्थान पर गुर्जर शक्ति का प्रभुत्व होना सिद्ध होता है। भीनमाल से आगे दक्षिण की ओर भी इन्होंने बड़े-बड़े राज्यों की स्थापना की। गुर्जरेश्वर सम्राटों में अनेक प्रतापी नरेश हुए हैं जिनमें मिहिरभोज, महेन्द्रपाल एवं महिपाल को राजशेखर ने आर्यावर्त का महाराजाधिराज कहा है। इस प्रकार ऐतिहासिक, भौगोलिक एवं भाषा वैज्ञानिक आधार पर राजस्थानी की उत्पत्ति गुर्जरी अपभ्रंश से होना सिद्ध होता है।
(घ) प्राचीन, मध्यकालीन एवं अर्वाचीन राजस्थानी:- राजस्थानी भाषा का प्रारम्भिक रूप ‘रास’ नाम से उपलब्ध होने वाली रचनाओं में पाया जाता है। संस्कृत रास मै नृत्य, गान एवं अभिनय ये तीनों तत्व विद्यमान थे किन्तु आगे चल कर राजस्थानी रास प्रबंध मात्र का द्योतक रह गया। डॉ० दशरथ शर्मा ने भीनमाल (मारवाड़) में रचित ‘रिपु-दारण रास’ (९०५ ई०) को सबसे प्राचीन रास माना है और अनुमान लगाया गया है कि प्राकृत एवं अपभ्रंश में भी इस प्रकार के रास अवश्य प्रचलित रहे होंगे। शोध से पता चलता है कि गुर्जर लोगों के लोक-जीवन में ‘रास’ का बीज विद्यमान था। इसे भाषा के खाद-पानी से अंकुरित करने का श्रेय राजस्थान के जैन कवियों को है और यदि सच पूछा जाय तो इनके लिखे हुए ग्रंथ ही राजस्थानी की प्रारम्भिक रचनायें हें।
राजस्थानी की प्रथम रचना का निर्णय करना कठिन है। श्री अगरचन्द नाहटा ने छान-बीन के पश्चात् अपने बार-बार के निबन्धों में इस विषय को लेकर सभी प्रकार की सम्भावनाओं का नकारात्मक उत्तर देते हुए लिखा है- ”खुमाण रासौ न तो वीर गाथा काल का प्रथम ग्रंथ है और न इसका रचयिता राजस्थान व हिन्दी का आदि कवि है; न उसमें प्रतापसिंह तक का ही वर्णन है, न इसका रचनाकाल १६वीं शताब्दी है; न यह प्राचीन पुस्तक का परिवर्द्धित संस्करण है, न ८०० वर्षों का परिमार्जित ग्रंथ है; न पीछे के राणाओं का वर्णन इसमें परिशिष्ट रूप में जोड़ा गया है, न उपलब्ध रूप १७वीं शताब्दी में ही प्राप्त हुआ है। डां० शोत्रीय (उदयपुर) ने हाल ही में इसका विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत किया है किन्तु निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता।”
नरपति नाल्ह कृत वीसलदेव रास के सम्बंध में विविध विचार-धारायें प्रवाहित हो रही है। दुर्भाग्य से अभी तक कवि की जाति, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि एवं रचना-काल अज्ञात है। इन नरपतियों के रास को गुर्जर परम्परा का एक विकसित रूप समझना चाहिए, भले ही आरम्भ में वह मौखिक रहा हो। जान पड़ता है, इन रचनाओं में समय के साथ साथ प्रक्षिप्त अंश जुड़ते गये। संदेह नहीं कि बीसलदेव रास में ‘नाल्ह बखाणाह बे कर जोड़ि’ (छंद ४), ‘नाल्ह भणइ सुणिज्यो सहु कोई’ (छंद ४९), ‘महांकी काग उड़ावतां थाकीय जीमणी बांह’ (छंद ९१), ‘थारां करिस्यां च्यारि वीवाह (छंद १०७) आदि के साथ कांइ, म्हाका, सगली, डावडी, लूण, गहिली, आंण, बे, थावर, अभी, डावां, जीमणौ, मोनइ, थारा, किउं, उणरा, निवात, लाकड़ी, बरजूं, पाडोसण, नालेर आदि अनेक शब्द मध्यकालीन राजस्थानी के सूचक हैं। व्याकरण की दृष्टि से उसमें अपभ्रंश के नियमों का पालन किया गया है। प्रयुक्त कारक, क्रिया एवं संज्ञा के कई रूप ठेठ अपभ्रंश पर आधारित हैं। धण, मइमत, भणइ, तणउ, करउ, मूद्रंडउ, म्हारउ, अछइ, कामणि, प्रउलि, द्रट्ठि, उलंभडा, तोडइ, हरिणाषी, बंमण जैसे शब्द तो ठीक अपभ्रंश के बाद के प्रतीत होते हैं। इसमें गेयता के साथ साथ नृत्य एवं अभिनय की ओर भी कवि ने संकेत किया है। वस्तुत: राजमती की सरस प्रेम-कथा को युग-युगांतर तक गा गा कर सुनाये जाने के उद्देश्य से ही इसकी रचना हुई थी। कोई आश्चर्य नहीं, रचना प्राचीन काल में हुई हो और आगे चल कर इसे लिपिबद्ध किया गया हो।
यद्यपि वीसलदेव रास में भाषा का रूप अधिकांश में विकृत हो गया है तथापि अन्य रचनाओं से सिद्ध होता है कि इसके आसपास जैन कवियों की अनेक रचनाओं ने प्रारम्भिक राजस्थानी का रूप-शृंगार किया था। वज्रसेन सूरि कृत “भरतेश्वर-बाहुबलि-घोर” राजस्थानी की प्राचीनतम रचना है (११५० ई० के आसपास) यह ४६ पद्यों का एक छोटा-सा वीर एवं शान्त रस का काव्य है। भाषा इस प्रकार है-
गुलुगुलंत चलिया हाथि नं गिरिवर जंगम।
हिंसा-रवि बहिरिय दियंत हल्लीय तुरंगम।
धर डोलइ खलभलइ सेनु दिणियरु छाइज्जइ।
भरहेसरु चालियउ कटकि कसु ऊपमु दिज्जइ।।
शालिभद्र सूरि राजस्थानी का सबसे प्रथम महत्वपूर्ण कवि है जिसने “भरत-बाहुबलि-रास” नामक खंड-काव्य देशी छंदों एवं राग-रागनियों में लिखा (११८४ ई०) इसकी भाषा को देखने से स्पष्ट विदित होता है कि १२ वीं शताब्दी में राजस्थानी का रूप बनने लग गया था-
परह आस किणि कारणि कीजइ,
साहस सइंवर सिद्धि वरि जइ।
हीउं अनइ, हाथ हत्थीयार,
एह जि वीर तणउ परिवार।।
अपने बाल्यकाल में राजस्थानी सशक्त नहीं हो पाई किन्तु उसने अपभ्रंश का साथ छोड़ कर स्वतंत्र रूप से चलना-फिरना सीख लिया था। इस कथन की पुष्टि जैनाचार्य जिनवल्ल सूरि के ‘वृद्ध नवकार’ से होती है जिसमें उल्लंघउ, दुत्तर, मत्थ आदि अपभ्रंश के शब्दों की न्यूनता एवं मन्त्रह, किसे, रयण, चवदह, किता, बखाणं, जाणुं जैसे राजस्थानी शब्दों की बहुलता है। स्फुट छंदों, धर्म कथाओं एवं प्रेम विषयक रचनाओं में भी यही भावना पाई जाती है किन्तु भाषा अपरिपक्व है। विनयचंद्र सूरि कृत ‘नेमिनाथ चतुष्पादिका’ (१२६८ ई० के आसपास) के इस उदाहरण से यह बात स्पष्ट होती है–
भाद्रवि भरिया सर पिक्खेवि सकरुण रोअइ राजलदेवि।
हा अेकलडी मइनिरधार किम ऊवषिसि करुणासार।।
मध्यकाल में राजस्थानी भाषा की शनै: शनै: उन्नति होने लगी। जिन पद्म कृत ‘स्थूलिभद्र-फाग’ (१३३३ ई०), सोम सुंदर कृत ‘नेमिनाथ-नवरस-फाग’ (१४२८ ई०), हीरानंद सूरी कृत ‘विद्या विलास चरित्र’ (१४५९ ई०), श्रीधर कृत ‘रणमल्ल छंद’ (१५ वीं शताब्दी) एवं रामचंद्र सूरी कृत्त ‘मुनिपति राजर्षि-चरित्र’ (१४९३ ई०) आदि रचनाओं में इसके स्पष्ट चिन्ह दिखाई देते हैं। भाषा की दृष्टि से वीठू सूजा कृत ‘छंद राउ जइतसी रउ’ (१५३५ ई०), पद्मनाभ कृत ‘कान्हडदे प्रबन्ध’ (१६ वीं शताब्दी) एवं जैसलमेर के जैन कवि कुशललाभ कृत ‘ढोला-मारू री चउपई’ तथा ‘माधवानल-कामकंदला-चउपई’ (१६ वीं शताब्दी) आदि रचनायें पुष्ट हैं, जिनके अनुशीलन से पता चलता है कि मुसलमानों के सम्पर्क से अरबी-फारसी के तद्भव शब्दों का समावेश राजस्थानी में होने लग गया था। धीरे धीरे वीरोल्लास भरी रचनाओं में देशी शब्दों का प्रयोग एक प्रकार से अनिवार्य हो गया। इसके अतिरिक्त कतिपय ध्वन्यात्मक एवं वर्णनात्मक विशेषतायें इसमें और जुड़ गई। यथा-
हाड़ा गाहड़ वांकड़ा, कीरत वंका गौड़।
बल हठ वंका देवड़ा, रणबंका राठौड़।।
जब कृष्ण का गोलोक ब्रज भाषा की क्रियाशीलता का प्रमुख केन्द्र बन गया, तब राजस्थानी भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी। १६ वीं शताब्दी के अन्त तक मारवाड़ी एवं गुजराती का भेद भी स्पष्ट हो गया। इससे राजस्थानी को अपना पृथक् रूप निर्धारित करने में सहायता मिली। महाराजा पृथ्वीराज ने ‘वेलि क्रिसन रुकमिणी री’ की रचना कर इस दिशा में एक आदर्श उपस्थित किया (१५८७ ई०) इसमें एक एक शब्द सोच-विचार कर रखा गया है। भाषा का इतना उज्जवल एवं समुन्नत रूप शायद ही दूसरे ग्रंथ में मिले। एक उदाहरण निरर्थक न होगा-
चवडोल लगे इणि भांति सुंचाली
मति तैं आलाणण न मूं।
सखी समूह मांहि इम स्यामा
सीळ आचरित लाज सूं।।
पद्य के सदृश गद्य की रचनाओं के द्वारा भी राजस्थानी का संवर्द्धन हुआ। इसका आरंभ जैन लेखकों ने पहले ही कर दिया था। धर्म-कथाओं (बालाव-बोध) में सबसे महत्वपूर्ण रचना माणिक्यचन्द्र सूरि की ‘पृथ्वीचन्द्र-चरित्र’ है (१४१३ ई०) जिसका दूसरा नाम वाग्विलास है। यह एक प्रौढ़ कलात्मक कृति है। भाषा संगीतमय एवं वाक्य सतुकांत हैं। कालान्तर में इस प्रकार की रचनाओं को वचनिका एवं दवावैत की संज्ञा दी गई। सिवदास कृत ‘अचलदास-खीची-री वचनिका’ (१७५६ ई०) इस परम्परा के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। इनकी भाषा पुष्ट, प्रांजल एवं परिष्कृत है।
राजस्थानी का अर्वाचीन काल १९ वीं शताब्दी से आरंभ होता है। इस काल में भाषा का अभूतपूर्व विस्तार हुआ। उसे नये नये शब्द एवं नये नये रूप मिले। डॉ० एल०पी० टेसीटोरी ने प्राचीन एवं अर्वाचीन राजस्थानी में पार्थक्य रेखा खींचते हुए बताया कि प्राचीन काल में ‘अइ’ एवं ‘अउ’ का प्रयोग होता था जिसका स्थान अर्वाचीन काल में ‘ऐ’ और ‘औ’ ने ले लिया है। यथा- माधइ का माधे, चकवइ का चकवे, जहतसी का जैतसी, राठउड़ का राठौड़, रउद्र का रौद्र, चितउड़ का चित्तौड़ आदि आदि। यह बात युक्तिसंगत नहीं दिखाई देती। भाषा तो गतिशील है। समय के साथ-साथ उसका रूप बदलता आया है। इस काल में खड़ी बोली हिन्दी के प्रभाव से ऐसे न जाने कितने शब्दों का रूप परिवर्तन हुआ है और होता ही जा रहा है। भाषा की दृष्टि से अर्वाचीन काल को व्यावहारिक राजस्थानी का उदय काल कहा जा सकता है क्योंकि अब प्राचीन शब्दों का प्रचलन कम होता जा रहा है। काव्य में बोलचाल के शब्दों का प्रयोग निःसंकोच किया जाता है। भाषा सरल होती जा रही है और उसमें विभिन्न बोलियों के शब्द भी सहृदयता से अपनाये जाते हैं। साथ ही ब्रज, हिन्दी, उर्दू, फारसी, यहां तक कि अंग्रेजी के व्यावहारिक शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं। इस युग में प्राचीन एवं मध्यकालीन राजस्थानी का वेग धीमा पड़ गया। यद्यपि डिंगल-पिंगल के नाम पर आज भी पुराने ढर्रे के लोग काव्य-रचना करते हैं किन्तु इनके साथ एक वर्ग ऐसा भी है जो अपने को प्रगतिशील कह कर साहित्यिक नियमों की अवहेलना करता जा रहा है। गद्य के क्षेत्र में ख्यात, बात, वचनिका आदि का ह्रास हो चुका है। नैणसी, बांकीदास एवं दयालदास जैसे प्रौढ़ ख्यातकार कहां रह गये हैं? जो थोड़ी बहुत रचनायें हो रही है उनमें जन-साधारण की भाषा का अधिक ध्यान रखा जाता है। सारांश यह है कि आज राजस्थानी का रूप परिवर्तित होता जा रहा है। वर्तमान समय के ऊजला (मारवाड) निवासी श्री उदयराज उज्वल की भाषा से इस बात का अनुमान सहज ही में लगाया जा सकता है-
जली पति संग जोधपुर, भटियाणी धिन भाग।
सह समाज पूजै सती, आज सुगन री आग।।
कारण हेत उपकार, ईस दियो सत आपने।
तूं दुखियां नै तार, सत परचां सुगनां सती।।
रात दिवस नर नार, आवै दरसण आपरै।
करै मात सिधकार, सगळां रा सुगना सती।।
(३) – राजस्थानी का चारणेतर साहित्य:
राजस्थानी भाषा के साहित्य को पल्लवित एवं पुष्पित करने में अनेक जातियों का हाथ रहा है। इसे जातीय, धार्मिक अथवा मौखिक कह कर उपेक्षा और अवहेलना की दृष्टि से नहीं देखा जा सकता। साम्प्रदायिक होने के कारण ही किसी सुन्दर कलाकृति की अवज्ञा करना अपनी संकीर्ण विचारधारा का परिचय देना है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्ति युग की रचनायें और क्या हैं? वस्तुत: जीवन में जिन-जिन दिशाओं से प्रेरणा मिलती है उनमें जाति और धर्म का विशिष्ट स्थान है। एक के द्वारा मानव जाति और दूसरे के द्वारा लोकधर्म के आदर्श की प्रतिष्ठा होती है। साम्प्रदायिक वीणा के होते हुए भी जीवन को लथपथ कर देने वाला स्वर किसे मोहित नहीं करता? यदि सच पूछा जाये तो जातीय, धार्मिक एवं मौलिक होने से ही राजस्थानी साहित्य अनेक शाखा-प्रशाखाओं के रूप में विकसित हुआ है। अस्तु,
(क) राजपूत राजघरानों का साहित्य:- राजपूत (रजपूत) शब्द संस्कृत के राजपुत्र का अपभ्रंश है। इसके लिए क्षत्रिय, राजन्य एवं उग्र शब्द भी प्रयुक्त हुए है। भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों ने इन्हें विदेशी माना है। डॉ० ओझा ने सप्रमाण सिद्ध किया है कि जो क्षत्रिय सहस्रों वर्ष प्राचीन भारत के स्वामी थे, उन्हीं के वंशज आजकल कें राजपूत हैं। कहा नहीं जा सकता, यह बात कहाँ तक सत्य है? वर्ण-व्यवस्था के अनुसार ‘क्षतात्त्रायते इति क्षत्रिय:’ अर्थात् रक्षा करने वाला क्षत्रिय कहलाया। महाभारत में संजय के लौटने पर वीर माता विदुला का उपदेश इस कथन की पुष्टि करता है कि रणभूमि में प्राणोत्सर्ग करना पुण्य एवं भाग आना पाप है। इस जाति में संस्कारजन्य रूप से कुछ ऐसी विशेषतायें हैं जो अन्यत्र देखने में नहीं आती। इतिहास साक्षी है कि राजस्थान के अनेक राजपूतों ने देश-विदेश में लड़ कर अपने प्राणों का बलिदान किया है।
वाह्य एवं आन्तरिक संघर्षों में उलझे रहने पर भी राजपूत राजघरानों ने साहित्य की जो सेवा की है, वह गौरव का विषय है। प्राचीन काल में विद्याप्रेमी राजा-महाराजाओं की परिषद् कवि-रत्नों की बहुमूल्य लड़ियों से सुशोभित थी। कुंभकर्ण (मेवाड़) कवियों का आश्रयदाता ही नहीं, अनेक ग्रंथों का प्रणेता भी था। मुंज और भोज (मालवा) की सभा रस एवं कविता की क्रीड़ास्थली बनी हुई थी। सिद्धराज जयसिंह (गुजरात) ने अनेक कवियों को पुरस्कृत किया था। मध्य काल में कवियों को राज्याश्रय प्रदान करने की एक समृद्ध परम्परा दिखाई देती है। कतिपय आश्रयदाता स्वयं उच्चकोटि के कवि भी हुए हैं। महाराजा पृथ्वीराज (बीकानेर) कृत ‘क्रिसन-रुक्मणी-री वेलि’ एक अन्यतम कृति है। जयपुर के सवाई जयसिंह (द्वितीय) ने ज्योतिष-शास्त्र की उन्नति के हेतु जिन ग्रंथों, वेधशालाओं एवं यंत्रों की सृष्टि की, वे उनकी अक्षयकीर्ति के योग्य स्मारक हैं। महाराजा प्रतापसिंह ने जो ग्रंथ रचे हैं, वे का.ना.प्र. सभा द्वारा ‘ब्रजनिधि ग्रंथावली’ के नाम से प्रकाशित हुए हैं। इसी प्रकार महाराजा जसवंतसिंह (मारवाड़) का ‘भाषा भूषण’ उनके काव्य-प्रेम का उदाहरण है। उनके पुत्र अजीतसिंह उच्च कोटि के कवि थे। बूंदी के महाराव बुधसिंह कृत ‘नेहनिधि’ से उनकी काव्य-पटुता का परिचय मिलता है। राजसिंह एवं उनके पुत्र नागरीदास दोनों ही प्रतिभा-सम्पन्न कवि थे। आधुनिक काल में महाराजा जसवन्तसिंह एवं मानसिंह (मारवाड़) के नाम नहीं भुलाये जा सकते।
राज-महिलाओं का साहित्य भी कम महत्वपूर्ण नहीं। मीरा तो कृष्ण-भक्ति शाखा पर प्रेम की अमर बेल बन कर छा गई। सुन्दर कुंवरि बाई (किशनगढ़) ने अपने भ्राता नागरीदास के सदृश अनेक ग्रंथों की सृष्टि की। इसी प्रकार छत्र कुंवरि बाई ने ‘प्रेम विनोद’ की रचना की। राजसिंह की रानी ब्रजदासी ने श्रीमद्भागवत का पद्यानुवाद किया। संक्षेप में यह साहित्य पृथक आकर्षण रखता है।
(ख) जैन साहित्य:- भारत में जैन जाति चिरकाल से प्रसिद्ध है। इस जाति के लोग प्राय: समस्त प्रान्तों में यहां तक कि विदेशों में भी व्यापार करते हैं और धनाढ्य सेठ समझे जाते हैं। कोई डेढ़ हजार वर्षों से राजस्थान एवं गुजरात प्रांत इसके प्रमुख केन्द्र हैं। आज भी इन प्रान्तों के गाँव-गाँव में जैन श्रावक बसे हुए हैं जिनके प्रति जैन समाज की असीम श्रद्धा एवं भक्ति है। जैन धर्म अपने में प्रशस्त एवं पूजनीय धर्म है क्योंकि इसकी दिव्य आभा ने प्राय: सभी धर्मो को आलोकित किया है। भगवान् महावीर स्वामी के पद-चिन्हों का अर्चन-पूजन करते हुए इस जाति के आचार्य पैदल पर्यटन कर अपने सिद्धान्तों का प्रचार करते हैं। दैनिक जीवनचर्या के कठोर नियमों का पालन करते हुए ये उपदेश देते हैं, अवकाश मिलने पर विद्याध्ययन करते हैं और उपयोगी ग्रंथ हाथ लगते ही उसकी नकलें तैयार करते रहते हैं। इनके लिखे हुए ग्रंथों में न केवल धर्म का ही प्रतिपादन हुआ है प्रत्युत जीवनोपयोगी एवं विश्व-कल्याणकारी सिद्धान्तों की भी व्याख्या की गई है। इससे अन्य धर्मावलंबियों को भी हृदय का कल्मष धोने, पवित्र आचरण करने, उदात्त भावनाओं को अपनाने तथा दिव्य संकल्प धारण कर नैतिक जीवन के निर्माण में पर्याप्त सहायता मिली है। राजस्थानी साहित्य के संरक्षण में जैन बन्धुओं की सेवायें स्तुत्य हैं। यवन आक्रमणकारियों के संघर्ष काल में जैनेतर रचनाओं को भी यत्न एवं सावधानी से छिपाए रख कर इस जाति ने जो उपकार किया है, वह अनुकरणीय है। इनके उपाश्रय हस्तलिखित ग्रंथों के अखूट खजाने हैं।
जैन साहित्य अत्यंत विस्तृत एवं प्राचीन है। ऐतिहासिक एवं भाषा विज्ञान की दृष्टि से यह पृथक महत्व रखता है। जैन साहित्य की प्रकृति शान्त रस में ही दिखाई देती है। इसमें तात्विक ग्रन्थ, पुराण-चरित्र, कथादि, पूजा-पाठ, पद, भजन, विनती आदि अधिक उपलब्ध होते है। पद्य में हजारों रास, फाग, चौपाई भास, धवल, संबंध, प्रबन्ध, ढाल आदि उल्लेखनीय हैं। जैनों के श्वेताम्बर तेरापंथी सम्प्रदाय ने राजस्थानी की महत्वपूर्ण सेवायें की हैं और करते ही जा रहे हैं। आचार्य जीतमलजी कृत ‘भगवती सूत्र’ नामक देशी राग-रागिनियों का अनुवाद सबसे बड़ा ग्रंथ है, जिसकी श्लोक संख्या ८० हजार के लगभग है। स्फुट काव्य में स्तवन, सज्झाय, पद, गीत, छंद, हियाली, सिलोका, पूजा, संवाद, दूहा आदि की तो कोई सीमा ही नहीं है। इनके गीतों में पाई जाने वाली भक्ति, संयोग एवं वियोग-विषयक कल्पनाएं अनूठी हैं। समयसुन्दरजी जैसे कवियों ने अकेले पांच सौ पदों की रचना कर अपनी काव्य-प्रतिभा का परिचय दिया है। ऐसा विषय शायद ही मिले जिस पर इनकी दृष्टि न पड़ी हो।
राजस्थानी का प्राचीन गद्य तो अधिकांश में जैन लेखकों की ही रचना है। यह प्रधानत: विभिन्न सूत्रों के अर्थ एवं टीकाओं के रूप में मिलता है। इस दृष्टि से तरुणप्रभा सूरि, सोमसुन्दर सूरि, मेरुसुन्दर, पार्श्वचन्द्र, मुहणोत नैणसी आदि लेखकों के नाम उल्लेखनीय है। लौकिक कथा-कहानिया भी बहुत हैं। अकेले विक्रमाजीत राजा पर पचास से अधिक कहानियाँ मिलती हैं। इनके अतिरिक्त ज्योतिष, वैद्यक एवं संगीत पर भी फुटकर रचनायें लिखी गई हैं।
(ग) ब्राह्मण साहित्य:- ब्राह्मण जाति का परिचय कोई नवीन नहीं। वर्ण-व्यवस्था के अनुसार ‘ब्रह्मजानातीति ब्राह्मण’ अर्थात् वेद जानने वालों का नाम ब्राह्मण हुआ है। अनन्त काल से यह जाति धर्म एवं दर्शन के क्षेत्र में मानव जाति का मार्ग प्रशस्त करती हुई चली आ रही है। वैदिक युग में इस जाति का बोलबाला था और धार्मिक व्यवस्था में इसे बड़ी मान्यता प्राप्त थी। संदेह नहीं कि जैन व चारण जाति से भी पूर्व ब्राह्मण जाति ने उच्चकोटि के साहित्य का सृजन किया है। स्व० चन्द्रधर गुलेरी के शब्दों में- ”ब्राह्मणों के पीछे राजपूतों की कीर्ति बखानने वाले चारण और भाट हुए” जैसा कि इस कहावत से स्पष्ट हैं- ब्राह्मण के मुख की कविता कछु भाट लहि कछु चारण लीणी। धार्मिक ग्रंथों की अधिकांश रचनाएँ ब्राह्मण विद्वानों के मस्तिष्क की उपज है। संस्कृत भाषा के साथ इनका अविच्छिन्न संबंध रहा है अत: यह इनकी प्रधान भाषा है। संस्कृत भाषा एवं उसके साहित्य के संवर्द्धन में इनकी सेवायें सर्वथा स्तुत्य हैं, यहाँ तक कि विदेशी विद्वानों ने तो समग्र संस्कृत साहित्य को ‘ब्राह्मण साहित्य’ के नाम से अभिहित किया है।
धर्म-कर्म की दृष्टि से राजस्थान की ब्राह्मण जाति प्रधान रूप से अपनी प्राचीन परम्पराओं का ही पालन करती आई है किन्तु साहित्य के क्षेत्र में वह अपने विगत गौरव की रक्षा नहीं कर सकी, यद्यपि उसके सन्मुख महाकवि माघ और प्रसिद्ध ज्योतिषी ब्रह्मगुप्त का आदर्श उपस्थित था। आगे चल कर एक समय वह भी आ गया जब ब्राह्मण जन्म-मृत्यु के कर्म, कथा, पुण्य ग्रहण करने तथा पूजा-पाठ करने में ही लगे रहे और चारण क्षत्रियों के सन्निकट आकर तथा उन्हीं के रंग में रंग कर राजस्तुतिपरक रचनाओं के द्वारा आगे बढ़ने लगे। जैसे-जैसे चारण विद्वान क्षत्रिय राजवंशों के संरक्षण में फलते-फूलते गये और जैन यतियों को धनिकों का आश्रय मिलता गया वैसे-वैसे ब्राह्मण विद्वानों की रुचि साहित्य के क्षेत्र में शनै: शनै: कम होती गई। राजस्थान में ब्राह्मण जाति की सामाजिक स्थिति का सबसे अधिक अधःपतन यवन शासनकाल में हुआ था। सम्भव है, एक विकट धर्म-संकट में पड़ कर संस्कृत भाषा के स्थान पर राजस्थानी भाषा में रचना करना उन्हें न रुचा हो। फिर भी उनके धर्म-कर्म में कोई निष्क्रियता नहीं आई और उन्होंने साहित्य से नाता बनाए रखा।
ब्राह्मण-साहित्य प्रधान रूप से धर्म और भक्ति से संबंध रखता है। यह प्राय: ‘स्वान्त: सुखाय’ के दृष्टिकोण से लिखा गया है। इनकी रचनाओं में प्रशंसात्मक काव्य नहीं के बराबर है। अधिक से अधिक इनके साहित्य में विविध कथाओं, पुराणों अनुवादों एवं स्फुट रचनाओं को लिया जा सकता है। अनुवादों में आर्ष-ग्रन्थों तथा अन्यान्य धर्म-ग्रंथों के अनुवाद प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं। इसके अतिरिक्त वैद्यक, ज्योतिष, संगीत एवं मंत्र-शास्त्र के स्फुट ग्रंथ रच कर भी ब्राह्मणों ने समाज की सेवा की है।
(घ) भाट साहित्य:- राजस्थान में भाट राव को कहते हैं, एतदर्थ इसे ‘राव साहित्य’ भी कहा जा सकता है। विद्वानों की यह धारणा कि भाट और चारण एक हैं, निर्मूल एवं निराधार ही कही जायेगी। किसी की शैली अपनाने से जाति में परिवर्तन नहीं होता। ‘चारण पत्रिका’ के सह-सम्पादक श्री शुभकरण कविया एव डा. मेनारिया के मध्य उत्तर-प्रत्युत्तर के रूप में जो पत्र-व्यवहार प्रकाशित हुआ है, वह इस वाद-विवाद को समझने में सहायक होता है। संदेह नहीं कि भाटों का सम्बंध प्राय: समस्त हिन्दू जातियों से है, चारणों का एकमात्र राजपूत जाति से। भाट जाति भी प्राचीन है जिसने अद्यावधि राजस्थानी साहित्य की सेवा की है। इस जाति के लोगों का कथन है कि ‘पृथ्वीराज रासो’ का रचयिता चंद वरदाई भाट था किन्तु इस विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। भाट जाति में ब्रह्मभट्ट बड़े उत्कृष्ट कोटि के कवि हुए हैं जिन्हें भूमिदान, लाखपसाव, सोने-चांदी आदि से पुरस्कृत किया गया है। ब्रह्मभट्ट पूर्णभट्ट, इन्द्रमल, वृन्दावन, जयदेव आदि ऐसे ही कवि है। अन्य प्रसिद्ध कवियों में कल्याणदास (१६४३ ई०), डूंगरसी (१६५३ ई०) किशोरदास (१६६२ ई०) दयाल (१६८० ई०) मुरलीधर, श्रीकृष्ण, कविराव गुलाबसिंह, रामकवि भट्ट दामोदर, रणछोड़, बख्तावरजी आदि के नाम आदरपूर्वक लिये जा सकते है। वर्तमान समय में कविराव मोहनसिंह राजस्थानी साहित्य की प्रशंसनीय सेवा कर रहे हैं। राजस्थानी के मौखिक साहित्य में भी इन कवियों का नाम चिरस्मरणीय रहेगा।
(ङ) अन्य जातीय साहित्य:- इन प्रमुख जातियों के अतिरिक्त कायस्थ, बनिये, तेली, खाती, मोतीसर, सेवक, ढोली, ढांढी आदि जातियों के द्वारा भी राजस्थानी साहित्य गतिशील हुआ है। गुण एवं तोल की दृष्टि से इनका महत्व अधिक नहीं किंतु इनका नामोल्लेख करना आवश्यक है। कायस्थ जाति के साहित्य-सेवियों में जगन्नाथदास, देवकर्ण, गणपति, देवीप्रसाद, अमृतलाल आदि के नाम उल्लेखनीय है। बनियों में जनगोपाल, संतदास, सुंदरदास, शिवचंद्र आदि के नाम नहीं भुलाये जा सकते। पदम तेली का ‘हरजी-रो व्यावलो’ (रुकमणी-मंगल) लोकप्रिय है। रतना खाती का ‘नरसीजीरो-माहेरो’ नामक लघु खण्ड-काव्य जनता के गले का हार है। मोतीसर को चारणों ने मोतियों की लड़ी कहा है। चारणों का कीर्तिगान करना इनका प्रमुख व्यवसाय है। इस जाति में इने गिने लोग साधारण तुकबंदी करते हैं। सेवक जाति जैन एवं राज मंदिरों के पुजारी के रूप में चिर-प्रतिष्ठित है। इनमें कवि वृंद की ‘सतसई’ भारत में यथेष्ट ख्याति प्राप्त कर चुकी है। मनसाराम (जोधपुर) की ‘रघुनाथरूपक’ प्रसिद्ध ही है। शेष जातियों का मौखिक साहित्य में विशिष्ट योगदान रहा है। बादर ढांढी का ‘वीरमाण’ ग्रंथ साहित्य की दृष्टि से उल्लेखनीय अवश्य है।
(च) संत साहित्य:- राजस्थानी साहित्य में संत साहित्य पृथक अध्ययन की वस्तु है। इसकी दिव्य वाणी ने अद्वैतवाद की पुष्टि कर ज्ञानाश्रयी, प्रेममार्गीय, रामभक्ति एवं कृष्णभक्ति की शाखाओं को विकसित किया है। संत कबीर की वाणियों को सामान्य जनता में आदर मिला। फलत: उनके पंथ से सादृश्यता रखने वाले दादू, रामसनेही, चरणदासी एवं निरंजनी पथ का जन्म हुआ जो कालान्तर में अन्य प्रांतों में भी बड़े लोकप्रिय सिद्ध हुए।
दादू पंथ के प्रवर्तक संत दादू दयाल (१५४४-१६०३ ई०) थे। इस पंथ के संतों में बखनाजी, रज्जबजी, गरीबदास, जगन्नाथदास, जनगोपाल, जगजीवन, दामोदरदास, भीखजन, संतदास, सुंदरदास, खेमदास, राघवदास, बाजीदजी आदि उल्लेखनीय हैं। चरणदासी पंथ का उदय चरणदासजी (१७०३-८1 ई०) से हुआ है। इसमें दया बाई एवं सहजो बाई के दोहे विशेष प्रसिद्ध है। रामसनेही पंथ का उदय शाहपुरा में रामचरणजी, खेडापे में हरिरामदासजी एवं रेण (मेड़ता) में दरियावजी से होता है। इसमें रामदास, दयालदास, बालकराम, प्रभृति संत प्रमुख हैं। निरंजनी पंथ हरिदासजी से चला है, जिन्होंने अनेक ग्रंथ लिखे हैं। संत के लिए जाति का बंधन भक्ति मार्ग में बाधक होता है अत: संत-साहित्य के विद्वान् प्राय: सभी जातियों के हैं जिनमें से कुछ निम्न स्तर की समझी जाती हैं। इनकी उपासना निराकार थी और ये भी मूर्ति-पूजा, कर्मकाण्ड, जाति-प्रथा आदि के विरोधी थे तथा प्रेम, नाम, शब्द, सद्गुरु आदि की महिमा का गुण-कीर्तन करते थे। इन्होंने अपने विचारों को सरल बना कर सर्व-साधारण के सामने रखा है जिनमें साहित्य कम एवं चोट अधिक है। कुछ संत ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने भाव-प्रदर्शन, काव्य-चमत्कार एवं भाषा-लालित्य की ओर ध्यान दिया है।
राजस्थानी संत-साहित्य समृद्ध है। इन समस्त कवियों में सबसे अधिक प्रसिद्ध मीरा बाई हुई जो अपने युग की सर्वश्रेष्ठ कवयित्री मानी जाती है। मीरा का काव्य हृदय का काव्य है। उसमें भावुकता है, तल्लीनता है, हृदय को स्पर्श करने की अपार शक्ति है और है प्रेम-विभोर कर देने की अद्भुत सामर्थ्य। माधुर्य भाव में डूबी हुई मीरा का अनुकरण चन्द्रसखी ने किया जिसके भजन जनता की जिह्वा पर हैं। इन सन्तों की पवित्र स्मृति में आज भी अनेक मेले लगते हैं जिनमें दूर दूर से हजारों की संख्या में साधु-महात्मा आते हैं। इस साहित्य की अधिकांश सामग्री रमते हुए साधु-सन्यासियों तथा गृहस्थ संत-पुरुषों के तम्बूरों, सितारों एवं खड़तालों पर सुनी जा सकती है। भक्ति, वैराग्य एवं निर्गुण मत की भावनाओं का इनमें पर्याप्त चित्रण हुआ है किन्तु अधिकांश में मौखिक होने से यह साहित्य भाषा विज्ञान की दृष्टि से विशेष महत्व का नहीं है।
(छ) लोक-साहित्य:- यह मौखिक साहित्य है जिसके निर्माता अशिक्षित नर-नारी हैं, जो आधुनिकता से दूर रह कर गांवों में अत्यंत सरल, शांत एवं निश्छल जीवन व्यतीत करते है। अत: इसे ‘ग्राम साहित्य’ भी कहा जाता है। राजस्थान की संस्कृति का मूल आधार उसका लोक-साहित्य ही है। लेखबद्ध न होने पर भी यह अजर-अमर है। यह साहित्य किसी जाति विशेष की सम्पत्ति न होकर जन-साधारण की अक्षय निधि है क्योंकि उसी के द्वारा यह आगे से आगे प्रवहमान होता रहता है।
राजस्थानी का लोक साहित्य अधिकांश में लोक गीतों के रूप में बिखरा पड़ा है। इन लोक गीतों को जनता कें हृदय की सच्ची कविता कह सकते हैं। इनका अस्तित्व अनन्तकाल से है क्योंकि गीत गुनगुनाना मानव हृदय की एक अत्यंत स्वाभाविक प्रवृत्ति है। यहां के खेतों, मैदानों, कूपों एवं रेगिस्तानी भागों में उठने वाली गीत-लहरियों का आनंद कुछ और ही है। धार्मिक स्थानों पर लोग मंडली बना कर आज भी ‘हरजस’ गाते हैं। इनके अतिरिक्त विशेष त्यौहारों के गीत भी बहुत है। राजस्थान में हिन्दुओं के प्रमुख त्यौहार होली, गणगौर, आखातीज, रूप चौदस, जन्माष्टमी, रक्षा-बंधन, दशहरा एवं दिवाली हैं। इन सर्वव्यापी उत्सवों के अतिरिक्त स्थानीय त्यौहार तो गांव गांव में मनाए जाते हैं। कोई देवी, कोई भैरू या और देवताओं–पाबू, तेजा, रामदेव, जांभा आदि की पूजा करते हैं।
लोक साहित्य के अंतर्गत नारी ने जितना मधुर अलाप किया है उतना पुरुष ने नहीं। हमारा समस्त हिन्दू गृहस्थ जीवन नारी के कोमल गान से ओतप्रोत है। किसी हिन्दू के घर शिशु तो मानो गीत की गुटकी लेकर अवतीर्ण होता है। ‘हालरे’ उसे जगाते हैं, ‘लोरियां’ उसे सुलाती हैं। गीतों की गूंज में ही बालक जनेऊ धारण करता है, सगाई के दिन रस-मग्न होकर वह दूल्हा बनने का स्वप्न देखता है और उसके साकार होने पर अनिर्वचनीय आनंद में खो जाता है। पारिवारिक एवं सामाजिक उत्सवों की मंगल बेला में मां, पत्नी, बहिन, देरानी, जेठानी आदि के समवेत स्वर से घर का आँगन प्रतिध्वनित होने लगता है। इनके अतिरिक्त चक्की चलाती, दही मथती, पानी भरती तथा घर के अन्य काम-काज करती हुई हिन्दू रमणियां गीतों के द्वारा पुरुषों के मन को चुराती रहती है। इन गीतों के साथ शृंगारिक गीत भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं जिनमें संयोग-वियोग दोनों अवस्थाओं का चित्रण हुआ है। संयोग के अन्तर्गत मान-मनुहार से लेकर प्रिय को रिझाने तक के गीत लिए जा सकते हैं और उसके वियुक्त होने पर काग, कुरज और सुग्गे के दूत परम्परा वाले गीत विशेष आकर्षण रखते हैं। इन गीतों में चुटकी लेने वाले मार्मिक विनोद की मात्रा अधिक है। देवताओं के गीतों में गोगा, रामदेव बाबा, शीतला माता, भैरूजी आदि के गीत उल्लेखनीय है। इनके अतिरिक्त फुटकर गीत भी बहुत हैं जो सभी विषयों और अवसरों को ध्यान में रख कर तैयार किए गए है।
लोक साहित्य के अन्तर्गत छंद-बद्ध कथाओं की उपेक्षा नहीं की जा सकती, जिनमें डूंगजी-जवारजी, पाबूजी एवं तेजा जाट की कथायें अत्यन्त रोचक हैं। इनके अतिरिक्त स्फुट दोहों, मुहावरों, कहावतों, चुटकलों एवं वातों को लिया जा सकता है। इस प्रकार राजस्थानी का लोक-साहित्य अत्यन्त विशद एवं भावपूर्ण है। इसमें जीवन के नाना रूपों के बड़े ही भावपूर्ण चित्र उपस्थित किये गये हैं। साहित्यिक भाषा की दृष्टि से इनका महत्व अधिक नहीं क्योंकि इसमें स्थानीय बोलियों के शब्द अधिक हैं। इतना होते हुए भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि भाषा सरस और भावना मनोहर है। शिक्षा के अभाव में जब जन-समुदाय घोर अंधकार में सोया हुआ था तब इस साहित्य ने उसे जगाया और कर्म-क्षेत्र में ला खड़ा किया। उस समय समाज के साथ इसका क्या साधर्म्य रहा होगा, इसकी कल्पना सहज ही में की जा सकती है। आज भी सारंगी, मशक, तानपूरे आदि का सहारा लेकर लोक-गीत समां बांध देते हैं और श्रोता अपने स्वर्णिम अतीत पर गर्व करने लगते हैं।
(४) – ‘चाारण’ जाति का विशेष अध्ययन:
राजस्थानी साहित्य के विद्यार्थी के लिए चारण जाति का अध्ययन एक अत्यन्त रोचक विषय है क्योंकि इसके द्वारा साहित्य की अपार सेवा हुई है। जहां तक जाति का संबंध है, यह अत्यन्त प्राचीन हैं किन्तु इस विषय में पौराणिक प्रसंग अधिक उपलब्ध होते हैं जिन्हें आज के बुद्धिवादी अलौकिक कह कर टाल देते हैं। एतदर्थ इस पर वैज्ञानिक ढंग से छानबीन करना आवश्यक है।
(क) चारण शब्द की व्युत्पत्ति:- चारण विद्वान् अपना अस्तित्व वेदों के समान प्राचीन मानते हुए कहते हैं कि चार + न = जो चार वर्णों में नहीं है, वह चारण है। इसी प्रकार ‘च’ से चराना और ‘अरण’ से अरण्य का अर्थ ग्रहण कर चारण को ‘वन में चराने वाला’ भी कहा गया है। श्री कृष्णसिंह बारहठ ने प्राचीन काल से लेकर अर्वाचीन काल तक चारण के सोलह पर्यायवाची नामों की ओर संकेत किया है– ईहग (ईहग:), कव / किव / किवजण (कवि: और कवि जन:), गढवी (गढपति: वा गाढवान्), गुणियण / गुणिजन (गुणिजन:), चारण (चारण:), ताकव (तक्र्क;), दूथी (द्विथः-द्विस्थ: वा द्विकथी), नीपण (निपुण:) पात (पात्रम्), पोळपात (प्रतोली पात्र:), बारठ (द्वारहठ:), भाणव (भाणव:), मागण (मार्गणम्), रेणव (रणवह:), वीदग (विदग्ध:), हेतव (हितवह:)। वेदों के प्रख्यात भाष्यकारों ने जिनमें सायण, उव्वट एवं महीधर के नाम लिए जाते हैं, च + अरणाय पदच्छेद करके ‘अरणाय’ का अर्थ ‘प्रिय न लगने वाले’ किया है।
चारण को चार वर्णों से पृथक मानने का कोई प्रमाण नहीं मिलता। ‘वर्ण’ शब्द का प्रयोग कल्पना-प्रसूत है। चारण का वन में चराने वाला जो अर्थ लिया गया है उसके लिए सर्व श्री सूर्यमल्ल मिश्रण ने एक पौराणिक कथा की ओर संकेत किया है। जब श्रापवश सूत वंश नष्ट हो गया तब उसके उद्धार के लिए अकृतव्रण (काश्यप) ने आर्य मित्र (सूत) को महादेव की आराधना करने तथा उनके वृषभ को चराने का उपदेश दिया था। इस पर वृषभ ने उसे यह वरदान दिया कि मुझे चराने के कारण तुम चारण उप-पद धारण करो। जो १६ पर्यायवाची नाम दिये गये हैं, उनके विषय में इतना कह देना पर्याप्त होगा कि गुजरात में चारण के लिए ‘गढ़वी’ और ‘दूथी’ तथा राजस्थान में ‘बारहट’ शब्द अवश्य प्रचलित है, शेष नाम गुणों के व्यंजक हैं। भाष्यकारों के पदच्छेद में ‘चारण’ को जो छोटा रूप दिया गया है उससे चारण का महत्व कम नहीं हो जाता। अर्थ में अनर्थ करने की चेष्टा के अतिरिक्त जो कुछ कहा गया है यह चारण की उज्ज्वलता का प्रमाण है।
किसी भी शब्द की व्युत्पत्ति पर विचार करते समय उसके मूल भाव को ध्यान में रखना परमावश्यक हैं। ‘चारयति कीर्ति चर-णिच्ल्यु’ के अनुसार कीर्ति को चलाने अथवा आगे बढ़ाने वाला ही चारण है। चारण के विषय में यह निरुक्ति प्रसिद्ध ही है- ‘चारयंति कीर्ति मिति चारणा:’ अर्थात् कीर्ति को (कीर्तिम्) चलाने या आगे बढ़ाने (चारयंति) वाला ही चारण (चारणाः) है।
(ख) चारण जाति का उद्धव:- चारण जाति की उत्पत्ति कब और कैसे हुई, इसका निर्णय करना अत्यन्त कठिन है। श्री भैरवदान कृत ‘चारणोत्पत्ति-मीमांसा-मार्तण्ड’, कृष्णसिंह कृत ‘चारण कुल प्रकाश’, मुरारिदान कृत ‘संक्षिप्त चारण-ख्याति’, नंदसिंह कृत ‘चारण जाति का संक्षिप्त इतिहास’ एवं सूर्यमल्ल, भगवती प्रसादसिंह, किशोरसिंह, श्यामलदास, जादूदान प्रभृति अन्यान्य लेखकों के स्फुट विचारों से एक ही प्रकार की ध्वनि निकलती है और वह यह कि चारण की उत्पत्ति सृष्टि के आरम्भ काल से हुई है। इनका कथन है कि इस जाति का प्रादुर्भाव एक ऐसे समय में हुआ जब वर्ण-व्यवस्था का नाम-निशान तक नहीं था। चारण जाति का विश्वास है कि ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, पेट से वैश्य, चरणों से शूद्र एवं नासिका से चारण उत्पन्न हुए हैं। इन समस्त लेखकों ने भारतीय साहित्य के प्रथम ग्रंथ वेद में से ‘यथेमां वाचं कल्याणी मा वदानि जनेभ्यः ब्रह्मराजन्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय‘ ऋचा को अन्तर्साक्ष्य मान कर चार वर्णो के लिए अपनी कल्याण देने वाली वाणी का उपदेश देते हुए चारण का महत्व प्रतिपादित किया है और उसकी गणना देवताओं में की है। साथ ही श्रीमद्भागवत, मत्स्य पुराण, बाल्मीकि रामायण, महाभारत, आदि आर्ष ग्रंथों से अनेकानेक उद्धरण देकर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है कि वैदिक युग में चारण ‘देवानां स्तुति पाठका’ के रूप में प्रतिष्ठित थे। पुराण-काल के चारण को ‘पौराणिक चारण’ की संज्ञा देते हुए उनका निवास स्थान नाकलोक (स्वर्ग) बताया गया है। भगवती प्रसादसिंह ने मंगोलिया, सूर्यमल्ल ने तिब्बत एवं मुरारिदान ने सुमेरु पर्वत को स्वर्ग-लोक माना है। इनके मतानुसार जब देवासुर संग्राम हुआ तब उन लोगों ने विघ्न की शांति एवं उन्नति के हेतु उत्तर-पश्चिम के मार्ग से आकर पवित्र आर्यावर्त को अपना निवास स्थान बनाया। ठा. भगवतीप्रसादसिंह बीसेन लिखते हैं–महाभारत से जो प्रमाण उपलब्ध होते हैं, उनसे पता लगता है कि यह जाति किसी समय गन्धमादन पर्वत पर जिसे आजकल हिंदूकुश कहते हैं, रहती थी और वहीं होकर नाक (स्वर्ग) को मार्ग जाता था और यह मार्ग भारत में हरिद्वार से प्रारंभ होता था। प्राचीन काल में हरिद्वार को गंगाद्वार और स्वर्ग-द्वार भी कहते थे। जब यहां पर बस्ती बस गई तब इसका नाम मायापुरी रखा गया था। इसी मार्ग से चारण जाति के व्यक्ति गन्धमादन से दक्षिण की ओर भारतवर्ष में आया करते थे और उत्तर की ओर नाक या स्वर्ग में जाया करते थे। यह नाक लोक ब्रह्मा की पुरी के उत्तर में था, जो आजकल मंगोलिया के किसी स्थान में होना चाहिए। नाक लोक देवताओं की यज्ञ-भूमि थी और यहां पर यज्ञ करके सब देवता अपने अपने स्थान पर बिखर जाते थे। यहां किसी को रहने की आज्ञा नहीं थी। इसी प्रकार जैन पुराणों के आधार पर श्री भैरवदान ने कहा है कि चारण दिव्य देहधारी एवं गगनचारी थे तथा महात्माओं के सदृश अपनी मंजुल बाणी से दूसरों को उपदेश दिया करते थे। ‘चुत: शरण प्रकर्ण’, ‘उपदेश रसाल’ एवं ‘प्रबंध चिंतामणि’ नामक जैन-ग्रंथों को लेकर चारण के पवित्र जीवन, तपकर्म एवं शास्त्र पठन-पाठन की ओर भी संकेत किया गया है। इस प्रकार चारण को क्रमबद्ध रूप से वैदिक, रामायण-महाभारत, जैन-बौद्ध एव पुराण काल में देव-पुरुषों का स्तुति-गान करता हुआ अंकित किया गया है।
(ग) चारण जाति का मूल पुरुष:- प्रसिद्ध चारण विद्वान सूर्यमल्ल मिश्रण ने लोमहर्षण ऋषि के वंशज सूत को चारण जाति का मूल पुरुष माना है तथा भूमित्र नामक सूत के नष्ट होने, काश्यप ऋषि के श्राप देने, आर्यमित्र का नंदिकेश्वर को चरा कर उसके वरदान से अबरी नामक नाग कन्या से विवाह करके अपने कुल की वृद्धि करने, उसी समय सूत पद को त्याग कर चारण पद धारण करने तथा उस अवरी के १२० पुत्र उत्पन्न होने के कारण चारणकुल में १२० शाखाओं के होने का वृत्तान्त दिया है। लोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा के दौहित्र भूमित्र ने पुराण वृत्ति को लेकर संकास नामक ब्राह्मण से कहा था कि पुराण सुनाने की वृत्ति तो हमारी है, ब्राह्मण लोग हमसे क्यों जीते है? इस पर संकास के पिता काश्यप मुनि (अकृतब्रण) ने क्रोधित होकर श्राप दिया, जिससे वंश नष्ट हो गया। यह देख कर लोमहर्षण के वंशज काश्यप के चरणों में गिर पड़े। काश्यप को जब अपने गुरु (लोमहर्षण) के पुत्र के दौहित्र भूमित्र का बोध हुआ तब उन्होंने कहा था कि शीघ्र हिमालय पर्वत पर जाकर निरंतर भक्ति से महादेव की आराधना करो, वहां महादेव तुमको अपने वाहन वृषभ की सेवा करना बतायेंगे। वह वृषभ प्रसन्न होकर शीघ्र ही तुम्हारे वंश के बढ़ने का वरदान देगा। हिमालय पर महादेव की आराधना करने तथा वृषभ को चराने के कारण सूत वंश चारण कहलाया। जब मनु की १०वीं पीढ़ी में बेन राजा के पुत्र पृथ्वीपालक महाराजा पृथु उत्पन्न हुए तब उन्होंने पैतामह यज्ञ किया, उससे सोमाभिषव के दिन सूति (सोमाभिषव भूमि) से महामति सूत की उत्पत्ति हुई। उपस्थित मुनिवरों ने सूत से कहा कि तुम इन प्रतापवान बेनपुत्र महाराज पृथु की स्तुति करो, तुम्हारे योग्य यही कार्य है और राजा भी स्तुत्य है। सूत ने ऐसा ही किया। स्वयं पृथु सूत के कहे हुए गुणों को चित्त में धारण करते एवं वैसा ही आचरण करते। यशस्वी पृथु ने पृथ्वी का पालन करते हुए बड़ी बड़ी दक्षिणाओं वाले अनेक महान यज्ञ किये। ऐसे ही एक यज्ञ में चारणों को तैलंग देश दक्षिणा स्वरूप मिला था। अन्त में चारण गन्धमादन पर्वत छोड़ कर तैलंग देश में रहने लगे।
(घ) समीक्षा:- चारण जाति का देवता की संतान होने का दावा एक कल्पना है। यदि चारण देवता है तो अन्य जातियों के लोग फिर क्या हैं? आर्ष ग्रंथों का चारण किसी जाति का परिचायक न होकर एक विशेषण है, जिसका अर्थ है- कीर्ति का गायक। यजुर्वेद की ऋचा में कोई प्रार्थना करता हुआ कहता है कि में मनुष्य, ब्राह्मण, राजा, शूद्र, वैश्य अपने तथा अन्य लोगों के लिए कल्याणकारी वचन बोलूं। वैदिक युग में आर्यावर्त में आर्य ही निवास करते थे। उस समय वर्ण-व्यवस्था तो थी किंतु जाति-प्रथा नहीं। अत: कोई आश्चर्य नहीं, चारण अपने मूल रूप में ब्राह्मण वर्ण में रहे हों क्योंकि जहां तक जाति-प्रथा का सम्बंध है, प्रसिद्ध भारतीय इतिहासज्ञ डा. गौ.ही.ओझा एवं सी.बी.वैद्य का कथन है कि सम्भवत: सन् ११४३ ई. के पश्चात् मांसाहार एवं अन्नाहार के कारण जाति भेद हुआ और फिर देशों एवं पेशों के नाम से भिन्न भिन्न जातियां हुई। चारण के लिए ऐसा नहीं माना जा सकता। जाति के अर्थ में न सही, उसके गुण-कथन की सत्यता में किसे संदेह हो सकता है? प्राय: सभी राजवंशों से उसका घनिष्ट नाता है, अत: वह प्राचीन जान पड़ता है। जैन-ग्रंथों में चारणों का जो फुटकर विवरण प्राप्त होता है, वह अविश्वसनीय नहीं है। उसे देखने से ज्ञात होता है कि ये लोग उच्च गुणों से अलंकृत थे और सभ्य समाज में अपनी प्रतिष्ठा के कारण सदैव आमंत्रित किये जाते थे। स्कंदपुराण में ये देवताओं के रूप में चित्रित किये गये हैं–
गान्धर्वस्तवे वलोऽमी गंधवश्चि शुभ्रवत:।
देवानां गायना द्यते चारण स्तुति पाठका:।।
(ङ) निष्कर्ष:- सौभाग्य से कहिये अथवा दुर्भाग्य से हमारे देश में महापुरुषों के साथ अपनी परम्परा एवं वंश का जोड़ना एक गौरव की बात समझी जाती है। एतदर्थ ‘चारण’ को, लेकर विविध प्रकार की कहानियां गढ़ी गई। जब विभिन्न राज्यों में अन्य जातियों के साथ चारण जाति की छान-बीन हुई तब इसके प्रतिनिधियों ने प्राचीनता को अलौकिक रूप-रंग देकर बड़े चमत्कारपूर्ण ढंग से अपना परिचय दिया। जो हो, चारण का अस्तित्व सहस्रों वर्ष प्राचीन हैं। आदिकाल में अधिकांश चारण घोड़े, गाय, भैंस, बैल आदि उपयोगी पशुओं का क्रय-विक्रय करते थे। किसी समय उत्तर-पश्चिम भारत में घी और घोड़ों के व्यापार की कुंजी इनके हाथ में थी। धनाढ्य चारण आढ़तियों एवं गुमाश्तों से बैलों पर माल-असबाब पहुंचाने का भी काम करते थे जिनमें ‘हैमहेड़ाऊ’ एवं ‘मावलजी बरसड़ा’ के नामों का पता चलता है। वस्तुत: चारण जाति का इतिहास राजपूतकालीन भारत से आरम्भ होता है जिसका समय हर्षवर्द्धन से पूर्व का प्रतीत नहीं होता। कालान्तर में क्षत्रिय राजवंशों के दरबारों में स्वयंवर, विवाह एवं यज्ञ जैसे शुभावसरों पर चारण का आना और उनके वंश की उज्ज्वल कीर्त्ति को डंके की चोट के साथ सुनाना उसका परम्परागत व्यापार रहा है।
(च) चारण जाति का विस्तार:- चारण ग्रंथों में आई हुई एक लोकगाथा के अनुसार इस जाति की सर्व प्रथम कुलदेवी हिंगुलाज थी, जो बिलोचिस्थान में रहती थी। इसके पिता का नाम कापड़िया था। आद्या भगवती हिंगुलाज से ८ वीं शताब्दी तक की शक्तियों के इतिहास का पता नहीं चलता। स्वयं हिंगुलाज देवी का भी न तो कोई चरित्र ही उपलब्ध होता है और न उसके समय का ही पता लगता है। जो हो, आरंभ में चारण इसी के पास उत्तर-पश्चिम भारत मे रहते थे। वहां से ये लोग दक्षिण की ओर भिन्न भिन्न भागों में बसते गये। वैवाहिक संबंध स्थापित होने से सिंध, कच्छ एवं काठियावाड़ इनके प्रमुख केन्द्र थे। कालांतर में यवन आक्रमणकारियों के अत्याचार से एक विकट धर्म-संकट में पड़ कर ये लोग गुजरात एवं राजस्थान में आकर निवास करने लगे, जिसका वृत्तांत बड़ा ही मनोरंजक है। विक्रम की ८ वीं शताब्दी में जब सिंध प्रांत में ‘साउवा’ शाखा में मादा के पुत्र मम्मट (मामड़) के घर महाशक्ति उब्बट (आवड़) देवी का जन्म हुआ तब एक ऐसी घटना घटी कि भिन्न भिन्न स्थानों में बसे हुए लोग केवल सिंध प्रांत में आकर केंद्रित हो गये। यह देवी हिंगुलाज का अवतार मानी जाती है। ये सात बहिनें थीं-आवड़, गुली, हुली, रेष्यली, आछी, चर्चिका एवं लध्वी। ये सब परम सुंदरियां थीं, इसलिए सिंध के यवन बादशाह हम्मीर सूमरा ने इनके साथ विवाह करना चाहा और मना करने पर इनके पिता मामड़ को कैद कर दिया। यह देख कर ६ देवियां तो सिंध से तेमड़ा पर्वत (जैसलमेर से १४ मील दूर) पर आ गई और छोटी बहिन लध्वी काठियावाड़ के दक्षिणी पर्वतीय प्रदेश में ‘तांतणियादरा’ (भावनगर से १४ मील दूर) नामक नाले के ऊपर स्थान बना कर रहने लगी। यह भावनगर की कुलदेवी मानी जाती है और समस्त काठियावाड़ में इसकी भक्तिभाव से पूजा होती है। वलभी के राजा शिलादित्य सातवें ने इसके रूप पर मोहित होकर विवाह करना चाहा किन्तु इसने क्रुद्ध होकर उसके राज्य का ही नाश कर डाला। उधर आवड़ देवी अपनी बहिनों एवं माता-पिता को तेमड़ा पर्वत की कंदरा में रख कर सिंध लौट आई और सूमरों के विशाल राज्य को नष्ट कर दिया। अत: आवड़ एवं लध्वी नामक देवियां उस समय के चारणों की ही नहीं, प्रत्युत सारे सिंध-काठियावाड़ की उपास्य देवियां थीं। इन देवियों पर संकट आया हुआ देख कर बिखरी हुई चारण जाति सिंध, काठियावाड़ एवं कच्छ में एकत्रित हुई। उस समय ये प्रान्त चारण जाति के प्रमुख घर कहलाने लगे। जब आवड़ ने तेमड़ा पर्वत को अपना निवास-स्थान बनाया, तब इसके दर्शनार्थ अनेक चारणों का आगमन राजस्थान की ओर निरंतर बना रहा और समय पाकर ये लोग राजस्थान में बस गये। आपत्ति काल में काठियावाड़ से चारणों के दो दल हो गये। पहला दल वहीं रहा और कच्छ देश के नाम से ‘काछेला’ कहलाया, किन्तु दूसरा दल मारवाड़ मै चला आया, जो मरुदेश के नाम से ‘मारू’ कहलाया। मारू चारण मारवाड़ से निकल कर अन्य राज्यों में भी फैले हैं। इनके अधिकार में बीस लाख रुपये वार्षिक आय की भूमि रही है, अकेले मारवाड़ राज्य में अनुमानत: चार लाख की थी। आजकल राजस्थान में चारणों की कुल जन-संख्या अनुमानत: ६०, ००० है (१९७७ ई. में)।
(छ) चारण जाति का धर्म:- चारण विद्वानों ने इष्ट और उपासना के प्रसंग में कहा है कि अनन्त काल से उन्हें विष्णु भगवान का इष्ट है और इनकी उपासना करना ही उनका प्रधान धर्म है। कुछ लोग अपने को शाक्त-धर्मावलम्बी मानते हैं। इन दोनों मतों के अतिरिक्त एक वर्ग ऐसा भी है जो ‘यवरी’ देवी के वंशज होने के कारण अपने को यायावरी कहता है। ज्यों-ज्यों चारणों का संबंध क्षत्रिय जाति से उत्तरोत्तर बढ़ता गया त्यों-त्यों शक्ति की उपासना तीव्र होती गई। चारण जाति में शक्ति के अवतार बहुत हुए है। अत: इनकी स्तुति में भी गीत-रचना का अभाव नहीं। यथार्थ में चारण धर्म में समय समय पर अनेक परिवर्तन हुए हैं। दूसरी शताब्दी में चारण जाति के अनेक व्यक्ति जैन धर्म में दीक्षित हुए थे। क्षत्रिय धर्म के प्रभाव-स्वरूप चारण ब्राह्मण धर्म से शनै: शनै: दूर हटते गये। इसके लिए जिस ‘कौल’ शब्द का व्यवहार किया जाता है उससे यही सिद्ध होता है कि किसी समय यह जाति शाक्त सम्प्रदाय (कौल धर्म) की उपासना करती थी। नाथ सम्प्रदाय के उत्थान काल में शाक्त धर्म ने उसके आधारभूत सिद्धान्तों को आत्मसात कर अपनी समन्वयवादी भावना का परिचय दिया। चारण जाति में नाथ सम्प्रदाय के अनेक योगी हुए हैं। इस प्रकार यद्यपि ब्राह्मण, यायावर, वैष्णव, जैन एवं नाथ सम्प्रदाय का प्रभाव चारण धर्म पर पड़ता गया तथापि प्राचीन काल से अर्वाचीन काल तक शाक्त धर्म का परित्याग यह जाति कभी नहीं कर पाई।
(ज) चारण एव राजपूत जातियों का पारस्परिक संबंध:- चारण राजपूत का चित्रकार है। एक गुरु है, दूसरा शिष्य। चारण अपने ओजस्वी भाषणों से प्राणों का मोह छुड़ा कर वीरों को स्वदेश एवं परहितार्थ सहर्ष मृत्यु का आलिंगन करना सिखाते हैं। ऐसे चारण गुरुओं की बलिहारी है जो क्षणमात्र के तप से स्वर्ग-प्राप्ति करा देते हैं। यही इस सम्बंध का मूल रहस्य है। इन दोनों जातियों के अन्योन्याश्रित सम्बंध को देख कर कहना ही पड़ेगा कि भारत की अन्य जातियों में ऐसा घनिष्ट सम्पर्क दुर्लभ है। इस सम्बंध का आरम्भ हर्षवर्द्धन के पश्चात क्रमबद्ध रूप से देखने को मिलता है। इस समय के आसपास दोनों जातियाँ राजस्थान में जम गई थीं। राजपूत जाति पर ब्राह्मण विद्वानों का प्रभाव एवं अधिकार परम्परा से था। भौतिक ऐश्वर्य के लोभ में प्रत्येक जाति स्वभावत: सत्तारूढ़ जाति से अपना सम्बंध जोड़ना चाहती है। काव्य के क्षेत्र में ब्राह्मण एवं चारण जाति की वृत्ति को लेकर समझौता इस प्रकार हुआ दिखाई देता है कि ब्राह्मण तो परम्परा के समान क्षत्रियों के इहलोक एवं परलोक विषयक धर्म-कार्य, यज्ञ, विवाह, जन्म-मृत्यु के कर्म, कथा, पुण्य लेना व पूजा करने के ठेकेदार बने रहे तथा युद्ध के साथी चारणों ने वीर धर्म की शिक्षा देने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लिया। इसके साधन बने- इतिहास और कविता, जिसे सुनकर राजपूत जाति कर्त्तव्य-पथ पर चल कर लोक-कल्याण में संलग्न हुई। चारण राजपूत को ऐतिहासिक प्रसंगों की सहायता से मौखिक शिक्षा देता और आवश्यकतानुसार काव्य के द्वारा उसके कार्यो की आलोचना भी करता। इसके लिए उसे सत्याग्रह (धरना) की भी आवश्यकता हुई है। राजपूतों के साथ रहने से उसका संस्कृत ज्ञान तो नष्ट हो गया इसलिए उनकी समझ में आने वाली देशी भाषा में काव्य-रचना कर उसे उपदेश देना आरम्भ किया।
जिस प्रकार चारण कवियों ने राजपूत जाति के कुल-गौरव को सुनहरे अक्षरों में अंकित किया है, उसी प्रकार उन्होंने जीवन तथा जगत के नाना क्षेत्रों में उनकी सेवा भी की है। इतिहास इस कथन की पुष्टि करता है कि चारण राज्य-दरबारों में रह कर राजनैतिक कार्यो में पूर्ण दिलचस्पी लेते थे। पारिवारिक समस्याओं को सुलझाने में भी रुचि ली है। विपत्ति एवं युद्ध के समय तो कंधे से कंधा भिड़ा कर वे प्राणों तक का विसर्जन कर देते थे। जब कोई राजपूत अपने बंधु-बांधवों के अपराध से अथवा राजा-महाराजाओं के अन्याय से बचने के लिए चारण के घर आश्रय ग्रहण करता तब उसे कोई नहीं छेड़ता था। युद्ध का निमन्त्रण मिलने पर राजपूत अपनी बहू-बेटियां एवं स्त्रियों को चारणों के घर छोड़ देते थे। इस प्रकार हम इन दोनों को एक आत्मा दो शरीर के रूप में देख सकते हैं। चारण काव्य है तो राजपूत उसका चरित-नायक!
चारण जाति ने राजपूत जाति की अमूल्य सेवा कर जो मान-सम्मान प्राप्त किया उसका लेखा-जोखा बड़ा ही लम्बा-चौड़ा है। इस दृष्टि से राजपूत एवं चारण नामों के पीछे लगे हुए क्रमश: सिंह और दान पूर्णतया सार्थक हैं। श्री कृष्णसिंह बारहठ ने प्राचीन काल से अर्वाचीन काल तक के दान-सम्मान का विवरण दिया है। मजा यह है कि ये दान-सम्मान वंश-परम्परागत होते हैं, जबकि अन्य जीवन पर्यन्त ही होते हैं। यदि इन दोनों का विश्लेषण किया जाय तो कहा जा सकता है कि इन्हें कविराजा का उपटंक, ताजीम, पैरों में स्वर्णाभरण, लाखपसाव, बांहपसाव, ठिकाना, हाथी, घोड़े, पालकी, सोना, चांदी, नकद रुपये आदि अनेक मूल्यवान पदार्थ प्राप्त हुए हैं। अंग्रेजी शासन काल में इन्हें तमगे एवं महामहोपाध्याय की उपाधि से अलंकृत किया गया है। यह लक्ष्य करने की बात है कि अनेक कवियों ने राजाओं द्वारा दिए हुए पुरस्कारों को ठुकराया भी है। राजस्थान में चारणों का यह संबंध राजपूत की शुद्धता का प्रमाण है। जोधपुर के महाराजा मानसिंह ने पीथा के स्वर्गवास पर (१८६४ ई.) ठीक ही कहा हैं- जिस क्षत्रिय के घर में तलवार की इज्जत है, त्याग की महानता है, उस क्षत्रिय के लिए चारण भाई के समान है। तलवार और त्याग से दूर राजपूत के साथ चारण जाति का कोई सम्बंध नहीं।
(झ) पाश्चात्य चारण:- यदि क्षत्रिय का अर्थ शासक वर्ग से लिया जाय और चारण का उसके स्तुतिकार से तो यह मानना पड़ेगा कि पूर्व एवं पश्चिम दोनों में ऐसे कवियों का सिंहासनारूढ़ राजवंशों से घनिष्ट सम्बंध रहा है। पश्चिम में चारण के लिए ‘बार्ड’ शब्द का प्रयोग हुआ है, जो न तो जाति-सूचक है और न चारण का पर्याय ही। हां, व्यावसायिक दृष्टि से दोनों ओर के कवियों में पर्याप्त साम्य है। यूरोप में भी विरुदावली की एक समृद्ध परम्परा रही है। वहां के बार्ड भी निरुत्साही को उत्साह देने एवं देश की रक्षार्थ ओजपूर्ण वाणी में योद्धाओं को उत्तेजित करने में पीछे नहीं रहे हैं। अंग्रेजी ग्रंथों से प्रकट है कि वहां ‘स्कोप’, ‘ग्लीमेन’ एवं ‘स्काल्ड्स’ के नाम से इस परम्परा का विकास हुआ है। दोनों ओर के कवियों की चतुरता, पवित्रता, एवं महानता के गीत गाये गये हैं। ऐसी अनेक कहानियां वहां भी प्रचलित है जिनसे बार्डों की अद्वितीय स्वामीभक्ति का परिचय मिलता है। रिचर्ड (प्रथम) को कैद से छुड़ाने का श्रेय Blondell De Nesle नामक बार्ड को है। इसी प्रकार Talbot नामक परिवार के एक रईस ने बार्ड के वेष में नारमंडी जाकर एक कन्या को अपहरण होने से बचाया था। ये लोग संधि-विग्रहक के रूप में भी प्रतिष्ठित थे और इन्हे शत्रु शिविर में जाने की आज्ञा प्राप्त थी, यहां तक कि यदि कोई बार्ड का वेष बना कर शिविर में घुस जाता तो घुस ही जाता था। जब Baldulph अपने भ्राता काल्ग्रीन को कैद से छुड़ाने गया, आल्फ्रेड राजा डेनिश सेना की यथार्थ स्थिति देखने गया (८७८ ई.) तथा डेनिश राजा ब्रिटिश राजा Anthestan के शिविर में गया (९३८ ई०) तब उन्हें बार्ड वेष में ही सफलता मिल सकी थी। यद्यपि सब देशों में ऐसे लोगों को उचित पुरस्कार दिये गये हैं तथापि उनके रूप एवं मात्रा में भेद अवश्य है। हेनरी (तृतीय) ने इनको Magister or Master का पद प्रदान किया। शासक-जाति का धर्म परिवर्तन इनके काव्य-व्यवसाय में सहायक हुआ है। कालान्तर में जब ये पद-दलित हो गये तब सम्राज्ञी एलिजाबेथ ने कानून बनाकर इनका व्यवसाय बन्द करा दिया। इन साम्यताओं के होते हुए भी पाश्चात्य बार्ड में ऐसे दृष्टांत नहीं मिलते जहां उन्होंने धरना देकर अपनी उद्देश्य-सिद्धि की हो अथवा किसी स्त्री को सती होने के लिए उत्साहित किया हो।
(५) – राजस्थानी भाषा एवं साहित्य पर किया गया शोध-कार्य:
१९ वीं शताब्दी में भारतीय भाषाओं तथा उनके साहित्य की खोज आरम्भ हुई। सर्व प्रथम ईसाई धर्म-प्रचारकों को अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए यहां की भाषा जानना आवश्यक हुआ (१८१६ ई.) इसके पश्चात् कई अंग्रेज विद्वानों ने राजस्थानी भाषा एवं उसके साहित्य पर प्रकाश डाला जिनमें मैकेलिस्टर, बीम्स, डॉ. ग्रियर्सन, डॉ. टैसीटोरी, कर्नल टाड, कनिंगहम, डा. एलन आदि के नाम चिरस्मरणीय है। पं. रामकर्ण आसोपा राजस्थान कें पहले विद्वान थे जिनका ध्यान इस ओर आकर्षित हुआ। उन्होंने ‘मारवाड़ी व्याकरण’ लिखा जिसे प्रथम वैज्ञानिक व्याकरण कहा जाता है (१८९६ ई.) डा. ग्रियर्सन एवं डॉ० हरप्रसाद शास्त्री ने एशियाटिक सोसाइटी के तत्वावधान में राजस्थानी के कतिपय ग्रंथों का अध्ययन किया जिसकी एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई (१९१३ ई.) इस रिपोर्ट से अन्य विद्वानों का ध्यान तेजी से इस ओर गया। बंगाल के प्रसिद्ध विद्वान डॉ. सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या ने ‘बंगला भाषा का आरम्भ और विकास’ में राजस्थानी की विशेषताओं का उद्घाटन किया। गुजरात के विद्वानों ने गुजराती एवं राजस्थानी की एकता स्थापित की एवं साहित्य के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण खोजें कीं। इनमें श्री जवेरचन्द मेघाणी एवं मुनि जिनविजयजी की सेवायें विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। मेघाणी कृत ‘चारणो अने चारणी साहित्य’ एक महत्वपूर्ण कृति है। मुनिजी ने अनेक प्राचीन ग्रंथों का कुशल सम्पादन किया है। इस नाते राष्ट्रपति ने उन्हें ‘पद्मश्री’ की उपाधि से अलंकृत किया है।
उपर्युक्त विद्वानों के अथक परिश्रम, लगन एवं अध्ययन से जब राजस्थानी का एक व्यवस्थित ढांचा बन कर तैयार हो गया तब यहां के विद्वानों ने भाषा एवं साहित्य में खोज करना आरम्भ किया। डॉ० उदयसिंह भटनागर ने ‘मेवाड़ी बोल का ऐतिहासिक तथा तुलनात्मक परिशीलन’ प्रस्तुत किया (१९३९ ई.) इसी वर्ष डॉ. मोतीलाल मेनारिया ने ‘राजस्थानी साहित्य की रूप-रेखा’ बनाई, जो आगे चलकर पृथक २ ग्रंथों में विस्तृत होती गई। डॉ. टेसीटोरी (इटली) प्रथम विदेशी विद्वान था जिसकी दृष्टि चारण शैली के ग्रंथों पर पड़ी। इन्होंने पहले एक गवेषणात्मक निबन्ध लिखा (१९१४-१६ ई.) राजस्थान में आकर ये स्थान २ पर घूमे और बड़े परिश्रम से तीन विवरणात्मक सूचियां तैयार कीं। साथ ही तोन प्रतिनिधि काव्यों का सम्पादन भी किया जिनमें ‘वेलि क्रिसन रुकमणी री’, ‘वचनिका राठौड् रतनसिंह महेसदासोतरी’ एवं ‘छंद राय जैतसी रउ’ के नाम प्रसिद्ध हैं। टैसीटोरी की खोज सम्बन्धी गहराई को देखते हुए बड़ी २ आशायें थीं, किन्तु दुर्भाग्य से बीकानेर में इनका ३० वर्ष की आयु में देहान्त हो गया जिससे चारण साहित्य को विशेष क्षति पहुंची। पं. आसोपा ने बांकीदास ग्रंथावली जैसे कई ग्रंथों का सम्पादन कर पाठकों को राजस्थानी के वैभव से परिचित कराया। ठा. रामसिंह एवं सूर्यकरण पारीक ने विस्तृत प्रस्तावना सहित ‘वेलि’ का सम्पादन किया (१९२६ ई.)। इसका सम्पादन प्रो० नरोत्तमदास स्वामी एवं आनन्दप्रकाश दीक्षित ने भी किया है। रामसिंह, पारीक एवं प्रो. स्वामी ने ‘ढोला मारू रा दूहा’ का सफल सम्पादन कर भूमिका में भाषा और व्याकरण का महत्वपूर्ण विवेचन किया (१९३४ ई०) प्रो. स्वामी द्वारा सम्पादित ‘राजस्थानी रा दूहा’ भाग १-२ भी उल्लेखनीय हे। इसी प्रकार रामसिंह एवं पारीक के ‘राजस्थानी के ग्राम गीत’, ‘राजस्थानी लोक गीत’ आदि महत्वपूर्ण हैं। ठा. रामसिंह शेखावत के ‘विविध संग्रह’ एवं ‘महाराणा-यश-प्रकाश’ पृथक आकर्षण रखते हैं। मुंसिफ देवीप्रसाद द्वारा सम्पादित ‘राजरसनामृत’, ‘महिला मृदु वाणी’ एवं ‘कविरत्नमाला’ नामक ग्रंथ राजघरानों की महिलाओं द्वारा साहित्य-सेवा के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। डॉ. कन्हैयालाल सहल, प्रो. पतराम गौड़ एवं ठा. ईश्वरदान आसिया ने ‘वीरसतसई’ का सम्पादन कर उसकी विस्तृत भूमिका लिखी। जगदीशसिंह गहलोत ने ‘ऊमर-काव्य’, ‘राजिया के सोरठे’ आदि का सम्पादन किया। डॉ. मेनारिया ने ‘डिंगल में वीर रस’ एवं ‘हाला झालां रा कुंडलिया’ नामक ग्रंथों का सम्पादन कर इस कार्य को और आगे बढ़ाया। इन सम्पादन ग्रंथों के अतिरिक्त बहुत से साहित्य-सेवियों ने बिखरी हुई सामग्री का आकलन किया है जिनमें हरिनारायण पुरोहित, सीताराम लालस, मुरलीधर व्यास, गणपति स्वामी तथा दीनानाथ खत्री के नाम मुख्य हैं।
इतना होते हुए भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि पद्य के क्षेत्र में जितना शोध-कार्य हुआ है, गद्य के क्षेत्र में उतना नहीं। प्रो. स्वामी ने सम-सामयिक पत्र-पत्रिकाओं में प्राचीन गद्य के उदाहरण दिये हैं। पद्य की तुलना में गद्य की सम्पादन रचनायें अत्यन्त कम हैं। पारीक द्वारा सम्पादित ‘राजस्थानी वातां’ अच्छा संग्रह है। आसोपा ने ‘नैणसी री ख्यात’ (अपूर्ण), डॉ. दशरथ शर्मा ने ‘दयालदास की ख्यात’ एवं प्रो. स्वामी ने ‘बाँकीदास री ख्यात’ का सम्पादन कर ऐतिहासिक गद्य को सुलभ बनाया है। का. ना. प्र. सभा द्वारा प्रकाशित हस्तलिखित ग्रंथों में राजस्थानी के भी कुछ ग्रंथों की सूचना प्राप्त होती है। इसी प्रकार मोहनलाल दलीचन्द देसाई कृत ‘जैन गुर्जर कवियो’ में भी अनेक महत्वपूर्ण संकेत मिलते हैं। सन् १९४० ई. से राजस्थान के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज एवं उनके विवरण का प्रकाशन कार्य उदयपुर विश्वविद्यापीठ की शोध संस्थान के तत्वावधान में आरम्भ हुआ जिसके अन्तर्गत प्राचीन राजस्थानी गीत, भाग १-१२ अब तक प्रकाशित हो चुके हैं। हस्त लिखित ग्रंथों में डॉ. मेनारिया का भाग १ (१९४० ई.), अगरचंद नाहटा का भाग २ (१९४७ ई.) एवं डॉ. उदयसिंह भटनागर का भाग ३ उपयोगी सूचीपत्र हैं। इनके अतिरिक्त डॉ. मेनारिया ने उदयपुर महाराणा की लायब्रेरी के हस्त लिखित ग्रंथों का एक सूची-पत्र सन् १९४३ ई. में अलग प्रकाशित किया। श्री अगरचंद नाहटा एवं प्रो. स्वामी की प्रेरणा से ऐसे सूची-पत्र समय २ पर प्रकाशित होते रहे हैं। फुटकर सूचना देने वाले तो बहुतेरे हैं।
राजस्थान में स्वतन्त्र रूप से कार्य करने वाले अध्यवसायी साहित्य-सेवी इनेगिने ही रह गये हैं। आजकल विश्वविद्यालय के अन्तर्गत शोध की प्रवृत्ति जोर पकड़ रही है। राजस्थान (जयपुर, जोधपुर एवं उदयपुर) के विश्वविद्यालयों में जो शोध-प्रबन्ध डॉक्टर की उपाधि के लिए स्वीकृत हुए हैं उनमें कन्हैयालाल सहल का ‘राजस्थानी कहावतें’, नरेन्द्र भानावत का ‘राजस्थानी वेलि साहित्य’, कन्हैयालाल शर्मा का ‘हाडोती बोली और साहित्य’, मनोहर शर्मा का ‘राजस्थानी वार्ता साहित्य’, नारायणसिंह भाटी का ‘डिंगल गीत’, गोवर्द्धन शर्मा का ‘प्राकृत और अपभ्रंश का डिंगल साहित्य पर प्रभाव’, स्वर्णलता अग्रवाल का ‘राजस्थानी लोक गीत’ (जयपुर), पुरुषोत्तम मेनारिया का ‘कृष्ण-रुक्मिणी सम्बन्धी राजस्थानी विवाह काव्य’, रामप्रसाद दाधीच का ‘महाराजा मानसिंह : व्यक्तित्व और कृतित्व’ (जोधपुर); विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। अन्य शोधकर्ताओं में मोतीलाल गुप्त, राजकुमारी शिवपुरी, कृष्णवल्लभ शर्मा, आलमशाह खां, हरीश, नामूलाल पाठक, कृष्णचन्द्र श्रोत्रिय, राधेश्याम, कृष्ण उपाध्याय, लक्ष्मी शर्मा, त्रिवेणी, उषा देसाई, बसन्तकुमार शर्मा, कुसुम माथुर, नेमिचन्द श्रीमाल, ब्रजमोहन जावलिया, रिछपालसिंह शेखावत, रामगोपाल गोयल, भगवतीलाल शर्मा, राज सक्सेना, शक्तिदान कविया, आज्ञाचन्द भण्डारी, ओम कुमारी गहलोत, तारा सापट, मदन मेहता, कमला रामावत, नारायणदत्त श्रीमाली आदि के नाम लिए जा सकते हैं। अन्य विश्वविद्यालयों में भी शोधकार्य हुआ है तथा चल रहा है। इनमें आत्माराम जाजोदिया का ‘प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी का विकास’ (१५ वीं सदी), उदयसिंह भटनागर का ‘गोरा बादल पद्मिणी चौपई’, (बम्बई), जगदीशप्रसाद श्रीवास्तव का ‘डिंगल पद्य साहित्य का अध्ययन’ (प्रयाग); नामवरसिंह का ‘पृथ्वीराज रासो की भाषा’ (वाराणसी); विपिनबिहारी त्रिवेदी का ‘चन्द बरदाई और उसका काव्य’, तारकनाथ अग्रवाल का ‘वीसलदेव रास का सम्पादन’, हीरालाल माहेश्वरी का ‘राजस्थानी भाषा और साहित्य १५००-१६५० सं. (कलकत्ता); ब्रजलाल वर्मा का ‘रज्जब साहित्य’ (आगरा), उल्लेखनीय कृतियाँ हैं। ऋषभ भण्डारी, महेशचन्द्र सिंहल, बद्रीप्रसाद परमार, हरदयाल यदु, कृष्णलाल हंस, चिन्तामणि उपाध्याय, देवीप्रसाद शर्मा, जनार्दन, के. बी व्यास, एम. सी. मोदी आदि उत्साही अन्वेषक आज भी इस कार्य में जुटे हुए हैं। हर्ष का विषय है कि पाश्चात्य देश भी इस ओर आकर्षित हुए हैं।
(क) चारण साहित्य-विषयक उपलब्ध सामग्री:- उपर्युक्त शोध-सामग्री के अध्ययन से राजस्थान के अनेक चारण कवियों का विवरण प्राप्त होता है, जो पूर्ण है एवं अपूर्ण भी। सम्पादित ग्रंथों की भूमिकाओं में भी अन्य कवियों के विषय में सुदूर-संकेत उपलब्ध होते है। कर्नल टाड, डॉ. गौ. ही. ओझा, देवीप्रसाद मुंसिफ, हरविलास सारदा, विश्वेश्वरनाथ रेउ, जगदीशसिंह गहलोत, सुखसंपतिराय भटनागर, न्यायरत्न लल्लूभाई भीमभाई देसाई, डॉ. रघुवीर प्रभृति इतिहासकारों की कृतियों में भी अनेक कवियों एवं उनके काव्य का परिचय प्राप्त होता है। राजस्थान के राजघरानों के विभिन्न पुस्तकालयों, जैन-भण्डारों एवं चारणों के घरों में भी बहुत सी सामग्री छिपी पड़ी है। राजस्थान रिसर्च सोसाइटी (कलकत्ता), शोध संस्थान चौपासनी (जोधपुर), राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान (जोधपुर), श्री अभय जैन ग्रंथालय (बीकानेर), सार्दूळ शोध संस्थान (बीकानेर), रूपायन संस्थान (बोरूंदा) आदि संस्थाओं में भी महत्वपूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है। इस दिशा में चारण-पत्रिकायें भी हमारा पथ-प्रदर्शन करती हैं। अन्य पत्रिकाओं में ‘मरुभारती’ (पिलानी), ‘परम्परा’ (जोधपुर), ‘शोध-पत्रिका’ (उदयपुर), ‘राजस्थान भारती’ (बीकानेर) आदि के नाम नहीं भुलाये जा सकते। राजस्थान में चारण साहित्य विषयक सामग्री बहुत है, किन्तु उचित अध्ययन-अध्यापन के अभाव में वह अंधकार में विलीन होती जा रही है। इसे सुरक्षित बनाये रखने के हेतु विशिष्ट प्रौढ़ व्यक्तियों की जानकारी भी अत्यन्त उपयोगी है। इसका चयन, संशोधन एवं संकलन करना मातृभाषा प्रेमियों का कर्तव्य है। प्रस्तुत प्रबन्ध का लक्ष्य यही है।
(ख) चारण साहित्य की महत्ता:- राजस्थानी के साहित्य-निर्माण में सर्वाधिक योगदान चारण जाति का रहा। इस जाति के जीवन का मुख्य उद्देश्य साहित्य-सेवा करना था और आज भी वह अपने उद्देश्य में दृढ़ है। इसमें एक-एक से उत्तम कवि हुए हैं। मृत्यु के इन व्यापारियों ने रात-दिन साहित्य साधना कर कायरों में उत्साह का मंत्र फूंका है और निष्प्राणों में अपनी ओजस्विनी वाणी की संजीवनी बूटी से प्राणों का संचार किया है। कहना न होगा कि यह साहित्य समग्र हिन्दू जाति के लिए एक अपूर्व देन है। अन्य भाषाओं में जिस वस्तु का अभाव है यह उसकी पूर्ति करने में सक्षम है। राजस्थान, गुजरात एवं मध्य प्रदेश चारण साहित्य के प्रमुख गढ़ हैं। यहां के सहस्रों कवियों एवं कवयित्रियों ने राजस्थानी भाषा में गद्य-पद्यमय अद्वितीय साहित्य रत्नराशियों के द्वारा इसके भण्डार को अमित बनाया है। वीर रस का चारण साहित्य एक अखूट खजाना है ही, साथ ही अन्य रसों का भी अभाव नहीं है। इन्ही विशेषताओं के कारण राजस्थानी की विभिन्न शाखाओं में चारण शाखा विशेष सधन एवं पुष्ट है। कतिपय विद्वान तो चारण साहित्य को ही राजस्थानी की संज्ञा देते हैं। संक्षेप में भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों नें इसकी भूरि २ प्रशंसा की है। म. मो. मालवीय कहा करते थे- यह साहित्य हमारे विश्वविद्यालयों में क्यों नहीं पढ़ाया जाता? विश्व कवि टैगोर इस पर विशेष रूप से मुग्ध थे। न्यायमूर्ति आशुतोष मुकर्जी ने इसे साहित्यिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से भारतीय भाषाओं में महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया है। कर्नल टॉड, डॉ. टेसीटोरी, डॉ. ग्रियर्सन आदि इससे अलग प्रभावित हैं। विश्व के इन महान विद्वानों ने चारण जाति के साहित्य को जिस दृष्टि से देखा है, वह सम्पूर्ण भारत के लिए गौरव का विषय है।
(ग) चारण साहित्य का काल-विभाजन:- हर्षवर्द्धन की निधन तिथि प्रस्तुत प्रबंध के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है (६४८ ई.) एक विकट धर्म-संकट मे पड़कर चारण जाति के लोग सिंध, कच्छ और काठियावाड़ से होकर गुजरात एवं राजस्थान में आकर बसे। यह वह समय था जब यवनों के आक्रमण उत्तर-पश्चिम की ओर से होते रहते थे। शौर्य एवं पराक्रम के इस युग में ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ का बोलबाला था। इतिहास इस कथन की पुष्टि करता है कि भारतीय समाज, धर्म, शासन, कला एवं साहित्य की वह प्रतिष्ठा नहीं रह गई थी जो देश को मौर्य तथा गुप्तकाल में प्राप्त थी। महाराजा पृथ्वीराज ही एक ऐसा अंतिम हिन्दू-सम्राट था जिसने विदेशी सत्ता से लोहा लिया। उनके अचलस्त होने पर अपनी संकुचित सीमाओं एवं स्वार्थ-साधनों के भीतर व्यक्तिगत गौरव तथा स्वाधीनता की रक्षा के लिए राजा-महाराजा परस्पर लड़ने लगे। उनमें शौर्य एवं पराक्रम का अभाव नहीं था, किन्तु सार्वदेशिक एवं राष्ट्रीय भावना के न होने से ये गुण देश की शक्तियों को सुदृढ़ करने में असफल सिद्ध हुए। भारत भूमि में ऐसा कोई प्रतापी राजा नहीं रह गया जो मौर्य-युग के शांति-साधनों अथवा गुप्त-काल के सैनिक वैभव से शेष सभी राज्यों को एक सार्वभौम ध्वजा के नीचे एकत्र करता। इन समस्त कारणों से भारत का पश्चिमी भाग जो सभ्यता, संस्कृति एवं बल-वैभव का केन्द्र था, यवनों के हाथ में चला गया।
उपर्युक्त परिवर्तित परिस्थितियों से मूल प्रेरणा ग्रहण करने पर चारण जाति का विस्तार हुआ और उसमें नवीनता का बीजारोपण हुआ। शनै: २ राजपूत जाति के सम्पर्क में आकर देशी भाषा में काव्य रचना करने की रुचि बढी। अपभ्रंश भाषा का स्वर मंद होते ही (९४५ ई. के आसपास) साहित्यिक क्रियाशीलता का केन्द्र राजस्थान बन गया और चारण-कवियों ने राजस्थानी में साहित्य-सेवा करना आरम्भ किया। साथ ही चारण-बंधुओं ने एक नवीन संस्कृति को जन्म देकर अपने मनोनुकूल स्वतन्त्र मार्ग का अनुसंधान किया, जिस पर चलना उनके जातिगत जीवन का परम धर्म हो गया। यथार्थ में चारण-साहित्य का अंकुर उस समय प्रकट हुआ, जब क्षत्रिय राज-वंश कर्त्तव्यच्युत होकर यवन शासन-काल के सामने परतंत्र हो बैठा। यही कारण है कि संस्कृत में किसी भी चारण कवि की वीररस-पूर्ण रचना नहीं दिखाई देती। अस्तु, हर्षवर्द्धन के अस्त होने से लेकर हिन्दू-सम्राट् पृथ्वीराज चौहान के उदय होने तक राजस्थानी में लिखी हुई कोई प्रामाणिक रचना उपलब्ध नहीं होती। एतदर्थ सन् ६५०-११५० ई. के समय को एक स्वतन्त्र काल की संज्ञा देना उचित नहीं जान पड़ता। तिमिरावृत्त प्रकोष्ठों में अज्ञात पड़े हुए चारण साहित्य के विकास को पूर्ण रूप से आत्मसात करने के लिए हमारे सन्मुख जो कठिनाई उपस्थित होती है, वह यह है कि साहित्यिक उन्नति एवं भाषा-विकास की दृष्टि से इसका विभाजन किस रूप में किया जाय? प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक के साहित्यिक कला-रूप का विकास जिस प्रकार होता गया, उसके बीच सीधी २ रेखायें खींचना निःसंदेह एक दुस्तर कार्य है लेकिन फिर भी स्थूल रूप से इसे पृथक २ अध्यायों में विभाजित कर उसके अन्तर्गत काल-विशेष की विभिन्न प्रवृत्तियों एवं रूपों का निरूपण किया जा सकता है। प्रस्तुत प्रबंध में ऐसा ही किया गया है। इस दृष्टि से चारण साहित्य का काल-विभाजन होगा-
२. मध्यकाल, प्रथम उत्थान (सन् १५००-१६५० ई.)
३. मध्यकाल, द्वितीय उत्थान (सन् १६५०-१८०० ई०)
४. आधुनिक काल, प्रथम उत्थान (सन् १८००-१८५०)
५. आधुनिक काल, द्वितीय उत्थान (सन् १८५०-१९४७ ई.)
*******पहला अध्याय समाप्त*******
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