चारण साहित्य का इतिहास – पांचवाँ अध्याय – मध्यकाल (द्वितीय उत्थान) – [Part-B]
(ख) आलोचना खण्ड : पद्य साहित्य
१. प्रशंसात्मक काव्य:- चारण कवियों की प्रशंसा पद्धति प्राय: समान है। अत: विगत काल के सदृश इस काल में भी राजा-महाराजाओं एवं जागीरदारों की वीरता, दानशीलता, धर्म-वीरता, प्रभुता, तेजस्विता, कृतज्ञता एवं राग-रंग का ही वर्णन अधिक मिलता है। यह काव्य राजवंशों से सम्बद्ध एक विशेष पद्धति का द्योतक है। कतिपय कवि ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने साधु-महात्माओं का यशोगान किया है। इन समस्त कवियों ने फुटकर कवितायें लिखी है।
क्षत्रिय नरेशों की वीरता चारण कवियों की प्रशंसा का अनिवार्य गुण है। इस दृष्टि से पता, गिरधर, सुजाणसिंह, बखता, भीकमचंद, श्री एवं श्रीमती करणीदान कविया, नंदलाल, रामदान प्रभृति कवि उल्लेखनीय हैं। बड़ी सादड़ी (मेवाड़) के झाला चंद्रसेण की वीरता का वर्णन अनेक कवियों ने किया है। पता भी उनमें से एक है-
अईची भैभीत चंद्रसेण राणा अकल। आज संसार सहि क्रीत आखै।
अमर जै सींघ बैल मेळ औरंग अगे। राज पाखै न को धरा राखै।।
सोढ़ रा प्रवाड़ा भाग तो सारखा। पहलका अहलका प्रिथी पुणिया।
राण रै साह रै धकै थिर राखतै। बड़ा धर वाहरू विरद वणिया।।
गिरधर के इस गीत में राणा प्रताप के अनुज शक्तिसिंह की वीरता व्यंजित हुई है-
ऊदल राणै एक दिन, सभ पूछियौ स कोइ।
अणी सिरै कर आहणै, हूंसारै हूं सोइ।
मैंगळ-मैंगल सारिषौ, सीह सारिषौ सीह।
सगतौ उदियासिंघ तण, अंगपित जिसौ अबीह।
चख रत्तै मुख रत्तडी, वैस जिहिं कुळवग्ग।
सगतै जमदड्ढां सिरै, आफाळियो करग्ग।
कियौ हुकुम न कांणिकी, ए वट एह अवट्ट।
ऊदळ राण कमखियौ, पह दी सीख प्रगट्ट।
पिता हुकुम लिखियौ परम, अंग अहंकार अथाह।
सगतौ उदियासिंघ तण, सुबसीयौ पतसाह।
सुजाणसिंह ने महाराजा बिशनसिंह (जयपुर) की वीरता के विषय में कहा है-
जोडै राज पाट ओछायत, हर जोडै की भोम हदां।
राज जोड़ जोड़ता खेत, सेखां राजां जोड सदा।।
दळ बळ मींडि-मींडि प्राकृत नद, खाग मींडतां त्याग खरो।
मान हरा ची मींडि महाबळ, हरि कीधो तिरलोक हरो।।
वीरवर दुर्गादास (मारवाड़) का पौत्र राठौड़ अभयकरण अचूक वार करने के कारण बखता के धन्यवाद का पात्र है-
दुरग सुत वाह दोय राह दाखे दुझल, रचे गजगाह इक मत इरादा।
जोध मिल सामठा करत चैहरा जिके, जिकेइज करै तारीफ जादा।।
महाराजा बहादुरसिंह ( किशनगढ़) ने मरहठों के अभियानों से राज्य की रक्षा की थी। इस उपलक्ष में भीखमचंद का कथन है-
सुतन राजान बाहादर अभंग सूर गुर, वीर छक चाळ अंग छक वराथी।
विहद कीधी फते जोध रिण बांकड़ां, सांकड़ा बखत मे होय साथी।
यळा सिर प्रवाड़ा कीध ते एहड़ा, केहड़ा कहू ब्रद अछट कांटे।
वीरवर कमंध काळी तणा वेहड़ा, बंधव तो जेहड़ां भीड़ बांटे।।
करणीदान कविया ने एक बार उदयपुर के दरबार में विवाहोत्सव पर जब सब राज्यों के कवि एकत्र हुए थे तब महाराणा उदयपुर की प्रशंसा में यह दोहा कहा था–
डोलै नह दी डीकरी, नवरोजे निरमांण।
हुआ न कोई होवसी, सीसोदिया समान।।
कहते हैं, यह दोहा सुनकर महाराजा अभयसिंह (जोधपुर) मुग्ध हो गए और उन्होंने महाराणा से अपने राज्य के लिए कवि की मांग की। अभयसिंह के लिए कवि की उक्ति है-
तुम कदली के पात हो, हम इमली के पान।
तुम हम किसी बराबरी, कह कवि करणीदान।।
इसी प्रकार कविया प्रतापसिंह राठौड़ ( खेरवा) एवं राठौड़ अमरसिंह (निमाज) पर मुग्ध हैं क्योंकि वे वीर हैं। प्रताप की प्रशंसा में कवि कहता है-
नयण रंग जोस छिवि गयण पोरस निडर, वयण रंग रोस समहर विरोधा।
दूसरा रयण भुजदंड थारा दुगम, जई ओधस गयण राव जोधा।।
तूज जिम पता सिणगार कुळ सोहो तणा, असुर खग वोहो तणा जीत आवे।
भुजां छक छोह तणा वधारा जिके भड़, पोहो तणा वधारा भलां पावे।।
कवि ने अमरसिंह के शौर्य-पराक्रम की प्रशंसा शाही उमरावों के मुंह से कराकर अनूठापन ला दिया है-
यसही ने खवांनी तणे मुंह ऊपरां, दायिणै दसत रा तमाचा दीध।
साह आगळ कहे ऊबरां साहरां कमंध री हकीकत जाहरां कीध।।
इता कर खूंन दरगाह बिच आवियो राह दहुंवे सिरे नाम रहियो।
कुसळ सुत वाह वे-वाह हीमत करां, किलम पात वाह वे-वाह कहियो।।
नन्दलाल ने कुराबड़ ( मेवाड़) के रावत अर्जुनसिंह चूंडावत की वीरता पर यह गीत लिखा है-
खत्री ध्रम रथ कळण खुचियो, असह थाट उचांड।
धूज धजवड़ तंड धवळा, मरद जूसर मांड।
राड़ रा लेयण उधारा रावत, केवियां हण कोप।
बिखम खंडां धार बरसै, रघूअ झडा रोप।।
श्रीमती करणीदान ने वीरगति प्राप्त लालसिंह ( बड़ली) की वीरता के ये दोहे कहे हैं-
बड़ली-बड़ली किम करे, बड़ली बड़ी जलाल।
आ बड़ली बिलसी जदिन, बळसी मो सिर घाव।।
दल आसी दिखणाद रा, पड़सी तोपां ताव।
आ बड़ली विलसी ज दिन, घळसी मो सिर घाव।।
बंका आखर बोलतो, चलतो बंकी चाळ।
अड़ियो बंको खग दळां, लडियो बंको लाल।।
रामदान का दूणीराव चांदसिंह की वीरता का यह गीत भावपूर्ण एवं सरस है
करै बाखाण दैवाण आलम कलम, काढ केवाण असुराण काढै।
पुणै जोधाण बीकाण उदियाणपुर, चद हिंदवाण नै पाण चाढै।।
रूक हथ मरद हिम्मत सिरै रावतां, भिड असुर जावतां प्रभति भाखी।
असधारी पुरुष जयनगर आवतां, राव गोगावतां टेक राखी।।
चारण कवि अपने चरितनायकों के हाथियों एवं अश्वों की वीर क्रीडाओं से भी प्रभावित हुए हैं। निम्न गीत में बखताराम ने महाराणा भीमसिंह (मेवाड़) के हाथी ‘बहादुरजंग’ की मस्ती का वर्णन किया है-
मले सामठां हजारां लोक भागवो बसत्ती मना। सुणे खून आयो जज दसत्ती समाय।
लोप टाको दीधी झाट आयेला मसत्ती लागे। साकळां हसत्ती त्रहूं तोड़ी हेक साथ।।
मा हुतां ठाठियां टोळां प्रवीणा-सबोळा मले। अखे दोळा छले धले हबोळां अपार।
रूप मेर साथी आंगां एर सी उझेल रोस। जंघां बाघरेस हाथी खुले जेण बार।।
इसी प्रकार देवा दधवाड़िया ने महाराजा बलवंतसिंह (रतलाम) के अश्व का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया है-
कदमां छेक दपट जम कळका, तळफस कर नंद जळका तास।
पलट फरत दुरपण दुत पळका, बीजळका भळका बरहास।।
चटपट समट वरत नट चाकत, ऊलट पलट झट हाकत ईख।
वहवे दुपट ऊपट नभ वटका, साकुर सद गुटका सारीख।।
कहीं-कहीं वीरता का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन भी देखने को मिलता है। यथा, दुर्गादास ने महाराजा जसवंतसिंह (मारवाड़) की पत्नी हाडी रानी का हाथी पर सवार होकर बादशाह औरंगजेब के साथ युद्ध का जो वर्णन किया है, वह इतिहास सम्मत नहीं है-
दन उगां धूध हुवे नत दंग, पतसाही बिच भीड़ पड़े।
औरंगसाह दळां रै आड़ी, लाडी जसवन्त तणी लड़े।।
उड़ते खेह चमू चढ़ आवे, साथे लियां मियां रो साथ।
हाथी चढ़ हलकारे हाडी, हाडी भलो दिखाड़े हाथ।।
भाऊ जिसा अरोड़ा भाई, भड़ जसराज जसो भरतार।
चोड़े लड़े उड़ावे चगता, सत व्रत तणी वजारे सार।।
पख बे पूरा सासरा पीहर, जेठ अमर चत्रसाल जणो।
राणी पाणी भलो राखियो, तागो हिन्दुस्थान तणो।।
इसी प्रकार हररूप द्वारा महाराजा बखतसिंह ( मारवाड़) का गगवाना (अजमेर) में सवाई जयसिंह (जयपुर) पर विजय प्राप्त करने का यह वर्णन असत्य है-
खाग मे बलक्के झाट काट में विभाग खळां, सांमळां खळक्के कुंभाथळां सूंडाडंड।
लागा उरा ढूंढाहड़ां भड़ा परा झिगे लोह, भड़ां देख आदेस कमधां भुजाडंड।
छड़ाळां उपाड़ि चाडि जेसींग रा भड़ां छाती, भूडंडा बजाड़ियो धपाड़ी चंडा भाव।
पाड़ झंडा छाकिया धूमाड़ि जाड़ा थण्डा पूर, राड़ जीतो झाड़ि खंडा धाड़ मारुराव।।
वीरता के सदृश दानशीलता का वर्णन करना भी चारण-काव्य का प्रमुख लक्षण है। इस श्रेणी में जग्गा, पता, चतुर्मुज, द्वारिकादास दधवाडिया, करणीदान बारहठ, सोभा, पोखरराम एवं भैरूदान के नाम आते हैं। जग्गा कृत गोपीनाथ राठौड़ मेड़तिया का यह अलंकृत वर्णन आकर्षक है-
गुण लागां डांण वखांण खत्री गुर, जाचण मिले जगत सहि जात।
मगळ-जस थारो मेड़तिया, गिरवर मद आयो वड गात।।
सत पोगर मोजां दांतूसळ, डाणे अदुआं लंगर डहे।
ऊपट थटां पटां मद आयो, मदझर जिम जसबास महे।।
पता की दानशीलता वीरता के साथ-साथ चलती है। मेवाड़ के महाराणा संग्रामसिंह ( द्वितीय) के प्रति कवि का कथन है–
मंडता तिलक राण मेवाड़ा, सझिया भळा मेंगळां साज।
बांधे खीझ रीझ बैसांया, रिम कदमां होदां कविराज।।
अमर समोभ्रम जगड़ अभिनिमा, वणते तखत नखत वडवार।
बिहुवे थोक हांथियां वणिया, अरि लंगर जसकर असवार।।
गुर गहलोत आवतां गादी, छिळियो समंद हिंदवां छात।
दुरदां तणा फवाया दहुंव, पांवा पिसण किलावां पात।।
बड़ पोहो सदा सिंगांसण वणतै, रोस रीझ सिंधु रा सिरे।
खळ नीसास घीसतां खावै, कवि चढ़िया आसीस करै।।
मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह (द्वितीय) द्वारा राजकवि की उपाधि मिलने पर चतुर्भुज कहता है-
अभंग साख सस सूर जुग च्यार राखण अचड़, छीजवण दळ दखणाण छातां।
यळ तणो हुंतां अभसेस राणे अमर, पोळ रो दियो अभसेस पातां।।
इन्द्र अवतार दातार गुरु अरेहण, सुदन संसार गुण करण सीलो।
छत्रगढ़ तणो टीलो कमळ चडंतां, ताकुआं दियो दरबार टीलो।।
द्वारिकादास दधवाड़िया ने राठौड़ नरेश अजीतसिंह ( मारवाड़) के लिए कहा है-
नरां पियारी पियारी सुरां आसुरां पियारी नागां, प्यारी रिखां जखां गणा गंध्रवां प्रवीत।
धूतारी कुंआरी नारी सदारी ठागारी धरा, तिकां तांबापत्रां पातां समापी अजीत।।
दाढ धारी वाराह भ्रुगुट्ट धारी सेख देवा, दूही राजा प्रथू कामधेनू ज्यूं दुझाळ।
मानधाता ऊपड़ी न हाथां वैण धुधमार, मेदनी सुपातां तिका व्रवी दूजै माळ।।
महाराणा जगतसिंह ( मेवाड़) से उत्तम घोड़ा मिलने पर करणीदान बारहठ ने यह दोहा कहा –
जगतसिंघ हय देत है, तकी कहै सो कौन।
आत जात द्वै बेर मैं, चिटी मिलै न पोन।।
सोभा का राजा उम्मेदसिंह (शाहपुरा) भी बड़ा दातार है –
सुर्रिद नमो आकाय उमेद सिसोदिया, भेद खत्र वाटचा विरद भावै।
उदैपुर वेल तू वेल आंबेर री, अठी तू जोधपुर वेल आवै।।
पोखरराम के ठाकुर केशरीसिंह राठौड़ (रायपुर) के संरक्षण में अनैक कवि एवं वीर पोषित होते हैं-
रचा ग्रंथां ऊगतां, तरंतां त्राचा पाथ रूपी,
बाचा बार पेना चांपरीये जंगां बाघ।
आचां क्रन्नू परघे सुपातां तूरां भड़ां आछा,
अरघे न काचा मारू सांचां करे आघ।।
भैरूंदान ने ठाकुर रणजीतसिंह ( चौमू) की दानवीरता की प्रशंसा की है-
नेह मेरुधरा रव जटधर, सोभा अमर नितै संसार।
रजवड रैंण जिसो रजवाड़ां, दूजो नहिं समवड दातार।।
प्रेखत सको आज अन सपहां, धुर सांची धारी आपधरी।
कविराजां कारण कछवाहै, कृष्ण सुदामा तेम करी।।
क्षत्रिय नरेशों में महाराणा जयसिंह (मेवाड़) एक ऐसे श्रेष्ठ धर्मवीर हुए हैं जिन्होंने क्षत्रिय धर्म की रक्षार्थ औरंगजेब से युद्ध किया और हिन्दुओं को तुर्क बनाने से रोका। कवि माना का यह गीत धर्मवीरता का उत्कृष्ट उदाहरण है–
आयो अवरंग असी चत आणे, रोद सरब करवा यक राह।
रूकां पांण खत्रीध्रम राखै, जण पल में राणे जैसाह।।
कलम हिन्दुवां एक करेवा, सेन लियां आयो सुरताण।
खत्रियां दुआं वेच दीदो ख़़त, खत कारण लड़ियो खूमाण।।
केसव तो राहा दो कीदी, दुनिया में नह मटे दुअे।
खग तोले कसियो खुमाणे, हिन्दु तुरक न एक हुए।।
कर सुन्नत काजी गुर करतो, पलियो धरां खाग बळ पेख।
राजड़ सुतन न हूंयो राणो, उसरां सुरां करंतो एक।।
कवि देवा का महाराजा सामन्तसिंह राठौड़ (किशनगढ़) ईश्वर-भक्त होने के साथ-साथ सत्य का पालन करने वाला, सन्तों का आश्रयदाता एवं अशरणों को शरण देने वाला है
माहाराज धन करण कारज मुगतो माग रो, तजे मन दगत मद लोभ तरखा।
कमंध उग्रभाग रा जगत बरळा केयक, सांवता हर-भगत आप सरखा।।
जनक प्रहलाद अकरूर ऊधव ज्युंही, नृपत जुजठळ ज्युंही हरी नेहा।
नजर नजदीक सरदार दीठाा नकौ, जोध भजनीक अळ तूझ जेहा।।
सत बरत संत अवलंब असरण सरण, धनो पकज-वरण चीत धारू।
बसन रा आप जूं कसा खत्रिया वरण, राम समरण करण वारमारू।।
राज्य-भक्त चारण कवि के लिए राजा ईश्वर तुल्य है। कवि पता, वीरभांण एवं करणीदान कविया ने उसकी प्रभुता का वर्णन किया है। मेवाड़ के राणा संग्रामसिंह (द्वितीय) के यहाँ डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ एव रामपुरा के नरेश सेवक-रूप में रहते थे और उनके दर्शन की इच्छा रखते थे। पता का यह गीत इसका उदाहरण है–
गढपत चीतोड़ मोड़ गढपतियां, सांके मन ढीली सुरताण।
रावळ रावत, राव ओळगे, राज भाग-धन सांगा राण।।
राजड़ हरा रूप राजवियां, गाढ़ां गुरू नमो गहलोत।
आवे जुवार करण अमरावत, होउवें वगत चहूं देसोत।।
राम, वसन, गोपाळ, सांग रज, धर पतियां अेखठा धड़ा।
जाय खड़ा अबकास रहे जे, खत्री जे डोडियां खड़ा।।
सांगा राण हिंदुआ सूरज, मुजरा कर दोऊ रांह मळे।
गर पुर वांस पुरा देवगरा, रामपुरा पोहो-पोय रुळे।।
वीरभांण ने महाराजा अभयसिंह (मारवाड़) को ‘हरि-अवतार’ की संज्ञा दी है-
मुरधर पति सूं मेड़तै, अभौ हुवौ असवार।
प्रथीनाथ जोधाणपुर, आयौ हरि अवतार।।
और उनका स्वरूप-वर्णन भी किया है-
सुंदर भाल विसाळ, अळक सम माळ अनोपम।
हित प्रकास म्रदु हास, अरुण वारिज मुख ओपम।।
क्रपा-धाम नव कंज, नयन अभिराम सनेही।
रुचि कपोळ ग्रीवा त्रिरेख, छबि वेस अछेही।।
निरखत संत सनमुख निजर, करण पुनीत सु प्रीतकर।
गुणमान दान चाहै सु ग्रहि, कवि सुग्यांन औ ध्यान धर।।
करणीदान कविया का महाराणा संग्रामसिंह ( मेवाड़) सूर्य एवं महादेव के सदृश है। जिन निर्लज्ज राजाओं ने अपनी रानियों को नवरोजे भेज दी, उनकी समता इनके साथ कैसे हो सकती है?
ग्रहां हेक राजा सिधां हेक राजा अगंज, सिरै नव अग्यारह राज साजा।
सूर शिव दोय राजा फबै राण सम, राण सम तीसरो न को राजा।।
प्रहारै तिमर विष न जर खाकां पिये, घूमरां सत्रा षग धजर घावै।
दिवाकर अजर सगराम सम सुर दुहू, अवर छत्रधर न को नजर आवै।।
जहरघर सुनर निरजर नगर जोवतां, बहर तप हेक दिल गहर वीजो।
बबहर सूर गुर अमर तण बेषतां, तले नह बराबर भूप तीजो।।
तिहूं लोकां मही जोड़ सांगा तणी, हेक रिव दुवो जटधर अरोड़ो।
निलज नव रोज मेल्है तिके नारियां, जिके छत्रधारियां किसो जोड़ो।।
अभयसिंह (मारवाड़) की सवारी का तो ठाठ-बाट ही निराला है। करणी दान कविया का यह वर्णन उनके काव्य-कौशल का उत्कृष्ट नमूना है-
ऐ न घटा तन त्रान सजे भट, ऐ न छटा चमके छहरारी।
गाजे न बाजत दुंदभी ऐ, बक पन्त नहीं गजदन्त निहारी।।
ऐ न मयूर जु बोलत हैं, विरदावत मंगन के गन भारी।
ऐ नहिं पावस काल अली, अभमाल अजावत की असवारी।।
केसरीसिंह, हमीरदान एवं हुकमीचन्द नामक कवियों ने राजाओं की तेजस्विता का वर्णन किया है। छप्पन के पहाड़ों में से बाहर निकलकर जब महाराजा अजीतसिंह ने सबको दर्शन देकर प्रसन्न किया तब केसरीसिंह ने उन्हें यह गीत सुनाया था-
असपत रो साल दीली रो ओठम, पूरा बेहूं पषां सूं प्रीत।
गिणियां दिनां मांय पत्रियां गुर, जोधाणे आसी जगजीत।।
हाथी घणा घरां ढींडलसी, सुरहरा राइसा सभाव।
दूणा पटा वधारा देसी, अप्प जिसा करसी उमराव।।
प्रजा न चीत रहो सुष पातो, सुष पावो सह कबेसर।
पाणेची धर किसूं पिछांणां, नवी पाटस्री जिसो नर।।
चक्रवत होसी अभनमो चूंडो, घणा दाखऊं किसूं घणो।
मैं दीठो इसड़ो महाराजा, तेज पुंज जस राज तणो।।
हमीरदान अपने आश्रयदाता लखपत का गुणगान करता हुआ कहता है-
महादेव सुत करि महर, गणपति सुमति गंभीर।
कुंअर बखाणां कुळ तिलक, धन बंधी लखधीर।।
अति उसम दीजै उकति, सरसति हू सु प्रसन्न।
गाआं लखपती गुणे, महिपती बड़ मन्न।।
महाराजा प्रतापसिंह की प्रशंसा में हुकमीचंद का यह कवित्त सुन्दर बन पड़ा है-
अंबापुर गिर उदै, क्रीत ऊजळ किरणालं।
तप प्रताप दन तेज, भाग झळ हळ दुतभालं।।
अधम अलुक होय अंध, मित्र चकवाक प्रमोदत।
अबुध तिमर घट ओज, असह उड़गण आक्रंवत।।
जयसाह बीया जग जय जपत, बन कंज कविद बिकासिया।
सुभियाण मुकट हिंदुवाण सिर, पातल भाण प्रकासिया।।
यह उल्लेखनीय है कि ब्रह्मदास, सबळदान एवं भक्तराम नामक कवियों ने परोपकारी व्यक्तियों के प्रति कृतज्ञता प्रकट की है। ब्रह्मदास अपने गुरु हरनाथ के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहते हैं-
नाम महातम वरण कर, हमकूं किये निहाल।
सुणियो गुरु हरनाथ सूं, दादू दीनदयाल।।
इसी प्रकार सबळदान ने अज्ञानावस्था से ज्ञानावस्था में लाने वाले साधु की प्रशंसा में यह सोरठा लिखा है-
गोरख गूदड़ियाह, ताळा मुष जड़िया तके।
वचन ऊघड़ियाह, भांग तणो रंग भारती।।
कान दलो भीमा सुकव, सबळो कियो सनाथ।
जाळंधर अघ जालणा, नमो चारणानाथ।।
भक्तराम ने दूणी-राव शम्भूसिंहजी की कर्त्तव्य-परायणता से प्रभावित होकर कहा-
जाणजे खत्रवट उप्रवट जिकारां, ओळखे विकारां पृथी आयण।
राज सूं तीन दिन रह्यो बेरासनै, सेवापुर वास्ते कियो सुजाण।।
इसी कुण अचड दाखै खत्री आजरो, गरीबनवाज रो विडद गहियो।
छंडे कविराव जब राव किय छाडणो, राखि कविराव थिर राव रहियो।।
राजाओं के राग-रंग का वर्णन करने वाले कवियों में सहजो एवं पीरा के नाम आते है। सहजो ने महाराजा अनोपसिंह (बीकानेर) के शुभ विवाहोत्सव पर यह गीत लिखा है-
बादळ सजदान घाट बरसै, असो बींद हुपरया अलोप।
आयो रायां सींघ अभनमो, उदियापुर गढ़ कमंध अनोप।।
फल लसकर कोतुळ छण फरहट, बिगता जनी झूल बिरण।
दोय चाळीस परणाया दुलहा, सूरजकरण तणौ सिरताज।।
मझ मेवाड़ रांण गढ़ मांढो, मारू राव बाँधियौ मोड़।
सुरहरा सुपहां सारां सिर, राजड़ इन्द्र बिना राठोड़।।
साजबाज गजराज सांतरा, हरहर त्रिबंक दुमर घणा।
बीकानर धणी वर बणियां, तोरण गढ़ चीतोड़ तणा।।
मेवाड़ के महाराणा प्रतापसिंह (द्वितीय) के जोधपुर में विवाह होने पर पीरा ने यह गीत लिखा
आरख सुरिअंद हमीर अभनमा, रुद्र अंसी सुतन जग राज।
कुंवर प्रताप परणतां कीदो, अनड़ न पाप कमधजां आज।।
मेटियो दुरंग मीह लीणो मोटै, दुनी प्रभत सर आंकदियो।
आगे यां उसरां आबडियो, कोट जको स प्रवीत कियो।।
पत चीतोड़ कसे कांकण पग, दुनी राखियो नाम उड।
सांगा बीजा कियो स सोभत, गाँगा बीजा तणो गढ़।।
मरधर-गर उपगार मानियो, बड़ो खत्रि ध्रम लाख बरीस।
प्रतपों कुंवर घण दन पातल, अभ जोधाणाँ दिये आसीस।।
आलोच्य काल में एक मात्र पीरजी ही ऐसे कवि हुए हैं जिन्होंने औरंगजेब को उदास देखकर यह गीत सुनाया था-
विध चूका वेद न जाणे वेदन, ओषद लगे न पीड़ अथाह।
रात दिवस सालै उर राजो, साजो, तेण नहीं पतसाह।।
खेंगा चढ चौगान न खेले, बैले पडियो राज विजोग।
आगमणी सी सादे न आवे, खद हिये में लागो रोग।।
धुणे सीस न धुणे धजवड़, मारे रीस सही मन मांहि।
जगा हरे असवाद जगावीं, जवन तणो धट हूंत न जाहिं।।
मालपुरे सिर षैण ढमारे, राणा पर हथ दीध रिण।
भोग संजोग रहे न भीनो, औरंग छीनो रोग इण।।
२. निंदात्मक काव्य:- वीरों की प्रशंसा एवं कायरों की निन्दा करने में चारण बेजोड़ हैं। कर्त्तव्य से च्युत हुए राजपूत की भर्त्सना कर उसका पथ-प्रदर्शन करना ही तो इनका उद्देश्य है। इस पूर्ति के हेतु दलपत, पहाड़खां, करणीदान कविया, ब्रह्मदास, नन्दलाल, जीवा, बनाजी प्रभृति कवियों ने जिस स्फुट काव्य की रचना की है, उसमें स्वस्थ दृष्टिकोण अपनाया गया है। कतिपय अन्य विकारग्रस्त व्यक्तियों को भी प्रताड़ित किया गया है किन्तु व्यक्तिगत स्वार्थ-सिद्धि के साधनस्वरूप इस काल में कविता अत्यन्त कम मात्रा में लिखी गई है।
जब महाराजा बखतसिंह (मारवाड़) ने अजीतसिंह को मार दिया तब दलपत कवि ने उन्हें लक्ष्य करके निम्न दोहे भिन्न-भिन्न अवसरों पर सुनाए थे-
बखता बखत बाप रा, क्यूं मार्यो अजमाल।
हिन्दवांणी रो सेहरो, तुरकांणी रौ साल।।
बापो मत कह बखतसी, कांपे है कैकाण।
(जो) एकर बापो फिर कयो (तो) तुरंग तजैलो प्राण।।
वसू नह थिर नह थिर बखत, रह न सकें थिर राज।
बखता थिर थारे वपु, धब्बो कळंक धराज।।
छत्रपति छन्दां छवे, सीस चढावे छाप।
सो दळपतियां सुकवि रे, चामुण्ड रो परताप।।
(थूं) नह राजा खत्री नहीं, घलण जनैता घाव।
देह धार कळजुग दियो, दुनिया में दरसाव।।
नृप बगता राच्यो नही, जूंना नरका जीव।
आछी दी अजमाल रा नवा नरक री नींव।।
दलपत (बीकानेर) को एक बादशाह ने कैद कर लिया किन्तु सरदारों ने छुड़ाने का कुछ भी प्रयत्न नहीं किया। अत: दलपत ने उन्हें धिक्कारते हुए कहा-
फिट बीदां, फिट काँधळां, जंगळधर लेडांह।
दळपत हुड ज्यूं पकडियो, भाज गई भेडांह।।
पहाड़खां ने ठा. जैतसिंह (आउवा) पर निन्दात्मक छंद लिखा है किन्तु उसकी अधूरी पंक्तियां ही उपलब्ध होती हैं-
बड़ा बोल तो बोल बातां घणी बणातो।
हरा रो सती पुर सती सग हालियो।।
माळियो सेर परम जोग मांही………।
इसी प्रकार ठा. नाहरसिंह (रास) पर लिखा हुआ यह दोहा है-
नैनां हाथां नाहरा, मोटी मौज न होय।
गुरजी गंडक दौड़नै, भ्रग नह मारे कोय।।
एक बार महाराजा जयसिंह (जयपुर) एवं अभयसिंह (जोधपुर) ने पुष्कर की तीर्थयात्रा की। जब करणीदान कविया वहां पहुँचे तब अभयसिंह ने कहा- ‘देखिए बारहठजी, इस तीर्थस्थान पर हम दोनों आपसे एक ऐसी कविता सुनने के लिए उत्सुक हैं जो अक्षरश: सत्य हो और एक ही छंद में हमारे नाम हों। महाराजा का आशय प्रशंसा कराना था किन्तु चारण कवि की निर्भीक वाणी ने दोनों नरेशों को मर्यादा का उल्लंघन करने वाला बताया-
पत जैपुर जोधाण पत, दोनूं थाप उथाप।
कूरम मार्यो डीकरो, कमधज मार्यो बाप।।
इस दोहे को सुन कर जयपुर-नरेश तो हँसकर बात टाल गए किन्तु अभयसिंह ने तलवार सम्भालते हुए कहा– ‘बारहठजी पधारिए, मैं आपका मुंह भी नहीं देखना चाहता। कोई दूसरा होता तो सिर उड़ा देता। उपेक्षित होकर कवि ने उत्तर दिया–‘मुझ में गुण हुआ तो मेरा मुंह देखना ही पड़ेगा।’ जब महाराजा ने इन्हें बुलाकर अहमदाबाद के युद्ध का वर्णन सुनाने की प्रार्थना की तब वे कनात की आड़ में बैठे रहे ताकि सुन तो सकें पर देख न सकें। वर्णन को सुनकर महाराजा उछल पड़े और बाहर निकलकर कवि को अनेक प्रकार से पुरस्कृत किया। ‘सूरजप्रकास’ की रचना कर कवि ने यह सत्य कर दिखाया।
एक बार महाराजा बखतसिंह (जोधपुर) ने चारणों के गांव जब्त कर लिये। बहुत से चारणों ने जाकर उन्हें समझाया पर वे नहीं माने। निदान, करणीदान कविया ने जाकर निम्न छंद सुनाया जिससे प्रभावित होकर ठा. देवीसिंह (पोकरण) ने उन्हें गाँव पुन: दिला दिए (१७५५ ई.)
प्रथम तात मारियो, जीवती मात जळाई।
असी च्यार आदमी, हत्या ज्यांरी पण आई।।
कर गड्ढो इकळास, वेग जयसिंघ बोलायो।
मिट्टी घरन मरजाद, भरम गाँठ रो गमायो।।
कवियणाँ हूंत केवा करे, धरा उदक लेवण धरी।
बषतसी जनम पायो पछै, किसी बात आछी करी।।
करणीदान कविया ने जैन यतियों को भी आड़े हाथ लिया है-
चाब पान मुख चोळ, दाँत मसिया रंग देवै।
करै अधरम बिच क्रीया क्रीया घर मरै अंत केवै।।
करै खाल कोरणी, उभै चरण सोरम अंजै।
करै चूडावण कैर, भूत प्रेताँ बळ भंजे।।
उडवाय दिये खाता अनुज, उड़वै देवल अंबरा।
मजबूत घणा ढग किसब में, सरब धूत सेतंबरा।।
और भी—-
फळ खाय अधाय रमै पर भी।
जग माँह पुजाय कहाय जती।।
जब महाराजा विजयसिंह (जोधपुर) ने ठा. देवीसिंह (पोकरण) को मरवा दिया तब ब्रह्मदास ने इस गीत के द्वारा उपालम्भ दिया था-
वडा मैवासाँ घालणौ जिला उथालणौ वैरी हराँ।
लड़ेवा चालणौ दळां साँमहौ लकाळ।।
विहड़ां पालणौ देवी झालणौ न हुतो विजा।
हकालणौ हुतौ दिली ऊपरां हठाळ।।
नन्दलाल ने मेवाड़ के महाराणा अरिसिंह (द्वितीय) के विरोधी कृत्रिम राणा रत्नसिंह के विषय में सामन्तों को चेतावनी देते हुए लिखा है-
जण (रो) जनम जको कुण जाणे, दाई कसी जणाय दियो।
सतवादियां सा पुरसां सूराँ, कठेई फतूरां राज कियो।।
कूड़ा तोत थि(या) गढ़ कोटे, भाजगिया खळ सकल भणे।
माठी वात पंथ मत लागो, ताय छळ जागो नमख तणे।।
जीवा की दृष्टि में बून्दी के रावराजा अजीतसिंह ने मेवाड़ के महाराणा अरिसिंह (तृतीय) को छलघात से मारकर कोई बहादुरी का काम नहीं किया (१७७२ ई.)। यदि वह खड्ग उठाकर ललकारता तो संसार के लोग निःसन्देह उसे वीर कहते। निम्न गीत में कवि ने रावराजा के कपट की कठोर शब्दों में निन्दा की है-
भुजां धारियो न षाग तैं बाकारियो न बाघ भूरो,
करग्गां प्रहारियो दगा सूं आणे कूंत।
अेकाअेक लाषां बातां हारियो धरम्म अजा,
हींदूनाथ मारियो विसासघात हूंत।
रूकां धाय जातो तोने इळारा बदंता राव,
दीठ आय जातो जे नगारो चाड देत।
तठै भेद लड़स्सी दगा रो पाय जातो तो, तो,
षाय जातो अड़स्सी जगारो घोड़ै षेत।।
बनाजी का निन्दात्मक काव्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है। निम्न गीत में मरहठों के आक्रमण के समय चांदावती एवं उसकी दासी का वार्तालाप कायर पति से सम्बंधित है। रायजादी युद्ध से भाग आने वाले पति के लिए भोजन की तैयारियां करती है जिसे देखकर दासी को आश्चर्य होता है। अभी भोजन आधा ही पका था कि कायर पति शीघ्र भागकर आ गया-
चांदावत कहै है चाढो चखा, दौड़ो बेगज दासी।
बाजत गोळा दिवणी बिढ़िया, आज तो रावळ आसी।।
जोड़ै कर बडारण जंपै, मुळक’र बोली मोसो।
रण मै कहो कंथ आवण रो, भोळां किसो भरोसो।।
बसी अनै षाटू नह बिढ़ियो, भिन्न-भिन्न जाणूं भेदां।
भारथ नाह सदा ही भाजै, उचरै बयण उमेदाँ।।
कांसो करो सितावी कामण, भामण पंथ दिस भाळो।
पाती पाग पमंग दै पैलां, आसी कंथ उपाळो।।
भरता तणी परखकर भोजन, रायजादी रंधवायो।
इसड़ी करी उतावळ इन्दै, अधसीजै ही आयो।।
एक दूसरे गीत में बनाजी ने सास-बहू के संवाद की आयोजना कर मीठी चुटकी लेते हुए कायर की धज्जियां उड़ाई है-
सकती बहू कहै सुणौ सासूजी, अतरा कांई उदासी।
मो कंथ तणो भरोसो मौनें, वै कुसळां घर आसी।।
अड़तां लार भागतां आगै, बातां घणी बणासी।
बागां षाग नणद रा वीरा, आगै भागर आसी।।
ससतर स्याम दे आया सारा, कपड़ा बीच खुसाया।
ऐ तो बात करै छी आगै, अतैं उघाड़ा आया।।
महिना नौ राख्यो उर मांही, आगम बातां आची।
कहती जिसो तिहारो कंथो, सांची ए बहू सांची।।
३. वीरकाव्य:- युद्धों के बढ़ते रहने से वीरकाव्य भी बढ़ता गया। इस काल में आकर तो वह उन्नत अवस्था पर पहुँच गया। प्रबन्धकाव्य के अन्तर्गत मारकाट का विस्तृत वर्णन है किन्तु स्फुट रचनाओं में योद्धा के किसी विशेष कौशल के ही दर्शन होते हैं। जग्गा, वीरभांण, कानों, पहाड़खां एवं करणीदान कविया का काव्य प्रबंध की कोटि में आता है। इन कवियों ने युद्ध को कसौटी मानकर अपने चरित्रनायकों का चित्रण किया है। वीर-रस को सफल एवं सबल अभिव्यक्ति प्रदान करने में इन कवियों का प्रशंसनीय हाथ रहा है।
शास्त्रीय दृष्टि से जग्गा कृत ‘वचनिका राठौड़ रतनसिंहजी री महेसदासोतरी’ में महाकाव्य के सदृश तारतम्यता है किन्तु नायक के जीवन से सम्बद्ध एक ही घटना का वर्णन होने से इसे एक चरित्र-प्रधान वर्णनात्मक खण्ड-काव्य ही माना जायगा। इस में बादशाह शाहजहां की ओर से महाराजा जसवंतसिंह (जोधपुर) की अध्यक्षता में शाहजहां के औरंगजेब एवं मुराद नामक विद्रोही राजकुमारों के विरुद्ध उज्जैन के युद्ध का वर्णन है। इस युद्ध में जसवंतसिंह के अवकाश ग्रहण करने पर रतलाम-नरेश रतनसिंह नेतृत्व करते हैं। कवि ने युद्ध का फड़कता हुआ वर्णन किया है। जसवंतसिंह एवं औरंगजेब की यह भिडंत दृष्टव्य है-
खुन्दालिम करि खोध बसुधा ऊपरि वाजिआ।
लागि गड़ा सिर लोटिआ जाणि कबूतर जोध।।
पड़े लड़े अणपार अड़े धड़े सान्हे अणी।
कमंधे कावलिये कियौ आहिव घोर अधार।।
झोक अणी खग झाट सिर उर माथै सूरमा।
वहती की दळ वाहतां बैकुण्ठवाळी वाट।।
नरवर सूर निगेम भारथ मधि रीती भरी।
आवै जावै अपछरा जगि अरहट घड़ि जेम।।
औरंग जसौ अगाहि जूटा सूरिज राहु ज्यूं।
ग्रहण अन्धारौ गैग्रहण मेछ किऔ रिण माहि।।
रतनसिंह एवं औरंगजेब का संघर्ष भी बड़ा विकट है-
खाअै रिण महि गडूथळ खान, जिहीं नट खेल कुलट्ट जुआन।
रुद्रां रिणि भूकि करन्त रतन्न, कपीदळ जाणि कि कुम्भकरन्न।।
हुअै रिणि हक्क किलक्क हमस्स, उडै रत छौळि दिसेह अरस्स।
अखै धिन धिन्न रतन्न अरक्क, चढावै मेछ घड़ा खग चक्क।।
ग्रहे खग नागंद कोप गिरन्द, मथै सुर अस्सुर जाणि समन्द।
मधाउत कज्जि रतन्न मुगत्ति, प्रिथी कजि आफळिआ असपत्ति।।
किअै मुख चोळ धसै रिणि काळ, रुळै पाइ अन्त गळे वरमाळ।
वरे पतिसाह घड़ा वरवीर, महागज वाजि पछाड़ै मीर।।
बडफ्फर टूक हुअै गजदाज, तड़फ्फड़ मच्छ जिहीं सिरताज।
मरद्द जरद्द पड़ै अनमन्ध, कहक्कह वीरह नाचि कमन्ध।।
हड़ाहड़ रिक्खि हुअै हरहार, जयज्जय जौगणि किहु जिआर।
महारिणि पौढै सूर मसत्त, दिगम्बर जाणि अखाडै दत्त।।
विषय की दृष्टि से वीरभांण कृत ‘राजरूपक’ महाकाव्य ‘सूरजप्रकास’ से मिलता-जुलता है किन्तु वर्णन-शैली कवि की अपनी है। वह भी अहमदाबाद के युद्ध में अपने स्वामी के साथ उपस्थित था। अत: प्रत्येक घटना की उसको सच्ची जानकारी है। वीरभांण में करणीदान की अपेक्षा ऐतिहासिकता अधिक है। युद्ध का आखों देखा वर्णन करने से इसमें भी सजीवता आ गई है। उभय पक्ष के योद्धाओं का एक दूसरे पर टूट पड़ने का यह वर्णन कितना ओजस्वी है? –
धुवे सार मारं धड़े धारधारं। हुवै वीरहवकं हजारे हजारं।।
छटा क्यों बिछुटै भुजे सेल छूटै। खगै अंग तूटै अनो अन्न खूटै।।
प्रवाहै खडग्गं झड़ै हत्थ पग्गं। लहै जांण आरा धरं काठ लग्गं।।
मुड़े सालले सालले पै मुडक्कै। झड़ां ओझडां सांड ज्यौं मांड झुक्के।।
किता अग्र पाछै किता चक्रकुंडे। तरक्के किता साहता वाह तुंडे।।
भिदे सार सेले कटारी भळक्कै। हिलालां कि सामुंद्र वेळा हळक्के।।
और भी-
जुटे जद्दु राणं, उभै अप्रमाणं। हुई वीरहक्कं, कमाली किलक्कं।।
वहै खग्गवारी, करग्गे कटारी। तुटे मुंड तुंडं, कला नाट कुंडं।।
खणंके खडग्गं, पड़े हत्थ पग्गं। कती धार कैसी, जरो दंत जैसी।।
घणा रोद्र घेरे, फिरे चक्र फेरे। मथांणे मटल्ले मही जांण हल्ले।
अगे अप्रवांणी, बजे खग्गवांणी। कबाड़ी सकट्ठां, कटे जांण कट्ठां।।
कानो कृत ‘कवत्त चांपावता सींघला रा विणलोया वाला’ में भी युद्ध का क्रमबद्ध वर्णन हुआ है। इसमें चांपा आसळां के शौर्य-पराक्रम का अच्छा वर्णन हुआ है। युद्धारंभ का वर्णन कवि ने इस प्रकार किया है-
गाज बाज गोळियां, बाज सुरबब नगारां।
वाज पुणछ धानेष सोक बाजिया अंषारां।।
धकइ वाज पाताळ पांव वाजियां पवंगां।
ऊपर वहलायतां षाग बाजी उतबगां।।
वावता घाव लावइ विगत, षांरषदां दहूं दळषळा।
धरबेध हुअउ छोडइ धकड़, इण विधी चांपा आसळां।।
और वीभत्स का यह चित्रण भी कम आकर्षक नहीं-
पांव काही का परइ हाथ कांही का हेरइ।
पड़िया धड़ सिर बिना अेक पड़िया आळे रइ।।
अेका तड़छ आचटइ अेक षावइ ओवासी।
अेकां बोलई घाव पड़ई अंभावळ पासी।।
धर सिरउ भरीजइ रुधर रा, षळक षळक नइ खामणां।
बेसुध हुआ पड़िया विठे, यूं दीसइ अद्रियामणा।।
पहाडखां कृत ‘रूपक गोगादे रो’ भी एक खण्डकाव्य है जो विषय की दृष्टि से आल्हा रचित ‘वीरमायण’ से सादृश्यता रखता है। यहां भी आलम्बन उद्दीपन, स्थायी एवं संचारी भावों का अच्छा परिपाक देखने को मिलता है वातावरण की सृष्टि करने में कवि अधिक सफल हुआ है। यथा-
उडे रज डंमर व्योम अथाह, मिले निस जाणक भादव माह।
दलै कर वीरम हूंताय दाय, उगंतां सूर वितलीयोय आय।।
धुबे पड़ रोस अरराका धाक, हुबोहुब होय चहू बळ हाक।
ढमंकैय बाहर बाहर ढोल, षगां जड़ जीण दुबागाय षोळ।।
कोपे अड़ अंबर जोस करूर, सुणा वित लीधाय बीरम सूर।
सजे बट सूथण जांमियसार, जड़े छकड़ाळ कड़ी जोय धार।।
ओपे सिर गूघर टोप अथाह, विणै दस-तांनांय हाथ जवाह।
जोइयांय साजण जैत जुहार, सुरा भड़ भीड़ छती सुंयसार।।
वीभत्स का यह चित्र युद्ध की विभीषिका बढ़ा देता है-
उर दोनुंय माजिय आहड़िया, जोइया अरु धूहड़ राव जुधो।
हरहूर रथां उदमाद हुवी, भूखीय थट ग्रीधण मांस भषै।।
पड़ सूर धधकैय सीस पषै, गज थट्ट गरट्ट ऊछट्ट गूहां।
अण थट्ट भिड़े उमंगे असहां, षगझट विकट्ट कुवट्ट षिरै।।
चट पट्ट आंमंषये ग्रीध चरै, तद रत्त विकट्ट उपट्ट तरै।
घण मट्ट फुटै पररिट्ट घिरै, घमचक्क भभक्क थरक्क धुंवो।।
हुव ठक्क अरक्क थरक्क हुवो, कंधड़क्क बड़क्क बड़क्क कड़ी।
सजडक्क जड़क्क वैहै सजड़ी, सबड़क्क बड़क्क भषै संवळा।।
गुडळक्क गळक्क गीघांण गाळ, रही ढक्क थिठक्क धधक्करजी।
विरहक्क कटक्क ललक्फ वजी, फिफरक्क फरक्क फुरै।।
घण डक्क त्रबंक्क त्रबंक्क धुरै, वप श्रोण धधक्क धधक्क बहै।
रथ रंभ अरक्क धरक्क रहै, जग टोप कड़ी जडळक्क जडै।।
पिडलोथ दड़क्क दडंक्क पड़ै, हुय हक्क अछक्क कढ़क्क हुवै।
ग्रिधणक्क गहकां चंडी गुरबै, धड़ दोय अकारण होय।।
करणीदान कविया कृत ‘सूरजप्रकास’ महाकाव्य राजस्थानी भाषा की एक अनुपम कृति है। इसमें प्रधान रूप से महाराजा अभयसिंह (जोधपुर) के द्वारा गुजरात के सूबेदार सरबुलंदखां को अहमदाबाद के युद्ध मे परास्त करने का चित्रण हुआ है। इस युद्ध का कवि ने सांगोपांग वर्णन किया है जो बड़ा ही ओजस्वी है। स्वयं युद्ध में सक्रिय भाग लेने से इसकी सजीवता एवं स्वाभाविकता बढ़ गई है। यह उसकी वाणी का प्रभाव नहीं तो और क्या है, जिसने सरबुलंदखाँ जैसे कायर व्यक्ति के हृदय में भी साहस का संचार कर रणभूमि मे ला खड़ा किया-
ब्रिद तोप बहादर नहिं अबूझ, तरवारि बहादर विरद तूझ।
ईरान उतन हीमति अथाह, सिरबिलन्द तूझ जिसड़ा सिपाह।
सामहो न हालै ग्रहे सार, भूमि रो न झाले शेष भार।
तू तजे भांण दिल करे तंग, पिछमाण दिसा ऊगै पतंग।
नहिं जोग पकड़बो गढ़ नबाब, हाथियां चाढ़ि लडबो हिसाब।।
युद्धवर्णन में कवि प्रवीण है और वीर रस के संयोजक तत्वों को संजोने में वह सफल हूआ है। मित्र रस रौद्र, वीभत्स एवं भयानक का भी यत्र..तत्र सुन्दर निर्वाह किया गया है। ‘उत्साह’ का यह भाव देखते ही बनता है-
महमूद माह सूरज प्रमाण, जेठ रो अर्क अभमाल जांण।
उण वक्त खबर गुजरात आय, असपती अमल दीन्हों उठाय।।
मरहठा करै सिर बिलंद मेल, अहमदाबाद मंडियो उखेल।
सुण पातसाह फेरे सिताब, नरियंद सकल हाजिर नबाब।।
महिपति अमीरतन हीण मांण, पांना दिस कोई धर न पाण।
तद तेज वांण नरसिंघ ताय, अभमाल पान लीन्हो उठाय।।
खूंदालम जीतूं बींर खेत, सिर बिलंद खानसाहन समेत।
कमधज्ज अर्ज इम सुणे कान, महमूदसाह लग आसमांन।।
आसीस नेक कहि कहि अदाब, सिर पातसाह बगसे सिताब।
लाखां दे तोपां जूट लार, कुंजर अस बगसे खग कटार।।
जसराज हराकर फतह जूंझ, तखतरी लाज मरजाद तूझ।
कहि पातसाह इम विदा कीन, दुहुं राह बाँह साबास दीन।।
तद हलै विदा हुय मूंछ तांण, जळ जेम ऊजळे समंद जांण।
खेडैचे खडिया थाट खूर, सत्रवौ काळ विकराळ सूर।।
बीच-बीच में कवि ने इसे अलौकिक रूप प्रदान किया है। अभयसिंह के शस्त्राघात से जब यवनों के धड़ और हाथियों के मस्तक एक दूसरे से चिपट गये तब गणपति की खोज करते हुए शिव-पार्वती की यह वार्ता बड़ी रोचक है –
मदां आट पाटां सिलह पोस थाटां मसत, खाग झाटां अभैसिंघ खहियो।
जवन धड़ सीस गज पड़े भेळा जठे, कठे गणपत सगत ईस कहियो।।
तरण रथ थकत घण बहे खागां अतर, अमर कर कर मरण बरे अदरी।
पड़े धड़ गजाजन कहे यम पंचानन गजानन कठे रिण सोध गवरी।।
अभो छत्रधर खगां असुर दळ आछटे, रोस धर अजावत दइव रायो।
भड़ां घट देख चाचर भमर कहे भव, उमा थांरो कंवर काम आयो।।
सर बिलंद तंडळ दळ कमळ गज संभाळे, सगत कहियो कुसळ नाह सुणरे।
दोय दंत दोय भुज नहीं हर लंबोदर, एक दंत चार भुज चहं न उणरे।।
यम कहत समा गणराज पण आविया, मुगळ धड़ खूद गजराज माथा।
हुवा सिव सगत (खुश) पछे ऊछवव हुवो, हुवो रिणजीत ब्रद कमंध हाथां।।
प्रस्तुत ग्रंथ में गौण रूप से छोटे-मोटे अन्य युद्धों का भी वर्णन है। यथा ‘भाटी गोविंददास रै साथ किशनसिंघरों जुध वरणण’ यहाँ दिया जाता है-
इम सुणि धाइक ऊमरा, बोले बंबराळा। मोनू ‘गोयंद’ मारणो, चित नहि अनि चाळा।।
सुरतांणा दळ मझि सझौ, चौरंग चिरताळा। सुणे ‘गजण’ कथ ‘सूरसाह’, तायक तिणताळा।।
कळहण ऊससियौ कुंवर, पित धीर प्रमाळा। सूर कहै गजसिंघ नूं, रखि षीर रंढाळा।।
कळह करौ तदि ‘केहसरि’ आय मंङै आळा।।
राखो करै तयारियां, जंगो जमजाळां। सुणि भाटी भड़ ऊससै, जैसाण उजाळा।।
डेरा दळ बाहिर दिया, बहसे बांहाळा। चाहौ सुजि आवौ चढ़ै, इम कहै उताळा।।
चाढ़ां दहुं दळ खिंवै, वीजळ वाढ़ाळा। खुरसांणां दहुं दळ खिंवै बीजळ वाढ़ाळा।।
साझंदा हुय आतसां, दुहुं दळ दुरदाळा। दहूं दळां हुय साझंदा, पमंग पखराळा।।
फुटकर कवियों के युद्ध-वर्णन में भाव-साम्यता अधिक एवं नवीनता कम है। अधिकांश कवियों ने परम्परागत शैली का ही अनुसरण किया है। सेना के प्रस्थान करते समय भूकम्प आने लगता है, उड़ती हुई धूलि से सूर्य छिप जाता है और पृथ्वी पर अंधकार ही अंधकार छा जाता है। सेना के बोझ से शेषनाग एवं कछुए डोलने लगते हैं। एक बार पुन: महाभारत एवं लंका के युद्ध-सा भयंकर दृश्य खड़ा हो जाता है। रणभेरी एवं नगारों के तीव्र घोष से तीनों लोक भयभीत होने लगते हैं। इस भयंकरता को देखकर आकाश-मार्ग से सहस्रों अप्सरायें विमान में बैठकर अपने हाथों वरमाला झुलाती हुई युद्धभूमि में आ उपस्थित होती हैं और वरण करने के लिए होड़ करती है। शूरवीरों की युद्ध-क्रीड़ा देखने के लिए सूर्यदेव अपना रथ स्थिर कर देते हैं। रक्तपात होने पर चण्डी और योगनियों के समूह पंक्ति बनाकर पात्र भरकर रक्त पीना आरम्भ करती हैं। ठीक समय पर शिव-पार्वती गणपति को साथ लेकर रण-स्थल में उपस्थित होते हैं और मुण्डमाला पिरोने लगते हैं। गिद्ध-गिद्धनियों के समूह मांस-भक्षण हेतु इधर-उधर झपटने लगते हैं। इस वर्णन के बिना चारण कवि को अपने वीरकाव्य का रंग फीका दिखाई देता है। चाहे मुक्तक हो अथवा प्रबंध, वह यह रंग भरकर रहता है। कवि १. गिरधर कृत ‘महाराणा संग्रामसिंह (द्वितीय) का युद्ध-कौशल’, २. बखता कृत ‘जालमसिंह मेड़तिया राठौड़’, ३. चावण्डदान कृत ‘राजा उम्मेदसिंह सिसोदिया (शाहपुरा)’, ४. पहाड़खाँ कृत ‘राठौड़ शेरसिंह मेड़तिया (रीयां) ‘, ५. सबळदान कृत ‘झमाल ठाकुरां देवीसिंह पोकरण रा’, ६. बद्रीद्रास कृत ‘रावत पहाड़सिंह चूण्डावत (सलूम्बर)’, ७. हुकमीचन्द कृत ‘चहुआन उदयसिंह (गढ़ी-बांसवाड़ा)’, ८. फतहराम एवं ९. तेजराम कृत ‘रावत हमीरसिंह चूण्डावत (भदेसर)’ नामक स्फुट गीतों में यही प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है। नीचे क्रमश: प्रत्येक कवि का एक-एक उदाहरण दिया जाता है-
१. गिरधर कृत ‘महाराणा संग्रामसिंह (द्वितीय) का युद्ध-कौशल’
नव वर तजे वर-आँट-जाणे नगा, आँट नव वंस कर जाण ओळे।
अछर उलटी मुड़े मेर भय ईखतां, भुजंग पटके जटी तगस भोळे।।
२. बखता कृत ‘जालमसिंह मेड़तिया राठौड़’
धरा चाढ मांठी मिले थाट मोटे धड़ै, पंडवां सताबी तुरां पाखर पड़े।
हुवां बीरा किळक जोगणी हड़हड़े, जालिमो कणी सिर आज ससतर जड़े।।
आवळां भींच कडछे प्रगट ऊससे. जाक चकरी फिरै नाक हड़ हड़ जसे।
आग घख लोयणां रूप वणियो यसे, केहरी तणो किण सीस आवध कसे।।
३. चावण्डदान कृत ‘राजा उम्मेदसिंह सिसोदिया (शाहपुरा)’
ईखे वेढ लंका ज्यौ अपारां कंकां थोक आया,
काळी वीर कळक्के श्रोण का प्याला काज।
हूरां रंभ हजारां गैणाग ढका रथां हूंत,
सोभ णंकां नाथ धाया नाथ डेरू डंका साज।।
लाखां बाण गोळा खें नखत्रां जूं तूटवा लागा,
सेसरा तूटवा लागा भार हूं सुमेद।
लागा सरां सेला फील सजोड़े फूटवा लागा,
यूं चौड़े जुटवा लागा माध ने उमेद।।
४. सबळदान कृत ‘झमाल ठाकुरां देवीसिंह पोकरण रा’
फूटां गोळी सेल तीर साठ लौहां डोहै फोज, सोही मारू मोहै बरां अच्छरा समाज।
दोय सिंघ नामी लड़े नागांण बिकाण दब्बे, रामसिंघ गरब्बे जौधाण वाळो राज।।
खाळा श्रोण छूटे मतवाळा ज्यूं तमाळा खाय, कदंमां अंत्राळा झूले वरम्माळा कंध।
आजका बाणक वाळा चाळा देख भांण आखे, विरदाळा काळा झोका झोका बामी बंध।।
वीर खेत मेड़ते मच्छरा फूल धारा बढ़े, चढ़े रथां अच्छरां अमीर नेह चाह।
जमी आय धू सुमेर पांणी ने पवन जैते, सदाणी रहांणी क्रीत एते सेरसाह।।
५. बद्रीद्रास कृत ‘रावत पहाड़सिंह चूण्डावत (सलूम्बर)’
भाण न ऊगै भोमंगां, आगै जस ऊगंत।
सूरां साधक तिण समै, पीछे गीध चुगंत।।
६. बद्रीद्रास कृत ‘रावत पहाड़सिंह चूण्डावत (सलूम्बर)’
रोक रोक तुरी भाण आराण बिलोक रीझे, विभ्र मोक त्रलोक त्रंबोक धोक बाज।
बेध बेध सोक झोक तोक बाण सेल खाग, सीसोद गनीम तणा थोक हुं चोक सकाज।।
बांरगां उमंगां रंगां बिमाणंगा सोक बाज, रारंगां अभंगां भड़ां दमंगां रो सार।
पनंगां विहंगां ढंगां नारंगां अभीच पड़ा, सारंगां खतंगां अंगा मातंगां दू सार।।
ईख लंका क्षेत्रां त्रेता जुगेतां संग्राम असो, उरधरेत केता धू त्रनेता उनन्द्र।
रुद्र छाक लेता बीर देता राह जेता फरे, मळै हास हेता वेता अनेता मुनन्द्र।।
पंथ आसमाण हूंत झपट्टी अपट्टी परां, बरां कंठ लपट्टी अपट्टी जेण बार।
सामठी झड़फ्फे गीध जठी तठी गणा सूधौ, धूर जट्टी चुणै धू हजारां हाथ धार।।
७. हुकमीचन्द कृत ‘चहुआन उदयसिंह (गढ़ी-बांसवाड़ा)’
चंडी छाक ले आमखां गूद कोण चीलां रंजां चले।
धू काज दाकळे गणां भूत राट धींग।।
पैराक चमूरां केक ऐराक छाक ले पूरी।
साकुरां हाकले उसी वेळां उदैसींग।।
सनाहां खणंकै कड़ी बड़ी बड़ी नचे सुरां।
हूरा रंभ खड़ी खड़ी रचे सुभ्र हार हीर।।
महाघोर घड़ी बागां लागां जोर अड़ी मेले।
बाजंदा ऊपड़ी बागां चहुआण बीर।।
कोम पीठ भोमभार घूमै घड़ा नाग काळां।
बरंमाळा लूँबे रथां रंभ चाळा वेस।।
बाजंतां त्रंबाळा के कर माळां झाळां बीच।
नेज बाजां नरा ताळा संभरी नरेस।।
८. फतहराम कृत ‘रावत हमीरसिंह चूण्डावत (भदेसर)’
झंडा फरक्कै मदाळां पीढ आरबां नत्रीठा झड़ै, धू पंडां ऊधड़ै बे बिरंडां सूरधीर।
रमे दे घुमंडां वीर मार तुंडां रूके राह, हकै बीच थंडां जठै उडंडां हमीर।।
रूकां बेग झालरा धू हालरा दे जोग राणी, घुरे राग काळरा बडाणी बंब घोर।
असा धीर ख्याल रा मडाणी आप ताप उठै, तठै रिमां सालरा संदाणी वाळो तोर।।
घावां अंगां बडंगां बेछंगा तंगा वीर घाट, भोम रंगां श्रोण हूंत नारंगां भेवान।
जोष चंगा बारगां सुरंगां बींद वरे जठै, अभंगा सीसोद भुजां अड़ै आसमान।।
९. तेजराम कृत ‘रावत हमीरसिंह चूण्डावत (भदेसर)’
सफ्फै गे जूह लोहां के धरां तड़फ्फै सूर। बड़फ्फे खेचरां रंभा झड़फ्फै बेवाण।
महाबेग बहिया गनीम अद्र तणे माथै। क्रोधंगी हमीर वाळी दामणी केवाण।।
नीर बजे आसेर चढ़ायो सालमेस नन्द। सोभा चाहूं फेर चाह्यो प्रवाड़े सनीम।
ओझलाणो थारी समेसर छटा तणी आगे। मेर फेर फूल पत्रां न आवे गनीम।।
अन्य कवियों ने स्वतंत्र रूप से युद्ध का चित्र खींचा है। कहीं अपने चरित्र- नायक के आतंक का वर्णन है तो कहीं शस्त्राघात का। कहीं प्रचंडता का तो कहीं प्रतिपक्षी की भावनाओं का! वे विजय पर उतने ही मुग्ध हुए हैं जितने वीरगति पर। अभिप्राय यह कि योद्धा के इन कार्य-व्यापारों पर उनकी दृष्टि पृथक रूप से पड़ी है और उसका बड़ा ही सूक्ष्म वर्णन किया है। कवि पता, मानसिंह एवं तीरथराम ने आतंक का चित्रण किया है। यथा, पता ‘शक्तावत रावत घासीराम’ (बावलका) नामक गीत में कहता है-
मंडियौ मेर अडिग मेवाड़ो, जुड़े दुरग त्रिहुं कीधा जेर।
औ जुध वेर हणू जिम आखां, सुतन सुद्रसण पाखर सेर।।
थह पातल अजबा रामा यह, दहल पड़े दिन मांहि दह।
आगळ थकौ राण घर आडो, थहियौ डागळ तणै थह।।
मानसिंह का ‘रावत केसरीसिंह चुण्डावत (प्रथम) सलूम्बर’ हाथ में तलवार धारण करते ही सबको कंपा देता है–
कहर मेळ लसकर डमर जेतहर कळोधर, अवर नहं धरपती धरै आंटा।
केहरी ग्रहै करमाळ कांधाळरै, कीध ऊथळ पथळ बन्हे कांठा।।
बांसपुर भांजतां सोच पड़ चहूं बळ, सकळ खळ माण तज सेव साधै।
दूरै डूंगर परौथर कियौ देव गरे, बांह बर भलां तूं खड़ग बांधे।।
और तीरथराम कृत ‘भीमसिंह का आतंक’ भी प्रभावोत्पादक है-
ठहक नगारौ डंका दाबयतां ठांगले औध घोड़ां भड़ा मिळे अगळा।
भीम ऊनाळ वाळो तिरुण भळहळे, सीत परबत द्रोमण गळे सगळा।।
ताछ लंकाळ जिम सभे रिणताळ रे, प्रथपत निडर करमाळ पछटे।
तण आस विरद उजवाळ दनकर तपे, बेरहर सिखल हेमाळ विछटे।।
प्रथीरस भोगवे आज मांडां पणा, जुधां गाडां घणा सूर जूटा।
तेम परकास रिष फोर लाडा तणा, टूक जाड़ा तणा दुसह टूटा।।
हरा जगपत सरब जांण भाला हथां, चमू तज माण वीराण चलियां।
राण हिंदवाण (रा) भांण तप राज रे, गिर बरफ जेम असुराण गळिया।।
युद्ध में शस्त्र का बड़ा भारी महत्व है। इसके चलाने पर ही विजय निर्भर है। एक वीर योद्धा शस्त्राघात से प्रलयंकारी दृश्य उपस्थित कर देता है। वह हुंकार करता हुआ युद्धभूमि में प्रविष्ट होता है और ललकारता हुआ शत्रुओं पर तलवार लेकर टूट पड़ता है। क्रुद्ध होने पर तो वह किसी के वश में नहीं रहता। शत्रुदल का सफाया करने में उसे कोई देर नहीं लगती। खंगार, नाथ, नाहर सिंह, हरदान, पहाड़खां, हुकमीचंद, सहंसमल आदि कवियों ने अपने चरित्रनायकों के शस्त्राघात का बड़ा ही अलंकृत वर्णन किया है। खंगार ने महाराजा जसवंतसिंह (मारवाड़) पर लिखे इस गीत में उनके अनुभावों की ओर ध्यान दिया है–
दांतक घाव वाहतौ दुजड़ां, मारू आळवतो मुख।
रवदां थाहर बीच रोकियो, राजा कवल वराह रुख।।
होफरतौ घसतो हाकळतो, उचंडतो करतो रण आळ।
रह यह कर जोधपुरो रहियो, तीजा पहर लगे रण ताळ।।
नाथ के गीत में जब महाराजा जसवंतसिंह शस्त्राघात करते हैं तब उससे शत्रुओ के लगे इत्र की सुगंध शक्ति के रक्त-पात्र में भी पहुंच जाती है। सौरभ के कारण वहां भ्रमर आकर मंडराने लगते हैं। यह देखकर प्रेत चम्पा के पुष्प बरसाने लगते है जिससे भ्रमर उड़कर चले जाते हैं और योगिनियों के साथ शक्ति रक्त पीकर तृप्त होती है-
जोधपुर धणी चा अणी लागा जियां, लाख शत्र पौढ़िया अतर लाये।
कहर भरिया खपर पीय न सकै सकति, इसा मंडे डमर भमर आये।।
पोवतो साबळां खळा बांहां प्रलंब, जोवतो सूरमा सूझवी जाति।
जोगणी तणा भरिया पतर जामिया, भमे मधकर भवर अनोखी भांति।।
अंजसिया माल संग्राम उदा ऊभे, धमळ गज बंध रो आव धूरी।
कारणां भूतचा नाख चंपा कुसम, पीये रत दिये आसीस पूरी।।
नाहरसिंह के ‘रावत माधोसिंह चुण्डावत’ (आमेट) की कटारी शत्रुओं के हृदय में प्रवेशकर उनके कलेजे को आहार बनाती रहती है-
भूखी डाकणी जेम भभकंती, रहे न रोकी रूकां।
ढुक गिळै काळिज धाराळी, बूथ न मेल्है बूकां।।
पातल हरा निमो पुरुषातन, कळ दळ सबळ कळासै।
उरड़ै फौज धजा बिच आधी, गुण की गजां गरासै।।
माडिया मार अनड़ मानावत, कळिहण वार कराळी।
मैंगळ कवां चगमगां मध कर, धांपावी धाराळी।।
हरदान रचित ‘राजा उम्मेदसिंह सिसोदिया (शाहपुरा)’ पर लिखे हुए गीत की इन पंक्तियों में तोपों एवं बन्दूकों के चलने का वर्णन हुआ है–
आतसां जागियां झाळा झंबां चाढ़ क्रूळां ऊंडै, दंडाळा कराळा दान रूड़ै धोळै दीह।
नीमजे बाणासां आयो अजारो विहूतो नाग, सार बोहरतो खेत भारथ रौ सीह।।
चोळ में बणावं सुरां कायरां अकूटा चाळा, एकठा बारंगा झुण्डां होवंतां उछाह।
छूटां धोम आतसां दुरद्दां तूटां कंध छकै, बूठा लोहा अणीधारां रूठा महा बाह।।
रण-बांकुरा शस्त्राघात से प्रलयंकारी दृश्य उपस्थित कर देता है। वह खड़्ग क्या चलाता है मानो भयंकर जलवृष्टि हो रही हो! कवच पर होने वाले प्रहार मानो कांसे पर कड़कते हुए विद्युत्पात से दिखाई देते है। कवि पहाड़खां के शब्दों में-
औघरड़ धार धड़ छड़ दड़ड़ आवधां, कड़ड़ खगबीज पड़ जरद कांसे।
तड़ दहूं तणा भड़ निवड़ बचिया तरां, वडा गिर अनड़ राठोड़ वांसे।।
वार रत चोळ गज बोळ दळ वाहळा, वेध घर आवधां कहर वूठै।
जंग अढंग ग्वाळ व्रज जेम पद जीविया, पतावत अभग अंग दुरंग पुठै।।
आतसां सोर घणघोर कळ ऊकळे, झूंड गिर सैहर रत लगा झरणे।
संपेखे झाट भड़ थाट आया सको, सुरां गिर भीम हर तणै सरणे।।
हुकमीचंद के ‘राठौड़ जालमसिंह मेड़तिया (कुचामण)’ में अमर्ष का यह भाव दृष्टव्य है–
प्रलै साधवा फूटियौ सिंध वारध के लोप पाजां
करी धू पटेत हके छूटियो क्रोधार।
काळै पाख महा वेग तूटियो नखत्र किना,
जालमो उताळे रोस जटियो जोधार।।
सहंसमल योद्धा को दृढ़ साहसी एवं धैर्यवान देखना चाहते हैं–
बेढक बेढकां रै संसो इम भाखै, धीरज लेख प्रमाण धरै।
धखचाळां भालां बिच धरतां, मरता फिरै स नांहि मरै।।
रीझल जुध करनावत रावत, घणा अडी षंभ सबद झड़ै।
ओझड़ झटां टळै नंह अड़तां, झड़ता फिरै स माहिं झड़ै।।
सास उसास मेलियो साहब, रसनां कमधज येम रटै।
बधै नहीं जतनां बाधायां, धरम घटायां नाहि घटै।।
रोळो देख टळो मत रावां, दुजड़ां झड़ां झकोळो देह।
जतन कियां उपजै तन जोखो, लै लै कियां न डाकण लेह।।
योद्धा की प्रचण्डता का वर्णन करने वाले कवियों में सूजा, अनूपराम, गोपीनाथ, गोरखदान, बरजू बाई, हुकमीचन्द आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। सूजा का महाराजा जसवंतसिंह (मारवाड़) युद्ध को एक खेल ही समझता है
सकज वाहतो सेल अण ठेल नव साहसो, खेलिये खेल खत्रवाट रो खूब।
छोह लागे जसे ओरियो छत्रपति, मोकळा लोह रे बोह महबूब।।
कूत आवाहतो ढ़ाहतो केविया, त्रजड़ रामत रमे कमंध त्यारा।
गजण रे नाखिया बाज मचती गहण, सूरहर आभरण पूरा सारा।।
अनूपराम का ‘राजा उम्मेदसिंह सिसोदिया (शाहपुरा)’ भी बड़ा विकट योद्धा है-
वायधिक अधिक दूजो गजण वाजतां, हूंता दुहवै तरफ पाण हमराह।
मेर गिर चळ-विचल थयो जैसींघ महि, गुरड़ भारथ रै ढके गज गाह।।
अनिल बळ चहूं वहतां प्रबळ अजावत, सिखर नूं ऊपड़े गजधजा सामेत।
गिरन्द कछवाह होतां कदम चळत गत, खगिन्द्र दूजे दले ढांकिया खेत।।
गोपीनाथ का चरित्रनायक भी कम विकट नहीं-
जैतसी भंजि कंमरौ जड़ागि, धूधहर राइ लागे धियागि।
मालदे तणो भंजियौ माण, कलियाण पांण झले केवाण।।
गोरखदान के ‘महाराजा बहादुरसिंह (किशनगढ़)’ का जैसा नाम है वैसा काम भी-
बप छळ सबळ लियां खत्र बट वट, विधि जुधि बिढ़वा सकति बर।
आछटो तेग वहण घण असुरां, दतिइळ सू कूदे डुसर।।
पित चे मोहोर कांम रस पाड़े, हद जीवत सिंभमान हर।
थरपे भलां पिंडतां थारो, नाम बहादर सिंघ नर।।
ठाकुर लालसिंह (बड़ली) के ऋण से उऋण होने के लिए बरजू बाई ने उनकी पत्नी के मुह से क्या ही सुन्दर कहलाया है? –
छिन छिन बाट जोवतां छाया, हुई कळळ घोड़ा हींसाया।
अणचीत्या बैरी खड़ आया, ऊठो पीव पांमणा आया।।
चख रा वचन सुणे चड़ खायो, अंग असळाक मोड़तो आयो।
दूलावत इसड़ो दरसायो, जांणक सूतो सिंघ जगायो।।
किसै काम आंवण रण काळो, बांधे माथै मोड़ बिलालो।
भुजडंड पकड़ रूठियो भालो, लेबा भचक रूठियो लालो।।
घटा घोर त्रंबक घरहरिया, फोजां तणा हबौळा फिरिया।
फीलां सिर झंडा फरहरिया, ओळां जिम गोळा ओहरिया।।
अधपत हाथ दिखाया आछा, सत्रवां साव चखाया सांचा।
नजड़ां भार किया खळ त्राछा, पाचों हला मोड़िया पाछा।।
प्रथी तणा सुणजो रजपूतो, जुध रे रथ धोरी ह्वे जूतो।
आश्रम चौथो परब अछूतो, सर से ज्या भीसम जिम सूतो।।
जूनी थह जातां हद जूटो, खूनी सिंह सांकळां खूटो।
छूटो प्राण पछै हठ छूटो, तूटां सीस पछै गढ़ तूटो।।
हुकमीचंद रचित ‘महाराजा विजयसिंह’ (मारवाड़) के गीत में उनकी भयंकरता प्रकट हुई है-
पब्बे उठाये हणू ज्यूं चाहै जेम सिंधु पीण। बिजे के संवाहै मही दाढ़ ज्यूं बाराह।
गाढा भीम मतारा गनीमां गजां जेमं गाहै। सतारा सूं तुंही तेग साहै विजेसाह।।
पेण भाळां ओध दे अमोघ बैण तूंही पढ़े। तूंही गैण मढ़ै रज्जी रसम्मां ताणास।
चोड़े खेत बिया चुण्डा चोजां मत्थे तुं ही चढ़ै। वीर फौजां मत्थै तूंही कढ़ीजे बाणास।।
हूरां हार बारंगा बलावे आम रत्ता हूंतां। नागेसां नमावे नारा जुत्थां हूंत नाड़।
रेणां श्रोण बुत्थां हूंतां रचायो जोसेल राजा। रोसेल बरुत्थां हूंतां जळाबोळ राड़।।
योद्धा की विजय, वीरगति एवं प्रतिपक्षी की भावनाओं का चित्रण करने में भी चारण कवि पीछे नहीं रहे हैं। इस दृष्टि से सांवलदास, पहाड़खां एवं उम्मेदराम सांदू के नाम महत्त्वपूर्ण है। सांवलदास ने महाराजा अभयसिंह (मारवाड़) की विजय का वर्णन इन पंक्तियों में किया है-
चाळां बांधि अड़गी धिकावे पातसाहां चोड़ै,
किरमाळां झाळां रोड़े काळां गजां काप।
मालदेव दूसरी तीसरी ताळी बाज मेळे,
पावे फते अजा वाळो ईसरी प्रताप।।
पहाड़खां के इस गीत में महाराजा अभयसिंह के प्रतिपक्षी की भावनाओं का चित्रण हुआ है जिसमे मुसलमान सैनिकों की स्त्रियां अपने पतियों के चित्रों को देखती हुई विलाप करती हैं-
ग्रहे खग अेमदाबाद दूजे हुबाया खळां गज चाड़ हूंके।
झळळ चख छबी भरथार री भाळियां, कलतयर जाळियां बीच कूके।।
छतरधर सधर भखिया खळां छड़ाळां, सिंधुरां सहत राठोड़ सूरे।
घणू तसबीर जां देख खण खण घड़ी, झरोकां खड़ी यर नार झूरे।।
धरे विप जोस महाराज मुरधर धणी, विचत्र घड़ हणी भड लोह वाहे।
तको पेखे छबी जोतदानां तणी, महल कुरळे घणी मंडप माहे।।
युद्धभूमि में काम आकर ठा. महेसदास (आसोप) एक परम पूजनीय ‘महेश्वर पीठ’ बन गये। उम्मेदराम सांदू ने उनकी वीरगति का बड़ा ही अलंकृत वर्णन किया है-
घावां बाणासां तिलक्कां धू साबळां गंगा जळां घोष,
बील पत्रां कटारां अषत्रां गोळी बाण।
सोर धुवां झालां दीपमाळा गोळां फणां सेस,
पूजै यूं सतारा दळां माहेस पीठांण।।
हरीहरा रट्टां चहूं तरफ्फां असीस होत,
नमै सट्टीसट्टां धार षत्रीवट्टां नेम।
पडै पावां सार झट्टां हजारां भृगुट्टां पेस,
अरच्चै भूतेस नामी मारहट्टां येम।।
टणंकारां गैघट्टां झालरी झणंकार टोपां,
धारां फूल चोसरां गळांरा जांगी धूप।
रुण्ड नच्चै मोती थाळ आरती उतारै रम्भा,
रुद्र गोती गनीमां चरच्चै इसी रूप।।
पिनाकी रीझियो कूंपो सताबी बिरोध पूजा,
बगस्सै निजभझ्झै धाम काटे पाप बंध।
केवांण भसम्मी कड़ाहूंत करै प्रळयकारां,
कैलास लै गयो सारां पुजारां कमंध।।
४. भक्ति-काव्य:- आलोच्य काल में भक्ति-काव्य का समुचित विकास हुआ। इसमें कहीं राम का माहात्म्य गाया गया है तो कहीं कृष्ण का। कतिपय कवियों ने अन्य देवी-देवताओं का भी स्मरण किया है प्राय: सभी ने आलम्बन के महत्व एवं अपनी दीनावस्था का वर्णन किया है। नीति एवं सदाचार के उद्गारों का भी अभाव नहीं। कुछ कवियों ने अपनी कुल-देवियों का भी स्तुति-गान किया है। जग्गा, पीरदान, ब्रह्मदास एवं बगसीराम ऐसे कवि हैं जिन्होंने इस दिशा में अधिक काव्य-रचना की है। इनमें एक स्पष्ट विचार-धारा के दर्शन होते हें।
जग्गा राम-भक्ति शाखा के कवि हैं। वीर रस के कवित्त छंद में भक्ति की सफल रचना करने का श्रेय इन्हें दिया जायेगा किन्तु आलंकारिक प्रवृति के कारण कहीं-कहीं भाव दुरूह हो गये हैं। यथा-
माया जळ अति विमळ, तास कोई पार न पावै।
लहर लोभ ऊठन्त, मन जहाज चलावै।।
जग बूड़ै जम हंसै, पाव कर कहूं न लग्गै।
पीठ पार नह कोइ, पार नह कोई अग्गै।।
अतवार वहै आवै अनंत, सह विदु हुय जावै सगा।
तक विंट नांम श्री रांम रौ, जग़ समंद तिर तूं जगा।।
हरि-भजन कितना फलदायक होता है? इस प्रश्न का उत्तर कवि ने इस कवित्त में दिया है-
जिके जपै हरि जाप, जिके बैकुंठ सिधावै।
जिके जपै हरि जाप, उदर फिर कदै न आवै।।
जिके जपै हरि जाप, जियां मन सांसौ भग्गै।
जिके जपै हरि जाप, जियां मन लत्त न लग्गै।।
क्रम बंध पाप जावै कटै, उर परम्म धरतां अगा।
अे तो प्रताप हरि जाप रौ, जाप ज जनि भूलै जगा।।
जग्गा के कवित्तों का सर्वाधिक आकर्षण उसके रूपकों का झिलमिलाता सौन्दर्य है। एक श्रेष्ठ भक्त के सदृश वह हरिभक्ति पथ पर गुरु-ज्ञान की महत्ता प्रतिपादित करता है तथा इस भवसागर को पार करते समय सचेत रहने का उपदेश देता है क्योंकि हरिभजन नट-विद्या से कम नहीं-
सावधांन गुर समान, पाव द्रिढ सत्त परठ्टे।
जुग कौतग जोइवा, पंच तत पंच पइठ्ठे।
धरै कळस सिर धरम, वंस माळा झल्लै कर।
इम आंम्हो सांमहौ, पार जसवारौ ऊतर।
आ घात बात रमतौ इसी, पड़िस भ्रम्म भूलिस पगा।
हरिनांम बरत ऊपर हळव, जीव नट्ट जेही जगा।।
हरि सबका निर्माता है। सूर्य, चन्द्रमा, वायु, जल और पृथ्वी उसी के बनाये हूए हैं। वही जन्म-मरण से मुक्ति देने वाला है अत: उसकी शरण में जाना ही उत्तम है। कवि का यह ‘प्रपत्ति’ भाव दर्शनीय है-
ससि सूर पवन पांणी सती, मुगति कीअ जांमण मरण।
त्रैलोकनाथ जगियौ तवै, सरण राख असरण सरण।।
श्रुतियों में सत्य कहा गया है- एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म। संसार में उसके अतिरिक्त जो कुछ भी है, वह सब नश्वर है-
कुण माता कुण पिता कमण त्रिय कुण कुण भाई।
कमण पुत्र परवार कमण सनमंध सगाई।।
धुंध बाव सग सकळ धुंध जग काची काया।
धुंध मोह धुन्ध लोभ धुन्ध ठगबाजी माया।।
क्रम अक्रम भ्रम्म अधरम कपट, अै नैड़ा मत आंण अंग।
पढ़ नाम रिदै करता पुरस, जगा एक अव गत्त जग।।
जग्गा राम-कृष्ण में कोई भेद न कर दोनों को विष्णु का अवतार मानता है। अत: वह राम के सदृश श्रीकृष्ण के चरणों में भी न्यौछावर होता है-
मोर मुगट सिर जास कांन केरंठी कुंडळ।
बसन पीत तन स्यांम गळै माळा गुंजाहळ।।
भुज मुरली चत्रभुज संख साणं चक्र ठाद।
गोवरधन ऊधरण कमळ लोचन नंदन नंद।।
वर गोपि कांन लच्छी सुवर रंग रमण रस रास रा।
जाय जगौ जाप बलिहार जग उण साहिब सिर ऊपरा।।
कवि ने भारत के प्रमुख तीर्थस्थानों का माहात्म्य भी गाया है। ईश्वर उसकी दृष्टि में इंद्रजाली है जिसका चरित्र अद्भुत है। चारण कवि की कल्पना ने एक कवित्त में जीव रूपी मृग और यमराज रूपी शिकारी का खूब ही वर्णन किया है-
आहेड़े जमरांण डांण मंडे दीहाड़ी।
सर क्रम बंध संधिया चाप आवरदा चाडी।।
मोह वास मंडवै विघन सड़वा विसतारै।
कर हाका हाकंत जरा कुत्ती हलकारे।।
चत्र दिस जाइ न सकै चक्रति निजर काळ देखै नयण।
म्रिग जीव सरण मारी जतौ राख राख राधा रमण।।
जीवन की अन्तिम दशा का वर्णन करने वाले कवि अत्यन्त कम हुए हैं। जग्गा ने इस विषय को स्पर्श किया है। यथा-
पिंड प्राण छूट सी नाड़ तूटसी करग्गां,
धरा सेझ धारसी करे सुख सेझ अळग्गां।
परिमाण की दृष्टि से पीरदान का भक्ति-काव्य सबसे अधिक है। गुणों को ध्यान में रखते हुए भी वह एक श्रेष्ठ भक्त कवि कहा जा सकता है। उसने विविध शैलियों में ईश्वर का गुणगान किया है। ‘गुणनारायण’ में चौपाई छंद को अपनाया गया है। यथा-
ईसाणंद गुरु चित्त में औणा। वेद व्यास न पछै बखाणा।।
समरां प्रथिमी सारद ना। निमिषकार ब्रह्मा नारद ना।।
लीला विलास सुरां मंलाइ कि। निमौ पुलन्दर देव वे नायकी।।
कवि के भाव सरल हैं अत: आसानी से हृदयंगम किये जा सकते हैं। इस विश्व की रचना करने वाला परमेश्वर है और उसने सोच-समझकर ही इसकी रचना की है। ‘अलष आराधना’ के ये दोहे इस कथन की पुष्टि करते हैं-
वघ वाणी तू एक ब्रह्म औंकार अपार।
किमि कइ कीधौ कालिक विसव तणौ विस्तार।।
विसव कियो तें वीस हथ, कियो विवेक विचार।
इम्यो ब्रिदि लीधौ इसो, कीधौ ले करतार।।
भगवान को भक्त की रक्षा करने हेतु ‘गुण अजंपाजाप’ में कहा गया है-
भगब तुहारा सही भला, मिलै अरिजण भीम।
भगति दिये जो भूदरा, तो तोनू तसलीम।
तनां कहों छो त्रिकमा, दुरबळन करि दास।
काने करिहौं केशवा, परमेसर जम पास।।
‘ज्ञान-चरित्र’ में अनंत की अनंतता, पौरुष एवं पराक्रम का वर्णन है–
अनंत अनंत सही अनंत, अनंत पौरषि पराक्रम।
अनंत एक अनेक, अनंत बहु भांति बड़ा क्रम।।
अछतौ छतौ अनंत, नाम बिण अनंत निरगुण।
गुण समिपौ गौरिजा गोरी तू बिना नूहे गुण।।
अहि अमर रुषेसर नर असुर पहुचि तूझ राखै प्रघळ।
हूं मोहिं रिव कर मायाहि में, वयण तुझ दीजै विमळ।।
ब्रह्मदास विरचित ‘भगतमाळ’ नामक रचना के प्राय: सभी प्रसूनों से भक्त एवं भगवान के माहात्म्य का सौरभ फैलता रहता है। समस्त वर्णित कथाओं का सारांश यही है कि भगवान अपने भक्त की सहायता एवं रक्षा का सदैव ध्यान रखता है और इसके लिए वह विचित्र कार्य किया करता है इस सत्य की पुष्टि के लिए कवि ने जो पौराणिक उदाहरण एवं उनसे सम्बद्ध कहानियों का विवरण दिया है, वह उसकी तार्किक बुद्धि का परिचायक है। इसके साथ कवि ने राजस्थानी एवं भारतीय संत-महापुरुषों के आगे भी शीश झुकाया है। इन कथाओं की पुनरावृत्ति भी प्रत्येक माळ में की गई है किन्तु वह पाठकों को नहीं अखरती क्योंकि उसकी भाषा अत्यन्त हृदयस्पर्शी है और उसमें एक प्रवाह देखने को मिलता है। भाव सीधे-सादे हैं। महाभारत के दुर्योधन का यह चित्र ध्यान आकर्षित कर लेता है-
दुरजोधन ठग्गूं, कीधौ दग्गूं, पांडव पग्गूं, निपड़ग्गूं।
लाखाग्रह लग्गूं, जाळा जग्गूं, धोम अथग्गूं, धगधग्गूं।।
काढे करमग्गूं साहि करग्गूं, साचे सग्गूं, सामंतू।
धिन हो दुख वारण, काज सुधारण, भगत उधारण, भगवन तू।
जिय भगतां तारण भगवन तू।।
बक्सीराम ने राम एवं कृष्ण दोनों को आलम्बन बनाकर गीत लिखे हैं। इनमें जीवन की क्षण-भंगुरता है और है-माया में लिप्त सांसारिक व्यक्ति के पापों का दुष्परिणाम! इससे मुक्त होने का साधन भगवान का यशोगान है–
थावी केतली नर अमर थारी, भाषै मुष असहा बच भारी।
बचस्यो नहीं आवियां बारी, गावो रै गावो गिरधारी।।
बांटो बीत आपणैं बारैं, लाछ नहीं हालेली लारै।
थिर अै दिन रहसी नह थारै, तूं नर ईश्वर क्यूं न चितारै।।
यूं तरतर पड़ता दिन आसी, जीहा कर पद चष थक जासी।
पाकड़ जम घातेला फांसी, पापी इण दिन नैं पिछतासी।।
बपु माया नैं जांण बिराणी, पांव न धर षोटी दिस प्राणी।
रघुवर सांचो दास रसांणी, बोल बकसिया अमृत बाणी।।
रसखान जैसे कृष्ण की छबि पर मोहित होकर तीनों लोकों के राज्य को ठुकराने के लिए तत्पर हो जाते हैं, वैसे ही बक्सीराम ने कृष्णलीला पर मुग्ध होकर ब्रजभूमि में अहीरों का सा जीवन व्यतीत करने की अभिलाषा प्रकट की है। कवि की विशेषता इस बात में है कि उसने संवाद की योजना कर नाटकीयता ला दी है। ब्रह्मा एवं शिव विष्णु भगवान से प्रार्थना करते हुए कहते हैं-
ब्रह्मा सिव कहै ब्रजनायक, ब्रज दीठां नह षमां बधीर।
अमरांपुर दीजै आहीरां, हरि म्हांने कीजै आहीर।।
चत्रमुष ईस प्रारथे चत्रभुज, कोतूहळ गोकुळ सुख काज।
देव अमां छाडी देवाई, महराई पावां महाराज।।
बैठो घर हर चवै बीणतो, निरषै मधुवन तणो निवास।
बीसन तुम बैकुण्ठ बसाडो, बिसन अमां दीजै ब्रजबास।।
जमनां तट बंसीवट जोवां, छाडां कदी न अेक छिन।
कामधेनु कल बृच्छ रद कीनां, कपिल धेनु कद्ंमा किसन।।
लछबर लार गोपियां लूटो, मारग माह दही रा माट।
इन्द्रलोक बैकुण्ठ ईषतां, नन्दलोक फूटरो निराट।।
फुटकर रचयिताओं में परमानन्द, सांईदास, गुलजी, गोपालदास, चन्दूलाल, चतुर्भुज, कान्हा आदि मुख्य कवि हैं। इन कवियों ने माया का बहिष्कार करते हुए मनुष्य को सांसारिक प्रपंचों से दूर रहकर हरिभक्ति-पथ पर चलने का उपदेश दिया है। रमानन्द का कथन है कि माधव के गुणों का वर्णन कैसे किया जाय? उसका पार पाना सम्भव नहीं-
अंग दिये लाख अंगि अंगि लख उतमंग, उतमंग मुख द्यै लाख अनंत।
मुखि मुखि रसणि दिये लख माहव, मुणि तौ सकां न सुगुण महंत।।
सू तण कोटि तिणि तिणि कोटि सिर, सिरी सिरी कोटि वदन समराथ।
वदनि वदनि द्यै कौटि जीह बळि, जपि तो गुण न सकां जगनाथ।।
घड़ ध्रू कोटि कोटि घड़ि धड़ि ध्रू, कोटि ध्रुवां ध्रू जिगन करे।
जिगनि जिगनि पै कौटि तवन जो, प्रिम तो सुगुण न पार करे।।
वप ध्रू वदन जीह चित्रवाणे, पारब्रह्म कुण लाभे पार।
करमाणदो छोडवो केसव, क्रमबंधण हूंता करतार।।
हरि को भूलकर यदि कोई अपने को बुद्धिमान समझे तो यह उसका एक मात्र भ्रम है। सांसारिक सुख उड़ी हुई पतंग के समान है, जिसकी छाया नाम मात्र की है, सच्चा सहारा तो कृष्ण का है। अत: सांईदास माया-सिन्धु में डूबते हुए मानव को हरि का हाथ पकड़ने की सलाह देता है-
आसा तर किसन तणो तजि औळो, सरराहे सुख तणौ संसार।
छांह कितीयक वीर छीपवो, गुड़ी उफीजी तणौ गंवार।।
माया तणो म पड़ महणारभ, बुड़ेस हर विळगा बिण बांह।
बार किती मूरख बीसामो, छबती निहंग तणी परछांह।।
माया छाया तणो मोहियो, ओबुध पड़ै भोगे अवस।
पड़ियो वस तूं तणे पड़ाई, बहे पड़ाई पवन बस।।
हर सरखो विसारज हेतू, तूं जाणे बुध तूझ तणी।
भमती पड़ती तणै भरोसै, धांम टाळ बाहम घणी।।
गुलजी वैद्य-हकीमों के हाथ में हाथ देकर नाड़ी दिखाना वृथा समझते है, क्योंकि ईश्वरीय आज्ञा बिना वृक्ष का पत्ता भी नहीं हिलता। अत: उनकी कृपा से जीव का शरीर से बिछोह नहीं हो सकता। इसके लिए राम-नाम रूपी मंत्र ही सच्ची औषधि है-
पूछे की वेद हकीमां पाछे, नाड़ दरवाड़े झाल नळे।
जाणू सांच जीव ना जासी, हुकम बनां नहं पान हळे।
सुख दुख लाभ अलाभ देह संग, आमट मटे कह वैद अगै।
जुग लग मान धानंतर जेहा, लगा राह जे क्यूं न लगै।।
यो नज मंत्र राम मुण आखो, सिव कहि हो धारियो सुवा।
बरसे दरद मह रहे बाकी, दरद किये सोइ किये दुवा।।
उदर-पूर्ति के लिए चिन्तित व्यक्ति को गोपालदास रात-दिन कृष्ण का स्मरण करने का उपदेश देता है-
आणंद घण कृसन अहो निसि ओळगि, आंणि कदे हृदा मझि ऊणि।
चित पंखी म करिसि काइ चिंता, चांच दीध सुजि देस्यै चूणि।।
सुख दातार भुवण त्रिहुँ सामी, ताइ भजि निसिवासुर जग तात।
तूं मन मत कळपै जिणि तूना, मुख दीन्हौ भख कितीहेक मात।।
जीव विचार करसो जोए, जडहूं चेतन कीयौ जिणि।
करिसि म सोच समथ हरि करिस्यै, पोखण कीध सभरण पिणि।।
प्रभ जिणि कीध सोई ज किन प्रभणे, प्राणिया उदर थकै प्रतिपाळ।
गळो जेणि दीन्हौ गोपाळा, गाळो सुज देस्ये गोपाळ।।
चन्दूलाल अपने मन से चिन्ता रूपी अंधेरे को मिटाने हेतु सूर्य भगवान की आराधना करते हुए कहते हैं –
दन दन प्रत देव आराधूं दनकर, कीजै वेल हमें ततकाळ।
मो करणी झांके मत माळक, भूप तणा विरद दस भाळ।।
अरुण-पती श्रवण तो अरजी, पहुंचावण अरदास पुणूं।
जेज मती कीजै जुग जीवण, हमें विपत ततकाल हणूं।।
देत बस मौखण वरदायक, अठ पहर चित ध्यान अखूं।
करणाधर कीजे जो कारज, बखम बकत फरियाद बकूं।।
जगतपती अंतरगत जांमी, मन चता तमरार मटाय।
सेवग तणी अरज तू सांभळ, सूरज देव करो मम साय।।
चतुर्भुज ने वर्णनात्मक शैली में पौराणिक एवं ऐतिहासिक विरुदावली के द्वारा भगवान का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया है कि वे इसका पालन करते हुए उसकी दीन दशा पर ध्यान दें तथा सब दुख दूर कर अपना सेवक बना लें-
तारियो अजामिल सजन ते तारियो, गीध ऊधारियौ वेद गावे।
रहावण विरद गिरवर नखां धारियो, पार नहं सेस माहेस पावे।।
ऊबारे प्रभूपत सापते अहेल्या, तवे जग सख अमरीख तारे।
सेन रे हेत नाई हुओ सांवरा, सदा भगतां तणा काज सारे।।
बारदठ चत्रभुज करै यूं वीनती, दीन तो अधारे कान दीजै।
सरब दुख मेट म्हारो अने सांवरा, कृपा कर आपरै थको कीजै।।
ऊधारे कीर कालू कुटम आप रो, लहै कुण आपरा गुणा लेखो।
रमापति राज रा विरद राखो रिधू दसा मो दीन री ओर देखौ।।
कान्हा कृत निम्न गीत में लक्ष्मीपति की अनन्यता का अलंकृत वर्णन है –
सुर कोड़ि अवर तेत्रीसइ सरवर, वळि छिलरे छत्रीसह वंस।
हरी नांउ मानसरोवर हूंता, हुए म दूरि अम्हीणा हंस।।
पांणी हीण अवर सरे परहरि, परहरि सुर नर भूपाळ।
श्री रंग तणो नाम पाबासर, मेल्है मत मन मूझ मुणाळ।।
आपणै भलै तणा, ऐ आरिख, अनि सर सुर न कीजे आस।
हरि मानसरि वसे मुवाइ हंस, वसियै जेणि टळे ग्रभवास।।
कान्हियो कहे अवर चीतिसी कोई, धोखौ करि सिरहि सिर धूणि।
प्राण परमहंस पुणवि प्रमेसुर, चुगि हरि सुजस रसायण चूणि।।
उम्मेदराम नीति-विषयक दोहे लिखने में विशेष सफल हुए हैं। इन दोहों में भले-बुरे का निर्णय करने, पराई वस्तु को मूल समझने एवं कपूत से वंश-नाश होने की शिक्षा दी गई है। यथा–
कारज आछौ औ बुरो, कीजै बहुत विचार।
कियै जळद नाहीं बनै, रहत हिये में हार।।
पर नारी सब मातु सम, पर धन धूळि समान।
सबै जीव निज जीव सम, देखै सो दृगवान।।
इक तरु सूखे की अगनि, जारत सब बनराय।
त्योंही पूत कपूत तैं, वंसे समूळ नसाय।।
अपनी कुल-देवियों का स्मरण करना चारण कवियों का धर्म है। हरिदान ने अपनी कुल-माता आवड़ की स्तुति इन शब्दों में की है–
मह रक्खियो रक्खियो भाव दक्खियो भूमंडळ।
बाखलियो जमहरां काठ लीन्हों अप्पह बळ।।
बाखलियो लप डाल लोढणो, कियो ब्रह्मंड समाणौ।
अरक रोक ऊगतो दाष पौरस आपणौ।।
जीझली निरम्मळ जस कमळ, सदा सउज्जळ भाळहळ।
आवड़ा प्रवाड़ा तैं किया, बाई बावन सत्त बळ।।
इसी प्रकार शंकरदान ने भगवती महामाया की आराधना की है-
अंबाजी सरणै राज रे आया पथ राखो दुर्गे महमाया।।टेर।।
भूत प्रोत ना कीनी भवानी आपेई ऊंट बणाया।
असी कोस उदियापुर जंतर पळ में आय पुगाया।।अंबाजी.।।
झमक झमक पग झांझर बाज्या अधर अरण दरसाया।
लाल वरण भाळ बिच बिंदली दलपत रूप देखाया।। अंबाजी.।।
जगमग हांस जवारन ज्योति भळ कुंडळ भर लाया।
शकर रमज समझ सगती कूं छा कोई छंद छपाया।।अंबाजी.।।
५. श्रृंगारिक काव्य:- चारण ने राज-पथ पर जितनी दौड़ लगाई है, उतनी प्रणय-पथ पर नहीं। यही कारण है कि उसके पास प्रेम के गीत गाने अथवा सुनने के लिए अत्यन्त कम अवकाश है। इतना होते हुए भी जग्गा, अजबा एवं करणीदान कविया ने श्रृंगार रस का जो थोड़ा-बहुत वर्णन किया है, वह उनकी रस-विविधता का द्योतक है। इनमें से अंतिम कवि ने संयोग का और शेष कवियों ने विप्रलम्भ श्रृंगार का चित्रण किया है।
जग्गा ने महाराजा रतनसिंह (रतलाम) की रानियों के वियोग का वर्णन करते हुए उनके सौंदर्य की ओर दृष्टिपात किया है-
कटि सिंघ नितंब जँघा कदली, चित नित प्रवित्त मराळ चली।
तन रंभह खंभ कनंक जिसी, ओपै सिरि नागिंद वेणी इसी।।
वनिता मुख पूनिम चंद वणी, भ्रिंग भ्रूह चखां म्रिग रूप भणी।
कंठ कोकिल दन्त अनारकळी, अग्र नक्क अलुक्क कळा उजळी।।
आभूसण अंग सुचंग इसा, जिगमगै नगां नाखित्र जिसा।
सिख नक्ख लगै सिणगार सझी, लभ नोक तजे विधि सत्ति लजी।।
तत्कालीन विलास-प्रवृत्ति की ओर संकेत करते हुए जग्गा ने कहा है–
सुख पालां ऊपरै, चलै नर बैठा कंधे।
रंग पदमण संग रमै, मेहलां सेझां मद्धे।।
चोर हीर चामीर, अंग परमळ ओपावै।
रस तंबोळ कपूर, अन्न मन बछंत खावै।।
कुंजरां चढ़ै मौजां करै, अस कोतल चाले अगा।
भोगवै, इसा नर सुख भुवण, जियां राम तूठौ जगा।।
अजबा ने अपनी पत्नी के वियोग में दुखी होकर लिखा है-
कंत पहल्ला कामणी, माधव मत मारेह।
रावण सीता ले गयो, सो दिन चीतारेह।।
सीता हुवो हरण देख घर सूना, सुण लखमण कहियो श्रीराम।
बिना धण नाह दिसे विहूंणो, धण बिन नाह न दीसे धाम।।
इसड़ा वचन सुणावे अवरां, भारी पड़े आप जद भीड़।
अंतरजामी जांणे आपरी, पैलां तणी न जाणे पीड़।।
मिनषां तणी लुगायां मारे, कहने पण समुझवि कुण।
पिंड मे आप किसूं सुष पायो, धाड़े दिन दस गया धण।।
पैलां कने पागड़ी पटकी, दोरा हुवां हुवां दलगीर।
घर घर फिरे सिया निठ घेरी, बांनर रींछ लिया जद भीर।।
असंग धार कहे कब अजबौ, धार मती एतरो मन घेष।
हुवो जको भळो हो जासी, लिखियो तको विधाता लेष।।
करणीदान कविया ने अपने महाकाव्य के अन्तर्गत ‘अंतपुर रौ वरणण’ एवं ‘स्त्री वरणण’ में संयोग का चित्रण किया हे। अंतःपुर में रहने वाली स्त्रियों का रूप वर्णन करते हुए कवि कहता है-
दुति भाँण पदमणि देखि, पति जेम पदमणि पेखि।
सज्जंत सोळ सिंगार, आभरण दूण अढार।।
नव जरी वेलि अनूंप, चिग नौख गौख सचूंप।
सहचरी चतुर सबोह, मिळ रचत उच्छब मोह।।
वर करत चौक वणाव, करि कुंमकुंमा छिड़काव।
मझि छभा राज मंझारि, नव उछब इम नर नारि।।
कहीं-कहीं परम्परागत उपमान भी देखने को मिलते हैं-
छुटी अलक्क नाग छौन, सोभ एम साज ही।
रथंस जांणि चंद्र रासि, रूप में विराजही।।
राजै मुखं सबाधि रूप, जोति चंद्र हूं जहीं।
रहै सदा अखंड रूप, निक्ख सांमता मही।।
सिंदूर बिंदु भाल सोभ, ओपियौ आणंद रै।
जिको उरम्म माळ जाणि, चाढ़ि दीध चंद रै।।
करणीदान में श्रृंगार की यह प्रवृत्ति युग का प्रभाव ही कही जायगी, अन्यथा रामजन्म के समय वह इस प्रकार का वर्णन न करता-
सिंगार सोळ सज्जयं, लखे सची सु लज्जियं।
इसी न रम्भ यदरी, सझन्त ज्ञान सुन्दरी।।
संगीत नृत्य सोहती, मुनेस हंस मोहती।
अनंग रंग आतुरी, प्रिया नचन्त पातुरी।।
कुलीण नारि केकयं, आणंद में अनेकयं।
सुहाग भाग सुम्भरी, अनेक राग उच्चरी।।
इसीज वाणि उच्चरे, किलोळ कोकिला करे।
प्रफूलयं प्रकासयं, हसन्त के हुलासयं।।
करन्त के किलोहलं, महा उछाह मंगलं।
सझे इसी सहच्चरी, उरःवसी न अच्छरी।।
वणाव सोळ वामरा, कटा छिबांण कामरा।
उच्छाह में उमंगयं, करंत राग रंगयं।।
रमै इसै नरिंजरां, मझार राज मिन्दरां।
करै उच्छाह सुकिया, पचास सात से प्रिया।।
राज-कवि सौंदर्य के भूखे नहीं, अत: कविया ने रानियों का सौंदर्य-वर्णन न कर उनकी वाह्य वेश-भूषा का चित्रण किया है। नश-शिख वर्णन में रूढ़ि भी है, कहीं-कहीं मौलिकता भी।
६. रीति काव्य:- साहित्य में किसी विषय का वर्णन करते समय वर्णों की वह योजना जिससे ओज, प्रसाद या माधुर्य गुण का सन्निवेश हो, ‘रीति’ का सामान्य रूढ़ अर्थ माना जायगा। ‘रीतिरात्मा काव्यस्य’ कहकर वामन इसे काव्य की आत्मा मानते हैं। जिस प्रकार नर-नारी की शारीरिक रचना को देखकर उसके गुणों का ज्ञान हो जाता है, उसी प्रकार अनुकुल पदों का संघटन कर काव्य में गुणों की व्यंजना द्वारा रस-उत्कर्ष होता है। हर्ष का विषय है कि चारण-साहित्य में भी ऐसे ही रीतिकार हुए हैं जिन्होंने अमूल्य ग्रंथों की सृष्टि कर राजस्थानी कवियों एवं लेखकों का पथ-प्रदर्शन किया है। इनमें सर्वश्री जोगीदास, हमीरदान, वीरभाण एवं उदयराम के नाम सगर्व लिए जा सकते हैं। जोगीदास प्रथम चारण था, जिसने इस क्षेत्र में प्रथम कदम उठाया।
यह लक्ष्य करने की बात है कि राजस्थानी साहित्य में हरराज रावळ ने ‘पिंगल सिरोमणे उडिंगल नांममाळा’ एवं नागराज जैन ने ‘नागराज पिंगल कृत डिंगल कोष’ नामक ग्रंथों की रचना कर जिस प्रवृत्ति का बीजारोपण किया था, उसे विकसित करने का श्रेय जोगीदास को है। ‘हरि-पिंगल प्रबन्ध’ (१६६४ ई.) इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। यह एक छन्द-शास्त्र का अनुपम ग्रंथ है जिसमें ९९ प्रकार के गीतों और अनेक छन्दों का प्रमुख रूप से लक्षण उदाहरण के साथ दिया गया है। यह उल्लेखनीय है कि इतने गीतों का उल्लेख और किसी ने नहीं किया। गीतों के मूल उद्गम का पता नहीं चलता किन्तु इसे देखकर लगता है कि इससे पूर्व भी इस प्रकार के ग्रंथ अवश्य लिखे गये होंगे। प्रस्तुत ग्रंथ में तीन परिच्छेद हैं जिनमें क्रमश: संस्कृत, हिन्दी एवं डिंगल में प्रयुक्त होने वाले मुख्य-मुख्य छन्दों के लक्षण सोदाहरण दिये गये हैं। रीति-काव्य की दृष्टि से ये परिच्छेद अत्यन्त उपयोगी हैं। अन्त में चारणाचार्य ने हरिसिंह के वंश-गौरव का वर्णन किया है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से पृथक महत्त्व रखता है। ऐसा करना एक राज्याश्रित कवि के लिए स्वाभाविक ही है। भाषा-शैली पर रीतिकालीन प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। एक उदाहरण दिया जाता है-
वाणी सेस उचारवा, मैं मन कीधौ पेख।
कांकीड़ा लोड़ै न की, गज घूमंतां देख।।
हणमत सहजै डाकियौ, गौ लोपै महराण।
त की न कूदै दादरौ, हत्थ-बेहत्थ प्रमाण।।
राणी गज-मोताहळै, बौह मंडै सणगार।
की भीली झालै नहीं, गळ गुंजाहळ हार।।
जोगीदास के पद-चिन्हों का अनुकरण वीरभांण ने किया। उनका ‘एकाक्षरी नांम-माळा’ कोष अत्यन्त संक्षिप्त है। इसमें संस्कृत के महाक्षपण कवि के एकाक्षरी कोष का प्रभाव दिखाई देता है। यह कोष व्यवस्थित नहीं है। इसमें न तो कोई क्रम अपनाया गया है और न पृथक-पृथक शीर्षक देकर कोई विभाजन ही किया गया है। यही कारण है कि बीच-बीच में अस्पष्टता भी आ गई है। सम्भव है, अन्य महत्वपूर्ण कार्यो में संलग्न रहने से कवि को इसके लिए पर्याप्त अवकाश न मिल पाया हो, जो ऐसे कार्य के लिए आवश्यक होता है। इसमें केवल ३४ दोहा छंद प्रयुक्त हुए हैं। यथा-
घंटा किंकणि मेघ सूं, कह खकार सब कोय।
पुनि धुनि सूं धूक है, दक्ष गुणीजण लोय।।
कहत डकार जू भैरव वह, अरु जि बिसन जिय जांन।
पुनि डकार स्वर सूं कहै, चतुर चोर कहु मांन।।
चंद हि कहत चकोर सब, अरु ज चोर कह मांन।
सोभा सूं सब कहत है, पक्ष सबद सूं जांन।।
छं निरमळ सब ही कहै, बहुरी बिजुरी देख।
छेदन कूं कहत है कवि, पुनि जु संबर लेख।।
वीरभांण के ग्रामवासी हमीरदान रीति-शास्त्र के प्रमुख आचार्य हैं। परिमाण की दृष्टि से छंद-शास्त्र पर लिखने वाले विद्वानों में इनका स्थान अग्रगण्य है। इनका लिखा हुआ ‘हमीर नांम-माळा’ नामक डिंगल कोष सबसे अधिक प्रसिद्ध एवं प्रचलित है (१७१७ ई.)। इसकी तीन प्रतियां उपलब्ध होती हैं। डिंगल के लोकप्रिय गीत ‘बेलियो’ में इसकी रचना हुई है। प्रत्येक शव्द के पर्याय गिनाने के पश्चात् अन्तिम पंक्तियों में कलात्मक चातुर्य के साथ हरि-महिमा गाई गई है जिसमें कवि ने जीवन तथा जगत के प्रति अपनी विचारधारा का भी समावेश किया है। अत: यह ‘हरिजस नांम-माळा’ के नाम से भी विख्यात है। जैसा कि कवि ने अन्त में संकेत किया है, इसकी रचना करते समय धनंजय नाम-माळा, मांन-मंजरी, हेमीकोष तथा अमरकोष से भी सहायता ली गई है। इस ग्रंथ की कुल छंद-संख्या ३११ है। चार प्रकरण हैं, जिनमें क्रमश: वर्णिक, मात्रिक, गाहा एवं गीत छंदों की विभिन्न जातियों का विस्तृत वर्णन किया गया है। इनमें प्राचीन तथा तत्कालीन साहित्य में प्रचलित डिंगल के बहुत से शब्द अपने विशुद्ध रूप में प्रयुक्त हुए हैं। ‘भूमि-नांम’ का एक उदाहरण यहां दिया जाता है-
भूमि जमी प्रिथी प्रिथमी भू, पहवी गहवरी रसा महि।
इळा समंद-मेखळा अचळा, महि मेदनी धरा महि।।
धरती वसुह वसुमति धात्री, क्षोणी धरणी क्षिमा क्षिती।
अपनी विसंभरा अनंता, थिरा रतनगरभा सथिति।।
विपळा वसव कु भती वसुधा, सागर-नीमी सरबसहा।
गोत्रा गऊ रसवती जगती, मिनखां-मन-मोहणी (महा)।।
(उरवी मुरपग ले भरि ऊभौ, वांमण रूपी ब्राहमण।
वलि राजा छळि जैण बांधियो, नमो पराक्रम नारिअण)।।
रीति-काव्य में उदयराम का नाम कदापि नहीं भुलाया जा सकता। ‘कवि-कुळबोध’ के अन्तर्गत आए हुए तीनों कोषों से उनका स्थान बहुत ऊंचा है। ‘अवधान-माळा’ भाग में ५६१ छन्द हैं। डिंगल के प्रचलित शब्दों के अतिरिक्त भी कवि ने कतिपय शब्द विद्वत्तापूर्ण ढंग से बनाकर रखे हैं। इस कोष की एक अन्यतम विशेषता यह है कि छन्द-पूर्ति के लिए पर्यायवाची शब्दों के अतिरिक्त अत्यन्त कम निरर्थक शब्दों का प्रयोग किया गया है। छोटी-मोटी अन्य विशेषतायें तो कई हैं। ‘अप्सरा’ के पर्यायवाची शब्द गिनाते समय विशिष्ट अप्सराओं के नाम भी दे दिए गए हैं। कहीं-कहीं पर्यायवाची देने के साथ बीच-बीच में वस्तु की विशेषताओं और प्रयोग आदि का वर्णन करके भी अपनी विशेष जानकारी को प्रदर्शित किया गया है। यथा, ‘नूपुर’ एवं ‘नागरबेल’ शब्दों के साथ ऐसा ही हुआ है। कई शब्दों की परिभाषा तक देने का प्रयास किया गया है, यथा प्राकृत को नर-भाषा, मागधी को नाग-भाषा, संस्कृत को सुर-भाषा, एवं पिशाची को राक्षसी-भाषा कहकर समझाया गया है। इसी प्रकार कई स्थानों पर शब्दों के पर्यायवाची न रखकर केवल तत्सम्बन्धी वस्तुओं की नामावली मात्र दी गई है, यथा ‘सताईस नक्षत्र-नांम’, ‘सातधात रा नांम’, ‘बारै रासां रा नांम’ आदि में इसी युक्ति से काम लिया गया है। ‘चन्द्रमा-नांम’ का यह एक उदाहरण पर्याप्त होगा-
सोम सुधासूती ससी ससि सीतसुं ससंक, ससहर सारंग सीतहर कळानिधी सकळंक।
चंद्र निसाकर चंद्रमा दुज यदू दुजराज, कुमदबंधु श्रीबंधु (कहि) औखधीस उडराज।
विध हिमकर मधुकर विधी ग्लौ म्रगवाह भ्रगंक, सुभ्रकरण निसनेत्रसुण अम्रतमई मयंक।
सुधारसम सिंधूसुवण रोहणधव राकेस, सिवभाळी सुखमादसद निगदरतन नखत्रेस।
(दखण)जुग पदमणपती(ज्यूं) चकवाह-विजोग, कंजारी अपध्यांन(कहि) सुभरासी ग्रहिजोग।
(क्रनातटं गोपीकिसन सरद निसा) राकेस, (रचै रासमंडळ रमै विलसै हंसै विसेस)।।
‘अनेकारथी कोष’ डिंगल का अद्वितीय ग्रन्थ है। इसमें ठेट डिंगल शब्दों के साथ संस्कृत के शब्द भी हैं। कहीं-कहीं उदयराम ने अपनी ओर से भी शब्द गढ़कर रख दिए हैं। यथा, ‘मधु’ के अनेक अर्थ सूचित करने वाले शब्दों में ‘विष्णु’ नाम न लेकर ‘माकंत’ शब्द गढ़ा गया है। मा = लक्ष्मी, कंत = पति, अर्थात् विष्णु। ऐसे प्रयोग अन्यत्र नहीं देखे जाते। यह भाग दोहों में लिखा गया है। आरम्भ में प्रत्येक दोहे में एक शब्द के अनेक अर्थ दिए गए हैं। आगे चलकर प्रत्येक दोहै में दो शब्दों के अनेकार्थी क्रमश: प्रथम एवं द्वितीय पंक्ति में रखे गए हे। माला, जुगळ, सुरभी एवं मधु नाम के उदाहरण दिए जाते हैं-
माळा समक्रत सुमरणा नांम (दांम) हरनेह,
गुणांणी सृक श्रृज गुणवळी (उदा) सिमर (अछेह)।
जमळ जुगळ यम दुंद जुग उभय मिथुन द्वय (आंण),
दोय करग चख दंपती (जुगळ) जाम (ऐ जांण)।
चंदण गऊ म्रग भ्रत चढै सुमनावळी वसंत,
अंतरादि म्रगमद यसा गांधीहाट (गणंत)।
सुजळ दूध मदरा (सुण) नभ चैत वसंत,
विपन मधू मकरंद (वळ) मधुसूदन माकंत।।
और तीसरा भाग ‘एकाक्षरी नांम-माला’ मूल ग्रन्थ की १०वीं लहर (तरंग) के अन्त में सम्पूर्ण हुआ है। ऐसा क्रमानुसार लिखा हुआ पूर्ण कोष डिंगल में दूसरा नहीं मिलता। इसमें कवि ने अपनी प्रकाण्ड विद्वत्ता का परिचय दिया है। ठेट डिंगल के अतिरिक्त संस्कृत शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। कहीं-कहीं जन-साधारण में प्रचलित अत्यन्त सामान्य शब्दों को भी अनोखे ढंग से अपनाया गया है। यथा-ऊँट को बैठाते समय ‘झै’ का प्रयोग। ब बा बि बी बु नांम का उदाहरण दिया जाता है-
बोल निबोली बबकरन प्रतबिंबत (कहि पात),
कळस पुलत सुर (फिर कहै बद ब नांम विख्यात)।
बाळक वहनी नरबदा (कही) बात (बा किध),
विख ससी नभ धर फळ वयण पूरण (बि परसिध)।
विरह वेल निस न्रप विनथ श्रव खिजूर (बी) साल,
कुस त्रुस म्रग जळछत्र (कहि) चक्रबाळध (बु चाल)।।
७. शोक-काव्य (मरसिया):- अपने आश्रयदाता राजा-महाराजाओं के स्वर्गवास पर चारण कवियों का शोकाकुल होना स्वाभाविक है। काव्य-प्रेमी नरेशों के चल बसने से तो कवियों को विशेष आघात पहुँचा है। अैजन के लिखे हुए इस काल के मरसिये महत्वपूर्ण हैं। रूपगढ़ के ‘ठा. जीवराज रा मरसिया’ हदयद्रावक हैं -‘एकलो कियां जावे अली, रूपनगर रो राजवी।’ इस दिशा में वीरभांण कृत ‘महाराजा अजीतसिंहजी रा मरसिया’ नहीं भुलाया जा सकता। कवि ने अजीतसिंहजी के निधन पर आठ-आठ आँसू बहाए हैं। पहाडखां कृत ‘रीयां ठा. शेरसिंहजी रा मरसिया’ भी उल्लेखनीय है जिनका केन्द्रीय भाव इस प्रकार है- ‘सेरसा मरण फूटो नहीं, है लानत लट्ठ रहिया। ‘ अन्त में, किशनगढ़-नरेश बहादुरसिंहजी के देवलोक होने पर (१७८१ ई.) करणीदान कविया ने एक मार्मिक मरसिया कहा है जो कवि की अन्तर्वेदना का द्योतक है–
समहर भर भटै बहादर असमर, कटे भेर हर भर कुरक।
जिकर खूंन आवटै लिया जिम, मर चौसर ऊछटै सुरख।।
कमधज धक धरै अह कारज, कारज प्रसणां पाथ क्रन।
भारज लियां तिकां उर भभकै, बारज बार सिंदूर ब्रन।।
ओयण अडग न्रपत राजड़उत, जोयण दोयण खग जळण।
ललना लियां भरहरै लोयण, कोयण धार अंगार कण।।
छूटी धार आंसवे अण छव, जूटी मांणक दवंग जळ।
लाल वदन सांणी तूटी लड़, कर खूटी दाड़ की कळ।।
झड़ी बूंद लोयण इम झबकै, पड़ी काच आंगणै परी।
सुरग जड़ाव जड़ी हद सोभा, घर जांणे चूंदड़ी धरी।।
८. सती-माहात्म्य:- जौहर की ज्वालाओं में जलने वाली राजपूत रमणियों का वर्णन जग्गा एवं उम्मेदराम ने किया है। जग्गा महाराजा रतनसिंह (रतलाम) की रानियों को पातिव्रत धर्म की रक्षार्थ चिता पर चढ़ते देखकर कहता है-
तिण वार त्रिया रतनेस तणी, बिधि साहस सोळ सिंगार बणी।
पत्र हाथ मलूकज पंकजयं, गुणि छत्रिअं गात बिन्हे गजयं।।
महाराव राजा बख्तावरसिंह (अलवर) के साथ जब महारानी मूंसीदेवी सती हुई तब कवि उम्मेदराम ने शवदाह के समय ५२ छंद बनाये थे, जो बडे ही प्रभावोत्पादक हैं। एक उदाहरण दिया जाता है–
आठ दशह इकतरह माघ वदि दोयज शुककर।
हल सूरज आथमें राव बखतो राजेश्वर।।
हद सूधै हंकार कान सांभळि कोलाहळ।
हर हर हर उच्चरिय देख सु झळाहळ मंगळ।।
तन करे रंग असनान नद आधंतर धर उप्पमिय।
आखाण खेत्र अलवर इळा जाण चन्द ऊग्यो जनिय।।
९. प्रकृति-प्रेम:- कवि प्रकृति के सौंदर्य का सूक्ष्म चितेरा है किन्तु वीररस के कवि को उसकी सुकुमारता एवं कोमलता से कोई सम्बन्ध नहीं। यही कारण है कि चारण कवियों में इसका वर्णन प्रसंगानुकुल ही हुआ है। उनकी रचनाओं में प्रकृति उपमान के रूप में अधिक आई है, स्वतन्त्र आलम्बन-रूप में कम। फिर भी वे प्रकृति के प्रति उदासीन नहीं कहे जा सकते। इस काल में सांईदान, सहजो, वीरभांण, करणीदान कविया एवं बखता के नाम उल्लेखनीय हैं। सांईदान ने पृथ्वी की स्थिति का वर्णन करते हुए शिवजी के मुंह से कहलवाया है–
ऊगै धमर केत गगन तारा बहु तुट्टै।
गंडैं धनुष बिन मेघ बिना बद्दळ जळ बुट्टै।।
धरा कंप जळ उमंग गैब अंबर फिर गाजै।
बिन घन पवन अकास भानु ससि कुंडळ राजै।।
यहु गर्ग रिषि के वचन सुनि पंडित व्है सो उर धरो।
उल्लकापात जो एक हुव सरब धान संग्रह करो।।
वर्षा-ऋतु को आई देखकर सहजो का मन गांव जाने के लिए मचल उठा। उसे एक लम्बे समय तक छुट्टी भी न मिली थी, अत: अपने आश्रयदाता महाराजा अजीतसिंह (मारवाड़) को यह ‘विनय-पत्रिका’ लिख कर भेज दी जिसमें प्रकृति का सुंदर चित्रण हुआ है-
गैरा बोलिया मोर दादुर सरां गह किया, गुणियण राजा मलार गायो।
अभनमा मालदे एह सांभळ अरज, अजा दे सीष बरसात आयो।।
संड नाचै सुजळ पूरिया सरौवर, तरां तिस गई करतार तूठो।
सेवगां विदा कर जसा रा संसभड़, बीज सिखां रा षिमै इन्द्र वूठो।।
पिक करे कुहुक रीछी चढ़ी पहाड़ां, बाज तो रह्यो पिछम तणां बाव।
पंथ सीतळ हुवा लुई लीली पुहप्पी, रजा दीजै अबै मारवा राव।।
सांसण बगस नवकोट रा सैधणी, जस करां रावळो घरै जावां।
हिन्दवां छात बरसात आयो हमैं, पात अरजी करै सीष पावां।।
वीरभांण ने ‘राजरूपक’ में ऋतु-वर्णन की सृष्टि कर प्रकृति के रूप-रंग को निकट से देखा है। कवि को अपने आश्रयदाता के विलास में प्रकृति भी विलास करती हुई दिखाई देती है। श्रावण मास में चारों ओर उमड़-घुमड़ कर बादल आ गये हैं, मोर शोर मचा रहे हैं, बिजली आंखमिचौनी कर रही है, पृथ्वी की जलन मिटने लगी है और आमोद-प्रमोद बढ़ने लगे हैं-
वरसात भर धर परम सुख वणि उमड़ि जळधर आवही।
घण घोर सोर मयोर रस घण घटा घण घहरावही।।
वरसंत जामणि रूप दामणि प्रगटि मिट तम प्रगट ही।
दृग मिळत अमिळत चपळ देखत अवनि परजन अघट ही।।
जळ जाळ माळ विसाळ नभ जुत उरड़ झड़ अणपार ए।
मिटि जळण धरणि विनोद मांनव भूरि सर जळ भार ए।।
भाद्रव मास में बादल बरसने लगे, हरे-हरे पौधे अंकुरित होने लगे और प्रकृति आंखों में एक नया सौन्दर्य उत्पन्न करने लगी। कवि का वर्णन चित्रोपम है
वरसत भाद्रव मास वादळ सिखर उज्जळ सामळा।
सुखि राज कोरण गाज अतिसय अंब नय मय ऊजळा।।
फिरि माचि करदम फूल प्रतिफळ ओप रूप अनोप ए।
लखि प्रिया जाणि मन य लीधा अंग नवरंग ओप ए।।
अति सोम गोधन हरित अवनी सरिति गत जळ सोभ ए।
प्रति चरण जाणि सु राज पायां लाज निज व्रत लोभ ए।।
आश्विन आने पर सर-सरिताओं का जल स्वच्छ होने लगा। जहां-तहां विभिन्न जन्तु शोभायमान होने लगे। रस की दृष्टि से सर्वत्र उल्लास ही उल्लास दिखाई देने लगा
आसोज पूरण जगत आसा भोम अन अति भार ए।
सोभंतु जंतु अनंत सुखमय सुखद संपति सार ए।।
सर सरित निरमळ नीर सुन्दर अमल अंबर-ओपयं।
किरि सुबुधि वधि सतसंग कारण लुबुध होत विलोपयं।।
रस झरत अम्रत सरद राका रेण वण जण कारणै।
दिन सुखद राति विलास दायक हित चकोर निहारणै।।
और कार्तिक महीने में तो यह पृथ्वी समृद्ध हो गई तथा घर-घर एक नवीन चहल-पहल दिखाई देने लगी-
महि नयर घर प्रति दीप मंडित माळ जोत मनोहरं।
किर व्योम नाखत्र परखि कसला सोभ धारत सुन्दरं।।
पोसप्प पांन कपूर प्रिथवी वणत जण धनवांन ए।
इधकार तीरथ जात उद्दम आदि सुरनदि आन ए।।
दिगविजै कजि नरनाथ सजि दळ प्रबळ उच्छव पेखियौ।
सब धरण नव सुख नवळ सोभा विमळ रूप विसेखियौ।।
स्पष्ट है कि ‘राजरूपक’ में प्रकृति का मनोरम चित्रण हुआ है। परम्परा का पालन करते हुए भी कवि ने उसे सप्राण एवं प्रभावोत्पादक बनाया है। यदि हम वर्षा, शरद एवं ग्रीष्म ऋतुओं के पट-परिवर्तन का दृश्य देखना चाहें तो ‘राजरूपक’ में बेखटके देख सकते हैं। अन्त में, वसन्त एवं होलिकोत्सव का यह वर्णन देखिये –
हुए खेल होळिका रेलि केसर अंग रेलां।
घण सारां अंबरां मले मृगमद अझेलां।।
रित वसंत सोभंत अंबतर मंजर ओपै
गुल गुलाब सुखसार हार चौसर आरोपै।।
प्रकृति-चित्रण की दृष्टि से ‘राजरूपक’ इस युग का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ कहा जा सकता है। इसकी तुलना में ‘सूरजप्रकास’ फीका दिखाई देता है। करणीदान कविया में प्रकृति दोनों रूपों में चित्रित हुई है। भिन्न-भिन्न ऋतुओं के वर्णन में कवि की प्रवृत्ति परिगणन की ओर अधिक है। कही-कहीं तो चित्र बड़े ही सुन्दर, सजीव एवं स्वाभाविक बन पड़े हैं। यथा-
आगळि वहै प्रवाह अपागा।
भळ हळ सुजळ नदी चंद्रभागा।।
हंस बोलै खेले ससि हंसी।
विगसे कमळ घणा चंद्रवंसी।।
जोतवाग त्रळके मिळ नदि जळ।
चमके मंगर उछळे चंचळ।।
मल्हमै किर गिर चढ़ि हेमाळे।
चंद्रकुमार खेल्ह नह चाळे।।
तिण उपवनि झोलै नदि तीरां।
सीतळ मंद सुगंध समीरां।।
बखता का प्रकृति-चित्रण सामान्य कोटि का है। वह प्रसंगवश महाराजा अभयसिंहजी के नगर की शोभा का वर्णन करते हुए कहता है –
ठांम ठांम सोहिया, धांम जेहा धमळागर।
बावडियां देखतां, बाग तर जूथ सरोवर।।
कथ क्रिया द्विज करे, केई जेठी बळ तुले।
केई पिणघट कूल रां, केई पंखापुर फूले।।
घर-घर अनेक दौलत घणीं, सुख बहुत समाज रो।
सोहे दराज सारो सहर, आज राज महाराज रो।।
१०. ऐतिहासिक काव्य:- आलोच्य काल में इतिहास से सम्बन्ध रखने वाली सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती है। यह प्रबन्ध एवं मुक्तक दोनों में है। प्रबन्ध की दृष्टि से जग्गा कृत ‘वचनिका राठौड़ रतनसिंहजी री महेसदासोत री’, गिरधर कृत ‘सगतसिंह रासो’, पृथ्वीराज कृत ‘अभय विलास’, कुम्भकरण कृत ‘रतनरासो’, वीरभांण कृत ‘राजरूपक’, द्वारिकादास दधवाडिया कृत ‘रूपक- दवावैत’, करणीदान कविया कृत ‘सूरजप्रकास’, बखता खिडिया कृत ‘कवित्त’ एवं ब्रह्मदास कृत ‘भगतमाळ’ उल्लेखनीय हैं।
‘वचनिका राठौड़ रतनसिंहजी री महेसदासौत री’ नामक रचना के दो ऐतिहासिक तथ्य महत्वपूर्ण हैं-जसवन्तसिंह का विद्रोही शाहजहाँ के राजकुमारों से हारना और रतनसिंह का वीरगति प्राप्त करना। इस घटना की पुष्टि रेऊ, ओझा, इलियट, वी. पी. सक्सेना, सरकार, बेनिप्रसाद आदि इतिहासकारों ने भी की है। यह युद्ध १६ अप्रेल, सन् १६५८ ई. में हुआ था। सांस्कृतिक दृष्टि से कवि सनातन धर्म का अनुयायी था। अत: उसने किंचित दार्शनिक सिद्धान्तों को भी स्पर्श किया है। इस रचना से राजपूतों के चरित्र एवं सामाजिक जीवन पर भी अच्छा प्रकाश पड़ता है। कुछ रचनाओं में महत्त्वपूर्ण घटनाओं को संजोने का प्रयास किया गया है, जिनमें ‘सगतसिंह-रासो’ एवं ‘रतन-रासो’ के नाम मुख्य हैं। ‘सगतसिंह-रासो’ में महाराणा प्रताप के अनुज शक्तिसिंह का जीवन-चरित वर्णित है और ‘रतन-रासो’ में शाहजहाँ एवं उसके विद्रोही पुत्रों की गतिविधियों का अंकन है। अत: इतिहास-लेखकों के लिए ये रचनायें काम की सिद्ध हो सकती हैं।
‘अभयविलास’, ‘राजरूपक’, ‘रूपक दवावैत’, ‘सूरजप्रकास’ आदि ग्रन्थों की ऐतिहासिकता उनके काव्य-पक्ष से कम मूल्यवान नहीं है। इन ग्रंथों में जोधपुर के महाराजा अभयसिंह द्वारा गुजरात के सूबेदार सर बुलन्दखां को अहमदाबाद के पास मूचेड़ गांव में पराजित करने का वर्णन है (१७३. ई.) और साथ ही राठौड़ वंश का इतिहास भी। ‘अभयविलास’ एव ‘रूपक-दवावैत’ में अभयसिंह तक का इतिहास दिया हुआ है। कहना न होगा कि कर्नल टाड ने महाराजा अभयसिंह तक का मारवाड़ राज्य का इतिहास करणीदान के ग्रंथ को आधार बनाकर लिखा है। ‘राजरूपक’ में जसवन्तसिंह की मृत्यु होने के पश्चात् रानी की कुक्ष से लाहौर में अजीतसिंह के जन्म लेने का प्रसंग भी आया है। इस ग्रंथ में कवि ने तिथि, वार, सम्वत् युद्ध-योद्धाओं के नाम, स्थान एवं पेशा सभी कुछ दिए हैं, यहां तक कि वह सूक्ष्म से सूक्ष्म घटना की ओर भी संकेत करता चलता है। इसमें मारवाड़ के राजाओं एवं औरगंजेब से मोहम्मदशाह तक (१६७८-१७३. ई.) का जो इतिहास दिया गया है, वह अधिक विश्वसनीय है। प्राय: सभी इतिहासकारों ने इन तिथियों एवं घटनावलियों को स्वीकार किया है। चौथे प्रकाश में तहव्वरखां तथा कुंभकरण के पुत्र रूपसिंह का जो युद्ध वर्णन है, वह किसी भी इतिहास में नहीं मिलता। इसी प्रकार तेरहवें प्रकाश में राजपूतों का उसतरां के थानेदार कूंपावत आना को पराजित कर थाना लूटने का वृत्तान्त आया है। ऐतिहासिक दृष्टि से प्रकाश संख्या १, ८, १२, तथा १९-२७ अत्यन्त उपादेय है। विषय की दृष्टि से इन ग्रंथों में समानता है किन्तु प्रतिपादन शैली भिन्न-भिन्न है। कहीं-कहीं अतिरंजना एवं पक्षपात दिखाई देने पर भी ऐतिहासिक तथ्य ढूंढ निकालने में कोई कठिनाई उपस्थित नहीं होती। इनका सांस्कृतिक पक्ष भी सुरक्षित है। इनके अध्ययन से पता चलता है कि तत्कालीन समाज में धर्म और दान की प्रवृति अधिक थी। हिन्दुओं विशेषत: राजपूतों एवं मुसलमानों का सम्बन्ध अच्छा नहीं था। इनमें उनकी चारित्रिक विशेषताओं पर भी प्रकाश पड़ता है। मोहम्मदशाह के शासनकाल में धर्म, समाज, राजनीति एवं आर्थिक दशा का उल्लेख भी इनमें मिलता है। साथ ही नैतिक एवं शैक्षणिक अंगों पर भी सुदूर-संकेत उपलब्ध होते हैं।
बखता के कवित्तों में ऐतिहासिकता का अभाव है। उल्लेखनीय है कि इस काल के तीन कवि- वीरभांण, करणीदान कविया एवं बखता समकालीन एवं समाश्रित थे। इतना ही नहीं, वे अहमदाबाद के युद्ध में स्वामी के साथ थे। एक ही इतिवृत्त को लेकर लिखे गए इन तीनों ऐतिहासिक काव्यों में वीरभांण बाजी मार ले जाता है। सृष्टि के आरम्भ से अपने आश्रयदाता के शासन तक आते-आते वीरभाण ने जिस ऐतिहासिक सूझ-बूझ का परिचय दिया है, वह अन्य में नहीं। ‘राजरूपक’ में अजीतसिंह से आरम्भ होने वाले ब्यौरे इतिहास के लिए उपयोगी हैं। ‘सूरजप्रकास’ अपेक्षाकृत ऐतिहासिक कम और काव्योपयोगी अधिक है। इतिहास की दृष्टि से उसमें भूलें रह गई है।
यह लक्ष्य करने की बात है कि चारण कवियों ने संत-महापुरुषों के जीवन की प्रमुख घटनाओं को भी अपनी रचनाओं में पिरोकर सुरक्षित बनाये रखा है। ‘भगतमाळ’ में हमें प्रथम बार ऐसे संतों के नाम मिलते हैं जिनसे हमारा सभ्य समाज अपरिचित है। यथा, ईश्वर भक्त भवानीसिंह चौहान (उदयपुर), भक्त महाजन तिलोकचंद (शाहपुरा) आदि-आदि। डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत ने अपने ‘कबीर की विचारधारा’ नामक शोधप्रबंध में कबीर को विधर्मियों द्वारा मारे जाने की संभावना ही प्रकट की है किन्तु ब्रह्मदास इस विषय में यहाँ तक कहते हैं कि प्रबल मुसलमान बादशाह सिकन्दर लोदी ने कबीर को काशी में सांकल से बांधकर गंगाजी में डाल दिया था किन्तु ईश्वरीय अनुकम्पा से वे बाल-बाल बच गये। इसी प्रकार मदोन्मत्त हाथी से कुचलवाने की चाल भी विफल रही। स्वयं बादशाह यह देखकर दंग रह गया और वह कबीर से क्षमा-याचना कर प्रभु-भक्ति में लीन हो गया। संक्षेप में इन कवियों ने राजनीति के ब्यौरे ही नहीं, धर्म के फल भी बटोरे हैं।
फुटकर कवियों के गीतों में भी ऐतिहासिकता का अभाव नहीं। प्रयागदास, दुर्गादास, सांवलदास, चतुर्भुज, हरदान, पहाड़खां, हररूप प्रभृति कवियों के गीतों में युद्ध-विषयक घटनाओं को सफलता के साथ चित्रित किया गया है। इनसे पता चलता है कि किस राजा ने किससे युद्ध किया था और वह विजयी हुआ अथवा पराजित? उदाहरण के लिए प्रयागदास को ही लीजिए- उसने सिरोही के महाराव अखेराज (द्वितीय) एवं सूबा गोरीसाह के मध्य ‘सीलदर’ युद्ध का वर्णन किया है जिसमें महाराव ने उन्हे मृत्यु के घाट उतार दिया था। प्रत्येक कवि का गीत इसी प्रकार का कोई तथ्य लेकर ही लिखा गया है। इनमें कहीं-कहीं तिथियां भी दी हुई है। सन्देह नहीं कि इस फुटकर सामग्री के आधार पर राजस्थान के प्रामाणिक इतिहास-निर्माण में पर्याप्त सहायता मिल सकती है।
११. भाषा, छन्द एवं अलंकार:- इस काल में राजस्थानी भाषा का समुचित विकास हुआ। पहले तत्सम शब्दों का प्रयोग कम तथा तद्भव शब्दों का प्रयोग अधिक होता था किन्तु अब तत्सम शब्दों का प्रयोग अपेक्षाकृत अधिक होने लगा। द्वित्त एवं संयुक्त वर्गों के प्रयोग की प्रवृत्ति कम होती गई और शब्दों के अन्त में अइ, अउ, इ लगाने की प्रवृत्ति जोर पकड़ने लगी। ‘ळ’, ‘ण’ एवं ‘स’ का प्रयोग बढ़ा। इसके साथ ही अरबी-फारसी के शब्दों को तद्भव करके प्रयुक्त किया जाने लगा। इन विशेषताओं को लिए हुए राजस्थानी स्वतंत्र रूप से गतिशील हुई। जोगीदास, जग्गा, गिरधर, वीरभांण, हमीरदान, करणीदान कविया, ब्रह्मदास, बरजू बाई, उम्मेदराम आदि की साधना से भाषा में निखार आने लगा और उसमें नवीन भावों को प्रकट करने की क्षमता भी आने लगी। जोगीदास की भाषा परिष्कृत है। जग्गा में जहां खोज है वहां भावों की सुकुमारता भी! गिरधर ने भाव के अनुकूल भाषा का प्रयोग किया है। वीरभांण की भाषा प्रौढ़ है जिसमें सरसता, प्रांजलता एवं चित्रोपमता के गुण विद्यमान हैं। हमीरदान की भाषा भी परिपक्व है। करणीदान ने पौराणिक पृष्ठभूमि में रूढ़िबद्ध शैली को अपनाया है फिर भी भाषा अधिक पूर्ण है। अध्ययन की गहराई ने उसमें एक शास्त्रीय पुट ला दिया है। ब्रह्मदास की भाषा पर संस्कृत का प्रभाव है; बरजू बाई की कविता कहीं-कहीं क्लिष्ट हो गई है जिससे उसका अर्थ निकालना कोई सहज कार्य नहीं। उम्मेदराम की भाषा में पिंगल के शब्द भी आ गये हैं किन्तु वह सरल, सरस एवं मंजी हुई है। इस दिशा में पता, सांवलदास, नाहरसिंह, मानसिंह, द्वारिकादास दधवाड़िया, बखता, अनूपराम, चावण्डदान, गोरखदान, भीखमचंद, बद्रीदास, हुकमीचंद, फतहराम आदि कवियों का योगदान भी नहीं भुलाया जा सकता। इन्होंने स्फुट गीत-रचना के द्वारा भाषा को अधिकाधिक समुन्नत बनाने का प्रयास किया है। इनके अतिरिक्त परमानन्द, सांईदास, गुलजी, गोपालदास, चन्दूलाल, चतुर्भुज एवं कान्हा की भाषा इस बात का प्रमाण है कि राजस्थानी में भक्ति की अनूठी रचनायें भी लिखी जा सकती हैं।
छन्द की दृष्टि से यह काल सुसम्पन्न कहा जा सकता है। प्रबंध-ग्रंथों में अनेक छन्दों का प्रयोग देखने को मिलता है जिनमें दोहा-सोरठा, कवित्त, गीत आदि मुख्य हैं। साथ ही संस्कृत-हिन्दी के छन्दों को भी निःसंकोच भाव से प्रयुक्त किया गया है जिनमें भुजंगी, मोतीदाम, त्रोटक, पद्धरी, चौपाई (बेअक्खरी एवं चौसर) आदि के नाम लिये जा सकते हैं। सांईदान, गिरधर, केसरीसिंह, वीरभांण, करणीदान कविया आदि कवियों ने दोहे का सफल निर्वाह किया है तथा जग्गा, कानो, गोपीनाथ, हुकमीचंद, उम्मेदराम सांदू आदि ने कवित्त का। इन सबमें जग्गा का कवित्त पर विशेष अधिकार दिखाई देता है। फुटकर रचयिताओं ने अधिकांश में गीत छन्द का प्रयोग किया है जिसके अन्तर्गत छोटो सांणोर, बड़ो सांणोर एवं सुपंखरो के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। खंगार, जग्गा, पता, दुर्गादास, नाहरसिंह, माना, नन्दलाल, हररूप, पीरा, देवा, पोखरराम आदि ने छोटा सांणोर का अच्छा निर्वाह किया है। बड़ों साणोर सूजा, नाथ, गिरधर, चतुर्भुज, बखता, भीकमचंद, करणीदान कविया, तीरथराम आदि के हाथ में पड़कर खिल उठा है। कतिपय कवि इन दोनों छन्दों पर समान रूप से अधिकार रखते है। इनमें पता, वीरभांण, करणीदान कविया एवं हुकमीचंद के नाम सगर्व लिये जा सकते हैं। इसी प्रकार सुपंखरो गीत में सांवलदास, अनूपराम, हरदान, चावण्डदान, पहाड़खां, बद्रीदास, हुकमीचंद, फतहराम, तेजराम, बखतराम आदि के नाम मुख्य हैं। कहीं-कहीं स्वतंत्र रूप से चंद्रायणा एवं हणूफाल छन्द भी प्रयुक्त हुए हैं, यथा जग्गा एवं वीरभांण के काव्य में। इनके अतिरिक्त गोपीनाथ ने गाहा में तथा सबळदान ने झमाल में छंद की रचना की है।
कविता-कामिनी के वाह्याडम्बर की और ध्यान न होने से इस काल में भी अलंकारों का प्रयोग कम मात्रा में हुआ है। जो थोड़े-बहुत अलंकार आये हैं, वे सहज भावोद्रेक के परिणाम हैं। जग्गा, वीरभांण, करणीदान कविया, ब्रह्मदास एवं उम्मेदराम जैसे तपस्वी कलाकारों में अनेक अलंकार एकत्र हो गये हैं, जिनमें स्मरण, अतिशयोक्ति, श्लेष, विशेष, पुनरुक्ति, यथासंख्य, ललित एवं अनन्वय के नाम मुख्य हैं। जग्गा इन अलंकारों का उत्कृष्ट उदाहरण है। करणीदान का अलंकार विषयक ज्ञान बढ़ा-चढ़ा है, अत: वे इस दिशा में सबसे आगे दिखाई देते हैं। ब्रह्मदास ने वयणसगाई का छंदों के समस्त चरणों में निर्वाह किया है जो साधारण कवियों के लिए सम्भव नहीं है। उम्मेदराम जैसी कलात्मक एवं विचार-वैभवपूर्ण कविता करने वाले कवि थोड़े हुए हैं। फुटकर कवियों में भी अलंकारों का सामान्य निर्वाह हुआ है। इसके अतिरिक्त अधिकांश कवियों में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा एवं भ्रांति अलंकार पाये जाते है। खंगार, दुर्गादास, सांवलदास, परमानन्द, सांईदास, गुलजी, गोपालदास, हररूप, बद्रीदास, कान्हा प्रभृति कवियों में इनकी छटा दर्शनीय है संक्षेप में भाव-क्षेत्र के सदृश चारण-काव्य का कला-पक्ष पिछड़ा हुआ नहीं है।
(ग) गद्य साहित्य
मध्यकाल (प्रथम उत्थान) में चारण गद्य की जो धारा अवरुद्ध हो गई थी, वह इस काल में आकर उन्मुक्त स्वर से प्रभावित होने लगी। इस काल में गद्य के एक नवीन रूप ‘दवावैत’ से हमारा साक्षात्कार होता है। वचनिका के सदृश दवावैत राजस्थानी गद्य का दूसरा भेद है। दवावैत (द्वावैत) ‘दोआवत’ का अपभ्रंश है जिसका शुद्ध अर्थ गद्य और पद्य के बीच की रचना प्रतीत होता है। इसे राजस्थानी का गद्यगीत कहा जा सकता है। इसके भी दो उप-भेद किए गए हैं- एक, शुद्ध बन्ध और दूसरा, गद्य बन्ध। शुद्ध बन्ध दवावैत में अनुप्रास मिलाया जाता है और गद्य बन्ध दवावैत इससे मुक्त होती है। अत: एक को पद्यबद्ध और दूसरी को गद्य बद्ध माना जा सकता है। पद्य बद्ध दबावैत में २४-२४ मात्राओं के तुक-युक्त गद्य-खण्ड होते हैं किन्तु गद्य बद्ध दवावैत में मात्राओं का नियम नहीं होता। हां, तुक अवश्य मिलाई जाती है। इस विषय में श्री महताब चंद खारेड़ के ये शब्द ध्यान देने योग्य हैं– ‘दवावैत कोई छंद नहीं है जिसमें मात्राओं, वर्णो अथवा गणों का विचार हो। यह अंत्यानुप्रास रूप गद्य जाल है। अंत्यानुप्रास, मध्यानुप्रास और किसी प्रकार का सानुप्रास या यमक लिया हुआ गद्य का प्रकार है। यह संस्कृत, प्राकृत, फारसी, उर्दू और हिन्दी भाषा में भी अनेक कवियों और ग्रंथकारों द्वारा प्रयोग में लाया हुआ मालूम देता है। लल्लुलाल के ‘प्रेमसागर’ ग्रंथ एवं उर्दू के ‘बहार वे ख़िजा’ और ‘नोवतन’ ग्रंथों तथा फारसी के ग्रंथों में देखा जाता है।
यह सच है कि चारण-काव्य में वचनिका एवं दवावैत का अधिक विकास नहीं हो पाया किन्तु इनका अभाव नहीं माना जा सकता। आलोच्य काल में सर्व श्री जग्गा, बिहारीदान, वीरभांण, द्वारिकादास दधवाड़िया, करणीदान कविया प्रभृति लेखकों ने गद्य के इन प्रमुख अंगों को सींचकर विकसित करने का प्रयत्न किया है। इन लेखकों की गद्य-रचनाओं का समावेश पद्य ग्रंथों में ही हुआ है किन्तु इनका अपना पृथक् महत्व है। जग्गा कृत ‘वचनिका राठौड़ रतनसिंहजी री महेसदासोत री’ में आया हुआ गद्य सशक्त है और उसमें भावों को प्रकट करने की अपूर्व क्षमता है। यह सिवदास से अधिक परिमार्जित एवं परिष्कृत है। जान पड़ता है, लेखक साहित्यिक नियमों से सुपरिचित था। भाव वैसे ही हैं जैसे पद्य में देखने को मिलते हैं। भाषा शुद्ध राजस्थानी है। रतनसिंह की वीरता एवं वैभव का यह वर्णन बड़ा ही ओजस्वी है–
‘बासठि हजार फौजां रा भांजणहार। छ खण्ड खुरसाण रा विधूंसणहार। मेमन्त हाथियां रा मारणहार। पतिसाहां रा विभाड़णहार। पतिसाहां रा पड़िगाहण। गजराजां राजान के गजवाग। अरिसाल। विजाइमाल। लखदीअण। जसलीअण। राजान कै राजा। तपै महाराजां रयण। तिणि वेळा कपूर बीड़ा भाइआं उम्बरावां कवीसुरां कूं दिआ। दिवाण किआ। सभा रूप कैसा। अैसा छत्रीस वंस वणाउ करि बैठा राजेसुर। साहिबखान भगवान अमर बोलिआ बहादर। बारठ जसराज जैसा कवेसर। तिजारा की वाड़ी फूल फगर। जळ कमळ हंस का वणाउ। जाणे मानसरोवर सौरम्म की लहरि आवै। जवाधि जळहर गुणीजण गाया। रंग राग सुणाया। राजा महेसदास का जाया इन्द्र सा निजरि आया।’
लेखक ने अपने चरित्रनायक के अनुभवों का वर्णन भी सहृदयता के साथ किया है-
‘तिणि वेळा दातार झूंझार राजा रतन मूंछां कर घाति बोलै। तरुआर तोलै। आगे लंका कुरखेत महाभारथ हुआ। देव दाणव लड़ि मूआ। च्यारि जुग कथा रही। वेदव्यास वालमीक कही। सु तीसरौ महाभारथ आगम कहता उजेणि खेत। अगनी सीर गाजसी। पवन वाजसी। गलबन्ध छत्रबंध गजराज गुड़सी। हिन्दु असुराइण लड़सी। तिका तौ वात साका बन्ध आइ सिरै चढी। दुइ राह पातिसांहां री फौजां अड़ी। दिली रा भर भारथ भुजे दिआ। कमधज मुदे किआ। वेद सासत्र वताया सु अवसाण आया।’
और रतनसिंह के वीरगति प्राप्त करने पर उसकी रानियों के सती होने का यह वर्णन कितना चित्रोपम है?–
‘इणि भांति सूं च्यारि राणी त्रिण्हि खवासि द्रव्य नाळेर उछाळि बलण चाली। चंचळा चढि महासरवर री पाळि आइ ऊभी रही। किसड़ी हेक दीसै। जिसड़ी किरतिआं रौ झूंबकौ। कै मोतिआं री लड़ि। पवंगां सूं ऊतरि महाप्रवीत ठौड़ि ईसर गौरिज्या पूजी। कर जोड़ि कहण लागी। जुगि जुगि औहीज धणी देज्यौ। न मांगां वात दूजी। पछे जमी आकास पवन पाणी चन्द सूरिज नूं परणाम करि आरोगी दोळी परिक्रमा दीन्ही। पछै आपरै पूत परिवार नै छेहली सीख मति आसीस दीन्ही।’
वार्ता वचनिका का ही अंश है अत: बीच-बीच में लेखक ने इसके द्वारा पाठकों का मनोरंजन भी कराया है। यथा–
‘दिली रा वाका। उजेणि रा साका। च्यारि जुग रहिसी। कवि वात कहिसी।।’….
प्राय: सभी दुवावैतों के आरम्भ में एक प्रश्न रख दिया जाता है जिसका उत्तर आगे व्याख्या करके दिया जाता है। यह इसकी शैलीगत विशेषता है। बिहारीदान ने भी अपनी दुवावैत में सिरोही-नरेश अखेराज (द्वितीय) के उमरावों का परिचय देते समय इस पद्धति का अनुशीलन किया है। तुक मिलती है और भाषा हिन्दी से प्रभावित है। यथा–
‘राऊ के उमराव कैसा? प्रथवीराज के सामंत जैसा। लखाओत, डूंगरोत, चीबा, अबसी सोलंकी, सीसोदिया, वागडीया और खट तीस वंश, जुए जूणा जाणी हुजूरिया। तींस के बीच परबत सिंघ रुद्रसिंहोत पाटका थंब, दुजा उदेशाह, दुश्मनों का राह। रांमा भेरव का डुंगरोत का धरणी, फोज का अणी। ऊदा दुजण सालका, फोज का सीखराल। करमसी जेतसी का-धर का किवाड़, रीण का पहाड़। सींघ भाखरसी का वीका राठौड़, मुरधर का मौड़। नरहर गोपालका, वागडीया चहुआण, अमली सीर जुणी। उगरा जोत का खलक का खेंगाल, दूजा वजपाल। सूरजमल पुरणमल का वीरभाण पुरणमल का, ए दाए बंधन बाहेत, लुलंगपुर अजुवाले। केसरी जसवंत का, जुद्ध को चाऊ, पर चांडो भेलीयां, कमधजां का राऊ। केसरीया कडूआणी, सो बहांदरां का अणी पाणो। और भी सीपाई लोक मुसलमान कैसे? सींधी, ताजखांन, सुजालखांन, नाहरखांन जैसे।।’
सिरोही के महाराव रायसिंह (प्रथम) की यह एक और दुवावैत देखिये, जिसमें उनका परिचय दिया गया है। बिहारीदान लिखता है-
‘तिसका (महाराव सुरताणसिंह का) बाबा (दादा) राव रायांसिंघ : सो किसा जी! षट तीस वंश छतीस नीयात : षट दरसण कु दुभर वार का ग्रेहणा : तंग वखत का खजाना : चौसरी हेला सू फोड, का वरीस : जिसके गुजराती पातसाह : सरण आया सौ रहा था : नवकोटी मारवाड़ सरण राखी : तीस बात का जीहाण साखी :’
वीरभांण वार्ता लिखने में प्रवीण हैं। इनमें भी बराबर तुक मिलाई गई है। भाषा राजस्थानी मिश्रित खड़ी बोली हिन्दी है। निम्न वार्ता में औरंगजेब का वर्णन हुआ है–
‘औरंग सा पातसा आसुर अवतार, तपस्या के तेज पुंज एक से विसतार। माप का विहाई सा प्रताप का निदांन, मारतंड आगे जिसी जोतसी जिहांन। जाप का पैगम्बर आपका दरियाव, ताप का सेस ज्वाण दापका कुरराव। सकसेका जैतवार अकसेका वाई, अरिदल समुद्र आए कुभंज के भाई। रहणी में जोगेश्वर बहणी में जगदीस, ग्रहणी में सिवनेत्र सहणी में अहीस। जाके जप तप आगे ईश्वर आधीन, ताकूं छल बांह बल कुण करै हीन।।’
राजस्थानी के चारण-साहित्य में द्वारिकादास दधवाड़िया की कही हुई ‘द्वावैत महाराज अजीतसिंहजी री’ (१७१५ ई.) महत्वपूर्ण रचना है। प्रस्तुत रचना में सर्वत्र तुक मिलाई गई है। इसकी भाषा राजस्थानी से प्रभावित खड़ी बोली हिन्दी है। आरम्भ में देवी-देवताओं की स्तुति की गई है-
‘ऐसा श्री गणेस सिध ४ बुध का राजा। उक्त का अम्बार मुकत का दरवाजा। तैंतीस क्रोड देवताओं का अगवाणी। रुद्र सा पिता माता भी रुद्राणी। मेक ही दंता हस्ति का सा आनन। सिन्दूर का टीका मूसा सा वाहन। बिवैर सीना भी दरयाव सा उदर। रुद्र हो सारसा ग्यारहवां रुद्र। ऐसा श्री गणेश को प्रथम नमस्कार कीजे। राजम के राजा महाराजा श्री अजमाल कूं दवावैत कहीजे। दूसरा नमस्कार सरस्वती कू करणा। सुमत की दाता, कुमत की हरणा। हंस गवनी हंस चाहनी देवी। सुर नर नाग गण गन्धर्व सेवी।।’
मध्य के इस गद्यांश में लेखक ने चरित्र-नायक के ऐश्वर्य का वर्णन किया है-
‘महाराजा अजमाल भावता को भावता, अनभावता को नटशाला कहना, क्या कहावणा, दादाणे भी राव नानाणे भी राव। बड़ों की बड़ाई पुरुषों की प्रभुताई, सब कवेषणा सुणाई, रीझ मौज पाई, महोलां लिया, अदहल किया। क्रोड़ क्रोड़ रा किलाण कोड दिवाली राज। जसवन्तसिंह गजसिंहात राऊ मरुधर राज।।’
करणीदान कविया कृत ‘सूरजप्रकास’ ग्रंथ में आया हुआ गद्य निश्चय ही अद्वितीय है। इसमें उद्यान, आखेट, ऊंट, जलाशय आदि का अलंकृत वर्णन किया गया है। लेखक ने ‘प्रथम बगीचां रौ वरणण’ नाम से दवावेत भी लिखी है, जिसमें तुक मिलती है। भाषा राजस्थानी है किन्तु उसमें खड़ी बोली हिन्दी के शब्द भी आ गये हैं। लिखने का ढंग वर्णनात्मक, छटादार एवं निराला है। वर्णनीय विषय साकार हो उठा है। पर्यवेक्षण शक्ति देखती ही बनती है।
‘ऐसा गढ़ जोधांण और सहर का दरसाव, जिसके चौतरफ कौं वागीचूं का डंबर और दरियाऊं का वणाव। पहिलै वागीचूं की सोभा कहिके दिखाय, पीछे दरियाऊं की तारीफ जिसके गुनगाय। सो कैसे कही दिखाय, जळ निवांणूं का निवास रतिराज का वास। गुलजार के रसतै हौजूं का बणाव। इन्द्रलोक का सा उदोत अवांसूंका दरसाव। फोहारूं की पंकति जळ-चादरूं का उफांण। जळ-चादरूं की घरहर मांनूं छिल्लै महिरांण। स्रीखंडूका डंबर समीर सैं झोळा खावै। मलियागिर के भौळै भूलि पंखेसर मिणधर भुजंग आवै। अंबूंका समूह फळ जंबूका विसतार। कोकिलूं की कोहक मोर चात्रक अपार। चंपू की अंधेरी बोळसरू के थंड। रतिराज के असपक्क आसापाळव के झंड। सोनजुह रियाबेल चबेल चंबेली के फुलवाद मोगरै की महक गुलाब फूलूं की सुगंध जवाद।।’
करणीदान की वर्णन-शैली गजब की है। मनुष्य, पशु, वस्तु एवं स्थान का वर्णन पढ़ते समय हमारे सामने उसका चित्र उपस्थित हो जाता है। विषय को मूर्तिमता के साथ प्रतिपादित करने में लेखक को अपूर्व सफलता मिली है। प्रस्तुत विषय के बहिरंग एवं अंतरंग दोनों चित्र सजीव एवं स्पष्ट हैं। राजपूतों की जीवन-चर्या का भी विशद वर्णन किया गया है जिससे राजस्थानी संस्कृति के कई अंगों पर महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है। शब्द-चयन मधुर है। भाषा-शैली सरल, सरस एवं चमत्कारपूर्ण है। इन विशेषताओं के कारण करणीदान राजस्थानी के एक शैलीकार के रूप में दिखाई देते हैं। ‘ताळाबों रौ वरणण’ का यह गद्यांश इस कथन की पुष्टि करता है-
‘अब दरियाऊं की तारीफ सो कहिकै दिखाइ। जगजीत जोधांण के दरियाव कैसे। अभैसागर बाळसमंद दोऊ मांनसरोवर जैसे। अम्रित के समुद्र तैसे लहरूं के प्रवाह छाजै। जिनका रूप देखे सै छीरसमुद्र का गुमर भाजै। गंभीर नीर तिम- तिम मंगळग्राह। थाग तै अनेक पावे नहीं थाह। सारस बतक मुरगाबी बक खेल संजे। हरख-नचंत तीर खंजन-कुमार हंजे। छहूं रिति जिन्हूंके तट परिब्रह्मग्यांनी सिध मुनिराज छावै। मांनसरोवर के भोळै भूल अनेक (क) लीलंग आवै। ऐसे दरियाऊं के वीच में जिहाज सते से घरवाय। चंदणी विछायत करवाय महताबी जरदौजी के बंगळे समीयांनै तणवावै। तहां स्री महाराजा राजराजेस्वर नरलोक के इंद छभा सजुत विराजमांन होय मजळस वणवावै। रस-कवितूं की चरचा रंगराग अपार। कुमुदां की फूलूं पर भवरूं का गुंजार। सरद की चंदणी चंद्रवंसी विमलूं का उजास। रितराज के दिवस तहां सूरज वंसी कंवळूंका प्रकास। इस वजै खट रितु की क्रीला जल्ले गुलांबूं की छाक तिसके देखे तैं होत रितराज मुसताक। लावन्य रूप देखि रितराज लोभा। सब राजस की जलूस सेती गढ़ जोधांण की सोभा। ऐसा राव प्रथमी की पीठ पर अंगजी गढ़ जोधांण। जिसके वारंवार सरण रक्खे रावराजा रावळ रावत अरु रांण। अब गढ़ का रांजा महाराजा के कदमूं आवै। जिसकूं समसेर के पाणि फिर उतन की मसलति बैठावै। जैसा जिस जोधांण गढ़ का पातिसाह सो कीरति का नाह।।’
इस काल मेँ चारण कवियों की दो और सुन्दर वार्तायें उपलब्ध होती हैं- ‘खीची गंगेव नींबावत रो दो-पहरौ’ एवं ‘राजान-राउत रो वात-वणाव। ‘ गद्य की दृष्टि से ये रचनायें अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं किन्तु खेद है कि इनके रचियताओं के नामों का पता नहीं चलता। प्रथम रचना में खीची वंशीय नींबा के पुत्र गंगेव (गंगा) एवं उसके साथियों की एक दिन की जीवनचर्या का वर्णन है। दुपहर का वर्णन प्रधान होने से इसका दोपहरी (बे-पहरो) नाम पड़ा है। इससे उत्तर-मध्यकालीन राजपूत सामन्त-जीवन एवं उसकी रहन-सहन का परिचय प्राप्त होता है। इसमें राजस्थानी सभ्यता एवं संस्कृति के अनेक अनुपम चित्र चित्रित हुए हैं। द्वितीय रचना श्रृंगार रस से ओतप्रोत है। इसमें विविध प्रकार के अवसरोपयोगी वर्णनों का विस्तृत संग्रह है। अन्य ग्रंथों का प्रभाव होते हुए भी यह रचना भावपूर्ण है। इसकी सर्वाधिक विशेषता यह है कि इसमें वर्णनों को एक क्रमबद्ध कथा का रूप दिया गया है। बिखरी हुई कड़ियों को ‘तठा उपरांति करि नैं’, कहकर जोड़ दिया गया है। कथा में सर्वत्र इस वाक्यांश की भरमार है। इन दोनों लोक-वार्ताओं के कहने का ढंग अत्यन्त रोचक है। वात कहने वाला प्रसंगानुकूल वर्णन करके श्रोता को अपनी ओर खींच लेता है और फिर उसे रसमग्न कर देता है। सन्देह नहीं कि इस प्रकार की वार्ताओं से राजस्थान की जनता अपना मनोरंजन करती आई है। ‘खीची गंगेव नींबावत रो दो-पहरो’ का यह एक उदाहरण देखिये जिसमें शिकार खेलने का सूक्ष्म वर्णन किया गया है-
‘हमै तीतरां ऊपर बाज छूटै छै, करवानकां ऊपर जुर रा छुटै छै, तिलारां ऊपर वासा छूटै छै, लवां ऊपर सिकरा छूटै छै, बटेरां ऊपर तुरमती छूटै छै, बोवड़ां ऊपर चिपक छूटै छै, बुरजां ऊपर लगड़ छूटै छै, कुलंगा ऊपर कुही छूटै छै, इण भात देसौत राजेसर सिकार खेले छै, घोड़ा दौड़ रह्या छै, होकारा हगामो हुय रह्यौ छै, जितरै बीच थोहर झाड़ां रा विड़ा मांहां खरगोस उठिया छै, सू किण भांतरा छै? मोटा घेदा छै, तोबड़िया छै, धणै लीले जड़ी-बूटी रा चरणहार, पांहरे पाणीरा पीवणहार, तीकां ऊपर कुतां री डोर छुटी छै, बांठ-बोझा कूदै छै, घुचली खाय रह्या छै, ठुली री, गोफण री, तीरां री चोटां हुय रही छै, के घोड़ा अखड़ै छै, घोड़ां रा पगां सूं कांकरा पथर उछळै छै, इतरै बीच हिरणां रा डार आय नीसरै छै, तिके किण भांतरा हिरण छै? काळा वडा वेगड छै, मुह डांरै डार में मेघ हुय रह्या छै, मांहै राग छै जिके कूद-उछळै छै, रीगटा हिरण छै, सुरूत आइ हिरणी नै घेचता फिरै छै, सबळौ हिरण निबलै ने घेचै छै, इव डार करोलां मुंहडै आगै आण काढियो छै, तिकां ऊपर चीता छूटै छै, कुलफां दूर कीजै छै, तमासो वण रह्यौ छै।।’
इसी प्रकार ‘राजन-राउतरो वात-वणाव’ का रंगमहल में प्रेम का यह चित्र देखिये–
‘तठा उपरांति करि नैं राजान सिलामति विमाह रै समागम प्रथम दूलह दूलहणी मिलण रौ कोड रंग-रळी बंधा मण कीजै छै, रंगमहलै धवळहरैं पधरावीजै छै, छेहडैरी राति गांठि छूटी छै, सु जाणैं मन री गांठि छूटी छै, राजान कुमार घणैं हरख संआणंद सु उछाह सूं नवल रंग, नवल नेह, नवल नारि, नवल माह प्रथम समागम सुख सेझरी बात उहांहीज जांणी पिण बीजौ उण सुख उण वातां कुण जांणै, दूलह नैं दूलहणी री जोड़ी देखि-देखि नैं लोक बार-बार बखांणै छै, कहै छै गंगाजी मांहे ऊंडे जळ पैसि तपस्या करि ईश्वर गवरिजा पूजिया छै, वळे हेमाळै गळिआं कासी करवत लिआं अगरी असत्री अंग रौ भरतार पाई जै छै, सुयां हेलमा तपायो छै।।’
उपर्युक्त विवेचन से हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि चारण पद्य के सदृश गद्य का भी अभूतपूर्व विकास हुआ। यह गद्य हिन्दी साहित्य के इतिहास की भी अक्षय सम्पदा है क्योंकि इसने उसके रूप-संवरण में सहायता प्रदान की है। यह गद्य प्रसंगानुकूल समस्त काव्य गुणों से अलंकृत है। पात्रों के अनुकुल बोलना भी इसे खूब आता है। करणीदान कविया के एक उदाहरण से इस प्रसंग को यहीं समाप्त किया जाता है। मुगल-सम्राट् मोहम्मदशाह के दरबार का यह वर्णन देखिए-
‘जम्मीन के ऊपर परवर दिगार का हुसन दिल्ली सहर जोगमाया जिसके दरम्यांन बावन वीर चौसठ जोगणी का वास। जै वींती विमर अक्ल का जहूर। पातिसाहूं का तखत रुसनाई का पूर। जवाहर का तख्त जवाहर का छत्र। तेज का अथाह ऐसे दिल्ली का साहिब जिस तखत पर विराजै है महमंदसाह साहिब का नायब पैरूंबरूं की जात कहता है।।’
।।इति।।चारण साहित्य का इतिहास (भाग-१) समाप्त।।
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