चारण साहित्य का इतिहास – छटा अध्याय – आधुनिक काल (प्रथम उत्थान) – [Part-A]
चारण साहित्य का इतिहास – भाग २
आधुनिक काल, प्रथम उत्थान
[सन १८०० – १८५०ई.]
(१) – काल विभाजन
राजस्थानी के चारण साहित्य में १९ वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध परिवर्तन-काल माना जायगा। पश्चिम में ज्ञान-विज्ञान का एक नया सितारा चमक उठा था जिसके दर्शन राजस्थान ने इस समय में किये। फलत: क्षत्रिय नरेशों ने अँग्रेजों का आधिपत्य स्वीकार कर संधियों पर हस्ताक्षर किये। पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति के संस्पर्श से इस काल में सर्वप्रथम आधुनिकता का अभ्युदय हुआ जिससे अनेक परिवर्तन हुए। विदेशी विचार-धारा का प्रभाव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र पर पड़ा। फोर्ट विलियम कॉलेज, कलकत्ता की स्थापना से शिक्षा का नया कार्यक्रम तैयार हुआ (१८०० ई.) अंग्रेजियत के प्रचार हेतु लार्ड बेण्टिक ने अनेक अंग्रेजी पुस्तकें राजस्थानी नरेशों के यहां उपहार स्वरूप भेजी। एक प्रस्ताव में यहां तक कहा गया कि आगे पत्र-व्यवहार अंग्रेजी में किया जाय। अंग्रेजी का प्रभाव सर्वप्रथम हिन्दी-प्रदेश पर पड़ा अत: उसी में शिक्षा तथा शासन सम्बंधी कार्य आरम्भ हुआ। इससे डिंगल की गति कुंठित अवश्य हुई फिर भी काव्य-प्रेमी नरेशों के सुनहरे राज्य-काल में अनेक चारण कवि-रत्न जगमगा उठे। महाराजा मानसिंह (जोधपुर) के अवतीर्ण होते ही एक नवीन अध्याय का सूत्रपात हुआ (१८०३ ई.) भाषा एवं भाव की दृष्टि से आलोच्य काल में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए अत: साहित्य के क्षेत्र में यह एक संक्रांति काल कहा जा सकता है। वीर-काव्य-धारा ने तो इस धरा पर रुकना जाना ही नहीं। अन्य धारायें भी मंथर गति से प्रवाहित होती रहीं। साथ ही देश-काल के अनुरूप नवीन रचनायें होने लगीं। राष्ट्रीय विचार-धारा का प्रभाव चारण कवियों पर भी पड़ा अत: उन्होंने परतंत्रता से मुक्त होने की कामना प्रकट की। यह लक्ष्य करने की बात है कि राजस्थानी में जिस रीति-काव्य का प्रणयन हुआ, वह हिन्दी से भिन्न था। श्रृंगार के स्थान पर उसमें भक्ति, नीति एवं रीति का एक साथ प्रयोग किया गया। डिंगल के रचयिता पिंगल की ओर भी झुकने लगे। इन समस्त विशेषताओं को ध्यान रखते हुए इस काल के साहित्य को पृथक अध्याय के अन्तर्गत रखा गया है।
(२) – राजनैतिक अवस्था
(क) राजस्थान एवं केन्द्रीय सत्ता:- आलोच्य काल के प्रथम पच्चीस वर्षों का समय अराजकता एवं अँग्रेजी सत्ता का स्थापना-काल कहा जा सकता है। महादाजी सिंधिया के इस लोक से विदा होते ही मराठों का प्रभुत्व शनै: शनै: क्षीण होने लगा। सेनानायकों के पारस्परिक संघर्ष, होल्कर घराने की विलीन होती हुई सत्ता एवं दौलतराव की दीर्घकालीन अनुपस्थिति से भी क्षत्रिय नरेशों की निद्रा भंग नहीं हुई। पिंडारियों ने तत्कालीन नरेशों की अयोग्यता का लाभ उठाना आरंभ किया। अन्त में अंग्रेजों ने समस्त विरोधी शक्तियों को पादाक्रांत कर विभिन्न संधियों के द्वारा उन्हें अपने अधिकार में कर लिया।
उत्तरी भारत के मराठे अधिकारियों में गृह-युद्ध होते ही राजस्थान में पुन: अराजकता एवं अशांति फैल गई। आँतरिक संघर्षों एवं बाह्य अभियानों से विनाश की आंधियां चलने लगीं। मराठे अधिकारियों का प्रधान लक्ष्य यहाँ के राज्यों से किसी न किसी प्रकार कर वसूल करना था जिससे आर्थिक स्थिति बिगड़ गई। मराठे सेनानायकों के अत्याचारों से कितने ही गांव जल गये, खेती उजड़ गई एवं मानव-जीवन कराह उठा। यह देखकर राजाओं ने मराठों से मुक्त होने के लिए अँग्रेजों से संधियां करना आरम्भ किया। लासवाड़ी-विजय के पश्चात् (१८०३ ई.) लार्ड लेक ने जोधपुर, जयपुर एवं अलवर के साथ संधियां की और मराठों को कर देने वाले राज्यों के साथ किसी भी प्रकार की संधि नहीं करने का वचन दिया। जोधपुर राज्य के उत्तराधिकार तथा उदयपुर में कृष्णाकुमारी के विवाह विषयक प्रश्नों ने विनाश में वृद्धि की। अमीरखां ने राजस्थान लौटकर निरन्तर सात वर्षों तक (१८१०-१७ ई.) अनेक कुकर्म किये। उसके सैनिकों एवं साथियों ने परिस्थिति को उग्र बना दिया। अत: समस्त नरेश सुख एवं शांति के लिए सजग हो गये और अँग्रेजों का संरक्षण प्राप्त करने के लिए मचल उठे। पिंडारियों को कुचलने एवं संधिवार्ता के लिए मेटकाफ ने राजस्थान के राज्यों को दिल्ली आमंत्रित किया। करौली एवं कोटा राज्यों के साथ अँग्रेजों ने संधि कर (१८१७ ई.) धीरे-धीरे राजस्थान के अन्य सभी राजाओं को अपने संरक्षण में ले लिया। अँग्रेजों के साथ होल्कर के अन्तिम युद्ध से मराठों की शक्ति सर्वथा विलुप्त हो गई। संधि के अनुसार सिंधिया ने अजमेर अँग्रेजों को सौंप दिया (१८१८ ई.) इस प्रकार अँग्रेजों ने पिंडारियों का दमन कर समूचे राजस्थान पर अधिकार कर लिया (१८१९ ई.)
अँग्रेजी राज्य की स्थापना से राजस्थान के राज्यों का सम्बंध एजेण्ट गवर्नर जनरल, अजमेर से जुड गया। छोटी-मोटी रियासतों को मिलाकर एक समूह बनाया गया जिसकी देख-रेख के लिए एक राजदूत नियुक्त किया गया। बीकानेर एवं सिरोही राज्यों पर एजेण्ट गवर्नर जनरल की निजी देख-रेख रही। ये अंग्रेजी राजदूत देशी राज्यों एवं केन्द्रीय सत्ता के बीच एक कड़ी का कार्य देते थे। कहना न होगा कि इन्होंने नरेशों को नियंत्रित ही नहीं किया प्रत्युत उन्हें पाश्चात्य रंग में रंग दिया। सन् १८१९-४३ ई. का समय अँग्रेजों एवं विभिन्न राज्यों का सहयोग-काल था। नई मित्रता एवं संधियों के कारण अँग्रेजों ने यत्र-तत्र जंगली जातियों एवं अराजकतापूर्ण उपद्रवी व्यक्तियों को दबा दिया किन्तु विद्रोही सरदार एवं जागीरदार शांत नहीं रहे। अंग्रेजों ने उनके बीच मध्यस्थ बनकर अनेक पारस्परिक झगड़ों को निपटाया। महाराजा मानसिंह को तो यहां तक लिखा गया- ‘नरेशों से यह आशा की जाती है कि वे अपनी प्रजा को ठीक तरह संभालकर पूर्णतया नियन्त्रण में रखें। यदि वे अपनी प्रजा को अपने विरुद्ध विद्रोह करने के लिए बाध्य कर दें तब तो अपने कर्मों का फल भुगतने के लिए उन्हें तैयार रहना चहिए। ‘ ….इस प्रकार अँग्रेजों ने कूट राजनीतिज्ञता से धीरे-धीरे अपनो नींव पक्की कर ली। सन् १८३२ ई. में जब लार्ड बेण्टिक अजमेर आया तब उससे मिलने के लिए प्रमुख नरेशों को आमंत्रित किया गया। अंग्रेजी गवर्नर जनरल का राजस्थान में यह प्रथम दरबार था।
(ख) प्रांतीय शासक एवं शासन व्यवस्थाः- इस काल में राजस्थान के शासकों का अधिक पतन हुआ। पारस्परिक फूट के कारण मेवाड़, जयपुर एवं मारवाड़ राज्यों की विशेष क्षति हुई। मेवाड़ के राणा भीमसिंह के समय में चौथ वसूल करने का अधिकार होल्कर को प्राप्त हो गया। मारवाड़ एवं जयपुर राज्यों में संघर्ष हुआ देखकर कृष्णाकुमारी इस संसार से ही विदा हो गई जिससे विद्रोह हुआ और सरदार स्वतंत्र बन बैठे। शताब्दियों से मुसलमानों के निरन्तर वार सहकर भी मेवाड की शक्ति जितनी क्षीण नहीं हुई, वह कुछ ही वर्षों में मराठों से हो गई। महाराणा और अँग्रेजों के बीच दिल्ली में अहमदनामा लिखे जाने के बाद ही इस कष्ट का निवारण हो सका। महाराणा जवानसिंह एवं सरदारसिंह की विलासता एवं अयोग्यता से मेवाड़ के भाग्याकाश में अशांति की काली घटायें उमड़ आईं। जयपुर नरेश प्रतापसिंह के सामने आपत्तियों का पहाड़ लगा हुआ था। जगतसिंह जीवन के सभी विकारों से ग्रस्त था। जयसिंह (तृतीय) के समय लुटेरों के उपद्रव एवं षडयंत्र होते रहे। मारवाड़ के महाराजा मानसिंह को सिंहासनारूढ़ होते ही भीमसिंह की विधवा रानी के पुत्र धोकलसिंह से लोहा लेना पड़ा। कृष्णाकुमारी के विवाह को लेकर तो मानसिंह का अधिकार एक बार केवल जोधपुर के किले पर ही रह गया था। मानसिंह अँग्रेजों का पक्षपाती नहीं था अत: वह केन्द्रीय दरबारों में सम्मिलित नहीं हुआ। सरदारों से मनोमालिन्य एवं नाथ-सम्प्रदाय में अत्यधिक श्रद्धाभक्ति होने से राज्य में व्यवस्था नहीं रह गई थी। उसका दीर्घ शासनकाल कष्टों की एक लम्बी-चौड़ी कहानी है।
इन तीन प्रमुख राज्यों के अतिरिक्त राजस्थान के अन्य राज्यों में भी सर्वत्र पिंडारियों, लुटेरों एवं मराठों का बोलबाला था। अँग्रेजों से संधि हो जाने पर इनका आतंक मिट गया किन्तु आंतरिक संघर्षों का अन्त नहीं हो पाया था। बांसवाड़ा के महारावल बहादुरसिंह एवं डूंगरपुर के महारावल जसवन्तसिंह (दूसरा) के समय में राज्य-गद्दी के लिए तनातनी चलती रही। करौली के महाराजा प्रतापपाल के समय में इसके लिए राजकीय कोष ही खाली नहीं हुआ प्रत्युत अनेक सरदारों को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा। संदेह नहीं कि अनेक राजाओं ने परिस्थिति की कठोरता से दबकर अँग्रेजों का आश्रय ग्रहण किया था जिनमें सांवतसिंह (प्रतापगढ़) एवं विजयसिंह, उम्मेदसिह (बांसवाड़ा) के नाम लिए जा सकते हैं। बीकानेर के प्रतापसिंह एवं सूरतसिंह के शासन-काल में आंतरिक विद्रोह होते रहे। जैसलमेर का महारावल मूलराज (दूसरा) राजनीति एवं शासन-व्यवस्था से नितांत अनभिज्ञ, साहस शून्य एव अकर्मण्य शासक था। अनेक राजाओं को व्यसन लगा हुआ था जिससे अपार हानि हुई। महारावल फतहसिंह (डूंगरपुर) ने शराब के नशे में अपनी रानी को तलवार के घाट उतार दिया। माधोसिंह (शाहपुरा) तो शराब, अफीम और भंग को एक साथ पचा लेता था। महारावल सांवतसिंह जीवन भर सुख की नींद नहीं ले पाया। नाबालगी की अवस्था में अयोग्य दीवानों ने अपना उल्लू भी खूब सीधा किया। महारावल गजसिंह भाटी (जैसलमेर) के दीवान सालमसिंह ने राज्य को मनमाने ढंग से लूटा और अत्याचार भी बहुत किये। इसी गजसिंह के शासन-काल में बासणपी का युद्ध राजस्थान का अन्तिम युद्ध था (१८३४ ई.) संक्षेप में, राजस्थान की शासन-व्यवस्था अत्यन्त शोचनीय थी। प्राचीन शासन-परम्परा का लोप हो गया। चतुर अँग्रेजों ने व्यावसायिक मनोवृत्ति को राजनीति का रूप देकर राग-रंग में डूबे राजाओं को अकर्मण्य बना दिया। राज्य-दरबारों का नैतिक स्तर शनैः शनै: गिरने लगा। यदि व्यक्तिगत विलास, आमोद-प्रमोद तथा अपने कृपा-पात्रों पर पानी की तरह पैसा न बहाया गया होता तो आर्थिक संकट ही न आता। राजनीतिक छल-कपट एवं आंतरिक षडयंत्रों ने स्थिति ही बदल दी। इस काल में कोटा के प्रधान मन्त्री झाला जालिमसिंह ने अर्द्ध शताब्दी तक जिस योग्यता से शासन किया वैसा और किसी ने नहीं किया।
(३) – सामाजिक अवस्था
तत्कालीन राजनीति से समाज का जीवन निष्क्रिय हो गया। सर्वत्र पतन के चिन्ह स्पष्ट रूप से दिखाई देने लग गये। अँग्रेजों के सम्पर्क में आने पर भी राजस्थान के राजघराने उनसे नवीन सैनिक शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाये। पराधीनता की श्रृंखलाओं में बद्ध होकर राजा-महाराजा अंग्रेजों के सेवक बन गये। ऐसे समय में अपनी प्राचीन परम्परा को बनाये रखने के लिए कई राजाओं ने चारणों को राज्याश्रय प्रदान किया, यहां तक कि जागीरदारों ने भी इस पद्धति का अनुशीलन किया। वे उनसे अपनी कीर्ति-गाथा सुनकर सन्तोष का अनुभव करते रहे, जनता को भुलावे में डालने के साथ-साथ अपने को भी प्रवंचित करते रहे और जनता के पास उनकी विविध कथाओं को सुनने के अतिरिक्त और कुछ नहीं रह गया था। अव्यवस्था के कारण उसका दैनिक जीवन दुखी एव कष्ट-पूर्ण होता जा रहा था। सरदारों की स्थिति भी डांवाडोल थी। उनके साथ जनता भी विलासी होती जा रही थी। सर्वत्र कृत्रिमता-पूर्ण उत्सवों के आयोजन होते रहते जिनमें नाच-गान और राग-रंग की प्रधानता थी। नैतिक पतन होने से जीवन का विकास नहीं हो पाया। अब वीरता एवं सैनिक क्षमता निरर्थक प्रतीत होने लगी। गृहयुद्धों की भीड़भाड़ के साथ व्यभिचार भी अपनी पराकाष्ठा को पहुँच गया था। इतिहासकारों ने सवाई जगतसिंह के समय की अनेक घटनाओं का उल्लेख किया है जिनसे इस समय की हीनावस्था का पता चलता है।
(४) – धार्मिक अवस्था
धर्म के क्षेत्र में यद्यपि मध्यकालीन विचारधाराओं की प्रधानता थी तथापि अब उनका वह आदर्श नहीं रह गया था। राधा-कृष्ण देवी-देवताओं के रूप में नहीं, हास-विलास के रूप में जनता के सामने लाये गये। तत्कालीन चित्रों को देखने से इस कथन की पुष्टि होती है कि कामुकतापूर्ण भाव-भंगिमाओं का चित्रण होने लग गया था। विभिन्न पंथ एवं सम्प्रदाय पूर्ववत् चलते रहे। महाराजा मानसिंह के राज्य-काल में नाथ-सम्प्रदाय का अत्यधिक प्रभाव बना रहा। इसके लिए राज्य-कोष खाली किया गया और अनेक जागीरें भी लुटाई गई। अँग्रेज राजदूत मि० लडलो को इसीलिए कठोर कार्यवाही करनी पड़ी थी। अँग्रेजों के साथ ईसाई पादरियों का भी आवागमन होता रहता था। ये राजस्थान में आकर अपने धर्म का प्रचार करने तथा लोगों को ईसाई बनाने लगे। इनका प्रभाव निम्नस्तरीय हिन्दू-मुसलमानों पर पड़ा और उनमें से कुछ लोगों ने इस नवीन धर्म को अंगीकार भी किया किन्तु हिन्दू धर्म में थोड़ी-बहुत आस्था रखने वाले लोग इस प्रभाव से बचे रहे। ईसाई-धर्म प्रचारकों के आने से मुद्रण कला का प्रचार हुआ जिससे राजस्थान में भी पुस्तकों का प्रकाशन आरम्भ हुआ।
(५) – चारण साहित्य
यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि प्रतिकूल परिस्थितियों के होते हुए भी चारण साहित्य का विकास होता गया। राज्याश्रय प्राप्त होते रहने से अनेक कवियों ने अपनी प्राचीन परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखा किन्तु ज्यों-ज्यों पांडित्य के चमत्कार पर पुरस्कार का विधान बढ़ता गया त्यों-त्यों दानशीलता का लम्बा-चौड़ा वर्णन करके स्वर्ण-मुद्राओं को हथियाने की प्रवृति जोर पकड़ती गई। इससे वीर काव्य में भी कृत्रिमता आने लगी। रीति-काव्य का विकास हुआ किन्तु हिन्दी के रीति-काव्य पर जहां भौतिक भावनाओं की छाप है वहां चारण कवियों में पूजा-भावना के साथ पौराणिक चरितों का काव्यमय रूप देखने को मिलता है। राष्ट्रीय रचनायें भी लिखी गईं किन्तु कम। हां, गद्य-साहित्य का अभूतपूर्व विकास हुआ और उसमें उत्तम रचनायें लिखी जाने लगीं। इस प्रकार चारण साहित्य देश-काल के अनुरूप नवीन दिशा की ओर अग्रसर होने लगा।
(६) – कवि एवं उनकी कृतियों का आलोचनात्मक अध्ययन
(क) जीवनी खण्ड:-
१. ब्रह्मानंद:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे (१७७१ ई.) और आबू तलहटी स्थित ग्राम खांण के निवासी थे। इनके माता-पिता का नाम क्रमशः लालवा देवी एवं शंभूदान था जो बड़े ही धर्मपरायण थे। चारण-समाज में इनकी जन्म-विषयक अनेक किवदंतियां प्रचलित हैं। संदेह नहीं कि ये अपने पिता के सदृश धर्म की ध्वजा थे। माता-पिता ने इनका विशेष लाड़-प्यार से पालन-पोषण किया था। ये उनके तन-मन के लड्डू ही थे अत. बचपन में खांण के ‘लाडूदान’ कहलाये। आरंभ से ही ये धीर, गंभीर एवं एकान्त प्रिय थे। खेल-कूद में इनका मन नहीं लगता था। १५ वर्ष की आयु तक इन्हें समयोचित शिक्षा प्राप्त करने का अवसर नहीं मिला फिर भी ईश्वर-प्रदत्त शक्ति से ये साधारण बातचीत में दोहा-गीत की रचना कर अपने बाल-सखाओं एवं ठाकुर-सरदारों को सुनाते तथा अपनी हाजिर-जवाबी से उन्हें प्रभावित करते रहते थे। इस अद्भुत कवित्व-शक्ति एवं लोकोत्तर-बुद्धि-प्रभा ने इन्हें अत्यन्त लोकप्रिय बना दिया। अनुमानत: २९-३० वर्ष की अवस्था में इन्होंने अपना विद्याध्ययन समाप्त कर काव्य-क्षैत्र को आलोकित करना आरम्भ किया और इसी समय में इन्हें अपना धर्मगुरु मिला था।
लाडूदान के प्रचण्ड शरीर से तप-तेज झलकता रहता था। लम्बा कद, बड़ी आखें, भरा चेहरा, गेहुआ रंग और विशाल बाहुऐं! व्यक्तित्व प्रभावशाली था एवं स्मरण शक्ति तीव्र। कहते हैं कि १५ वर्ष की आयु में जब ये अपने पिता के साथ सिरोही नरेश के यहां गये तब इस बालकवि की काव्य-प्रतिभा से प्रभावित होकर महाराव ने कहा-‘आशा है, कच्छ-भुज में विद्याध्ययन कर यह महान बनेगा और वहां से लौटने पर हम इसे जागीर देंगे। ‘ महाराव की आज्ञा से इन्होंने गांव धमकड़ा (कच्छ) जाकर लाधा राजपूत के यहां डिंगल साहित्य का अभ्यास किया और उसके पश्चात् भुज में लषपत-ब्रजभाषा पाठशाला में भर्ती हुए। अनेक विघ्न-बाधाओं को सहते हुए भी ये अपने शुद्ध संकल्प से विचलित नहीं हुए और शांति, धैर्य तथा संयम से ज्ञानोपार्जन करते गये। वहाँ ८ वर्ष तक रहकर इन्होंने काव्य-शास्त्र का अध्ययन किया और फिर राजपूताना के सिरोही, उदयपुर, जोधपुर एवं बीकानेर राज्यों तथा गुजरात-काठियावाड़ के बड़ौदा, जूनागढ़ एवं भावनगर राज्यों में घूमकर अपनी काव्य-प्रतिभा से अपार यश प्राप्त किया।
कवि के जीवन की प्रमुख घटना स्वामी सहजानंद के साथ प्रथम मिलन है (१८०३ ई.) क्योंकि इससे उसे एक सुनिश्चित दिशा मिली थी। जब ये घूमते-घूमते पुन: कच्छ में आये तब महाराव ने इनका बहुत आदर-सत्कार किया। वहां इन्हें पता चला कि कुल-गुरु रामानंद के शिष्य सहजानन्द स्वामी पधारे हुए हैं। अत: ये राज कर्मचारियों के साथ उनके पास पहुँचे। प्रथम दर्शन से ही ऐसे प्रभावित हुए मानों जिस मूर्ति की खोज में थे, वह सहज ही में उपलब्ध हो गई है। इससे इनके आनन्द की कोई सीमा नहीं रहीं। स्वामीजी के ‘सत्यं, शिवं एवं सुन्दरम्’ से इनके ह्रदय का द्वार खुल गया और एक विशुद्ध भक्ति-भावना का स्रोत उमड़ पड़ा। इन्होंने उन्हें अपना गुरु बना लिया और भागवती शिक्षा ग्रहण की। जब तक भुज में रहे तब तक नित्य स्वामीजी के श्री चरणों में बैठकर ज्ञान का पंचामृत पान किया। ३२ वर्ष तक का सारा समय विद्याभ्यास में ही लगा रहा फिर ये अपनी जन्मभूमि खांण लौटे किन्तु कुछ समय वहां रहकर फिर भावनगर, जामनगर आदि काठियावाड़ के राज्यों में घूमते-घूमते पालीताण पहुँचे। भावनगर के महाराजा विजयसिंह गोहिल ने इनका भावभरा सत्कार किया और पालीताण दरबार ने भी उचित सत्कार एवं पुरस्कार से सम्मानित किया। यह उल्लेखनीय है कि राज-दरबार में ये भड़कीले वस्त्र एवं स्वर्ण-आभूषण धारण कर और अश्व पर आरूढ़ होकर नौकर-चाकरों के साथ पूरे लवाजमे के साथ जाते थे। इसी रूप में ये अपने इष्टगुरु से एक बार गांव गढ़डा (भावनगर) में मिले थे। राजा-महाराजा से सहस्रों रुपयों की भेंट पाने वाले इस कवि के भक्ति-भाव को देखकर स्वामीजी ने इन्हें विद्या-धन दिया और दूसरों को भी ज्ञान, वैराग्य एवं अलौकिक संपत्ति का दान देने के लिए कहा।
एक बार स्वामीजी ने लाडूनाथ से कहा कि गढ़डा के दरबार की बहनें कुमार अवस्था से ही सांख्य योग के नियमों का पालन करने लग गई हैं अत: गृहस्थाश्रम में रहने योग्य शिक्षा दे आओ। ये उनके पास गये किन्तु वहां म्होरी बा नामक बहिन ने ऐसा प्रतिवाद किया कि इन्हें चुप रह जाना पड़ा और स्वयं भी गृहस्थाश्रम त्यागने के लिए तत्पर हो गये। स्वामीजी के पास लौटकर इन्होंने सारा वृतांत कह सुनाया और अपना सारा लवाजमा त्यागकर उनके पास रहने लगे (१८०४ ई.) इसके पश्चात् ये अपने गुरुदेव के साथ घूमते-घूमते बड़ौदा राज्य के महसोना, विलादा, कलोल आदि स्थानों से होकर नौरीता गांव में आये जहां इन्होंने त्याग की भागवती दीक्षा ग्रहण की और अपना नाम बदलकर श्री रंगदास रख दिया। इस समय में गुजरात-काठियावाड़ की सामाजिक, धार्मिक एव राजनैतिक दशा शोचनीय थी जिसका लाभ उठाकर रामानंदी वैरागी साधु स्वामी नारायण द्वारा स्थापित नवीन सम्प्रदाय के साधुओं को नाना प्रकार से तंग करते थे। इससे बचने के लिए सहजानंद स्वामी ने साम्प्रदायिक चिन्ह का त्याग करवा दिया और अपने साधुओं को परमहंस की दीक्षा दी। उसी समय इनका नाम श्री रंगदास से ब्रह्मानंद कर दिया गया। इस बीच इनके कुटुम्बी खांण गांव की एक सुयोग्य चारण कन्या से विवाह कराने के लिए इनके पास आये किन्तु इन्होंने इस मार्ग पर न चलने का व्रत पहले ही ले लिया था अत: मना कर दिया। निराश होकर सब सगे-सम्बंधियों को लौट जाना पड़ा। बड़ौदा नरेश सयाजी राव गायकवाड़ ने तो यहां तक प्रलोभन दिया कि यदि राजकवि का पद ग्रहण करो तो २५००० की जागीर दे दूं किन्तु इन्हें तो त्यागी बनकर संसार के सम्मुख एक आदर्श उपस्थित करने की धुन सवार थी अत: नहीं माने सो नहीं माने।
ब्रह्मानंद शेष जीवन में अपने गुरु के साथ रहकर काव्य-रचना करते रहे। इन्होंने आजीवन धार्मिक कार्यों में अपना प्रशंसनीय हाथ बंटाया। जीवन के उत्तरार्द्ध काल में ये अपना अधिकांश समय देवालयों का निर्माण करवाने में व्यतीत करते थे। इनके जीवन के अंतिम २६ वर्ष स्वामी नारायण धर्म के प्रचार में ही लगे हुए थे। जब इनके गुरु स्वामी सहजानंद का स्वर्गवास हुआ (१८२९ ई.) तब इनके हृदय को गहरा धक्का लगा। शनै: शनै: गुरु-वियोग में इनका शरीर क्षीण होने लगा। इसी समय इनकी पीठ में एक फोड़ा निकल आया जिससे इन्हें ज्वर आने लगा। इसी रोग में अपने गुरु के दो वर्ष बाद इहलीला समाप्त कर उस लोक में उनसे मिलने चले गये (१८३१ ई.)।
ब्रह्मानंद स्वामी के लिखे हुए छोटे-बड़े २१ ग्रंथ उपलब्ध होते हैं- १. उपदेश चिंतामणी २. उपदेश रत्नदीपक ३. सम्प्रदाय प्रदीप ४. सुमति प्रकाश ५. वर्तमान विवेक ६. विदुर नीति ७. ब्रह्म विलास ८-९. शिक्षा पत्री (हिन्दी व गुजराती) १०. सत्संग पंचक ११. षटदर्शन १२. माया पंचक १३. देसावतार स्तुति १४. राधाकृष्ण स्तुति १५. सिद्धेश्वर शिवस्तुति १६. हरिकृष्णाष्टक १७. रासाष्टक १८. हवलाष्टक १९. घनश्यामाष्टक २०. हरिकृष्ण महिमाष्टक २१. धर्मप्रकाश। अन्य संत कवियों के सदृश इनका राग विद्या पर भी पूर्ण अधिकार था अत: इनके रचे हुए लगभग ८००० स्फुट पद भी उपलब्ध होते हैं। इनमें से नं० ४, ६, ७, एवं २१ प्रकट हैं, शेष अप्रकट।
२. कृपाराम:- ये महडू शाखा में उत्पन्न हुए थे और शाहपुरा के निवासी थे। इनके लिखे हुए फुटकर गीत मिलते हैं।
३. रामदान:- ये लालस शाखा में उत्पन्न हुए थे (१७६१ ई.) और जोधपुर राज्य के निवासी थे। इनके पिता का नाम फतहदान था। इनकी कवित्व शक्ति पर प्रसन्न होकर महाराजा मानसिंह (जोधपुर) ने तोलेसर गाँव पुरस्कार में दिया था (१८०८ ई.) कुछ वर्ष तक ये मेवाड़ में भी रहे थे। इन्होंने ‘भीम प्रकाश’ नामक एक ग्रन्थ की रचना की जिसमें १७५ दोहे एवं कवित्त हैं।
४. बांकीदास:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे (१७७१ ई.) और मारवाड़ राज्यान्तर्गत पचपदरा परगने के ग्राम भांडियावास के निवासी थे। ये पूंजो की दसवीं पीढ़ी में हुए थे। इनके पिता-पितामह का नाम क्रमश: फतहसिंह एवं शक्तिदान था। इन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा अपने पिता से ग्रहण की जो कवि थे। इसके पश्चात् सामान्य ज्ञान प्राप्त कर ये जोधपुर आ गये (१७९७ ई.) जहां इनका ज्ञान परिमार्जित होता गया। जोधपुर में इनकी शिक्षा का प्रबन्ध रामपुर के ठाकुर ऊदावत अर्जुनसिंह ने किया था। ‘बंक इतेयक गुरु किये, जितयक सिर पर केश’ कहकर इन्होंने अपने अनेक गुरुओं की ओर संकेत किया है। राजधानी में इन्होंने उनके श्री चरणों में बैठकर संस्कृत, फारसी, अपभ्रंश, डिंगल एवं पिंगल भाषाओं का अध्ययन किया तथा व्याकरण, काव्य-शास्त्र, इतिहास एवं दर्शन का ज्ञानोपार्जन किया। ५-६ वर्षों के सतत अध्ययन, मनन एवं चिन्तन ने इन्हें बहुज्ञ बना दिया, यहां तक कि इनके पास आर्ष-ग्रन्थों एवं देश-विदेश के इतिहास का अच्छा ज्ञान जमा हो गया। इससे इन्हें अन्य भाषाओं की साहित्य-परम्पराओं को आत्मसात करने में प्रर्याप्त सुविधा मिली। कहना न होगा कि इस गुरु-ज्ञान ने इन्हें काव्य तथा इतिहास का एक ऐसा धुरन्धर पंडित बना दिया कि जिससे इनकी धवल कीर्ति सर्वत्र फैलने लगी।
इतिहास साक्षी है कि जोधपुर के तत्कालीन महाराजा मानसिंह विद्यारसिक, काव्य प्रेमी एवं कवि बन्धुओं के आश्रयदाता थे। बाँकीदास के असाधारण व्यक्तित्व एवं गुरु ज्ञान ने उन्हें भी आकर्षित किया। मानसिंह के गुरु नाथपंथी आयस देवनाथ ने इन्हें महाराजा के सामने उपस्थित किया जिससे ये उनके कृपा-पात्र बन गये। यहीं से उनके जीवन ने एक नवीन दिशा ग्रहण की और काव्य रचना आरम्भ किया (१८०३ ई.) प्रथम भेंट में ही महाराजा इनकी विलक्षण कवित्व-शक्ति, सत्य-प्रियता एवं निर्भीकता पर मुग्ध हो गये। यह उल्लेखनीय है कि महाराजा ने इनसे काव्य-ग्रन्थों का अध्ययन किया और सत्संग का पूरा-पूरा लाभ उठाया। इससे वे स्वयं भी उच्चकोटि के कवि बन गये। राज्याभिषेक के शुभावसर पर उन्होंने इन्हें कविराजा के उपटंक से अलंकृत किया एवं अपना ‘भाषा-गुरु’ बनाया। इतना ही नहीं ताजीम, पांव में सोना, बांह पसाव, लाख पसाव एवं दो गांवों से पुरस्कृत भी किया। कागजों पर लगानें के लिए मोहर (मुद्रा) रखने तथा उस पर अंपने शिक्षा-गुरू होने के वाक्य खुदवाने का मान-सम्मान प्रदान कर तो महाराजा ने पुरस्कार की पद्धति में नवीनता उत्पन्न कर दी।
बांकीदास और महाराजा मानसिंह के पारस्परिक मिलने का प्रसंग भी बढ़ा रोचक एवं दिलचस्प है। ईश्वरीय कृपा से कविराजा जैसे ज्ञान में बढे-चढ़े थे वैसे ही शरीर से भी मोटे और भारी थे। इस मोटेपन से चलने-फिरने में असुविधा रहती थी। अवस्था के साथ तो यह कठिनाई और भी बढती गई। जोधपुर के किले में जहाँ तक सवारी जाती, वहां तक ये पालकी मे बैठकर जाते। उससे आगे कहार तथा छोटे नौकर इन्हें लकड़ी के तख्ते पर बिठाकर ले जाते थे। जब इनकी सवारी महाराजा के पास पहुँचती तब महाराजा खड़े होकर इन्हें ताजीम देते और ये तख्ते पर बैठे-बैठे ही विरुदावली सुनाया करते थे।
बांकीदास ज्ञान के सागर थे। ये डिंगल-पिंगल भाषाओँ में तत्काल काव्य-रचना कर देते थे। इन्हें आशुकवि कहने से ही संतोष नहीं होता क्योंकि इनकी धारणा शक्ति अद्वितीय थी। एक बार ईरान का कोई एलची भारत का पर्यटन करता हुआ जोधपुर आ पहुंचा। महाराजा से साक्षात्कार होने पर उसने किसी इतिहास के ज्ञाता से बातचीत करने की अभिलाषा प्रकट की। यह देखकर महाराजा ने इन्हें उपयुक्त समझकर उसके पास भेजा। एलची इनसे मिलकर अत्यन्त प्रभावित हुआ और प्रसन्न होकर महाराजा के पास इनकी प्रशंसा यों लिखकर भेजी- “जिस आदमी को आपने मेरे पास भेजा था, वह इतिहास ही का पूर्ण ज्ञाता नहीं, वरन् उच्चकोटि का कवि भी हैं। इतिहास का ऐसा पूर्ण और पुख्ता ज्ञान रखने वाला कोई दूसरा व्यक्ति मेरे देखने में अभी तक नहीं आया। इसे समस्त भूमण्डल के इतिहास का भारी ज्ञान है। मैं ईरान का रहने वाला हूँ पर ईरान का इतिहास भी मुझसे अधिक वह जानता है। “ कहना न होगा कि महांराजा को अपने राज्याश्रित कवि की इस बात पर बडा गर्व था।
बांकीदास ने अयाची व्रत धारण कर रखा था। इनके काव्य-सौरभ से मस्त होकर उदयपुर के तत्कालीन महाराणा भीमसिंह का मन-मधुकर भी विह्वल हो उठा। उन्होंने कविराजा को अपने यहां आमंत्रित कर पुरस्कृत करना चाहा और इसके लिए उन्होंने मानसिंह से अनुनय-अनुरोध भी किया किन्तु इस अनन्य राज्य-भक्त ने विनम्र शब्दों में कहला भेजा- ‘मै महाराजा मानसिंह को छोड़कर और किसी से भी दान नहीं लूंगा। ‘ इससे स्पष्ट विदित होता है कि स्वर्ण-संचय कवि का लक्ष्य नहीं था।
बांकीदास एक स्वाभिमानी व्यक्ति थे। व्यर्थ की ‘जी हजूरी’ इन्हें नापसन्द थी। यह उल्लेखनीय है कि इन्हें जो कुछ पुरस्कार प्रदान किये गये, वे इनकी काव्य-प्रतिभा के सुनहरे प्रतीक हैं। इनके बांकेपन के अनेक दृष्टान्त मिलते हैं। एक बार जब मानसिंह नेत्र-रोग से पीड़ित हो गये तब दूषित वायु से बचने के लिए उन्होंने पर्दे के भीतर बैठकर बातचीत करने का ढंग अपनाया। जब कविराजा की आवश्यकता हुई और इन्हें बुलाने के लिए नौकर गया तब इन्होंने बीमार होने का बहाना कर दिया। इनके पुत्र ने महाराजा के कुपित होने की ओर संकेत किया किन्तु ये अपने निश्चय पर डटे रहे। जब नौकर के द्वारा महाराजा को इस रहस्य का पता चला तब उन्होंने कहलवाया- ‘मेरी आँख की पीड़ा भले ही बढ़ जाय, कोई चिन्ता की बात नहीं पर आपको बाहर बिठाकर बात नहीं करूंगा। ‘ यह सुनकर कवि का व्रत भंग हुआ था।
बांकीदास सत्यप्रिय थे अत: स्पष्ट वक्ता थे। अवसरानुसार राजघराने के अन्त: रहस्यों का भी भण्डाफोड़ कर देते किन्तु इसके पीछे सुधार की भावना रहती थी। मानसिंह ने अपने राजकुमार छत्रसिंह की शिक्षा का भार इन्हें सौंपा था किन्तु शुभलक्षण न देखकर इन्होंने पढ़ाना छोड़ दिया। जब महाराजा ने पढ़ाई बंद करने का कारण पूछा तब इन्होंने उत्तर दिया-‘यह कपूत है। इसको शिक्षा देकर मैं अपनी कीर्ति में बट्टा लगाना नहीं चाहता। ‘ कहना न होगा कि आगे चलकर यह कपूत पिता के लिए पीड़ा बन गया।
बांकीदास की निर्भीकता पर आश्चर्यचकित होकर रह जाना पड़ता है। ये वाह्याडम्बर के विरुद्ध थे और किसी के दबाव में आने वाले नहीं थे। एक बार अधिक वर्षा से सूरसागर जल से भर गया और चारों ओर हरियाली दिखाई देने लगी। ऐसी पावस ऋतु में मानसिंह अपनी रानी के साथ वहां की प्राकृतिक-सुषमा देखने के लिए गये। पीछे-पीछे कविराजा भी पालकी में बैठकर निकल पड़े। मार्ग में जनाना सवारी जा रही थी जिसके साथियों ने इन्हें ठहर जाने के लिए कहा किन्तु इन्होंने महाराजा के अप्रसन्न होने की चिंता न करते हुए कहा-‘ऐसी रानियां बहुत सी आती हैं। ‘ रानी ने इस ध्रष्टता का वर्णन महाराज से किया किन्तु उन्होंने इस बात को यों कह कर टाल दिया-हम यहाँ आमोद-प्रमोद के लिए आये हैं इसलिए जिस किसी को हमारे आनन्द में बाधा उपस्थित करना हो वही यहां अर्ज करे, नहीं तो जोधपुर लौटने के बाद जो कुछ अर्ज करना हो, करे। ‘ रानी भी अड़ी हुई थी। जोधपुर लौटने पर उसने पुन: इस घटना की ओर संकेत किया किन्तु महाराजा ने यही उत्तर दिया-यदि मैं चाहूँ तो आप जैसी बहुत सी रानियां ला सकता हूँ परन्तु ऐसा दूसरा कवि मुझको नहीं मिल सकता। इसलिए अब इस विषय में मौन धारण करना ही अच्छा होगा। ‘ यह सुनकर रानी की समस्त आशाओं पर पानी फिर गया और वह चुप हो गई। इस प्रसंग से राज्याश्रित चारण कवि की प्रतिष्ठा के गुरुत्व एवं आश्रयदाता राजपूत राजा की गुणग्राहकता का अनुमान सहज ही में लगाया जा सकता है।
बांकीदास अन्याय का खुलकर विरोध करते थे। जालोर के घेरे में आयस (कनफड़ानाथ) देवनाथ की भविष्यवाणी को सत्य हुआ देखकर मानसिंह उसे अपना गुरु मानकर जलंधरनाथ के नाथ सम्प्रदाय वालों का बड़ा हिमायती बन गया। जब दूसरी बार महाराजा को राज्याधिकार मिला तब कनफटे नाथों ने प्रजा पर अत्याचार करने आरम्भ किये। बांकीदास इसे कैसे सहन कर सकते थे? इन्होंने बिसहर के द्वारा राजा की निन्दा की। जब यह बात महाराजा के कानों तक पहुँची तब वे बिगड़ गये और इन्हें पकड़वाने का आदेश दे दिया। ये महाराजा के क्रूर स्वभाव से परिचित थे। बात को ताड़कर नौकर से तो हाजिर होने को कह दिया और स्वयं एक तेज ऊँट पर सवार होकर मेवाड़ की सीमा में पहुंच कर उदयपुर चले गये। महाराणा ने इनका बहुत आदर सत्कार किया। मानसिंह अपने कवि को खोकर बहुत पछताये। उन्हें इनका यों चले जाना विशेष रूप से अखरने लगा। निदान, अनुनय-विनय करने पर ये पुन: जोधपुर आ गये। बाँकीदास अब वृद्ध हो गये थे। यहीं ६२ वर्ष की अवस्था में इनका स्वर्गवास हो गया (१८३३ ई.) जिससे महाराजा को गहरी ठेस लगी। वे तड़प उठे-
सद्विद्या बहु साज, बांकी थी वांका वसु।
कर सूधी कवराज, आज कठीगो आशिया।।
विद्या कुळ विख्यात, राज काज हर रहस री।
वांका तो विण वात, किण आगळ मन री कहां।।
कविराजा बांकीदास की छोटी-बड़ी कुल मिलाकर २७ रचनायें उपलब्ध होती हैं- १. सूर-छत्तीसी २. सीह-छत्तीसी ३. वीर-विनोद ४. धवल-पच्चीसी ५. दातार-बावनी ६. नीति-मंजीरी ७. सुपह-छत्तीसी ८. वैसक-वार्ता ९ मावड़िया मिजाज १०. कृपण-दर्पण ११. मोह-मर्दन १२. चुगल-मुख चपेटिका १३. वैस-वार्ता १४. कुकवि-बत्तीसी १५. विदुर-बत्तीसी १६. भुरजाल-भूषण १७. गंगा लहरी १८. झुमाल नख शिख १९. जेहल जस जड़ाव २०. सिद्धराय-छत्तीसी २१. संतोष-बावनी २२. सुजस छत्तीसी २३. वचन विविक पच्चीसी २४. कायर बावनी २५. कृपण पच्चीसी २६. हमरोट-छत्तीसी और २७. स्फुट-संग्रह। इन समस्त रचनाओं को ना०प्र०सभा, काशी ने ३ भागों में प्रकाशित कर काव्य-प्रेमियों के लिए बड़ा उपकार किया है। इनके अतिरिक्त अप्रकाशित रचनाये हैं-१. कृष्ण चंद्रिका २. विरह चंद्रिका ३. चमत्कार चंद्रिका ४. चंद्र-दूषण-दर्पण ५. मान-यशो-मंडल ६. वैशाख-वार्ता-संग्रह (ऋतु वर्णन) ७. महाभारत का अनुवाद ८. प्रकीर्णक गीत ९. रस और अलंकार का एक ग्रंथ १०. वृत्त रत्नाकर भाषा (छंद ग्रंथ) पद्य के सदृश गद्य के क्षेत्र में भी इनकी सेवायें सराहनीय हैं। इनका सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ ‘ख्यात’ है जो पुरातत्व मंदिर जोधपुर द्वारा स्वामीजी के सम्पादन में प्रकाशित हुआ है (१९५६ इ.) इनकी उत्कट कवित्व-शक्ति ने प्रतियोगिता में हिन्दी के प्रसिद्ध कवि पद्माकर को भी पराभूत कर दिया था (१८१३ ई.) कविराजा अपने चारों और घटित होने वाली बातों के प्रति बड़े सजग रहते थे। इससे इनका ऐतिहासिक ज्ञान अगाध हो गया। इस सम्बंध में डा. ओझा का कथन हैं- ‘मेरे संग्रह में उसकी लिखी हुई अनुमानत: २८०० एतिहासिक बातों का संग्रह है जो अब तक अप्रकाशित है। वह संग्रह केवल राजपूताने के इतिहास के लिए ही उपयोगी नहीं, वरन् राजपूताना के बाहर के राज्यों तथा मुसलमानों के इतिहास की भी उन में कई बातें उल्लिखित हैं। ‘
५. ओपा आढ़ा:- ये आढ़ा शाखा में उत्पन्न हुए थे (१७७४ ई. के आस-पास) और सिरोही राज्यान्तर्गत पेशुआ ग्राम के निवासी थे। इनके पिता का नाम बख़तावरजी था। ये ‘दीन विलास’ के रचयिता सांइदान महाराज के प्रिय शिष्य थे। उन्हीं की कृपा से ये हरि भक्त बने और काव्य-रचना करने लगे। इनका रचना-काल सन १८०३ ई ० के आसपास ठहरता है। ये शान्त प्रकृति के व्यक्ति थे और बाहर बहुत कम आते-जाते थे। जब जोधपुर के महाराजा मानसिंह को इनकी विद्वत्ता एवं योग शास्त्र-ज्ञान का पता चला तब उन्होंने इन्हें अपने पास बुलाया और कई बातें पूछीं किन्तु ये उन्हें बड़ा मानकर दब गये और शंकाओं का समाधान नहीं कर पाए। गुड़ा (मालानी) के स्वतंत्र राणा दीपसिंह की इन पर विशेष-कृपा थी। एक बार जब ये उनके वहाँ गये तब खूब आदर सत्कार किया गया। इनका निधन सन १८४३ ई. के आस-पास हुआ था।
ओपा आढ़ा डिंगल के उच्च कोटि के विद्वान थे। इनका लिखा हुआ कोई ग्रन्थ तो उपलब्ध नहीं होता किन्तु भक्ति रस से परिपूर्ण छप्पय एवं गीत बहुत बड़ी संख्या में उपलब्ध होते हैं। राजस्थान में इनके नीति विषयक उद्गारों का विशेष आदर है।
६. नवलदान:- ये लालस शाखा में उत्पन्न हुए थे (१७६८ ई.) और मारवाड़ राज्यान्तर्गत शेरगढ़ परगने के ग्राम जुडिया के निवासी थे। दुर्भाग्य से ८ वर्ष की अल्पायु में इनके माता-पिता का स्वर्गवास हो गया अतः इन्हें अपने प्रारम्भिक जीवन में इधर-उधर ठोकरें खानी पड़ी। इनके पिता, ठाकुर रऊदान (पाटोदी) के कृपा-पात्र थे अतः उनके हाथों इनका पालन-पोषण हुआ। उन दिनों पाटोदी में सांईदीन नामक एक फ़कीर रहता था जो विद्वान एवं करामाती था। इन्होंने उसके संरक्षण में रहकर प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण की। साधू-सन्यासी होने के कारण सांईदीन घूमता रहता और ये उसके साथ रहते थे। एक दिन ये दोनों आवर ठिकाने में आये जहां ठाकुर अनाड़सिंह ने नवल अपने पास रख लिया। सांईदीन इन्हें नित्य नवीन विषय देते और ये उस पर कविता बनाया करते थे।
जब महाराजा मानसिंह (जोधपर) जालोर के किले में बंद थे तब १७ चारण उनकी सहायतार्थ वहां पहुंचे जिनमें एक नवलदान भी थे। जोधपुर का राज्य मिलने पर मानसिंह ने सब चारणों को जीविकायें प्रदान कीं किन्तु इन्हें कुछ नहीं मिला। मानसिंह इनकी कुरूपता को देखकर औघड कहते थे। कालान्तर में इनकी हीन दशा देखकर महाराजा ने नैखा गांव प्रदान किया (१८१७ ई.) नवलदान का देहान्त सन् १८३० ई. में हुआ। इनके दो पुत्र हुए-बड़ा राजूराम और छोटा पीरदान। इन्होंने स्फुट गीत एवं कुंडलियाँ लिखी हैं। इसके अतिरिक्त ‘आउवा का रूपक’ नाम ग्रन्थ भी मिलता है।
७. महादान:- ये महडू शाखा में उत्पन्न हुए थे (१७८१ ई.) और मेवाड़ राज्यान्तर्गत सरसिया गांव के रहने वाले थे। इन्हें महाराणा भीमसिंह (मेवाड़) का राज्याश्रय प्राप्त था। उस समय मानसिंह जोधपुर की गद्दी पर विराजमान थे। इन्होंने राठौड़ों के निन्दात्मक छंद बनाये थे इसलिए मारवाड़ नहीं आते थे। मानसिंह के आग्रह करने पर ये विशेष शर्तों के साथ मारवाड़ आये थे। मार्ग में बड़ली के ठाकुर लालसिंह ने इनका स्वागत किया था। इन्होंने कहा-आपने मेरा बहुत स्वागत किया पर मैं आपकी प्रशंसा तभी करूँगा जब आप कोई बहादुरी का कार्य करेंगे। जब लालसिंह मराठों के साथ युद्ध में मारे गये तब इन्होंने उनकी वीरता पर गीत लिखे। इनकी कवित्व शक्ति पर प्रसन्न होकर मानसिंह ने सोढ़ावास नामक गांव प्रदान किया जो आगे चलकर महाराजा सरदारसिंह के समय में जब्त कर दिया गया। ये मानसिंह के समय में ही चल बसे। इस प्रकार इनका लिखा हुआ कोई ग्रंथ तो उपलब्ध नहीं होता किन्तु फुटकर काव्य बहुत मिलता है।
८. नाथूराम:- ये लालस शाखा में उत्पन्न हुए थे। (१७८० ई. के आस पास) और मारवाड़ राज्यान्तर्गत शेरगढ़ परगने के गाँव जुडिया के निवासी थे। इनके पिता का नाम शम्भूदान था। इनका प्रारम्भिक विद्याध्ययन रामदान लालस के पास हुआ था। रामदान के कोई संतान नहीं थी अत: उन्होंने इन्हैं अपना दत्तक पुत्र बना लिया। ये शिव के परम उपासक थे। धार्मिक वृत्ति होने के कारण ये सांसारिक विषय वासनाओं से सदैव दूर रहते थे। इन्होंने सदैव सत्य बोलने, व्यभिचार न करने, दुखी व गरीब को न सताने, मादक वस्तुओं को न छूने तथा मांस-मदिरा सेवन न करने की प्रतिज्ञा की थी। अपने पूर्वजों के आदर्शं को बनाये रखने के लिए इनके वंशज अब तक मांस-मदिरा का सेवन नहीँ करते हैं।
एक समय इनके पिता रामदान एवं जुडिया गाँव के भाई आवड़दान में भूमि के लिए झगड़ा हो गया। यह इतना बढ़ा कि दोनों को महाराजा की शरण में आना पड़ा। मानसिंह ने आवड़दान से पूछा–बताओ, अन्याय किसका है? आवड़दान ने उत्तर दिया-“मैं क्या कहूँ, इनका पुत्र नाथूराम जो कह दे वह मुझे स्वीकार है।” मानसिंह ने फिर नाथूराम को बुलाया और पूछताछ की। नाथूराम ने सत्यतापूर्वक कहा कि भूमि का स्वामी आवड़दान है फिर पिताजी एवं आप श्रीमान् जैसा उचित समझें, वैसा करें। इस पर महाराजा साहब बहुत प्रसन्न हुए और इन्हें सिंघासनी नामक गांव प्रदान किया। इनके एक पुत्र हुआ, जिसका नाम था-चालकदान। इन्होंने किसी ग्रन्थ की रचना नहीं की किन्तु स्फुट छंद पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते हैं।
९. लच्छीराम:- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए थे और बीकानेर राज्यान्तर्गत बीकासर ग्राम के निवासी थे। इनके समय में जोधपुर की राज्य-गद्दी पर महाराजा मानसिंह विराजमान थे। ये महाराजा के गुरु नाथों का दिया हुआ दान नहीं लेते थे। एक बार जोधपुर के नाथों ने लोगों को तंग करना आरम्भ किया। यह देखकर इन्होंने उनकी निन्दा की अतः नाथ रुष्ट हो गये और इन्हें बुलाकर कहा-हम जीविका देते हैं, बुराई का वर्णन करना त्याग दो। जब ये नहीं माने तो उन्होंने मानसिंह को बहका कर इन्हें निकलवा दिया जिससे ये उदयपुर के महाराणा भीमसिंह के पास चले गये और बहुत दिनों तक वहीं रहे। लच्छीराम के लिखे हुए स्फुट छंद उपलब्ध होते हैं।
१०. कृपाराम:- ये खिड़िया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत मेड़ता परगने के गांव खराड़ी के निवासी थे। इनके पिता का नाम जगराम था। बाल्यावस्था में ये जोधपुर के महाराजा विजयसिंह के समकालीन थे। एक बार जब ये लड़के ही थे तब अपने ननिहाल गये हुए थे। वहां कोयला लेकर गांव के प्रत्येक घर पर चिन्ह बना दिये। यह देखकर एक व्रद्ध पुरुष बहुत क्रुद्ध हुआ और व्यंग्य करता हुआ बरस पड़ा-‘जब इतना लकीर खींचने का शौक है तब कागज पर लकीर खींचो ताकि दुनिया में नाम रहे। ‘ बाल्यकाल होने पर भी यह बात इनके ह्रदय में कील की भांति चुभ गई। फिर नाना के घर से कुचामण के ठाकुर जालिमसिंह मेड़तिया के पास पहुँचे और प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण करने लगे। शनैः-शनैः काव्य के प्रति इनका अनुराग बढता गया।
कृपाराम बड़े होने पर सीकर के रावराजा लक्ष्मणसिंह के पास चले गये और जीवन पर्यन्त वहीं रहे। लक्ष्मणसिंह ने इन्हें ढाणी प्रदान की जिसे ‘कृपाराम री ढाणी’ कहा जाता है। एक समय कृपाराम अपने रावराजा के साथ पुष्कर आये जहां रावराजा ने इनसे पूछा कि मै कौनसा कार्य करूँ जिससे मेरा नाम अमर हो जाय। इन्होंने उत्तर दिया-गरीबों को अन्न-रोटी देने से। रावराजा ने ऐसा ही किया और सचमुच उस समय उनका नाम एक छोर से दूसरे छोर तक फैल गया। रावराजा ने प्रसन्न होकर इनको दो गांव प्रदान किये-१ भड़कोसनी (कृपाराम की ढाणी) और २ लच्छीपुरा।
कहते हैं कि कृपाराम ने ‘चालसनेसी’ नामक एक नाटक बनाया और एक अलंकार-ग्रंथ भी तैयार किया किन्तु खेद है कि आज इन ग्रन्थों का कहीं पता नहीं चलता। इनके नाम से कतिपय नीति तथा उपदेश विषयक दोहे-सोरठे अवश्य उपलब्ध होते हैं। ये सोरठे राजस्थान में ‘राजिया रा सोरठा’ के नाम से प्रचलित हैं। राजिया इनके नौकर का नाम है। उसी को सम्बोधित करके ये सोरठे रचे गये हैं। इनकी संख्या १७५ के आसपास है।
११. बुद्धदान (बुधजी):- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे (१७८४ ई.) और मारवाड़ राज्यान्तर्गत पचपदरा परगने के गाँव भांडियावास के निवासी थे। इन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा अपने पिता से ग्रहण की। ये कविराजा बांकीदास के भाई थे और उनसे ईर्ष्या-द्वेष रखते थे। इनका कहना था कि मुझे पृथक पट्टे की कोई आवश्यकता नहीं। जो बांकीदास को मिले उसमें आधा भाग मेरा रहे। महाराजा मानसिंह इन्हें बहुत समझाया करते थे परन्तु ये उनसे भी अप्रसन्न रहते थे और नाथों की निन्दा किया करते थे। महाराजा इनको बालकनाथ के नाम से सम्बोधित करते थे।
एक बार पावस-ऋतु में इनको बाळा (नाहरू) रोग हो गया जिससे ये अत्यन्त दुःखी रहते थे। एक मयाराम दर्जी ने इनकी खूब सेवा की जिससे प्रसन्न होकर इन्होंने उसके नाम पर ‘मयाराम दर्जी री वात’ बनाई। इसके अतिरिक्त ‘दवावैत मानसिंह री’, ‘देवनाथजी रा कवित्त’, ‘माखा रासो, ‘ ‘दवावैत हड़मानजी री’ एवं ‘भगतमाल’ उल्लेखनीय रचनायें हैं। इनके बनाये हुए बहुत से फुटकर गीत भी मिलते हैं। इनका स्वभाव बड़ा उद्धत था। इनको कोई गांव नहीं मिला। इनका देहान्त सन् १८६३ ई. के आसपास हुआ था।
१२. मायाराम:- ये रतनू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत घड़ोई ग्राम के निवासी थे। इनके पिता का नाम लादूराम था। ये महाराजा मानसिंह के साथ जालोर के किले में रहे थे। इनको अपने जीवन-काल में बहुत दिनों तक कुछ नहीं मिला। इनके दादा वीरभांण रतनू पहले ही पर्याप्त कीर्ति अर्जित कर चुके थे। एक बार महाराजा उनका ‘राजरूपक’ ग्रन्थ पढ रहे थे। उन्होंने पूछताछ की कि इसके लिए ग्रंथकर्ता को क्या पुरस्कार मिला? जब उन्हें पता चला कि कवि को कोई पुरस्कार नहीं मिला तब उन्होंने मायाराम को बुलाया और कटारड़ा नामक गांव प्रदान किया। इनके लिखे हुए कतिपय ग्रन्थ कहे जाते हैं पर मिलते नहीं। फुटकर कविता अवश्य उपलब्ध होती है।
१३. आवड़दान:- ये लालस शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत शेरगढ़ परगने के जुडिया ग्राम के निवासी थे। इनके पिता का नाम हररूप था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा का प्रबन्ध पिता की देख-रेख में गांव में हुआ था। इनके रचना-काल के समय महाराजा मानसिंह राज्य-सिंहासन पर विराजमान थे। दूसरे भाई इनसे ईर्ष्या-द्वेष रखते थे और वे सब महाराजा के कृपा-पात्र थे। अतः ये मानसिंह के कृपा-पात्र नहीं बन पाये।
आवड़दान के समय में जोगीदास डाकू का आतंक छाया हुआ था। वह जोधपुर, जैसलमेर एवं बीकानेर राज्यों में लूट-खसोट किया करता था। उसने इन्हें अपने दल में मिलाना चाहा किन्तु इन्होंने विरोध करते हुए कहा-‘मैं लूट खसोट की प्रवृत्ति के विरुद्ध हूँ। हां, जब कभी तुम कोई वीरता का कार्य करोगे तब मुक्त कण्ठ से उसकी प्रशंसा करूंगा। यह सुनकर जोगीदास फलोदी नगर में शांत होकर बैठ गया। उसे वहाँ देखकर तीनों राज्यों की सेनाओं ने आक्रमण कर दिया। जोगीदास ने वीरतापूर्वक सामना किया और युद्ध करते-करते वीरगति प्राप्त की। वचनानुसार आवड़दान ने उसे गीत बनाकर अमरत्व प्रदान कर दिया।
जुडिया के कवियों में आवड़दान का स्थान सर्वोपरि हैं। ये कुछ कठोर स्वभाव के अवश्य थे और अपनी विद्वता का घमण्ड भी रखते थे। इनके कोई पुत्र नहीं हुआ। इनका देहान्त सन् १८३८ ई. में हुआ था। इन्होंने १५-२० ग्रन्थ बनाये पर उनका कोई पारखी नहीं मिला। एक ‘मुक्ति-प्रकाश’ के अतिरिक्त शेष सभी नाम अज्ञात हैं।
१४. मानजी:- ये लालस शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत शेरगढ़ परगने के जुडिया गांव के निवासी थे। महाराजा मानसिंह इनके समकालीन थे। इनके पिता का नाम विहारीदान था। इन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा अपने पिता से ग्रहण की। प्रौढावस्था में ये भाद्रार्जुन के ठाकुर बख्तावरसिंह के कृपा-पात्र बने। धीरे-धीरे अपने सद्गुणों के कारण ये ठाकुर साहब के ऐसे विश्वासपात्र बन गये कि उन्होंने ठिकाने का सारा भार इन्हीं को सौंप दिया। ठाकुर साहब बहुधा कहा करते थे-
दुख में धीरज देवणा, सुख में छाती सेक।
म्हारे लालस मानडो, आधा लकड़ी हेक।।
कालान्तर में ठाकुर साहब के द्वारा ये महाराजा मानसिंह के भी कृपापात्र बन गये। महाराजा ने इनकी कवित्व-शक्ति पर प्रसन्न होकर बाली परगने का गांव सादड़ी प्रदान किया जो कवि के परलोकवासी होने पर जब्त कर लिया गया क्योंकि इनके कोई सन्तान नहीं थी। ये सन् १८६७ ई. तक जीवित रहे और फुटकर काव्य-रचना के द्वारा क्षत्रिय जाति की सेवा करते रहे।
१५. सायबदान:- ये खिड़िया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्य के कांवलिया गांव के निवासी थे। ये जन्म से ही अन्धे थे किन्तु स्मरणशक्ति तीव्र होने के कारण काव्य-रचना में बड़े प्रवीण थे। ये महाराजा मानसिंह के समकालीन एवं उनके कृपा-पात्र थे। जालोर किले के घेरे में महाराजा ने डिंगल का अभ्यास इनसे किया था। महाराजा भीमसिंह के निधन के पश्चात् जब जोधपुर का राज्य मानसिंह को प्राप्त हो गया तब ये भी उनके साथ जोधपुर चले आये।
एक बार पोकरण ठाकुर सवाईसिंह जयपुर-नरेश जगतसिंह को ससैन्य जोधपुर पर चढ़ाकर ले आये और घेरा डाल दिया तब सायबदान मानसिंह का साथ छोड़कर भाग गये। इस घटना से महाराजा अप्रसन्न हो गये। जब युद्ध में मानसिंह की विजय हुई तब ये ठाकुर बख्तावरसिंह (आउवा) के पास गये और अपना अपराध क्षमा कराने के लिए प्रार्थना की। ठाकुर साहब ने महाराजा के समक्ष क्षमा-दान दिलाते हुए कहा-‘नहचै रह्यौ न मन ठिकाने। ‘ सायबदान के लिए यह कथन असह्य हुआ जिससे ये जोधपुर छोड़कर ईडर के तत्कालीन महाराजा गम्भीरसिंह के पास चले गये किन्तु कालान्तर में मानसिंह ने इन्हें अपने पास पुनः बुला लिया। इन्हें भवाळ नामक गांव प्रदान किया गया था।
सायबदान स्वतन्त्र प्रकृति के व्यक्ति थे। उनकी वाणी निर्भीक थी। जब मानसिंह ने षड़यन्त्र रचकर मीरखां नवाब द्वारा पोकरण के ठाकुर सवाई सिंह को धोखे से मरवा डाला तब इन्होंने एक ऐसा गीत सुनाया कि महाराजा ने इन्हें पुन: निर्वासित कर दिया और ये पुन: गम्भीरसिंह (ईडर) के पास चले गये। यहां रहकर इन्होंने उनकी प्रशंसा में ३०० कवित्त लिखे।
१६. इन्दा:- ये रतनू शाखा में उत्पन्न हुए थे। १७८६ ई.) और मारवाड़ राज्यान्तर्गत विणलिया गाँव के निवासी थे। इनके पिता का नाम जोरा था। जब मानसिंह जालोर के किले में बन्द थे तब ये भी उनके साथ थे। इन्होंने महाराजा से अपना पुराना गांव बासनी मांगा जो इन्हें दे दिया गया किन्तु इनके वंश में कोई जीवित न होने से जब्त कर लिया गया। इनका देहान्त सन् १८४० ई. के आसपास हुआ था। इनके लिखे हुए स्फुट गीत उपलब्ध होते हैं।
१७. कोजूराम:- ये रतनू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत विणलिया ग्राम के निवासी थे। महाराजा मानसिंह इनके समकालीन थे। ये डिंगल-पिंगल दोनों में काव्य-रचना करते थे। इनके फुटकर गीत मिलते हैं।
१८. खोड़ीदान:- ये आढ़ा शाखा में उत्पन्न हुए थे और सिरोही राज्यान्तर्गत पेसुआ ग्राम के निवासी थे। इनके बनाये हुए फुटकर गीत उपलब्ध होते हैं।
१९. भोपालदान:- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत नागोर परगने के गाँव भदोरा के निवासी थे। इनके समय में जोधपुर की राज्य-गद्दी पर महाराजा मानसिंह विराजमान थे। इनकी लिखी हुई फुटकर कवितायें मिलती हैं।
२०. जवानजी:- ये आढ़ा शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत पांचेटिया ग्राम के निवासी थे। ये महाराजा मानसिंह के समकालीन थे। इनके लिखे हुए फुटकर गीत मिलते है।
२१. चीमनजी:- ये आढ़ा शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत पांचेटिया ग्राम के निवासी थे। इनकी कविता अधिक मात्रा में उपलब्ध नहीं होती है।
२२. चंडीदान:- ये मिश्रण शाखा में उत्पन्न हुए थे (१७९१ ई.) और बूंदी के निवासी थे। इनके पिता का नाम बदनजी था जो बूंदी-नरेश के राज्याश्रित कवि थे। ये संस्कृत, पिंगल एवं डिंगल के उच्चकोटि के विद्वान थे। तत्कालीन नरेश रामसिंहजी पर इनका बड़ा प्रभाव था। ये आखेट के प्रेमी थे और अपने जमाने में बूंदी राज्य के शिकारियों में सर्वोपरि माने जाते थे। इनके विषय में यह दोहा उल्लेखनीय है-
बदन सुकवि सुत कवि मुकुट अमर गिरा मतिमान।
पिंगल डिंगल पटु भये धुरन्धर चंडीदान।।
चंडीदान के लिखे हुए ५ ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं-सारसागर, बलविग्रह, (प्रकाशित), वंशाभरण, तीजतरंग और विरुदप्रकाश। इनका देहावसान सन् १८३५ ई. में हुआ था। इनके अन्तिम ग्रन्थ ‘विरुदप्रकाश’ पर प्रसन्न होकर बूंदी के महाराव राजा विष्णुसिंहजी ने इन्हें होसूदा नामक गाँव, लाखपसाव एवं कविराजा का उपटंक प्रदान किया।
२३. मोहबतसिंह:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे (१७९४ ई.) और मारवाड़ राज्यान्तर्गत नागोर परगने के गांव इन्दोकली के निवासी थे। इनके पिता का नाम किसनसिंहजी था। ये सिरीयारी ठिकाने के मंत्री रह चुके हैं। इनकी लिखी हुई फुटकर कवितायें बहुत मिलती हैं। इनका स्वर्गवास सन १८६९ ई. में हुआ था।
२४. अनजी नारजी:- ये आढ़ा शाखा में उत्पन्न हुए थे और सिरोही राज्यान्तर्गत पेसुआ गांव के निवासी थे। ये महाराव शिवसिंह के समकालीन थे और उनके पास आया-जाया करते थे। इनके बनाये हुए फुटकर गीत उपलब्ध होते हैं।
२५. शंकरदान:- ये आढ़ा शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत पांचेटिया गाँव के निवासी थे। इनके पिता का नाम शक्तिदान था। इन्हे सिरोही राज्य में अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त थी। इन्होंने दो रचनायें लिखी है-रघुवंश एवं सिरोही का इतिहास। इसके अतिरिक्त फुटकर छंद भी उपलब्ध होते हैं जिनमें शवरी और द्रौपदी के दोहे प्रसिद्ध हैं।
२६, गोपालदान:- ये दधवाडिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ राज्यान्तर्गत खेमपुर गांव के निवासी थे। मारवाड़ राज्य में राजकियावास नामक गांव इनके पूर्वजों को मिला था। इनकी कविता अच्छे स्तर की है इसलिए महाराजा मानसिंह के कृपापात्रों में से थे।
२७. शक्तिदान:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत शिव तहसील के ग्राम बाळेवा के निवासी थे। इनके समय में महाराजा मानसिंह (सं. १८०३-४३ ई.) जोधपुर की राज्य-गद्दी पर विराजमान थे। इन्होंने स्फुट काव्य-रचना की है।
२८. रायसिंह:- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए थे (१७९३ ई.) और मारवाड़ राज्यान्तर्गत बाली परगने के गांव मृगेसर के निवासी थे। यह गांव इनके पूर्वजों को सांसण में मिला था जिसमें इनका भी भाग था। इनके पिता का नाम शक्तिदान था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा का पता नहीं चलता किन्तु विवाह सिरोही में हुआ था (१८१० ई.)। आरम्भ से ही इनकी रुचि भक्ति की ओर थी अत: घर में मन नहीं लगता था। ईश्वर-भक्त होने के साथ-साथ ये साहसी एवं शूरवीर भी थे। इनका गांव अरावली की तलहटी में होने से मेणा लोग चोरियां बहुत करते थे। जब वे मृगेसर से गायें चुराकर ले गये तब दीपा चौधरी ने पीछा किया। रात्रि में मुठभेड़ हुई। बंदूक की गोली लगने से दीपा तो वहीं काम आया किन्तु इन्होंने अकेले तीर-कमांण लेकर पचास मेणों को परास्त किया और स्वयं भी तीरों से बिद्ध होकर भूमि पर गिर पड़े। मेणे इन्हे मरा हुआ जानकर भाग गये। दूसरे दिन घर लाकर इनकी चिकित्सा की गई किन्तु ये चलने योग्य नहीं रहे। उस समय सिंधिया-मराठा की सेना सेवाड़ी गांव के पास ठहरी हुई थी और उनके घुड़सवारों ने इनका गाँव लूटकर आग लगा दी थी। सब लोग भय के मारे भाग गये पर इनके मकान के आगे एक लोवड़ी वाली बुढ़िया को देखकर अफसर ने इनका मकान जलाने की आज्ञा नहीं दी। कहते हैं, आवड़ देवी की कृपा से ये बच गये।
रायसिंह के विषय में एक-एक से बढ़कर रोचक प्रसंग उपलव्ध हौते हैं जिनसे इनका चमत्कारी होना सिद्ध होता है। कोई आश्चर्य नहीं, इन्हें अलौकिक सिद्धियां प्राप्त हों। एक दिन ये पड़ोस के गांव लुणावा में सौदा लेने गये। मार्ग में लक्ष्मीनारायण के मंदिर में अयोध्या से आया हुआ एक अमलदार खाखी ठहरा हुआ था। वह नित्य चार तोला अफीम लेता था और ठाकुरजी के पैर के अंगूठे को डोरी से बांधकर कहता–‘सांवरिया अफीम ला’ तब भगवान अमल देते। उस दिन ऐसा करने पर आकाशवाणी हुई कि मेरा भक्त रायसिंह आ रहा है, उसकी कटारी के म्यान में ८ तोला अमल है, उसमें से अपनी खुराक लेकर चार तोला रायसिंह के लिए रहने देना। थोड़ी देर में ये अपने भाई सहित वहां आ पहुँचे। साधु ने नाम-पता पूछकर भगवान का संदेश दिया जिसे सुनकर इन्होंने कहा- ‘मेरे पास तो अफीम है नहीं। यह रही कटारी, आप स्वयं देख लीजिए।’ साधु के देखने पर आठ तोला अमल निकल आया। भगवान की यह लीला देखकर इन्होंने अपने भाई से कहा- ‘मैं तो अब यहीं खाखीजी को गुरु बनाकर उनके चरणों में बैठकर भगवान का भजन करूँगा। घर नहीं चलूंगा तुम जाओ।’ इतना ही नहीं गुरु ने जो मंत्र बताया उसका जप करने लगे और उसी दिन से अमल लेने तथा हुक्का पीने लगे। थोड़े दिन बाद खाखी तो चला गया पर ये उसी मंदिर में भगवान का भजन करते रहे। एक दिन वहां खाखियों की जमात आई। रायसिंह को मंदिर में हुक्का पीते देखकर बाबा इन्हें धक्का मारकर बाहर निकालने लगे। इन्होंने कहा-‘हुक्का तो भगवान भी पीते हैं।’ इस पर खाखी बिगड़ गया और कहा- ‘ठाकुर को हुक्का पिलाकर दिखा दे नहीं तो तुझे पीटेंगे।’ फिर हुक्का भरकर भगवान के आगे रखा गया। वह गुड-गुड बोलने लगा और मूर्ति के नाक में से धुआं निकलता दिखाई दिया। यह देखकर खाखी इनके पैर पड़ा और क्षमा मांगी।
एक बार रायसिंह को बहिन के पुत्र होने पर बुलाया गया किन्तु वह इनके पहुँचने के पूर्व ही चल बसी। अपने भाणजों को रोता हुआ देखकर इन्हें करुणा आई। उस समय इन्होंने ईश्वर से प्रार्थना की कि मेरी आयु के बारह वर्ष देकर बहिन को जीवित कर दीजिये। कहते हैं, भगवद् कृपा से बहिन जीवित हो गई। सारे गांव वाले इनकी भक्ति का यह दृश्य देखकर आश्चर्यचकित हो गये।
एक बार रायसिंह रूपनगर के ठाकुर नवलसिंह का निमन्त्रण पाकर उनके यहां गये। यहां इनके पैर में बाळा निकल आया। इस समय ठिकाने के दरोगा मोती और उसकी पत्नी ने इनकी बहुत सेवा की जिससे प्रसन्न होकर इन्होंने दोहे लिखकर उसे अमर कर दिया।
रायसिंह जीवन के अन्तिम समय में त्यागी हो गये और विरक्त होकर बैठे रहते थे। इनका देहान्त ६८ वर्ष की अवस्था में सन् १८६१ ई. में हुआ। इनके सम्बंध में और भी अनेक जनश्रुतियां प्रवाहमान हैं जिनमें एक मानिया नामक हरिभक्त के पुत्र तथा नत्थूराम नामक व्यक्ति की गाय को जीवित करना बताया जाता है। कहा नहीं जा सकता, इन घटनाओं में कहां तक सत्यता है? रायसिंह विरचित ‘मोतिया रा दूहा’ नामक रचना में २६० दोहे उपलब्ध होते हैं। इसके अतिरिक्त फुटकर काव्य भी मिलता है।
२९ सालूदान:- ये कविया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत शेरगढ़ परगने के गाँव बिराई के निवासी थे। यह गाँव करीब ७०० वर्ष पूर्व बसा हुआ है और यहाँ पर कई कवि उत्पन्न हुए जिनमें इनके जैसा प्रतिभासम्पन्न कवि और कोई नहीं हुआ। ये महाराजा मानसिंह के समकालीन थे। मानसिंह के कृपा-पात्र श्री नवलदान इनके फूफा थे। इनके पिता-पितामह का नाम क्रमश: भानीदास एवं अणंदाजी था। इनके एक ही भाई था। बाल्यकाल से ही इनमें कविता का चमत्कार विद्यमान था। इनके पिता का देहान्त इनके जन्म से ५-६ मास पूर्व ही हो गया था। कहते हैं कि इनके पिता विवाह करने के दो-ढाई महीने पश्चात चल बसे। जब उनकी अर्थी को झूंपे से बाहर निकाला गया तब कफन का एक छोर किवाड़ से ऐसा अटका कि लोग विस्मय में पड़ गये। जो लोग उनके निःसंतान मर जाने पर वंश समाप्त हो जाने की चिन्ताजनक बातें कर रहे थे उनको सम्बोधित करते हुए एक शकुनी व्यक्ति ने कहा कि इस घर का द्वार सदैव खुला रहेगा। शकुन-शास्त्री ने कहा कि इस घर की बहू के गर्भ से ऐसा शिशु प्रकट होगा जो बड़ा ही विलक्षण बुद्धि का होगा। आगे चलकर यह बात सत्य निकली और सालू का जन्म हुआ। इससे प्रसन्नता की लहर उमड़ पड़ी और खूब आनन्द मनाया गया।
सालू के तीन पुत्र हुए। इनके मौसेरे भाई थे-जालजी, जो कसूंबला ग्राम (मालानी) के रहने वाले थे और अच्छी कविता करते थे। बाल्यावस्था में ये अपनी मौसी के यहां रहे और वहीं पर कविता का अभ्यास करने लगे। जब ये बड़े हुए तब इनकी प्रशंसा इधर-उधर फैलने लगी। तत्कालीन गड़ानगर (मालानी) के ठाकुर ने इन्हें बुलाकर अपने पास बड़े सम्मान से रखा। वहाँ पर इनका इतना सम्मान हुआ कि इनकी काव्य-प्रतिभा, वाक्-पटुता एवं सदाचार पर मोहित होकर ठाकुर साहब ने प्रसन्न होकर इन्हें अयाचक बना दिया।
कहते हैं कि महाराजा मानसिंह की दानशीलता एवं गुण-ग्राहकता से प्रभावित होकर सालू ने एक गीत लिखकर नवलदानजी को दिया। जब नवलदानजी ने वह गीत महाराजा को सुनाया तब उन्होंने कहा कि मै उस विभूतिवान पुरुष से मिलना चाहता हूँ। इस प्रकार जब इन्हें मिलने के लिए बुलाया गया तब इन्होंने क्षमा माँगते हुए यह कहकर मिलना अस्वीकार कर दिया कि मैं गड़ानगर का अयाची हो चुका हूँ, अन्य जगह अपना हाथ नहीं पसारूंगा।
सालू बड़े प्रभावशाली व्यक्ति थे। इनके समय में एक बार पोकरण ठाकुर सवाईसिंहजी के कुछ व्यक्तियों ने डकैतों का पीछा करते हुए पदचिह्न लोप होने के आरोप में बिराई के चारणों को तंग करना आरम्भ किया। इस बात का पता लगने पर इन्होंने एक गीत ठाकुर को सुनाया जिसे सुनकर तत्काल शांति हो गई। गीत की प्रथम पंक्ति इस प्रकार है- ‘चूथै धन चोर डंडीजै चारण। ‘ इसी प्रकार एक बार बिराई के पास में पूर्व की ओर स्थित ठिकाना खुडियाला के तत्कालीन ठाकुर जुगतसिंह ने बिराई के लोगों को खुडियाला के पास से कुओं पर मिट्टी लाने से रोक दिया और कहा कि ठिकाने के कोट के लिए एक-एक गाड़ी पत्थर डालकर कोई भी व्यक्ति मिट्टी ले जा सकता है। लोग खेती में लगे हुए थे अत: कोई चारा न देखकर उन्होंने इन्हें बुलवाया। ये तुरन्त आये और सारी बात सुनकर ठाकुर के पास जाकर बोले- ‘ठाकुर साहब कोट के लिए जालीदार पाषाण नजर करूँ या सादा ही। ‘ इसे सुनकर ठाकुर अपनी कुकीर्ति के भय को समझ गये और क्षमा माँगते हुए इनका बड़ा सम्मान किया तथा किसानों से खटपट करना बंद कर दिया।
सालू की जन्म एवं निधन तिथि अज्ञात है क्योंकि इनके गाँव में कोई अवशेष नहीं रह गया है तथा वंश में भी कोई जीवित नहीं है। संदेह नहीं कि ये डिंगल के एक महान कवि थे और अपने समय में पर्याप्त ख्याति प्राप्त कर चुके थे। इनकी लिखी हुई फुटकर रचनायें प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती हैं।
३०. किसना:- ये आढ़ा शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत पांचेटिया ग्राम के निवासी थे। राजस्थान के सुप्रसिद्ध राष्ट्रीय वीर कवि दुरसा आढ़ा इनके पूर्वज थे। ये उनकी वंश-परम्परा की आठवीं पीढ़ी में प्रकट हुए थे। इनके पिता का नाम दूल्हाजी था। दूल्हाजी के छ: पुत्र हुए जिनमें ये तीसरे थे। इनकी नसों में पूर्वजों का पुण्य रक्त प्रवाहित हो रहा था अतः आरम्भ से ही इनकी रुचि काव्य और इतिहास की ओर जा लगी। धीरे-धीरे इन्होंने संस्कृत, प्राकृत, ब्रज एवं राजस्थानी भाषाओं का पर्याप्त ज्ञान अर्जित कर लिया और इनके प्रकाण्ड पंडित बन गये। साथ ही लक्षण-ग्रन्थों का अध्ययन कर इन्होंने विभिन्न काव्य-शैलियों से आत्मीय परिचय प्राप्त किया और फुटकर छंद-रचना में उनका सफल प्रयोग करने लगे।
किसनाजी की मेधा-शक्ति अत्यन्त तीव्र थी। इनकी विशिष्ट काव्य-प्रतिभा एव प्रौढ़ परिज्ञान ने मेवाड़ के तत्कालीन महाराणा भीमसिंह को अपनी ओर आकर्षित किया। अपने इन्हीं गुणों के कारण ये उनके कृपा-पात्र बन गये और राज्याश्रय ग्रहण कर उनकी सेवा करने लगे। महाराणा ने इनकी कवित्व-शक्ति पर प्रसन्न होकर इन्हें सीसोदा नामक गांव से पुरस्कृत किया जो इनके वंशजों के अधिकार में रहा। इनकी साहित्य-सेवा का अनुमान केवल इस बात से ही लगाया जा सकता है कि जब कर्नल टॉड अपना राजस्थान का इतिहास लिख रहे थे तब इन्होंने उन्हें पर्याप्त ऐतिहासिक सामग्री प्रदान की थी।
किसना जी द्वारा रचे हुए दो ग्रंथ उपलब्ध होते हैं-‘भीमविलास’ एवं ‘रघुवरजस प्रकास। ‘भीमविलास’ महाराणा भीमसिंह की आज्ञा पाकर लिखा गया था (१८२२ ई)। इसके पश्चात् ये ‘रघुवरजस प्रकास’ नामक एक स्वतंत्र ग्रंथ लिखने में जुट गये जिसमें इनका अध्ययन बड़ा उपयोगी सिद्ध हुआ और उसे एक वर्ष की अवधि में समाप्त कर दिया (१८२४ ई.)। हर्ष का विषय है कि यह ग्रंथ राजस्थान पुरातत्वान्वेषण मंदिर, जोधपुर के द्वारा अब प्रकाशित हो चुका है (१९६० ई.) इन दो मुख्य ग्रंथों के अतिरिक्त कवि के लिखे हुए फुटकर गीत तो इतने अधिक उपलब्ध होते हैं कि जिनकी कोई संख्या निश्चित नहीं की जा सकती।
३१. चमनजी:- ये दधवाडिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ राज्यान्तर्गत खेमपुर गाँव के निवासी थे। इनके समय में महाराणा जवानसिंह राज्यगद्दी पर विराजमान थे। इनका फुटकर काव्य मिलता है।
३२. हरूदान:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और जयपुर के निवासी थे। इनके समय में श्री सवाई रामसिंह (द्वितीय) राज्य-सिंहासन पर विराजमान थे। इन्होंने फुटकर काव्य-रचना की है।
३३ भोमा:- ये बीठू शाखा में उत्पन्न हुए थे और बीकानेर राज्य के निवासी थे। इनका रचना-काल सन् १८२३ ई. के आसपास बताया जाता है। इन्हें राज्याश्रय प्राप्त था। इन्होंने छोटे-छोटे तीन-चार ग्रन्थ बनाये हैं, जो बीकानेर के राज्य-पुस्तकालय में विद्यमान हैं।
३४. रामनाथ:- ये कविया शाखा में उत्पन्न हुए थे (१८०८ ई. के आस-पास) और चोखा का बास (सीकर) के निवासी थे। इनके पिता का नाम ज्ञानजी था जो बड़े वीर थे। ये उनके तीसरे पुत्र थे। इन्हें आमास (खंडेला) में एक कोठी मिली थी। इनके छोटे भाई का नाम शिवनाथ था जो घर छोड़कर अज्ञात स्थान को चले गये थे। एक दिन किसी त्यौहार के अवसर पर सब भाई-बहन साथ बैठकर भोजन कर रहे थे। माता को स्वभावतः शिवनाथ का स्मरण हो आया और आँखे डबडबा गई। यह देखकर इन्होंने अपने छोटे भाई को ढूंढने की प्रतिज्ञा की और तत्काल घर से चल पड़े। ढूंढते-ढूंढते ये महाराज बलवंतसिंहजी तिजारे के पास पहुँचे, जहां संयोग से शिवनाथ भी मिल गये। विद्वता एवं सभा-चातुरी पर मुग्ध होकर तिजाराधिपति ने इन्हें भी अपने पास रख लिया। जब छ: महीने बाद इन्होंने वहां आने का उद्देश्य बताया और छोटे भाई को घर ले जाने की इच्छा व्यक्त की तब महाराज ने बड़ी कठिनता से एक सप्ताह की छुट्टी दी। बिदाई के समय लाखपसाव, एक हाथी, एक खड़्ग एवं सीहाळी नामक गाँव प्रदान किया। घर लौटने पर माता अपने पुत्र-रत्न को को पाकर नौनिहाल हो गई।
रामनाथ ने प्रतिज्ञा तो पूरी कर दिखाई किन्तु छुट्टी समाप्त होते ही पुन: तिजारा जाना पड़ा। जब अलवर नरेश विनयसिंह ने वाममार्गी साधुओं की सहायता से तीन दिन के भीतर बलवंतसिंह, उसकी स्त्री एवं पुत्र को मरवा दिया तब तिजारा जब्त हो गया और फलत: सीहाळी गाँव भी इनके हाथ से जाता रहा। इन्होंने महाराज से जाकर निवेदन किया कि राज्य पलट जाता है, चारणों को दिया हुआ गांव जब्त नहीं होता किन्तु वे टस से मस नहीं हुए। निदान, ये यह कहकर दरबार से निकल गये कि जिस प्रकार असली चारण अपनी स्वत्व-रक्षा करते आये हैं वैसे ही मैं भी करके दिखाऊंगा। इसके पश्चात् अलवर राज्य में प्रसिद्ध धरणा (सत्याग्रह) का आयोजन किया गया जिसमें १०१ चारण सहर्ष प्राणोत्सर्ग के लिए एकत्र हुए। अलवरेन्द्र के बड़े भाई ठाकुर हनुमंतसिंह (थाणा) एवं शाहपुरे वाली महारानी ने विनयसिंह को बहुत समझाया किन्तु वे नहीं माने। हनुमंतसिंह असंतुष्ट होकर महाराज से यह कहकर चले गये कि ऐसे अन्यायी एवं अत्याचारी राजा के राज्य में रहना भी महापाप है। उन्होंने ठिकाने का पट्टा लौटाकर अलवर में अन्न-जल ग्रहण न करने का व्रत लिया। शाहपुरा की महारानी ने भी जो चारण जाति एवं उनकी कुल-देवी श्री करणीजी की भक्त थी, अनशन आरम्भ किया। महाराज का मुसलमान मंत्री अम्मूजान जो चारणों की शक्ति से परिचित एवं प्रभावित था, कांप उठा। उसने खजाने की कुंजी महाराज को यह कहकर सौंप दी कि यदि कोई अनर्थ हो गया तो उसका दोष मुझे लगेगा। इस पर भी महाराज नहीं माने सो नहीं माने। उधर रामनाथ के नेतृत्व में सब चारण अपनी इष्टदेवी जगदम्बा (करणीजी) का पूजन करने लगे। कहते हैं, इसके प्रभाव से राजप्रासाद हिलने लगा और इस प्रकार की अनेक अशुभ घटनायें घटने लगीं। इससे सर्वत्र हाहाकार मच गया और अलवरेन्द्र की बुद्धि ठिकाने आ गई। तत्काल सवार दौड़ाकर धरणे को स्थगित करने की प्रार्थना की गई। महाराजा ने मालाखेड़ा के मुकाम पर हनुमंतसिंह को कहलाया कि मैं आपकी बात मानने के लिए तैयार हू, आप शीघ्र लौट आयें। रामनाथ को सीहाळी के बदले सटावट नामक सुन्दर गाँव का पट्टा दिया गया और इस प्रकार धरणा समाप्त हो गया। अब विनयसिंह ने चमत्कार के के आगे नमस्कार करना ही श्रेयस्कर समझा।
महाराज विनयसिंह के पश्चात् शिवदानसिंह राज्य-सिंहासन पर विराजमान हुए। उनकी अप्रौढ़ावस्था में ब्रिटिश सरकार ने रामनाथ को उनका अभिभावक नियुक्त किया। महाराज शिवदानसिंह इस्लाम धर्म के प्रति अटूट श्रद्धा रखते थे और अंतिम समय में तो वे एक प्रकार से मुसलमान ही हो गये थे। आर्य संस्कृति के इस परम भक्त को उनका पट्टेदार बाल रखना बुरा लगा। जब वे समझाने पर नहीं माने तब इन्होंने एक दिन बलात् पकड़कर पट्टे कटवा दिये जिससे रुष्ट होकर उन्होंने प्रतिशोध लेना चाहा। ये एक क्षत्रिय-कुमार को पथभ्रष्ट होते कैसे देख सकते थे? राज्याधिकार मिलने पर शिवदानसिंह ने जेल का दारोगा भेजकर इन्हें बुलाया स्वाभिमानी रामनाथ समझ गये और तुरन्त ही जगदम्बा का ध्यान कर अपने पेट में तीक्ष्ण कटार पहनकर चलने को तैयार हुए। दारोगा ने जब दुष्टतावश व्यंग्य किया तब ये दूसरी कटार लेकर उस पर झपटे जिससे वह मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। महाराज ने फिर इन्हें बाला किला अलवर में बंद कर दिया और सटावट गांव भी ले लिया। इस भग्नावस्था में भी ये विचलित नहीं हुए। एक बार जब महाराज किले की ओर गये तब इनको सुनाकर कहा- ‘इन सफेद बालों में अच्छी धूल डलवाई। ‘ इन्होंने गरजकर उत्तर दिया- ‘मैने तो अपने सफेद बालों की धूल कटार द्वारा झाड़ ली परन्तु आपके काले बालों की धूल झाड़े जाने पर भी नहीं झड़ेगी। ‘ इस कठिन-काल में भगवान का स्मरण करने के अतिरिक्त इनका कोई और काम नहीं रह गया था।
रामनाथ ने दो विवाह किये थे। बड़ी पत्नी से परशुराम एवं छोटी से गंगादान नामक गुणवान पुत्र उत्पन्न हुए। इन दोनों ने शाहपुराधीश की सेवा में पहुँचकर अपने शस्त्र-कौशल एवं काव्य चातुर्य से उन्हें मुग्ध किया था। जब उन्होंने वरदान मांगने के लिए कहा तब इन दोनों ने अपने पिता को मुक्त कराने के लिए कहा क्योंकि वे शिवदानसिंह के भानजे थे। ठाकुर बिशनसिंह (डिग्गी) ने जमानत देना स्वीकार किया। सहभोज के समय विशनसिंह ने यहां तक कहा- ‘मैं तो अपने जीवन भर में केवल एक बार इसी भिक्षा के लिए अलवर आया हूं ‘। अलवरेन्द्र एक इसी बात को छोड़कर सब-कुछ करने लिए तैयार थे। जब दोनों ने भोजन से हाथ खींच लिया तब अन्तःपुर से शाहपुराधीश की बहिन एवं अलवरेन्द्र की माता श्री रूपकुंवर ने बीच-बचाव किया और रामनाथ की मुक्ति की आज्ञा घोषित करवा दी और इनका गाँव भी लौटा दिया। इस प्रकार अपने पुत्रों के प्रयत्न से रामनाथ मुक्त हुए।
रामनाथ एक चतुर, दूरदर्शी एवं वीर चारण थे। साथ ही इन्होंने भक्त-हृदय पाया था। सटावट में डूंगरी पर स्थित जगदम्बा के देवालय में नित्य पूजन करने जाते और वहां से लौटकर भोजन करते थे। जब अधिक वृद्ध हो गये तब घर पर ही फुटकर भक्ति विषयक छंद बनाकर संतोष करने लगे। इनका स्वर्गवास ७० वर्ष की अवस्था में सन् १८७८ ई. में हुआ था। यद्यपि रामनाथ ने सन् १८२३ ई. से ही फुटकर रचना करना आरम्भ कर दिया था तथापि इसका परिमार्जन बंदीगृह में हुआ। इन्होंने अपने हृदय की करुण चीत्कार को द्रौपदी के सोरठों द्वारा प्रकट किया है जो राजस्थान में “द्रौपदी-विनय अथवा करुण-बहत्तरी” के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें ७२ दोहे हैं, जिनका सम्पादन डॉ. कन्हैयालाल सहल ने किया है (१९५३ ई.) इसी प्रकार जेल के दिनों में इन्होंने वीरवर पाबू राठौड़ पर भी सोरठे लिखे थे।
३५. रूपा:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और अलवर राज्यान्तर्गत माहद गाँव के निवासी थे। इनके पिता का नाम उम्मेदरामजी था। ये बड़े दयावान एवं उदार व्यक्ति थे। समाज में प्रथम श्रेणी के दानियों में इनकी गणना होती थी और अलवर के एक प्रसिद्ध व्यक्ति थे। इनके लिखे हुए गीत उपलब्ध होते हैं।
३६. गिरवरदान:- ये कविया शाखा में उत्पन्न हुए थे (१८२१ ई.) और मारवाड़ राज्यान्तर्गत जैतारन परगने के वासनी गांव के निवासी थे। इनके पिता का नाम दयालदास था जो उच्चकोटि के कवि एवं गणितज्ञ थे। अत: इनकी प्रारम्भिक शिक्षा अपने पिता की देख-रेख में हुई। इनके परिवार में काव्य का स्वस्थ वातावरण था। इनके चाचा पन्नालाल जन्मांध अवश्य थे किन्तु अपने समय के उत्कृष्ट विद्वान माने जाते थे। उन्होंने भी इन्हें डिंगल का ज्ञान कराया। इसी प्रकार आलास ग्रामवासी सागरदान ने इन्हें वाक्-पटु बनाया। इनके विषय में कटालिया ठाकुर गोवर्द्धनसिंह ने कहा था ‘परवरिया सारी प्रिथी, गिरवरिये रा गीत। ‘ गिरवर आशु कवि थे। इनके लिए तत्काल काव्य-रचना करना सुगम था। कई व्यक्तियों ने इन्हें कठिन से कठिन समस्यायें दीं और इन्होंने सफलतापूर्वक उनकी पूर्ति कर दिखाई। रतलाम नरेश बलवंतसिंह ने इनका मान-सम्मान किया था। ये कुछ समय के लिए उनके पास रहे थे फिर मारवाड़ लौट आये। इनमें स्वाभिमान की मात्रा अधिक थी। अत: मान-सम्मान के आगे अपने स्वार्थ को भी ठुकरा देते थे। इनकी कवित्व-शक्ति अपने ढंग की निराली थी। इनके लिखे हुए स्फुट गीत उपलब्ध होते हैं।
३७. चतरजी:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ राज्य के निवासी थे। महाराणा जवानसिंह इनके समकालीन थे। इन्होंने कई गीत लिखे हैं।
३८. वखतराम:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ राज्यान्तर्गत पसून्द ग्राम के निवासी थे। इन्होंने महाराणा जवानसिंहजी के विषय में ‘कीरत-प्रकाश’ नामक ग्रन्थ रचा जो इनके वंशजों के पास अभी तक अप्रकाशित अवस्था में सुरक्षित है। इसके अतिरिक्त फुटकर गीत भी बहुत लिखे हैं।
३९. रिवदान:- ये महडू शाखा में उत्पन्न हुए थे (१७९३ ई. आसपास) और मारवाड़ राज्यान्तर्गत बिलाड़ा परगने के गाँव बोरून्दा के निवासी थे। महाराजा मानसिंह इनके समकालीन थे। इनकी स्मरण-शक्ति तीव्र थी। अपने भाइयों से तंग आकर इन्होंने महाराजा मानसिंह की शरण ली और गीत के रूप में एक प्रार्थना-पत्र दिया। इसे पढ़कर महाराजा ने पूछा कि क्या चाहते हो? उत्तर में इन्होंने अपना सारा दुख कह सुनाया। महाराजा ने इनके दुख का निवारण कर दिया और ये पुन: अपने गाँव चले गये। कालान्तर में महाराजा तखतसिंह ने इन्हें एक दोहे पर पाँच-सौ रुपये दिये थे। वृद्धावस्था में ये उनके पास रहते थे। इन्होंने काव्य के द्वारा ठाकुर माधोसिंह (रायपुर) को प्रभावित किया और वहाँ के छोटे-छोटे जागीरदारों को अभयदान दिलाया था। इनके लिखे हुए स्फुट दोहे एवं गीत मिलते हैं।
४०. नाहर:- ये कविया शाखा में उत्पन्न हुए और जयपुर राज्यान्तर्गत सेवापुरा ग्राम के निवासी थे। इनके पिता का नाम रामदानजी था। इन्होंने स्फुट काव्य-रचना की है।
४१ तेजराम:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ राज्यान्तर्गत राजसमुद्र तहसील के पसूंद ग्राम के निवासी थे। महाराणा जवानसिंह इनके समकालीन थे। इन्होंने कई फुटकर गीत लिखे हैं।
४२. हरिसिंह:- ये खिड़िया शाखा में उत्पन्न हुए थे। इनका स्थान अज्ञात है। इन्होंने स्फुट गीत लिखे हैं।
४३. जादूराम:- ये आढ़ा शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ राज्य के निवासी थे। इनके समय में महाराणा सरूपसिंहजी राज्य-गद्दी पर विराजमान थे। इन्होंने फुटकर काव्य-रचना की है।
४४. स्वरूपदास:- ये देथा शाखा में उत्पन्न हुए थे और ऊमरकोट इलाके के गांव खारोड़ा के निवासी थे। इनके पिता का नाम मिश्रीदान था। रतलाम नरेश बलवंतसिंह इनके समकालीन थे। एक बार जब डाकुओं ने इनका मकान लूट लिया तब इनके पिता अपना गाँव छोड़कर अजमेर इलाके में बड़ली के ठाकुर दुलहसिंह के पास आ गये। इनके बचपन का नाम शंकरदान था। इन्हें शिक्षा अपने चाचा परमानन्द से प्राप्त हुई जो अपने समय के विद्वान एवं त्यागी पुरुष माने जाते थे। इस शिक्षा के फलस्वरूप इनके हृदय में वैराग्य-भावना उत्पन्न हुई अत: ये घर से चुपचाप भाग गये और बड़ली के समीप देवलिया गाँव में पहुंचकर एक दादू पंथी साधु के शिष्य बन गये। जब यह बात चाचा को ज्ञात हुई तब उन्हें यह अच्छा नहीं लगा, क्योंकि उन्हें आशा थी कि ये बड़े होकर अपनी विद्वता से जीविका प्राप्त करेंगे न कि उनके समान साधु बनकर संसार से विरक्त हो जायेंगे-
कीधौ थो कुण कौळ, कह पाछौ कासूं कियो।
बेटा थारा बोल, सालै निस दिन संकरा।।
स्वरूपदास त्यागी बनकर इधर-उधर घूमते रहे किन्तु अधिकांश में रतलाम और सीतामऊ ही रहते थे। कुछ दिनों तक ये वृन्दावन भी रहे। बलवंतसिंह (रतलाम) इनके परम भक्त थे। वे स्वयं इनके पास आया-जाया करते थे। ये उन्हें अन्नदाता कहते तो वे इन्हें अमूल्य मणि की संज्ञा देते थे-
माणक हूंत अमोल, बिछुड़ता कहिया वचन।
बलवंत थारा बोल, खारा निस दिन षटकसी।।
स्वरूपदास का स्वर्गवास सन् १८६३ ई. में हुआ था। इनके लिखे हुए तीन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं- ‘पांडव यशेन्दु चंद्रिका’, ‘हृदयनयनांजल’ एवं ‘वृत्ति बोध’। इनमें से प्रथम रचना प्रकट है, शेष दोनों अप्रकट।
४५. हमीर:- ये महडू शाखा में उत्पन्न हुए थे। इनका स्थान जाजपुरा जिला के ग्राम सरस्या में होना ज्ञात होता है। इन्होंने कई गीत लिखे हैं।
४६. दुरगादत्त:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे (१८०३ ई.) और मारवाड़ राज्यान्तर्गत लोळावास गाँव के निवासी थे। इनके पिता का नाम गिरवरदान था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा मोरटहूका के बारहठ तिलोकसिंह के संरक्षण में हुई थी। इन पर रतलाम-नरेश बलवंतसिंहजी की पूर्ण कृपा थी अतः ये अधिकांश में उनके पास रहते थे। इनकी मृत्यु अपने गाँव में हुई थी (१८९६ ई.)। इन्होंने महाराजा बलवन्तसिंह को लक्ष्य करके ‘एकदातारा री निसाणी’ बनाई। एक ‘नायिका भेद’ का ग्रन्थ भी बनाया। इनके अतिरिक्त फुटकर गीत भी मिलते हैं।
४७. कनीराम:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे (१८१५ ई.) और मारवाड़ राज्यान्तर्गत खाटावास गाँव के निवासी थे। इनके पिता का नाम प्रभुदान था। बाल्यकाल में इन्हें अपने पिता से शिक्षा प्राप्त हुई थी। आरम्भ से ही इनकी रुचि भक्ति की ओर थी। अत: आगे चलकर ये एक उत्तम भक्त कवि हुए। ये कविता में अपना उपनाम कनिया रखते थे। गाँव छोड़कर इधर-उधर आना-जाना इन्हें पसंद नहीं था। इनका स्वर्गवास सन् १८८८ ई. में हुआ। इनके लिखे हुए बहुत से फुटकर गीत उपलब्ध होते हैं।
४८. सूर्यमल:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ राज्यान्तर्गत ग्राम कड़ियां के निवासी थे। इन्होंने फुटकर कवितायें लिखी हैं।
४९. दुलेराम:- ये सिंढायच शाखा में उत्पन्न हुए थे (१७८८ ई.) और मारवाड़ राज्यान्तर्गत मोगड़ा गाँव के निवासी थे। इनके पिता का नाम हररूप था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा अपने पिता के संरक्षण में हुई। इन्होंने हिन्दी-संस्कृत का ज्ञान पंडित कृष्णदत्त शास्त्री मसूदे वाले से प्राप्त किया। स्वामी स्वरूपदासजी के पास भी विद्याध्ययन किया था। ये उदयपुर के महाराणा भीमसिंह के कृपा-पात्र थे किन्तु किसी कारणवश अप्रसन्न हो जाने से आउवा के ठाकुर बख्तावरसिंह के पास रहने लग गये। महाराजा मानसिंह के गुरू आयशनाथ इनसे बहुत मिलना चाहते थे पर ये अवहेलना करते गये। अत. उनके कारण इन्हें जोधपुर छोड़ देना पड़ा। इसके पश्चात् ये मसूदे के ठाकुर देवीसिंह के पास रहे और जीते जी जोधपुर नहीं लौटे।
एक बार जब स्वरूपदासजी ‘पांडव यशेन्दु चंद्रिका’ बना रहे थे तब ये उनके पास गये। वहाँ जाकर इन्होंने कहा कि आप जिस प्रासाद का निर्माण कर रहे हैं, उसमें सहायता रूप एक ईंट मैं भी भेंट करना चाहता हूँ। यह सुनकर स्वरूपदासजी ने आज्ञा दी कि भेंट करो तब इन्होंने कवित्त भेंट किया। कहते हैं कि ‘पांडव यशेन्दु चंद्रिका’ के कर्ण पर्व की अधिकांश रचना इनकी है। ये डिंगल-पिंगल दोनों के अच्छे विद्वान थे। इनके बनाये हुए दो ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं- ‘एकाक्षरी कोष’ एवं ‘प्रभुता प्रकाश’। ‘प्रभुता प्रकाश’ मसूदे के ठाकुर देवीसिंह की प्रेरणा का फल था। मेवाड़ में इनके फुटकर गीत और दोहे भी मिलते हैं। इनका अवसान-काल सन् १८५३ ई. है। इनके लड़के का नाम जादूराम था। मसूदे में जागीर स्वरूप इनको कुए मिले हुए थे जो अब तक इनके वंशजों के अधीन हैं।
५०. मोडदान:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत पचपदरा परगने के भांडियावास गांव के निवासी थे। इनके पिता का नाम बुद्धदान (बुधजी) था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा पिता की देख-रेख में हुई थी। कहते हैं जब इनके पुत्र नहीं हुआ तब इन्होंने पाबूजी का इष्ट रखा और ‘पाबू प्रकास’ नामक एक ग्रंथ की रचना की जो प्रकाशित हो चुका है। इन्होने अपने जीवन में चार प्रतिज्ञायें की थीं-१. पुत्र होने पर उसका नाम पाबूदान रखूँगा। २. आँगन में खड़ी खेजड़ी पर एक ठांण (स्थान) बनाऊँगा और वहां इष्टदेव की पूजा करूँगा। ३. खेत सेली में एक ओरण छोड़कर यथाशक्ति एक मन्दिर की स्थापना करूंगा और ४. पाबूजी के जीवन-चरित का पूर्ण वर्णन कर एक ग्रंथ की रचना करूँगा। ईश्वरीय कृपा से जब इनके पुत्र उत्पन्न हुआ तब इन्होंने उसका नाम पाबूदान रख दिया। इनके तीन पुत्र हुए-पाबूदान, वैरीसाल और यशवंतसिंह।
मोडदान की गणना डिंगल के उच्चकोटि के कवियों में की जाती है। इनकी कुल दस रचनायें उपलब्ध होती हैं-‘पाबू प्रकाश’, ‘जेखल सुजस जड़ाव’, ‘तखत विनोद’, ‘छंदरूप दीपमाला’, ‘ग्रंथासंज्ञा प्रक्रियार्थ’, ‘झमाल मामा गोविंदजी री’, देवनाथजी री वात’, ‘वैरा सुजस विनोद’, ‘प्रताप पचीसी’ एवं ‘ग्रंथ विसर्ग संधि’।
५१. सोम:- ये रतनू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्य के वीडलिया गाँव के निवासी थे। इनके लिखे हुए फुटकर गीत उपलब्ध होते हैं।
५२. तिलोकदान:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत मोरटहूका गांव के निवासी थे। डिंगल के प्रसिद्ध कवि दुर्गादत्तजी इनके निकट सम्बन्धी थे। महाराजा मानसिंहजी इनके समकालीन थे। इन्होंने फुटकर काव्य-रचना की है।
५३. आसा:- ये आढ़ा शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ राज्य के सीसोदा ग्राम के निवासी थे। इन्होंने कई गीत लिखे हैं।
५४. हरा:- इनकी न तो शाखा का पता लगता है और न स्थान का ही। हाँ, फुटकर गीत अवश्य उपलब्ध होते हैं।
५५. भगवानदास:- इनकी न तो शाखा का पता लगता है और न स्थान का ही। हाँ, फुटकर गीत अवश्य उपलब्ध होते हैं।
५६. जीवराज:- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए थे। इनका स्थान अज्ञात है। इनकी लिखी हुई फुटकर कवितायें मिलती हैं।
५७. बुधसिंह:- ये सिंढायच शाखा में उत्पन्न हुए थे (१८२९ ई.) और जोधपुर राज्यान्तर्गत मोगड़ा गाँव के निवासी थे। इनके पूर्वजों को नरसिंहगढ़ (मध्यप्रदेश) के नरेशों का वरद हस्त प्राप्त था और इन पर भी उनकी कृपा बनी रही। आरम्भ से ही ये विद्यानुरागी थे। बाल्यकाल में इन्होंने डिंगल-पिंगल के तत्कालीन विद्वान-कवि श्री दुलेरामजी सिंढायच (मसूदा) से शिक्षा ग्रहण की। शीघ्र ही इन दोनों भाषाओं में रचनायें करने लगे। धार्मिक प्रवृत्ति के होने से इनका भक्ति विषयक रचनाओं में विशेष अनुराग था। ये अल्पायु में ही दिन के लगभग दो-सौ दोहों की रचना कर डालते। इस भक्त कवि के जीवन का शुभारम्भ मारवाड़ी में लिखे हुए एक गीत से हुआ (१८४३ ई.)।
बुधसिंह स्वतंत्र प्रकृति के कवि थे। इनमें स्वामी-भक्ति कूट-कूट कर भरी हुई थी। कर्तव्य का पालन करना इनके जीवन का धर्म था। राजपूत सभाओं में जिस ढंग की चतुराई चाहिए, वह इनमें थी। डिंगल-पिंगल दोनों भाषाओं के विद्वान थे। ये साहित्य-साधना के साथ योग-साधना भी करते थे। ये अपने समय के अच्छे वैद्यक माने जाते थे। घर पर ही औषधालय खोल रखा था जहां गरीबों का इलाज करते थे। समाज में जो भूखे व्यक्ति होते वे सदैव इनके यहाँ भोजन पाते। माया-जल में रहते हुए भी कमल के समान उसके ऊपर थे।
चारण-कवि होने से राजपूत राजघरानों की सेवा करना इनके जीवन का लक्ष्य था। इन्होंने श्री हनवंतसिंह (नरसिंहगढ़) की पुत्री विजयकुँवर का पाणिग्रहण जसवंतसिंह (जोधपुर) से कराया था (१८७२ ई.) विजयकुँवर के कहने पर ये नरसिंहगढ़ से जोधपुर आ गये और आजीवन उनके कामदार के पद पर प्रतिष्ठित हुए। यहां रहकर भी इनका सम्बन्ध वहाँ से बना रहा। श्री हनवंतसिंह (नरसिंहगढ़) ने इनकी तीव्र कवित्व-शक्ति से प्रभावित होकर कविराजा का उपटंक प्रदान किया था। महाराजाधिराज जसवंतसिंह (जोधपुर) ने इन्हें ताजीम एवं पैर में स्वर्ण देकर गौरव बढ़ाया (१८८९ ई.)। प्रथम श्रेणी के ताजीमी जागीरदार होने के कारण ये ठाकुर कहाते थे।
बुधसिंह उच्च कोटि के समन्वयवादी भक्त थे। ये सब कुछ ईश्वरीय लीला मानते थे। एक बार मदौरा में इनके घर पर आग लग गई और ये भक्ति की रचना लिखने में लीन थे। चट उठकर दूसरे स्थान पर चले गये और इस घटना की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। एक पहुँचे हुए भक्त कवि के सदृश इन्हें भी अपनी मृत्यु का पूर्वाभास हो गया था। अन्तिम समय में ये अन्न-जल का त्यागकर कर केवल गंगा-जल का ही सेवन करने लगे। इनका स्वर्गवास सन् १९०१ ई. में हुआ था। इनके तीन पुत्र हुए। युवावस्था में एक पुत्र के काल-कवलित होने के कारण ये संसार से उदासीन हो गये थे। इनके बड़े पुत्र का नाम पीरदान एवं छोटे का शक्तिदान है।
बुधसिंह का सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रंथ ‘देवीचरित’ हैं। देवी के चरित पर आधारित यह प्रथम भावानुवादित महाकाव्य है। यह बारह स्कंधों में पूर्ण हुआ है और इसकी पृष्ठ संख्या हजार से ऊपर है। इसकी पाण्डुलिपि कवि के वंशज श्री माधोसिंहजी ने मुझे बताई थी। इसके अतिरिक्त स्फुट रचनायें भी उपलब्ध होती हैं जिनमें आश्रयदाताओं के शौर्य एवं औदार्य का वर्णन है। यह लक्ष्य करने की बात है कि कवि ने अँग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध रणक्षेत्र में वीरगति प्राप्त करने वाले चैनसिंह (नरसिंहगढ़) से प्रेरणा ग्रहण कर राष्ट्रीय गीतों का भी सृजन किया है (१८२४ ई.) गद्य के क्षेत्र में इनकी ‘महाराजकुमार श्री चैनसिहजी री वार्ता’ एक संक्षिप्त उल्लेखनीय रचना है।
५८. रामलाल:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ राज्यान्तर्गत गाँव कड़िया के निवासी थे। इन्होंने फुटकर काव्य-रचना की है।
५९. स्योदान:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे (१८२१ ई.) और जयपुर राज्यान्तर्गत ग्राम कुम्हारिया के निवासी थे। इनके समय में श्री सवाई रामसिंहजी राज्य-गद्दी पर विराजमान थे। इनका निधन सन् १८६० ई. में हुआ था। इनकी लिखी हूई स्फुट रचनायें उपलब्ध होती हैं।
६०. दलजी:- ये महडू शाखा में उत्पन्न हए थे और डूंगरपुर राज्यान्तर्गत गांव बरोड़ा के निवासी थे। इन्होंने फुटकर काव्य-रचना की है।
६१ विसनदान:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे। इनका स्थान अज्ञात है। इनके लिखे हुए फुटकर गीत मिलते हैं।
६२. गंगादान:- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत सीऊ गांव के निवासी थे। महाराजा तखतसिंह इनके समकालीन थे। इनकी लिखी हुई रचनायें कम मात्रा में उपलब्ध होती हैं।
६३. रामलाल आढ़ा:- ये आढ़ा शाखा में उत्पन्न हुए थे और ग्राम सीसोदो (मेवाड़) के निवासी थे। इन्होंने फुटकर गीत लिखे हैं।
६४. भारतदान:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत पचपदरा परगने के गांव भांडियावास के निवासी थे। ये डिंगल के सुप्रसिद्ध कवि बाँकीदास के दत्तक पुत्र थे। इन्हे कविराजा का उपटंक मिला था। इनका रचना-काल सन् १८४१ ई. माना गया है। इनके एक पुत्र हुआ जिसका नाम था मुरारिदान। इनके फुटकर गीत मिलते हैं।
६५. शेरदान:- ये उज्वल शाखा में उत्पन्न हुए थे और जैसलमेर जिलान्तर्गत ग्राम ऊजला के निवासी थे। महाराजा मानसिंह (जोधपुर) इनके समकालीन थे। इनकी लिखी हुई फुटकर कवितायें उपलब्ध होती हैं।
६६. भेरूदान:- ये वणसूर शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत ग्राम पारलाऊ के निवासी थे। इन पर जोधपुर-नरेश महाराजा मानसिंहजी की विशेष कृपा थी और ये उनके विश्वासपात्र थे। महाराजा इन्हें भाई के नाम से सम्बोधित करते थे-‘जुगो जुग तपस्या साथ कीधौं जुडे भाइयों सरीसो भेर भाई। ‘ महाराजा ने इनकी साहित्य-सेवा के उपलक्ष में पडासला गांव (पाली) सांसण में दिया और अनेक कुरब प्रदान किये थे जो किसी चारण को प्राप्त नहीं थे। इन्हें ठाकुर की उपाधि एवं पैर में स्वर्ण मिला। महाराजा ‘नाथ-चन्द्रिका’ के सौ दोहे सुनाते और ये उन्हें अक्षरश: लिख देते। इससे सिद्ध होता है कि ये चमत्कारवादी कवि थे और इनकी स्मरणशक्ति तीव्र थी। काव्य-प्रेमी महाराजा ने इन पर दोहे लिखे हैं। यह लक्ष्य करने की बात है कि मारवाड़ के चारणों में केवल तीन ठिकाने ही ताजीमी सोना-नवीस हैं जिनमें से एक पारलाऊ और शेष दो ठिकाने हैं-मूंदियाण और चवां। इनकी स्फुट रचनायें मिलती हैं।
६७. ओकजी:- ये बोगसा शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत सिवाना परगने के ग्राम सरवड़ी के निवासी थे। इनके समय में महाराजा मानसिंह सिंहासनारूढ़ थे। इनकी लिखी हुई फुटकर रचनायें उपलब्ध होती हैं।
६८. मयाराम:- ये सिंढायच शाखा में उत्पन्न हुए थे और जैसलमेर राज्यान्तर्गत ग्राम माडवा के निवासी थे। महाराजा मानसिंह इनके समकालीन थे। आशु कवि के रूप में इनकी अच्छी प्रतिष्ठा थी। इनका लिखा हुआ स्फुट काव्य उपलब्ध होता है।
६९. मैकदान:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत शिव परगने के ग्राम गूगाका के निवासी थे। महाराजा मानसिंह इनके समकालीन थे। इन्होंने ‘धेनरासा’ नामक ग्रंथ बनाया जिसमें दुर्भिक्ष के कष्टों का वर्णन है।
७०. जैमल:- ये झीबा शाखा में उत्पन्न हुए थे और जैसलमेर राज्य के जाँफली गाँव के निवासी थे। ये उत्तम श्रेणी के कवि थे। इन्होंने रेगिस्तानी जहाजों (ऊँटों) का अच्छा वर्णन किया है। इनकी लिखी हुई फुटकर रचनायें उपलब्ध होती हैं।
७१. करमानंद:- ये देथा शाखा में उत्पन्न हुए थे और जैसलमेर राज्यान्तर्गत ग्राम मूलिया के निवासी थे। महाराजा मानसिंह इनके समकालीन थे। इनकी लिखी हुई फुटकर कवितायें मिलती हैं।
७२. नाथूदान:- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड राज्यान्तर्गत मेड़ता परगने के ग्राम शिव के निवासी थे। महाराजा मानसिंह इनके समकालीन थे। ये राजनैतिक कार्यों में .रुचि रखते थे एवं उच्च कोटि के विद्वान थे। डिंगल-पिंगल के अतिरिक्त फारसी के भी ज्ञाता थे। कवि के रूप में इनकी अच्छी प्रतिष्ठा थी। परवर्ती कविराजा मुरारीदानजी ने इन्हीं से अलंकार पढ़े थे। इनकी लिखी हुई स्फुट रचनायें उपलब्ध होती हैं।
७३. चालकदान:- ये लालस शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्य के तोलेसर गाँव के निवासी थे। महाराजा मानसिंह इनके समकालीन थे। इन्होंने स्फुट काव्य-रचना की है।
७४. कल्याणसिंह:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत पचपदरा परगने के ग्राम भांडियावास के निवासी थे। इनके भाई कविराजा वाँकीदास एवं बुद्धदान (बुधजी) साहित्य-क्षेत्र में पर्याप्त कीर्ति अर्जित कर चुके थे। ये साधारण श्रेणी के कवि थे। इनकी स्फुट रचनायें उपलब्ध होती हैं।
७५. दयालदास:- ये उज्वल सिंढायच शाखा में उत्पन्न हुए थे (१८०१ ई.) और बीकानेर राज्य के ग्राम कुबिया के रहने वाले थे। ये प्रसिद्ध कवि एवं इतिहास-लेखक थे। इन्होंने “राठौडों री ख्यात” नामक एक ऐतिहासिक ग्रन्थ लिखा है। इनका देहान्त सन १८९१ ई. में हुआ था।
७६. पन्नेसिंह:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत पचपदरा परगने के ग्राम भाँडियावास के निवासी थे। ये साधारण कवि होने के साथ-साथ एक वीर पुरुष थे। जब महाराजा मानसिंह जालोर के घेरे में बंदी हो गये थे तब जिन १७ चारणों ने महाराजा की सेवा की, उनमें एक ये भी थे। इससे प्रसन्न होकर महाराजा ने इन्हें भांडियावास तथा पचपदरा की सीमा पर काफी भूमि प्रदान की थी जिसे ‘रावली सीम’ के नाम से आज भी जाना जाता है। महाराजा की इन पर बड़ी कृपा थी। इनका देहान्त सन् १८३४ ई. में हुआ था। इनकी लिखी हुई फुटकर कविता मिलती है।
७७. चिमनदान:- ये कविया शाखा में उत्पन्न हुए थे (१८२८ ई. के आसपास) और मारवाड राज्यान्तर्गत शेरगढ़ परगने के ग्राम बिराई के निवासी थे। इनके पिता-पितामह का नाम क्रमश: लुद्रदान एवं करणीदान था। इनके छोटे भाई का नाम नवलदान था। आज इनके परिवार में कोई भी जीवित नहीं है किन्तु जिन एक-दो वयोवृद्ध व्यक्तियों ने इन्हें देखा है, वे अभी जीवित हैं। उनके कथनानुसार इनकी प्रारम्भिक शिक्षा बिराई से ४ कोस दक्षिण में स्थित ‘जुढ़िया’ नामक गांव में हुई थी। वहाँ पर जीवणदास एवं आवड़दान वयोवृद्ध कवि थे जो महाराजा मानसिंह के बड़े कृपा-पात्र थे। ये उनके दोहित्र होते थे। इनका बदन सुडौल था, लम्बा कद, गोल व सुन्दर उभरा हुआ चेहरा, गौर वर्ण बडी बड़ी आखें, सफेद झक दाढ़ी व उज्ज्वल वस्त्र रखते थे। इनका व्यक्तित्व बड़ा ही प्रभावशाली था। ये सदैव अपने पास सवारी हेतु एक सुन्दर घोड़ी रखते थे। प्राय: पीली घोडी जो उन दिनों बहुत विख्यात थी और जिसे बिलाड़ा दीवान साहब लक्ष्मणसिंहजी ने भेंट की थी।
चिमन बड़े ही बुद्धिमान व्यक्ति थे। इन्होंने अपनी प्रत्येक गाथा कविता में मिति सहित लिख दी है। ये एक निर्भीक वक्ता भी थे। बिलाड़ा दीवान लक्ष्मणसिंह इनका बहुत मान-सम्मान करते थे। इनके यहां आपका आना-जाना भी बहुत रहता था। एक बार दीवानजी ने इन्हें प्रसन्न होकर स्वर्णयुक्त बना दिया था। इनका सबसे बड़ा गुण यह था कि ये प्रथम श्रेणी के गायन-पटु भी थे। ईश्वर-भक्ति में तल्लीन होकर जब ये राग अलापते तब लोग मंत्र मुग्ध हो जाते थे। इनकी दानशीलता प्रसिद्ध थी। अपने जीवन में हजारों रुपये राजा-महाराजाओं से प्राप्त किये और हजारों गरीबों एवं अपने याचक कवियों को दान में दिये। रावल और मोतीसरों ने इनकी दानशीलता की भूरि-भूरि प्रशंसा की है, जिसमें इनकी सात पीढ़ी तक के नाम व रीझ का वर्णन है-
सबळ सिवौ परभो सकव, देवो करन दिनेस।
कवियो जुग नामां करै, लुदरावत चिमनेस।।
इस प्रकार चिमन अनेक गुणों से युक्त थे। इनका जीवन बड़ा ही उज्ज्वल था। ये आजीवन अविवाहित थे अतः घर का बन्धन छोड़कर इच्छापूर्वक देशाटन करते थे। जहां इनका मन लगता, वहां रहते। उत्तम कविता करने के कारण बड़े-बड़े लोग इनका आदर-सत्कार करते थे। इन्होने अपने जीवन के अन्तिम समय में साधु-वेश धारण कर लिया था। इनका निधन सन् १८८८ ई. में बाहर हुआ था।
चिमन डिंगल के परमोत्कृष्ट कवि थे। कविया गोत्र के चारणों में कविराजा करणीदान एवं महात्मा अलू को छोड़कर ऐसा कोई नहीं जो इनकी समता रखता हो। इतना होते हुए भी इनकी प्रसिद्धि इसलिए नहीं हुई कि ये अविवाहित थे, अत: सन्तान के बिना साहित्य जैसी वस्तु कौन संजोकर रखता? आज इनके ७ बडे भारी ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं- ‘हरीजस मोक्षरथी’, ‘सोढ़ायण’, ‘जसवंत-पिंगल’, ‘भाखा-प्रस्तार’, ‘प्रागराव रूपक’, ‘लिछमण-विलास’ और ‘श्रीरामदेचरित’। इनके अतिरिक्त फुटकर रचनायें भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती हैं। यह तो उस विपुल सहित्य का अवशिष्ट है अत: अभी पूरी छानबीन करने की आवश्यकता है। यह लक्ष्य करने की बात है कि इन्होंने परिपक्व होने पर ही वृद्धावस्था में अपने ग्रन्थों की सृष्टि की है, जो बहुत कम कवि कर पाये हैं।
७८. रामप्रताप:- ये कविया शाखा में उत्पन्न हुए थे और जयपुर राज्यान्तर्गत सेव ग्राम के निवासी थे। इनके पिता का नाम नाहरजी था। इन्होंने भक्ति भाव से प्रेरित होकर कई बार द्वारिका की यात्रा की थी। इन्होंने अधिकांश में ईश्वर-भक्ति विषयक फुटकर रचनायें लिखी हैं।
७९. लक्ष्मीदान:- ये उज्वल सिंढायच शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत ग्राम ऊजला के निवासी थे। इनके पिता का नाम नाथूराम था। इनका कविता और वार्ता करने का ढंग रोचक था। इन पर उदयपुर के महाराणा की विशेष कृपा थी। महाराणा ने इन्हें अपने यहां इनकी इच्छा के विरुद्ध नौकरी दी किन्तु ये उसे छोड़कर चले आये। इन्हें शराब पीते-पीते कविता उपजती थी। ये एक धनाढ्य व्यक्ति माने जाते थे। इनके चार पुत्र हुए जिनमें उदयराज सबसे छोटे थे।
लक्ष्मीदान ने महाराजा सरदारसिंह (बीकानेर) के समय साकडा गांव के राठौडों को लक्ष्य करके कविता लिखी है। ये लोग प्रायः डाका डालते रहते थे। डूंगजी-जवारजी के युद्ध का वर्णन कर इन्होंने राष्ट्रीय भावना का परिचय दिया है। इनकी लिखी हुई वीर एवं हास्य रस की कविता उपलब्ध होती है।
८०. चंडीदान महियारिया:- ये महियारिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और कोटा के निवासी थे। इन्होंने कई गीत लिखे हैं।
८१. बीजोजी:- ये सुरताणिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत जालोर परगने के ग्राम मेढावा के निवासी थे। इनके पिता का नाम साहेबदानजी था। जब महाराजा मानसिंह जालोर के किले में दुखी थे(१८०३ ई) तब इन्होंने उनका साहस बढ़ाया था। इनकी फुटकर रचनायें बताई जाती हैं।
८२. जुगतो:- ये वणसूर शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत ग्राम कोटड़ा (जालोर) के निवासी थे। ये महाराजा मानसिंह के साथ जालोर के घेरे में उपस्थित थे। कहते हैं, कुल मिलाकर २७ कवि थे जिनमें दो राव एवं शेष सभी चारण थे। इन सबको लाखपसाव दिये गये थे।
जुगतों ने महाराजा मानसिंह की भरपूर सेवा की। इनका काम घेरे से बाहर जाकर दरबार के जेवर बेचकर खर्ची लाकर देने का था। जब कुछ नहीं रहा तब इन्होंने अपनी स्त्री तथा बड़े पुत्र जैतदानजी की स्त्री के सम्पूर्ण जेवर लाकर दरबार को दे दिये और उन्हें बेचकर सहायता की। यही नहीं, जब इससे भी काम न चला तब इन्होंने अपने द्वितीय पुत्र भैरूदान को जो बहुत सुन्दर थे, भाडरवा गांव के महन्त के यहां सैंकड़ों रुपयों में गिरवी रख दिया और खर्च को पूरा किया। इन्हें महाराजा ने पारलाऊ गांव प्रदान किया था। इनका एक चित्र भी श्री सीताराम लालस (जोधपुर) के संग्रहालय में विद्यमान है। महाराजा ने स्वयं एक छप्पय में घेरे के साथी इन समस्त कवियों के नाम पिरोये हैं-
हाजर जुगतो हुतो, पीथलो हरी पुणीजै।
भैर बनो भोपाळ सिरै फिर ऊम सुणीजै।
दानो महा दुबाह, इंद ने कुशळो आखां।
मेघ अनै म्याराम सिरे सौ वीसां साखां।
पनो नगो नवलो प्रगट, केहर सायब वडम कव।
महाराज अगर घेरा महि, सतरै जद रहिया सकव।।
इनकी लिखी हुई फुटकर रचनायें बताई जाती हैं।
८३. पीथजी:- ये साँदू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड राज्यान्तगत ग्राम मडोरा के निवासी थे। इन्हें महाराजा ने पीथोलाव गांव प्रदान किया था। इनकी लिखी हुई फुटकर रचनायें बताई जाती हैं।
८४. हरिंगजी:- ये साँदू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत मृगेश्वर गांव के निवासी थे। इन्हे खरुकड़ो गांव प्रदान किया गया था। इनकी लिखी हुई फुटकर रचनायें बताई जाती हैं।
८५. भैरूदानजी:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत पचपदरा परगने के ग्राम रेवाड़ा के निवासी थे। इन्हे वांणियावास गांव प्रदान किया गया था। इनकी फुटकर रचनायें कही जाती हैं।
८६. वनजी:- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत ग्राम सूरपालिया के निवासी थे। इन्हें गोरेरी गांव प्रदान किया गया था। इनकी फुटकर रचनायें कही जाती हैं।
८७. भोपजी:- ये गाडण शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत ग्राम छीडिया के निवासी थे। इन्हें कालेड़ी गांव प्रदान किया गया था। इनकी फुटकर रचनायें कही जाती हैं।
८८. ऊमजी:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत मोरटहूका गांव के निवासी थे। इन्हें आनावस गाँव प्रदान किया गया था। इनकी फुटकर रचनायें कही जाती हैं।
८९. दानजी:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत पचपदरा परगने के ग्राम वांगूड़ी के निवासी थे। इन्हें खेड़ा गांव प्रदान किया गया था। इनकी फुटकर रचनायें कही जाती हैं।
९०. कुसलजी:- ये रतनू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत चौपासनी गांव के निवासी थे। इन्हें कोटडा गांव प्रदान किया गया था जो जब्त हो गया। इनकी फुटकर रचनायें कही जाती हैं।
[कुशल़जी को दो गांव दिए थे। कोटड़ा और लाछा बासणी। बिहारीदास खीची प्रकरण में साथीण ठाकुर शक्तिदानसिंहजी से संबंध निर्वहन के कारण महाराजा इनसे रुष्ट हो गए और दोनों गांव जब्त कर लिए गए। – गिरधरदान रतनू “दासोड़ी”]
९१. मेघजी:- ये रतनू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत बिडलिया ग्राम के निवासी थे। इनकी फुटकर रचनायें कही जाती हैं।
९२. मयारामजी:- ये रतनू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत घड़ोई गांव के निवासी थे। इन्हें कटारड़ो गांव प्रदान किया गया था। इनकी फुटकर रचनायें कही जाती हैं।
९३. पनजी:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत भांडियावास गांव के निवासी थे। इन्हें चिरडांणी खेड़ा गांव प्रदान किया गया था। इनकी फुटकर रचनायें कही जाती हैं।
९४. नगजी:- ये कविया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत नागौर परगने के ग्राम खेण के निवासी थे। इनके पुरस्कृत गांव का पता नहीं लगता। इनकी फुटकर रचनायें कही जाती हैं।
९५. केहरजी:- ये खिडिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत गांव कांवलिया के निवासी थे। इन्हें ढाढरियो एवं जीवन खेड़ो नामक दो गांव प्रदान किये गए थे। इनकी फुटकर रचनायें कही जाती हैं।
९६. मोतीराम:- ये खिडिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और कृपाराम की ढांणी, सीकर के निवासी थे। इनके पिता-पितामह का नाम क्रमशः नगजी एवं कृपारामजी था, जो कवि एवं विद्वान थे। अत: इनकी शिक्षा घर पर ही हुई थी। ये महाराजा मानसिंह (जोधपुर) के पास आया-जाया करते थे। इनकी फुटकर रचनायें बताई जाती हैं।
९७ गोपालदान सांदू:- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत ग्राम भदोरा के निवासी थे। इनके फुटकर पद, सवैये एवं गीत कहे जाते हैं।
९८. राधावल्लभ:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और किशनगढ़ राज्यान्तर्गत गोदियाणा ग्राम के निवासो थे। इनका रचना-काल सन् १८०३ ई. के आस-पास आरम्भ होना है। इनके लिखे हुए ‘भीष्मपर्व’, ‘गीताभाषा’ एवं ‘शालिहोत्र’ नामक ग्रंथ कहे जाते हैं।
९९. गंगादान बारहठ:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और किशनगढ राज्यान्तर्गत गोदियाणा ग्राम के निवासी थे। इनका रचना-काल सन् १८०३ ई. से आरम्भ होता है। इनकी स्फुट काव्य-रचना बनाई जाती है।
१००. रामकरण:- ये महडू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ के निवासी थे। डिंगल के प्रसिद्ध कवि कृपारामजी खिडिया इनके समकालीन थे। इनके फुटकर गीत कहे जाते हैँ।
१०१. श्यामदास:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत देवरिया ग्राम के निवासी थे। इन्हें महाराजा मानसिंह ने प्रसन्न होकर देवरिया गांव प्रदान किया था। इनकी फुटकर रचनायें कही जाती हैं।
१०२. परमानन्द:- ये देथा शाखा में उत्पन्न हुए थे और ग्राम खारोड़ा के निवासी थे। ये महात्मा स्वरूपदास के चाचा थे। इनकी फुटकर रचनायें बताई जाती हैं।
१०३. गीबोजी:- ये भादा शाखा में उत्पन्न हुए थे और बूंदी के निवासी थे। इनकी फुटकर रचनायें बताई जाती हैं।
१०४. नन्दजी:- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ के निवासी थे। इनकी फुटकर रचनायें बताई जाती हैं।
१०५. जवानजी बारहठ:- ये बारहठ रोहडिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और किशनगढ़ राज्यान्तर्गत गोदियाणा ग्राम के निवासी थे। इन्हें कविराजा का पद प्राप्त था। इनके लिखे हुए गीत कहे जाते हैं।
१०६. सागरदान:- ये कविया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत ग्राम आलावास के निवासी थे। इनका लिखा हुआ ‘गुणविलास’ नामक ग्रंथ बताया जाता है (१८१६ ई.)।
१०७. चैनराम:- ये पाल्ह़ावत बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और जयपुर राज्यान्तर्गत हणूतिया गांव के निवासी थे। ये महाराजा बख्तावरसिंह के समय में अलवर आए थे। महाराजा ने प्रसन्न होकर इन्हें गजुकी गाँव प्रदान किया था। इनकी लिखी हुई फुटकर रचनायें कही जाती हैं।
१०८ भीखजी:- ये दधवाड़िया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ राज्यान्तर्गत ग्राम ढोकलिया के निवासी थे। इनके फुटकर गीत कहे जाते हैं।
१०९. जीवनसिंह:- इनकी शाखा अज्ञात है किन्तु ये करौली के निवासी थे। इन्होंने सन् १८१८ ई. के आसपास कई रचनायें लिखीं जो अप्राप्य हैं।
११० समेलदान:- ये रोहडिया बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे। और मारवाड़ राज्य में पोकरन के पास भाखरी गाँव के निवासी थे। ये रतलाम-नरेश बलवंतसिंहजी के कृपा-पात्र थे। इन्होंने अपने चाकर बस्तिया की सेवा पर प्रसन्न होकर कतिपय दोहे लिखे हैं जो अप्राप्य हैं।
१११. वंशीदास:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत पचपदरा परगने के गाँव भांडियावास के निवासी थे। इनके पुत्र का नाम भारतीदान था। इनकी सन् १८२१ ई. के आसपास ‘श्री हुजूररामजी’ और ‘राठौड़ राजाओं की वंशावली’ नामक पुस्तकें लिखी हुई कही जाती हैं। इनकी कवित्व-शक्ति बढ़ी-चढ़ी थी। मिश्रबंधुओं ने इन्हें तोष कवि की श्रेणी में गिना है।
११२. नरसिंहदास:- ये कविया शाखा में उत्पन्न हुए थे और जयपुर राज्यान्तर्गत सेवापुर गाँव के निवासी थे। इनके पिता का नाम रामदानजी था। इनकी कविता उपलब्ध नहीं होती।
११३. जसराम:- ये रतनू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्य के घडोई ग्राम के निवासी थे। इनका रचना-काल सन १८२३ ई. से आरम्भ होता है। इनका ‘राजनीति’ नामक एक ग्रन्थ लिखा हुआ कहा जाता है।
११४. जवानजी:- ये आढ़ा शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ राज्यान्तर्गत ग्राम सीसोदा के निवासी थे। महाराणा जवानसिंह इनके समकालीन थे। इनकी फुटकर काव्य-रचना कही जाती है।
११५. वदनजी:- ये मिश्रण शाखा में उत्पन्न हुए थे और बूंदी के निवासी थे। इनका रचना-काल सन् १८२५ ई. से आरम्भ होता है। इनके लिखे हुए ‘होलकर पचीसी’ एवं ‘रसगुलजार’ नामक ग्रंथ कहे जाते हैं।
११६. गंगाराम:- ये कविया शाखा में उत्पन्न हुए थे और जयपुर राज्यान्तर्गत सेवापुर गांव के निवासी थे। कवि नरसिंहदास इनके भाई थे। इनकी कविता अप्राप्य है।
११७. नाथूराम सिंढायच:- ये सिंढायच शाखा में उत्पन्न हुए थे (१८१२ ई.) और मारवाड़ राज्यान्तर्गत ग्राम ऊजला के निवासी थे। इनकी गणना मारवाड़ के प्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित व्यक्तियों में की जाती थी। इन्होंने पोकरण ठिकाने की पंचायत में तीस वर्षों तक कुशलता से कार्य किया (सन् १८३६-१८६९ ई.) इस ठिकाने की इन्होंने खूब सेवा की। इन्होंने जन-हित में भी कार्य किया है। अपने गाँव ऊजला में चार तालाब बनवाये कई कुए खुदवाये, एक बड़ा टाँका बनवाया तथा मंदिर का निर्माण कराया। इसलिए सरदारों में विशेष आदर-सम्मान प्राप्त था।
नाथूराम उदार प्रकृति के व्यक्ति थे। उल्लेखनीय है कि इन्होंने अपने मोतीसर को सर्वप्रथम एक हाथी प्रदान किया। ये महाराजा तखतसिंह एवं जसवन्तसिंह (जोधपुर) दोनों के कृपा-पात्र थे। इन्हें जसवंतसिंह ने जाटी भांडू (शेरगढ़) सासण में दिया था किन्तु राजनैतिक कारण से एक वर्ष बाद वापस ले लिया। इनका निधन सन् १८९९ ई. में हुआ था। ये डिंगल के अच्छे कवि थे।
११८. सांवलदास:- ये महियारिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ के निवासी थे। इनकी फुटकर रचनायें कही जाती हैं।
११९. जसकरण:- ये महियारिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ के निवासी थे। इनकी फुटकर रचनायें कही जाती हैं।
१२०. तेजसी:- ये खिडिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड राज्यान्तर्गत ग्राम कवलिया के निवासी थे। इनकी फुटकर रचनायें कही जाती हैं।
१२१. सगरामसिंह:- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ के निवासी थे। इनके लिखे हुए स्फुट छंद बताये जाते हैं।
१२२. गेनजी:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और रूपावास गांव (मारवाड़) के निवासी थे। इनके लिखे हुए स्फुट छंद बताये जाते हैं।
१२३. खेतसी:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत मथानिया गाँव के निवासी थे। इनकी स्फुट काव्य रचना बताई जाती है।
१२४. त्रिलोक:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत मोरटहूका गाँव के निवासी थे। इनकी फुटकर रचनायें बताई जाती हैं।
१२५. खुमाण:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे। इनका स्थान अज्ञात है। इनकी फुटकर रचनायें बताई जाती हैं।
१२६ चतुरदान:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत सोजत परगने के वीजलियावास ग्राम के निवासी थे। इनका रचनाकाल सन् १८३३ ई. से आरम्भ होता है। इनका लिखा हुआ ‘चतुर-रसाल’ नामक ग्रंथ कहा जाता है।
१२७. गौरीदान:- ये कविया शाखा में उत्पन्न हुए थे और जयपुर राज्यान्तर्गत सेवापुर गाँव के निवासी थे। कवि गंगाराम इनके भाई थे। इनकी कविता अप्राप्य है।
१२८. सूरतो:- ये बोगसा शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत बाड़मेर परगने के खारापार गाँव के निवासी थे। इनके लिखे हुए कतिपय गीत कहे जाते हैं।
१२९. चावण्डदान:- ये महडू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ राज्यान्तर्गत सरसिया गाँव के निवासी थे। इनके लिखे हुए फुटकर गीत कहे जाते हैं।
१३०. मंगलदास:- इनको शाखा का पता नहीं चलता किन्तु ये जयपुर राज्यान्तर्गत उदयपुर तहसील के जिखल गाँव के पास ढाणी में रहते थे। इनके जीवन-वृत्त के सम्बन्ध में अधिक पता नहीं लगता। ये सन् १८५३ ई. तक जीवित थे। इन्होने ‘गुरु-पद्धति’, ‘तर्क खण्डन’, ‘सुंदरोदय’ आदि कई ग्रंथ बनाये हैं।
१३१. चिमनजी (मेवाड़):- ये आढ़ा शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ के निवासी थे। महाराणा स्वरूपसिंह इनके समकालीन थे। इनकी स्फुट काव्यरचना बताई जाती है।
१३२. गोपालजी:- ये महडू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ राज्यान्तर्गत सरसिया गांव के निवासी थे। इनके लिखे हुए फुटकर गीत कहे जाते हैं।
१३३. ब्रजनाथ:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और जयपुर के निवासी थे। इन्हें महाराजा रामसिंह का राज्याश्रय प्राप्त था। इनका रचनाकाल सन् १८४३ ई. है। इनकी फुटकर कवितायें कही जाती हैं।
१३४. मेघजी महडू:- ये महडू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ राज्यान्तर्गत सरसिया गांव के निवासी थे। इन पर शाहपुरा के राजा लक्ष्मणसिंह की विशेष कृपा थी। इनके लिखे हुए फुटकर गीत बताये जाते हैं।
१३५. अनाड़दान:- ये दधवाडिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और ढोकलिया गांव (मेवाड़) के निवासी थे। इनके भाई का नाम कमधी था। इनकी लिखी हुई फुटकर कवितायें कही जाती हैं।
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