पांडव यशेन्दु चन्द्रिका – द्वादश मयूख

।।द्वादश मयूख।।

द्रोणपर्व (उत्तरार्द्ध)

युधिष्ठिर उवाच
कवित्त
तेरे काज बन ही मैं कहतो किरीटी मोसों,
सात्यकि के जो ही तैं शत्रुन कौं मारिहौं।
कृष्ण बलदेव जोपै होहिं न सहाय तो हू,
एक शयनेय ही तैं सबै काज सारिहौं।
सोई काज आज कोस द्वारश लौं द्रौनव्यूह,
तो बिन तरैया को है ताहितैं पुकारिहौं।
देवदत्त गांजिव को घोष ना सुनौंहौं तेरे,
गुरु बिना पृथा कौं मैं का मुख दिखारिहौं।।१।।
युद्धभूमि में अर्जुन की शंख ध्वनि नहीं सुनाई देने से, युधिष्ठिर व्याकुल हो कर सात्यकि से कहने लगे कि हे युयुधान (सात्यकि)! हम जब वनवास में थे तब अर्जुन तुम्हारे लिए कहता था कि सात्यकि के बल का सहारा पा कर मैं शत्रुओं को मार गिराऊंगा। यदि श्री कृष्ण और बलभद्र भी सहायता न करें तब भी एक शैनेय (सात्यकि) से मैं सारा कार्य निकाल लूंगा। आज वही कार्य आ पड़ा है। बारह कोस के प्रसार में द्रोणाचार्य ने व्यूह की रचना की है, उसमें आज तेरे बिना कौन पार कराने वाला है? यही सोच कर तुम्हें कहता हूं कि देवदत्त और गांडीव की ध्वनि मुझे सुनाई नहीं दे रही है इसलिए तुम्हारे गुरु (अर्जुन) के बिना मैं आज पृथा (कुंती) को क्या मुँह दिखलाऊंगा?

दोहा
जवन सैन्य दश सहस गज, अर्जुन लायो जीति।
तेउ जुध कौं सनमुख खरे, लखहु काल विपरीति।।२।।
फिर हे सात्यकि! काल की विपरीत गति को देख, कि जिस यवन-सेना के दस हजार हाथी अर्जुन जीत कर लाया था, वही (यवन) आज युद्ध करने को सम्मुख खड़े हैं।

इनहि द्रोन जुत लोपिकै, करन सैन्य कौं घाय।
दुस्यासन जलसंध हनि, मिलहु विजय तैं जाय।।३।।
इन (यवनों) को द्रोणाचार्य सहित लोप कर, कर्ण की सेना घायल कर, दुःशासन और जलसंघ को मार कर, हे सात्यकि! तू अर्जुन से जा मिल।

प्रति वचन
कवित्त
व्यूह के उलंघिबे को सोच मोकौं नेंक नाहिँ,
आपको है सोच मैं भरोसे छोरौं कौन के।
हमैं याहि काज दोउ कृष्ण यहां राखि गये,
जीवित ग्रहन तेरो सुन्यो नेम द्रौन के।
जुधिष्ठिर कहै मैं का क्षत्रि नाहिं? भीमादिक,
एती सुनि मौन व्है दिवाय दान विप्रन कौं।
मेरे हैं सहाय क्यों न जाहु? उत गौन के,
व्यूह द्रौन के पै चल्यो रथी बेग पौन के।।४।।
यह सुन कर सात्यकि कहने लगा कि हे महाराज! व्यूह को उलांघने की मुझे किंचित मात्र भी चिंता नहीं किन्तु मुझे आपकी फिक्र है कि मैं आपको किसके सहारे छोड़ूं? क्योंकि आपको जीवित पकड़ने की द्रोणाचार्य की प्रतिज्ञा सुन कर दोनों (श्रीकृष्ण और अर्जुन) मुझे यहाँ इसीलिए छोड़ कर गये हैं। यह सुन कर युधिष्ठिर बोले कि क्या मैं क्षत्रिय नहीं? फिर भीमसेन आदि मेरी सहायता को हैं, यह जान कर भी तुम वहाँ जाते क्यों नहीं? यह सुन कर सात्यकि मौन हो गया और ब्राह्मणों को दान दे कर, द्रोणाचार्य के व्यूह पर रथी हो कर पवन की गति से बढ़ा।

दोहा
सकट व्यूह धुर द्रौन तैं, प्रथम हि भयो मिलाप।
द्रौन कहत दुर्धर्ष सों, लखि शैनेय प्रताप।।५।।
सात्यकि के शकट व्यूह (गाड़ी के आकार वाला व्यूह) के धुरे (अग्रभाग) पर आते ही उसका सामना द्रोणाचार्य से हुआ। शैनेय जैसे दुर्धर्ष योद्धा को देखते ही द्रोणाचार्य कहने लगे।

द्रोण उवाच
जा मग व्है तव गुरु कढ्यो, रे सात्वत मदअंध।
त्यों अपसव्य व्है निकरि तूं, कै तुहि तूटहि कंध।।६।।
हे मदान्ध सात्यकि! जिस रास्ते से हो कर तेरा गुरु (अर्जुन) निकला है उस दांयी ओर वाले रास्ते से हो कर, तू भी निकल जा, नहीं तो तेरे कंधे टूट जाएंगे।

सात्यकि उवाच
जा मग आचारज कढै, कढत न शिष कौं सोच।
तिन्हकौं जो दूषित कहै, तिनकी बुधि मँहि पोच।।७।।
प्रत्युत्तर में सात्यकि ने कहा कि जिस राह से हो कर मेरे आचार्य निकले हैं उस राह से हो कर गुजरने में मुझ शिष्य को कैसी लज्जा? परन्तु मेरे गुरु (अर्जुन) को जो कायर कहता है, मुझे उसकी बुद्धि, कायर बुद्धि लगती है।

संजय उवाच
आडो फिर फिर हटि गयो, तीन बेर द्विज दौन।
तिन सात्वत जुध कुशल तैं, कहि जिय पावत कौन।।८।।
संजय बताने लगा कि हे धृतराष्ट्र! जिसके सामने जा जा कर, तीन बार द्रोणाचार्य वापस लौट आए, (पीछे हठे) उस युद्ध कुशल सात्यकि से कौन विजय पा सकता है? आप ही बताएं?

मारि सारथी द्रौन को, कृतवर्मा कौं जीति।
समझाई दुस्यासनहि, कपटद्यूत की रीति।।९।।
इसके बाद युद्ध भूमि में आगे बढते हुए सात्यकि ने द्रोणाचार्य के सारथी को मार गिराया, फिर कृतवर्मा को जीत कर, दुःशासन को छल-कपट से जुआ खेलना समझाया (उसे दण्डित किया)। उसे अपने बाण प्रहार से शिक्षा दी।

सात्यकि बानन तैं बिकल, रन त्याग्यो जुवराज।
दुस्यासन चित चकित सो, गयो द्रौन पै भाज।।१०।।
तब सात्यकि द्वारा छोड़े गए बाणों से व्याकुल हो कर युवराज दुःशासन, युद्ध भूमि को छोड़ कर, भ्रमित चित्त से द्रोणाचार्य के पास भाग आया।

द्रोण उवाच
सवैया
शीष के भूषण भूमि परे कटि, सात्यकि वीर के बान के मारे।
द्रौन कहै हँसिकै कुरुराज जु, आये भले करि मुंड उघारे।
बीज को बोवत पूत दुसासन, जान्यो नहीं फल लागिहैं खारे।
जो प्रिय होय सो जाहर कीजिये, पाघ मँगावैं कि चूनरि प्यारे।।११।।
युद्ध में निष्णात सात्यकि के बाण प्रहार से दुःशासन के मस्तक पर पहना मुकुट कट कर पृथ्वी पर गिर पड़ा और उसे इस तरह बेतहाशा भाग कर आते हुए देख द्रोणाचार्य ने हँस कर कहा कि हे कुरुराज! तुम उघाड़े सिर अच्छे आए? हे पुत्र दुःशासन! कड़वा बीज बोते समय क्या तुमने नहीं जाना था कि इसके फल कड़वे आएंगे? अब तुझे नंगे सिर देख कर तुम्हारी इच्छा पूछता हूं कि मुझे बता, तेरे सिर के लिए पाघ (साफा) मंगवाऊं कि चूनड़ी?

द्रोन कहै भृकुटी करि बंक, भये सुत्त कायर मंगल गावै।
राजसभा बिच नाहररूप रु काम परे पर श्याल कहावै।
क्यों तुम से नृप पूत दुस्यासन, गाल बजायकै बीरता पावै।
सात्यकि तैं बचै जन्म भयो नव सूप बजावैं कि थाल बजावैं।।१२।।
अपनी भृकुटि टेढ़ी कर द्रोणाचार्य आगे कहने लगे कि हे पुत्र! तुम कायर हो कर कुशल पूर्वक युद्ध से आने का गीत गा रहे हो। राजसभा में तो सिंह रूप दहाड़ते रहे, आज लड़ने का काम पड़ा तो सियार रूप हो गए। हे दुःशासन! तुम्हारे जैसे राजकुमारों का क्या, जो गाल बजा कर (मिथ्या बढाई कर) वीरता पाते हैं? तुम आज सात्यकि से बचे हो, यह तुम्हारा नया जन्म है इसकी बधाई में हे वत्स! बताओ कि आज सूप बजाएं (लड़की के जन्म पर सूप बजाने की प्रथा है और लड़के के जन्म पर थाली बजाने की) या कि थाली बजवाएं?

घनाक्षरी
कवित्त
करै ना संधान शर कोप जुत बानी दुज,
कहत दुसासन सों भाग्यो लखि बारबार।
सात्यकि के बानन तैं त्रासत हो मेरे पूत,
किरीटी के बानन सहोगे कैसे प्रलैकार।
बरजत रच्यो द्यूत कान न पिता की कीन्ही,
द्रौपदी को ऐंच्यो चीर संधि क्यों न लीन्ही धार।
जानन क्यों खेले हैं अजानन लौं पासन के,
बानन के जुथ्थ व्है हैं प्रानन के लैनहार।।१३।।
सात्यकि से भागते दुःशासन को देख कर अपने धनुष पर बाण संधान न कर द्रोणाचार्य कुपित स्वर में कहने लगे कि मेरे पुत्र! सात्यकि के बाणों से यदि इस तरह भय खाते हो तो फिर अर्जुन के प्रलयकारी बाणों के समक्ष तुम्हारी क्या दशा होगी? पिता की राय को भी अनसुना किया, और ना कहते-कहते जुए की बाजी रची, द्रौपदी के वस्त्र खींचे। इतने अपराधों के चलते तुमने फिर पाण्डवों का सुलह प्रस्ताव स्वीकार क्यों नहीं कर लिया? तुमने जानते बूझते क्यों अनजाने दाँव खेले? अब तो ये बाणों के झुंड ही तुम्हारे प्राणों को हर लेने वाले होंगे।

पुनर्यथा
टेढी भौंह द्रौन दुसासन कौं निकट देखि,
बोले हैं प्रगट वाक्य कुशल जुत आये धाय।
खातिर सुयोधन की सात्यकि कों दीनी जय,
पूर्व तजि राज-साज बन के न कीने जाय।
कुरु दल बलीच नरसिंघ आप बीर बजो,
धिक है हजार जाकौं अरि तैं विमुख काय।
बोय बीज हाथन त्यों पाय जुवराज पद,
खाय घाय पीठ दीठ लाज हू न आई हाय।।१४।।
दुःशासन को इस प्रकार भाग कर अपने पास आया देख द्रोणाचार्य ने अपनी भृकुटि टेढी कर, सीधा कहा कि हे दुःशासन! तू अपनी कुशल चाह कर यहाँ दौड़ आया! दुर्योधन के भले की खातिर, सात्यकि को सुयश दे आया। तुमने अपने राज साज की इच्छा छोड़ कर वन में वास क्यों नहीं किया? फिर कौरवों की सेना में तुम वीर शार्दूल कहलाते हो, जो शत्रु के उल्टे अंग की ओर से हो कर भाग आए! तुम्हें हजार बार धिक्कार है। अपने हाथों युद्ध का बीज बो कर, युवराज का पद हथिया कर, युद्ध में घाव खा कर और शत्रु को पीठ दिखा कर भाग आए। इससे हाय! तुम्हें लाज नहीं आई?

अर्जुन प्रति कृष्णोवाच
द्रौन दल फारिकै विदारि व्यूह दंतिन की,
मार्यो सुदर्शन जलसंघ हू कौं गलिगो।
जवन पछारि मुनि द्रौन सारथी प्रहारि,
जादव उदार फेरि दुसासनै दलिगो।
विक्रम बखानैं सबै वीर भर्तवंशिन के,
कुरु-सैन्य-सिंधु नर देखि तूं विचलिगो।
सात्यकि मदोनमत्त कुंजर कराल कृष्ण,
बाल्हिक नृपाल पौत्र कीच बीच कलिगो।।१५।।
अर्जुन को सुना कर श्री कृष्ण कहने लगे कि द्रोण के दल को चीर कर, हाथियों की सेना को बेध कर, जिसने राजा सुदर्शन को मारा। यही नहीं जो जलसंध राजा को निगल गया, जिसने यवनों को हराया, द्रोणाचार्य के सारथी को यमलोक भेजा और जिस उदार यादव ने दुःशासन का दलन किया। फिर हे अर्जुन। तेरे पराक्रम का सभी भरतवंशीय बखान करते हैं, वही तू भी कौरवों की सेना रूपी समुद्र को देख कर व्याकुल हो गया था, उसी समुद्र को तैर कर आने वाला, वही मदोन्मत्त हाथी (सात्यकि) अब बाल्हिक राजा के पोत्र (भूरिश्रवा) रूपी कीचड़ में फँस गया है।

संजयोवाच
दोहा
युयुधान भूरीश्रवा, यदुपुंगव कुरुवीर।
जुटे विरथ बिन कवच भये, तोउ दोउ तजी न धीर।।१६।।
संजय बताने लगा कि हे राजा धृतराष्ट्र! यदुवंश का महा पराक्रमी युयुधान (सात्यकि) और कुरूवंश का वीर भूरिश्रवा, ये दोनों जब युद्ध में भिड़े तब दोनों योद्धा रथविहीन और कवच रहित हो गए। फिर भी उन दोनों वीरों ने युद्ध करने का धैर्य नहीं खोया।

द्वंदयुद्ध करि पटकि कुरु, सात्यकि को तहँ सीस।
छाती चढि काटन लगो, यादव भयो अनीस।।१७।।
दोनों आमने-सामने (मल्लयुद्ध) लड़े फिर जब कौरव (भूरिश्रवा) सात्यकि को भूमि पर पटक कर छाती पर चढ बैठा और उसका सिर काटने लगा तब वह यादव (सात्यकि) अवश्य असहाय (अनीश) हो गया।

धृतराष्ट्र उवाच
कवित्त
कृष्ण जैसो सारथी अनाश रथ त्यों ही अश्व,
अखै भाथा गांजिव की गुन हू कटै नहीं।
किरीटी सो रथी ताकी समता करैया बीर,
द्रौन रच्यो व्यूह तामैं अेकलो नटै नहीं।
शकट के बीच पद्म पद्म बीच सुची व्यूह,
दोय दस कोस ताहि देव हू अटै नहीं।
अटन कियो है ताको ऐसे सात्यकि को सीस,
छाती चढि भूरिश्रवा काटै पै कटै नहीं।।१८।।
यह सुनकर धृतराष्ट्र संजय से पूछने लगे कि हे संजय! श्री कृष्ण जैसे जिस के सारथी हों, विनष्ट न हो ऐसा जिसका रथ और ऐसे ही घोड़े हों, जिसके अक्षय तूणीर हो, जिसके धनुष गांडीव की प्रत्यंचा किसी से न काटी जा सकने वाली हो। ऐसा जो एकरथी अर्जुन है, उसकी बराबरी करने वाला वह सात्यकि वीर जो द्रोणाचार्य द्वारा रचित व्यूह से अकेला होते हुए भी पीछे नहीं हटता। फिर गाड़ी के आकार वाले व्यूह के बीच में कमलाकार व्यूह है और उसके मध्य सूई की आकृति वाला व्यूह है। जिस व्यूह के बारह कोस के प्रस्तार में देवता भी प्रवेश न कर पाते हों, ऐसे व्यूह को नहीं गिनने वाले वीर सात्यकि का सिर, छाती पर चढे हुए भूरिश्रवा से काटे न कटता हो (कदाचित इसका कोई कारण होगा)।

कवि उवाच
दोहा
युधामन्यू उत्तमौज द्वै, द्रुपदपुत्र भय द्रौन।
नर रथांग रक्षक तेऊ, व्यूह बाह्य किय गौन।।१९।।
कवि कहता है कि युधामन्यु एवं उत्तमौज द्रुपद राजा के ये दोनों पुत्र अर्जुन के रथ के पहियों के रक्षक थे, जो द्रोणाचार्य के भय से व्यूह से बाहर निकल गए। (इस दोहे का प्रसंग अगे के पद्धरी छन्द ४३ में है-सं)

संजय उवाच
सोमदत्त ताको शिनी, काटन लागो शीष।
करी दया जीवित तज्यो, उन्ह भजि जाच्यो ईश।।२०।।
याके सुत कौं मोर सुत, मृतक प्राय युध माहिँ।
करी विनय सुनि धूर्जटी, तथा अस्तु कहि ताहि।।२१।।
सात्यकि के बेहार होने का पूर्व कारण संजय धृतराष्ट्र को बताते हुए कहने लगा कि हे राजा! पूर्व में हुए युद्ध में जब सात्यकि का पिता शिनी यादव, भूरिश्रवा के पिता सोमदत्त का सिर काटने लगा, तब उसे दया आ गई और उसने उसे छोड़ दिया। इस पर सोमदत्त ने महादेव की तपस्या कर वरदान मांगा कि ‘हे शिव भगवान! शिनी के पुत्र को मेरा पुत्र युद्ध में मरण तुल्य करे’। उसकी विनती सुन महादेव ने ‘तथास्तु’ कहा था।

श्रीकृष्णोवाच
बन्यो जोग तातैं इहै, कृष्ण कह्यो नर देखि।
आयो कुरु-दल-सिंधु तरि, गो-पद डूबत लेखि।।२२।।
श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि हे पार्थ! यह पूर्वयोग था (भगवान महादेव के वरदान रूप) इसलिए यह इस जन्म में भी सत्य हुआ, वह ऐसे कि जो पराक्रमी सात्यकि, कौरवों की सेना के समुद्र को अपने बलबूते से तैर कर पार कर आया वह यहाँ इस भूरिश्रवा रूपी गाय के खुर जैसे चहबच्चे में डूब रहा है।

अर्जुन उवाच
प्रेर्यो मम हित सात्यकि, कीनो नृपति अकाज।
इत याकी रक्षा उचित, उत जैद्रथ बध आज।।२३।।
यह सुन कर अर्जुन बोला कि मेरे लिए युधिष्ठिर ने सात्यकि को भेजा यह अकाज किया। अब इधर आज ही सात्यकि को बचाना और जयद्रथ को मारना ये दो काम मुझ से कैसे बनेंगे?

यों कहि वाम हि पान तैं, पृष्ट अद्रष्टहि बान।
मार्यो भुज भूरीश्रवा, खङ्ग जुक्त किय हान।।२४।।
इतना कह कर अर्जुन ने अदृश्य रूप से बाएं हाथ को पीठ पीछे ले जाकर बाण निकाल भूरिश्रवा पर चला कर उसका तलवार सहित हाथ काट डाला।

भूरिश्रवा उवाच
त्यागि शस्त्र संन्यास ले, कही किरीटी देखि।
तोकौं ऐसी उचित क्यों, पुनि संगत फल पेखि।।२५।।
इस पर भूरिश्रवा ने कहा कि हे अर्जुन! देख, अब तुझे शस्त्रों का त्याग कर सन्यास ले लेना चाहिए कि तुझसे अब ऐसे अकाज हो रहे हैं। परन्तु यह सभी कुछ संगत का फल है (श्री कृष्ण के सारथित्व वाले संग पर व्यंग्य है) इसे जान।

लरत आन तैं प्रमत तैं, मम भुज छेद्यो सोय।
कृष्ण मित्र बिनु क्षत्रि तैं, यह अधर्म नहिं होय।।२६।।
मैं दूसरे से लड़ रहा था पर प्रमत्त हो कर तूने मेरा हाथ काटा। ऐसा दुष्कार्य कृष्ण के मित्र हुए बिना किसी क्षत्रिय से नहीं हो सकता। (इस अधर्म के कारण को जान)

अर्जुन उवाच
राजपुत्र निज सैन्य कौं, राखि लेत भय बेर।
बनी न रक्षा अंग की, कृष्णहि निंदत फेर।।२७।।
यह उलाहना सुन कर अर्जुन ने प्रत्युत्तर दिया कि हे भूरिश्रवा! राजपूत (क्षत्रिय) आपतकाल में अपनी सेना की रक्षा करता है पर तुझ से तो अपने स्वयं के अंग की रक्षा भी न हो सकी और ऊपर से कृष्ण की निंदा करता है।

मम हित आयो सात्यकि, तजि आशा निज प्रान।
ताके मृत्यु सँकष्ट मैं, क्यौं न होउँ तनत्रान।।२८।।
स्वयं के प्राणों की आशा तज कर जो सात्यकि मेरे लिए आया उस पर मरण संकट आए तब मैं उसका कवच (शरीर की रक्षा करने वाला) कैसे न बनूं?

इत तैं सात्यकि भूमि तैं, सोई खड़ग उठाय।
कृष्णादिक वर्जत रहे, दूर किये शिर काय।।२९।।
इतने में ही अवसर देख कर सात्यकि ने भूमि पर पड़ी तलवार उठाई। श्री कृष्ण आदि मना करते रहे पर उसने भूरिश्रवा की गर्दन काट कर धड़ से अलग कर दी।

श्री कृष्णोवाच
दारुक सात्यकि कौं करहु, मम रथ पर आरूढ।
जौ लौं गांजिव बान तैं, मरे सिंधुनृप मूढ।।३०।।
रथविहीन सात्यकि को अपने पास आया देख, श्री कृष्ण ने अपने सारथी दारुक से कहा कि हे दारुक! जब तक गांडीव धनुष के बाण से मूढ़ जयद्रथ का वध न हो, तब तक सात्यकि को मेरे रथ पर बिठाए रख।

शंखनाद
सात्यकि रथ आरूढ व्है, पूर्यो हरि को शंख।
तातैं दोउ दल नृपति कौं, उर उपज्यो आतंक।।३१।।
श्री कृष्ण के रथ पर आरूढ होते ही सात्यकि ने श्री कृष्ण का शंख (पांचजन्य) बजाया जिससे दोनों सैन्य दलों में और राजा युधिष्ठिर के हृदय में भय उत्पन्न हुआ।

युधिष्ठिर उवाच
पांचजन्य की घोष सुनि, कह्यो भीम कौं दौर।
देवदत्त धुनि बिनु सुनै, मन अकुलावत मोर।।३२।।
पांचजन्य के बजने की ध्वनि सुन कर युधिष्ठिर ने भीमसेन से कहा कि हे भीमसेन! तू शीघ्र दौड़ क्योंकि देवदत्त (शंख) की ध्वनि सुने बिना मेरा मन व्याकुल हो रहा है।

नहिँ कपिध्वज की कुशललता, कृष्ण लरत मम काज।
द्रौन व्यूह बिच गौन कौं, और कौन? तूं आज।।३३।।
मुझे लगता है कि कपिध्वज (अर्जुन) कुशल नहीं और मेरे लिए अब श्री कृष्ण लड़ रहे लगते हैं। हे भाई! द्रोणाचार्य के व्यूह में आज जाने योग्य कौन है? अर्थात् मात्र तू ही है।

कहि हैं सब हित अनुज के, तज्यों सात्यकि दूर।
करहु धनंजय तैं अधिक, जाको जतन जरूर।।३४।।
फिर सभी लोग यही कहेंगे कि अपने छोटे भाई (अर्जुन) के लिए सात्यकि को अलग-थलग छोड़ दिया, इसलिए हे भाई! अर्जुन से भी अधिक इस सात्यकि की रक्षा जरूरी है।

भीम का द्रौन पर जाना
कवित्त
सात्यकि ज्यों भीम कौं पठायो किरीटी के काज,
द्रौन तैं सुनाये कटु वाद बीर रस मैं।
मैं हौं ना किरीटी शिष्य सात्यकि प्रशिष्य नाहिँ,
हारि कढौं कैसै ज्यों कढै हैं तेरी बस मैं।
रे रे द्विज नीच अब मानत हौं शत्रु तोकौं,
जीतै बिन वैसै कैसै जैहौं नस नस मैं।
धनु मुरवी के रथ नेमि उरवी के घोष,
गदा गुरवी के त्यों सुनाये दिशि दश मैं।।३५।।
युधिष्ठिर ने सात्यकि की तरह भीमसेन को भी अर्जुन के लिए भेजा। युद्धभूमि में जाते ही जब उसका सामना द्रोण से हुआ, तो भीमसेन ने उसे कुपित हो कर ऊँचे सुर में कड़वे बोल सुनाये कि हे द्रोण! मैं कोई तुम्हारा शिष्य अर्जुन नहीं, और न ही शिष्य का शिष्य सात्यकि हूँ, जो तुम्हारे वश में हो कर अपसव्य बन निकलूं? अरे नीच ब्राह्मण! अब मैं तुम्हें अपना शत्रु (अभिमन्यू को मारने में मुख्य भूमिका होने के कारण) मानता हूँ, तुम्हें जीते बिना चुपचाप कैसे निकल जाऊं? इसके बाद द्रोण के धनुष की प्रत्यंचा और उसके रथ के पहिये के आरों पर भारी गदा की चोट की जिसकी ध्वनि दशों दिशाओं में सुनाई दी।

संजय उवाच
दोहा
एक गदा हत करि दियो, अश्व सहित रथ चूर।
नातर यमपुर भेटते, द्रौन कूदि गये दूर।।३६।।
संजय कहने लगा कि हे राजा! भीमसेन ने गदा के एक ही वार से घोड़ों सहित द्रोण के रथ को चूर-चूर कर डाला पर द्रोणाचार्य उस समय रथ से कूद कर दूर हट गए अन्यथा भीमसेन उन्हें भी यमपुर भिजवा देता।

एक तीश दिन एक मैं, चवदा निशि बिच पूत।
तेरे जमपुर कौं गये, हते भीम रनधूत।।३७।।
संजय और आगे कहने लगा कि हे राजा! युद्ध में वाभराभूत (अत्यन्त क्रोधावस्था में) हुए भीमसेन ने एक ही दिन में तुम्हारे इकत्तीस पुत्रों को और रात्रि में चौदह पुत्रों को मार कर यमलोक भेजा।

कवित्त
पांच बेर भीम तैं पराजै भो दिनेशपुत्र,
एक बेर सोई जीत्यो भीम कौं बकार कै।
जैसो शस्त्र लीनो तैसौ काटि कै द्विधा सो कीनो,
मृत्यु गज त्रान त्योंहि छेद्यो बान मार कै।
धनूं की अनी तैं गोदा देकै कटु वाद कहै,
खाया करो बहुत उठाया करो भार कै।
आज पीछे जुद्ध की बिचार कै पधार्या करो,
तुल्य शत्रु धार कै मैं कहत पुकार कै।।३८।।
जो सूर्य पुत्र कर्ण, भीमसेन द्वारा पाँच बार हराया गया, उसने एक बार जरूर ललकार कर भीम को हराया। वह भी उसने इस तरह कि भीमसेन ने जो भी शस्त्र धारण किया उसे उसने काट कर दो टुकड़ों में बांट दिया। जब सारे शस्त्र इस प्रकार कट गए तो भीमसेन ने एक मरे हुए हाथी को उठा लिया, उसे भी कर्ण ने अपने बाणों से छिन्न-भिन्न कर दिया। उसके बाद निशस्त्र भीमसेन को अपने धनुष के एक सिरे का गोदा (घोंप कर) दे कर कहा कि भीम भाई! अधिक खाया करो एवं भारी भार उठाया करो और सुनो, आज के बाद अपनै बराबर वाले शत्रु से ही भिड़ा करो। सोच विचार कर युद्ध में जाना ही श्रेष्ठ है, (अर्थात् तू मेरे बराबर का योद्धा नहीं है)।

दोहा
मरनप्राय करि भीम कौं, ना मार्यो यह हेत।
कुंती कौं चहुँ पुत्र को, दियो वचन करि चेत।।३९।।
उस समय कर्ण ने भीम को मृत प्रायः जान कर छोड़ दिया और यह सोच कर उसे नहीं मारा कि मैंने कुंती को वचन दिया है कि तेरे चार पुत्रों को युद्ध में टाल दूंगा, नहीं मारूंगा।

अर्जन उवाच
करन पांचधा भीम तैं, क्यों न पराजय याद।
एक बेर तूं करि विरथ, बोलत है दुर्वाद।।४०।।
भीम से कर्ण का दुर्वाद सुन कर अर्जुन बोला कि हे कर्ण! तू भीम सेन से पाँच बार हारा है, इसे क्यों भूलता है? यही नहीं, इस बार उसे विरथ कर खोटे वचन सुना रहा है?

घूक असूयावान की, द्रष्टि बुद्धि इक भाय।
तम पर औगुन मैं फुरै, दिन परगुन न लखाय।।४१।।
उल्लू पक्षी और असूयावान पुरूष की दृष्टि एक जैसी होती है कि जो अंधेरे और पराये दोष में प्रवर्तमान होती है। जो दिन का प्रकाश और पराये गुणों को देख ही नहीं सकते।

निज कुच त्रिय निज पानि तैं, मर्दत टुक अहलाद।
होवत होय स्वमुख हि तैं, जशकृत को अपवाद।।४२।।
और हे कर्ण! जिस प्रकार स्वयं के हाथों से स्वयं के कुचों का मर्दन करने वाली स्त्री को वह आनन्द प्राप्त नहीं होता, उसी तरह स्वयं के मुँह से स्वयं का यश करने वाले की निन्दा होती है, उसे यश प्राप्त नहीं होता।

कवि उवाच
पद्धरि छंद
हुइ सैन्य बाह्य मिलि द्रुपद पुत्र, अरु मिले सात्यकि भीम अत्र।
इन बिनहि एक अर्जुन उदार, किय शत्रु विकल सुर अभयकार।।४३।।
मूर्छित किय कृप कौं एक बान, सुत द्रौन भग्यो लै मृतक जान।
मद्रेश शस्त्र किय खंड खंड, पुनि हते दुसासन हय प्रयंड।।४४।।
रथ भगे अश्व लै मरे सूत, वृषसेन करन दो पिता पूत।
भूरीश्रव सात्यकि कियो नाश, दुर्योधन भजि गो द्रौन पास।।४५।।
उत देखन रन अरि शिर उठाय, चित क्षुभित विजय हर शर चलाय।
कवि कहता है कि पहले द्रुपद राजा के दो पुत्र (युधामन्यु और उत्तमौज) द्रोणाचार्य के भय से सेना से बाहर निकल गए थे, वे तथा सात्यकि और भीमसेन यहाँ आ कर अर्जुन से मिले। उनके बिना भी देवताओं को अभय करने वाले उदार अर्जुन अकेले ने कई शत्रुओं को व्याकुल कर रखा था। उसने एक ही बाण से कृपाचार्य को मूर्च्छित कर दिया, जिन्हें मरा जान कर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा युद्ध भूमि से उठा कर भागा। मद्रपति शल्यराज के शस्त्र को टुकड़े-टुकड़े कर दुःशासन के घोड़े मार दिये। जिनके रथ टूट गए और सारथी मारे गए ऐसे कर्ण और वृषसेन, ये दोनों पिता-पुत्र घोड़े पर सवार हो कर भागे। भूरिश्रवा को सात्यकि ने मारा और दुर्योधन भाग कर द्रोणाचार्य के पास चला गया। उस समय शत्रु (जयद्रथ) ने रण- संग्राम का दृश्य देखने के लिए अपना सिर ऊंचा किया उसके दिखते ही पुत्र शोक में अकुलाए हुए अर्जुन ने महादेव द्वारा प्रदत्त (दस योजन के वेग से चलने वाला सर्पाकार) बाण चलाया।

दोहा
बहुतन मिलि कीनो विकल, अभिमन दल बिन एक।
धन्य एक गांजीवधर, कीने विकल अनेक।।४६।।
सेना विहीन अकेले अभिमन्यू को तो बहुत सारे योद्धाओं ने एक साथ मिल कर व्याकुल किया था, पर गांडीवधारी अर्जुन धन्य है कि उस अकेले ने बहुत सारे योद्धाओं को व्याकुल कर डाला।

संजय उवाच
कवित्त
अस्त्र ही तैं कीनो है सरोवर अनूप रूप,
कीने निरशल्य अश्व नीर हू पिवायो है।
भूरिश्रवा भुजा छेदि सात्यकि बचाय लियो,
तासौं पुनि भाषन भो सबकौं सुहायो है।
सिंधुनृप रक्षा काज अष्ट धनुधारी ठाढ़े,
तिनकौं दबाय कियो आप मन भायो है।
शीष छेदि ताको दस जोजन उडाय ताके,
पिता गोद डारि सिर पिता को गिरायो है।।४७।।
संजय कहने लगा कि हे राजा धृतराष्ट्र! जिसने अपने शस्त्र से अनुपम सरोवर उत्पन्न किया और अपने घोड़ों को निर्शल्य कर पानी पिलवाया था। जिसने भूरिश्रवा का हाथ काट कर, अपने प्रिय सात्यकि को बचाया, इससे उसका बखान हुआ जो सभी को प्रिय लगा। सिंधुनृप जयद्रथ की रक्षार्थ, आठ धनुष धारी उसे घेरे खड़े थे उसको कुचल कर अर्जुन ने अपना सोचा हुआ कार्य सम्पन्न किया। वह यह कि जयद्रथ का मस्तक काट कर उसे चालीस कोस की दूरी तक पृथ्वी पर न गिरने दिया। अपने बाणों के सहारे उस मस्तक को हवा में उड़ाते हुए अन्ततः जयद्रथ के पिता की गोद में जा गिराया और उसके बाद उसका (जयद्रथ के पिता वृद्धक्षत्र का) भी सिर काट डाला।

छंद पद्धरी
जयद्रथहि मारि पुनि फिरे जोध, रिन कवन तिनहि करि सकै रोध।
श्रीकृष्ण कहत रिन भू सुभाव, लखि पार्थ यहै गांजिव प्रभाव।।४८।।
केउ परे वीर सिर खुले केश, बोलहिं जनु फाटे चख विशेष।
गज परे इतै रथ पंथ रूध, जाजुल्य कियो जहँ जवन जुद्ध।।४९।।
जयद्रथ को मार कर वे योद्धा वापस लौटे, उन्हें रण में कौन रोक सकता है? वहाँ रास्ते में रणभूमि के दृश्य को देख कर श्री कृष्ण कहने लगे कि हे अर्जुन! यह गांडीव धनुष का प्रभाव देख, कितने ही योद्धा उघाड़े सिर मरे पड़े है जिनके नेत्र भय से विस्फारित हैं, और लगता है ये अब बोल पड़ेंगे-अब बोल पड़ेंगे। इधर ये हाथियों के शव देख, जिनके ढेरों से रथ का मार्ग रुक गया है। यहाँ यवनों का भयंकर युद्ध हुआ था।

केउ परे धनुष शक्ती निखंग, कहुँ अधोभाग कहुँ उर्धअंग।
कहुँ चर्म वर्म भूषण कितेक, कहुँ अश्व रथन के अंग केक।।५०।।
इत इतै अस्म योद्धा अपार, सात्यकि कियो अरिदल सँहार।
यों कहत युधिष्टिर निकट आय, लखि विजय विजय जुत कंठ लाय।।५१।।
खट हु तैं मिल्यो करि हृदय लीन, नृप मानि जनम जिनको नवीन।
देख, कितने सारे धनुष टूटे पड़े हैं, शक्ति शस्त्र और तीरकश पड़े हैं। किसी का नीचे का आधा भाग टूटा हुआ है किसी का ऊपर का हिस्सा। इसी तरह योद्धाओं के इन कटे हुए अंगों को देख, कहीं ढाल तो कहीं कवच पड़े हैं। बिखरे हुए रथों के टुकड़े, मरे हुए घोड़े निहार। देख, यहाँ अस्मक राज की सेना के साथ शत्रु सेना के और कई योद्धाओं को सात्यकि ने काट डाला। यह सब देखते-देखाते और सुनते-सुनाते श्री कृष्ण सहित सभी वीर चल कर युधिष्ठिर के पास पहुँचे। तब राजा युधिष्ठिर ने विजय कर लौटे अर्जुन को छाती से लगाया और जैसे उन्हें नया जन्म मिला हो, यह जान कर युधिष्ठिर छहों (श्रीकृष्ण, अर्जुन, भीमसेन, सात्यकि, युधामन्यूं और उत्तमौज) से आनन्दपूर्वक गले मिले।

भगनीपति मार्यो सुन्यो भूप, तव पुत्र पर्यो दुख दीर्घ कूप।।५२।।
वह समय गयो द्विज द्रौन पास, नहिँ सथिर श्वास डारत निसास।
वह श्रमित वृद्ध द्विज अप्रमाद, बोल्यो फिर तिनतैं कटुकवाद।।५३।।
तुम विजय विजय की चही तत्र, मम अजय चहत गम परी अत्र।
तुम पार्थ जानि करि दियो जान, सात्यकि वृकोदर रथि समान।।५४।।
संजय बताने लगा कि हे धृतराष्ट्र! जयद्रथ को अर्जुन ने मार डाला यह सुन कर तुम्हारा पुत्र दुर्योधन दुःख के गहरे कुए में गिर पड़ा। इस वक्त उसका चित्त स्थिर नहीं है इसी से वह भागा-भागा निःश्वास छोड़ता हुआ द्रोणाचार्य के पास गया। उस समय युद्ध से थके होने पर भी वह वृद्ध आचार्य पूरी तरह सावचेत था। फिर दुर्योधन उन्हें सुना कर कड़वे वचन कहने लगा कि हे महाराज! अर्जुन जब युद्ध से पूर्व आपके पास आया था, तब आपने उसकी विजय की कामना की थी। आप मेरी पराजय चाहते हो, इसका मुझे अब पता चला क्योंकि आपने अर्जुन को देख कर भी उसे जाने दिया और इसी प्रकार सात्यकि और भीमसेन जैसे रथियों को भी जानबूझ कर जाने दिया।

जयद्रथहि जियत रवि अस्त जोत, तो जरत पार्थ मम विजय होत।
मैं आप भरोसे कियो जुद्ध, मम सैन्य करत अरि नाश क्रुद्ध।।५५।।
यह सुनत कह्यो द्विज द्रौन आप, निशि रचहुँ जुद्ध मम लखि प्रताप।
मम खुलहि कवच कै मृतक काय, अथवा कि खुलहि शत्रुन मिटाय।।५६।।
यदि सूर्यास्त तक किसी तरह जयद्रथ जीवित रह जाता तो अर्जुन अपनी प्रतिज्ञा के कारण जल मरता और मेरी विजय हो जाती। फिर हे गुरु! मैंने आपके भरोसे युद्ध स्वीकारा था और यह क्या कि शत्रु कुपित हो कर मेरी सेना का संहार कर रहे हैं और आप देख रहे हैं? यह सुन कर द्रोणाचार्य ने कहा ठीक है, आज रात्रि को मैं युद्ध रचाऊंगा, उसमें तुम मेरा प्रताप देखना, या तो मेरा शरीर नाश होकर मेरा कवच खुले अथवा शत्रुओं के कवच खुलेंगे। मैं उनका सर्वनाश कर डालूंगा।

द्रोण उवाच
कवित्त
द्रौन द्रग दुसह दिखाय कै सुयोधन कौं,
कहै दाघे बैन तबै शूरता कितै गई।
अष्ट धनुधारी बीच जैद्रथ बच्यो न हाय,
जी की अरु जै की उर आश तो रितै गई।
पहिले हू जतन कियो न प्रान राखिबे को,
अब सब सैन्य हू की आयुष इतै गई।
जा दिन तैं भीष्म शर-सैज पौढे तब ही तैं,
बड़े बड़े बीरन की वीरता बितै गई।।५७।।
इसके बाद द्रोणाचार्य, दुर्योधन को अपने क्रोधमय नेत्रों से देख कर सुलगते हुए वचन सुनाने लगे कि हे दुर्योधन! तेरी वीरता कहाँ गई? उसका क्या हुआ? हाय- हाय! तुम आठ धनुर्धारी थे फिर भी जयद्रथ को नहीं बचा पाए तो अब जीने की और जय की आशा व्यर्थ हुई समझो। पहले तो तुमने प्राणों को बचाने का उपाय किया नहीं और अब तो पूरी सेना की आयुष ही बीत गई समझ। फिर बीते दो दिनों की ही तो बात है, जब से भीष्म पितामह शर शय्या पर लेटे हैं तब से मुझे तो बड़े- बड़े शूरमाओं की वीरता बीत गई लगती है।

सुनिकै कटुक वाद नृपति सुयोधन के,
द्रौन कहै काहे नृप उच्छव करै नहीं।
अष्ट महारथी तुम रक्षक निरर्थ भये,
हत्या सिंधुराज तातैं भविष्य टरै नहीं।
द्वारश ही कोस परियंत मेरो रच्यो व्यूह,
तामैं एक महारथी सात्यकि डरै नहीं।
जब तैं न दृष्टि परै ध्वजदंड भीषम को,
तब तैं विजय तेरी दृष्टि ही परै नहीं।।५८।।
दुर्योधन के कडुवे वचन सुन कर द्रोणाचार्य आगे कहने लगे कि युधिष्ठिर उत्सव क्यों न करें? अर्थात् करेंगे ही क्योंकि तुम आठ महारथियों द्वारा मिल कर भी जयद्रथ की रक्षा न हो सकी और जयद्रथ को अर्जुन ने मार डाला। इससे यह जानना चाहिए कि भाग्य में लिखा हो कर रहता है। फिर बारह कोस के प्रसार वाला मेरा व्यूह था उससे भी एक महारथी सात्यकि ने भय नहीं खाया। इसलिए हे दुर्योधन! जब से भीष्म के रथ का ध्वजदंड दिखना बन्द हुआ है, तभी से मेरी आखों को तेरी विजय नजर नहीं आती।

धृतराष्ट्र उवाच
दोहा
संजय मम जामातु को, बद्ध भयो सुनि कान।
आचारज का करत भो, कहहु बखानि सुजान।।५९।।
धृतराष्ट्र पूछने लगे कि हे संजय! मेरे जामाता (जयद्रथ) का वध हुआ यह सुन कर धक्का लगा, पर उस समय आचार्य (द्रोणाचार्य) क्या करते थे? वह हे सुजान! मुझे कह सुना।

संजय उवाच
पठय दूत सुत धर्म पै, व्है है जुध निशि घोर।
देहु पयादी सैन्य के, हाथ दीप दुहुँ ओर।।६०।।
यह सुन कर संजय बताने लगा कि हे धृतराष्ट! उसके बाद द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर के पास दूत भेज कर कहलाया कि आज रात्रि को भीषण युद्ध होगा, इसलिए दोनों ओर की पैदल सेना के हाथों में दीपक रहेंगे। ऐसा हम ने तय किया है आप भी वैसा ही करें।

रथ ढिग पांच रु द्विरद ढिग, चार तीन हय पास।
यह अनुक्रम दोउ सैन्य मैं, भई मसाल प्रकाश।।६१।।
तय हुई योजनानुसार रथ के पास पाँच, हाथी के पास चार और घोड़े के पास तीन-तीन इस क्रम से सेना में मशालों के प्रकाश की व्यवस्था की गई।

सुगँध तैलमय रतनमय, भये व्योम सुरदीप।
देखन जुध कौतुक मिलै, अछर वरन अवनीप।।६२।।
सुगंधित तेल वाले और रत्नमय देवताओं के स्थान पर जलाए जाने वाले दीपक दिखाई देने लगे। उन्हें देखने के लिए और युद्ध का कौतुक देखने के साथ ही वीर राजाओं को वरने के लिए, आकाश में देवताओं एवं अप्सराओं की मण्डली एकत्रित हुई।

सवैया
जब सिंधुनरेश हत्यो तिहि क्षोभ तैं पुत्र पिता अति दुर्धर से।
नृप ता छिन वा बल बीच दिखा परै नाश विराट के द्वै हर से।
मनु हाटक कश्यप हारन कौं बिच खंभ के जाहर नाहर से।
द्विज द्रौन रु द्रोनिय छत्रिन मैं दोउ दोय भृगूपति से दरसे।।६३।।
जब जयद्रथ को अर्जुन ने मारा तो उसके क्षोभ में पुत्र और पिता (अश्वत्थामा और द्रोणाचार्य) ये दोनों दुर्द्धर्ष योद्धा क्रोधाग्रि से अत्यन्त छिड़े हुए थे। फिर हे धृतराष्ट्र! उस समय सेना में ब्रह्माण्ड तक का नाश करने वाले वे दोनों दो हर (रुद्र, महादेव) जैसे दिखाई देते थे। हिरण्यकश्यपु को हराने वाले स्तंभ से प्रकट हुए जैसे नृसिंह की तरह दोनों योद्धा दिखते थे। वे ब्राह्मण, द्रोणाचार्य और अश्वत्थामा दोनों क्षत्रियों की सेना के बीच परशुराम जैसे दिखाई देते थे।

दल पांडुन बीच बिहार करै दुज, जाकौं निरोध कि कौन करै तथ।
जा मग द्रौन कढै रन क्रीड़त, भो नृप सोहु कठोर महा पथ।
पित्रन ही तैं मिलाय दिये केउ, और बचै तिनकी सुनिये कथ।
श्रौन तुरंग हैं सारथि श्रौनहिं, श्रौन ध्वजा अति श्रौन रथी रथ।।६४।।
द्रोणाचार्य युद्धोन्मत हो कर पाण्डव सेना के मध्य विचरने लगे, उन्हें रोकने की चेष्टा कौन कर सकता है? कौन है जो उनके बराबर हो? जिस राह से द्रोण रण में रणक्रीडा करने निकलते हैं वह राह शत्रुओं के लिए रोकना कठिन हो जाता है। कितने ही शत्रुओं को उन्होंने उनके मृतक पूर्वजों से मिला दिया और शेष बचे लोगों की कथा इस प्रकार है, हे धृतराष्ट्र! सुनों, घोड़े लहुलूहान, रक्त सने सारथी और खून से तरबतर रथी थे। रथ भी रक्त से भीगे हुए और उनकी ध्वजाओं पर भी रक्त के छींटे लगे थे।

कवित्त
प्रलै हू की आंच के समान बनि बैठो द्रौन,
ता पै घृतरूप बैन नृपति सुनावै है।
मारिबो ही धारिकै संघारिबो बिचारि शत्रु,
बीरता अपार तन त्रान मैं न मावै है।
पलित हैं केश कर ललित चलाकी चित्त,
किरीटी जवान ताडू उपमा न पावै है।
जाही और लखै ताकी आयुष विरंचि हरी,
तीन पंच दिशा मंच खाली दरसावै हैं।।६५।।
इस समय द्रोणाचार्य प्रलयकाल की अग्नि के समान बन कर रथ में बैठे हैं, उस पर दुर्योधन अपने घृत रूप वचन सुना रहा है। इससे और अधिक प्रज्वलित (क्रोधित) हो कर द्रोणाचार्य शत्रुओं का संहार करने का विचार करते हैं। इस समय उनकी देह कवच में नहीं समा रही। जिनके केश पलित है पर हाथों की चपलता चित्त की चपलता से होड़ लेती है। यद्यपि अर्जुन जवान है पर उसकी ओपमा भी उन्हें नहीं लग सकती। वह भी बराबरी नहीं कर सकता। ऐसा वृद्ध योद्धा अभी जिस ओर देखता है उस शत्रु की आयुष्य ब्रह्मा ने अग्रिम रूप से हर ली हो ऐसा लगता है। ऐसे समय में सामने की सभी आठों दिशाओं में रथों के मंच खाली (रथी रहित) दिखते हैं।

रथ बिन रथी केउ सारथी बिना हैं रथ,
मावत बिना ही गज दस ही दिशा भ्रमाय।
घोरे बिन जोरे केउ जोरे बिन घोरे घूमैं,
केउ परे भूमैं कटे कहैं बिलुलाय हाय।
तन बिन त्रान केते त्रान बिन केते तन,
म्यान बिन शस्त्र केते शस्त्र बिन गोते खाय।
जत्र जत्र गौन होत दीन को सु तत्र तत्र,
शत्रु सैन्य छिन मैं बिचित्र चित्र जानी जाय।।६६।।
कितने ही रथी इस वक्त रथ विहीन हैं और कितने ही रथ सारथी रहित हैं। यही नहीं महावत के बिना हाथी सभी दिशाओं में घूम रहे हैं। कितने ही घोड़े सवारों से रहित है और कई सवार घोड़े के बिना पैदल हैं। कितने ही घायल योद्धा भूमि पर पड़े टसक रहे हैं। कितने ही शरीर कवच से रहित हैं और कई कवच काया रहित हैं। कितने ही शस्त्र म्यान के बिना पड़े हैं और कई वीर योद्धा शस्त्र रहित है। इस प्रकार जहाँ-जहाँ जिस ओर द्रोणाचार्य का जाना होता है वहाँ-वहाँ उस ओर शत्रु सेना क्षण मात्र में चित्र-विचित्र दिखाई देती है।

डोलत पुहमी दशौं दिश हू के दिग्गज तैं,
धूजत धरत पाँव धीरज धरै नहीं।
जोगनी के जुथ्य चित्त चकत चहूंधा चितै,
फिरत अतृप्त तत्र पत्र तो भरै नहीं।
वीरभद्र आदिन कौं, मुंडमाल कीबे काज,
विथकि विलोकै बिदा शंकर करै नहीं।
श्रौन के पिवैया द्रौन बानन को त्रास मानि,
पांडु दल योधन कौं अच्छर बरैं नहीं।।६७।।
संजय कहने लगा कि द्रोणाचार्य के भीषण युद्ध से दशों दिशाओं के दिक्‌पालों सहित पृथ्वी कांपने लगी, इस थरथराहट में वीरों के पाँव धरती पर अच्छी तरह टिक नहीं पा रहे हैं। योगनियों के झुण्ड अपने खप्पर लिये हुए चकरा कर चारों ओर देखने लगे हैं। वे योगनियां अतृप्त फिर रही हैं, अपने खप्पर तो भरती नहीं। मात्र यहाँ-वहाँ भटकती हैं। मुंडों की माला बनानें आये वीरभद्र आदि गण, चल रहे युद्ध को देख कर चकित रह गए हैं और ऊपर से महादेव उन्हें विदा करते नहीं। शत्रुओं के रक्त के प्यासे द्रोणाचार्य के बाण देख कर असमंजस में पांडवों की सेना के मरे हुए योद्धाओं का वरण अप्सराएं नहीं कर रहीं (अर्थात् असंख्य योद्धा कटे हुए हैं उनमें से किसका वरण करे?)

मेरे जाने जामदग्नि करी ही निछत्री भूमि,
एकबीश बार कोप तोहू ना सिरायो है।
पिता के निवारिबे तैं शान्त व्रत लीनो है पै,
द्रौन व्याज ही तैं तेजवान दरसायो है।
एक निशा द्यौष बीच क्षोहिनी खपाई सात,
ताकी विद्या घोर ही तैं दोनों दल घायो है।
पिता कहै धन्य पूत पूत कहै धन्य पिता,
पिता पूत दोनों रूप प्रलै को दिखायो है।।६८।।
संजय आगे बताने लगा कि हे राजा! मेरी जानकारी में तो पूर्व में इक्कीस बार परशुराम ने पृथ्वी को क्षत्रियों से रहित किया था पर फिर भी उनका क्रोध शान्त नहीं हुआ तो उनके पिता जमदग्नि ने उन्हें शान्त रहने का व्रत दिया था। मुझे तो परशुराम छद्म वेश में तेजवान हो कर वापस आए लगते हैं जो इस समय द्रोणाचार्य के वेष में दिख रहे हैं। जिन्होंने एक दिन और रात्रि के समय में सात अक्षौहिणी सेना को खपा दिया और अपनी भयंकर शस्त्र विद्या से दोनों सेनाओं को दहला दिया। क्या युद्ध है कि पिता (द्रोणाचार्य) पुत्र (अश्वत्थामा) को धन्य कहते हैं और पुत्र पिता को धन्य कह रहा हैं। हे धृतराष्ट्र! पिता और पुत्र दोनों ने मिल कर युद्ध को एकदम प्रलयंकारी बना दिया है।

सवैया
न परै द्रगगोचर आन कछू, गमि कै सबकी जनु बुद्धि गई।
अरु अश्व रथी गज सारथि तेउ, ध्वजा ध्वजदंडन आदि लई।
रन व्योम पताल दिशा विदिशा सु, मनो वसुधा द्विज रूप भई।
जित ही तित पांडव सैन्य तिते, सबही दल व्है रह्यो द्रौन मई।।६९।।
उस समय वहाँ दूसरा कोई दिखाई ही नहीं दे रहा था जैसे सभी देखने वाले योद्धाओं की बुद्धि इसी एक दृश्य में गुम हो गई हो। सारे घोड़े, रथी, हाथी, सारथी, रथों की ध्वजाएं, रथों के ध्वजदंड आदि से ले कर आकाश-पाताल तक दिशा-दिशा में पूरी रणभूमि मात्र एक द्रोणाचार्य मय हो गई हो, ऐसा लगता था। इसके अतिरिक्त जहाँ-जहाँ पाण्डवों की सेना है वहाँ-वहाँ सभी जगह द्रोणाचार्य दिखने लगे। (जैसे पाण्डवों की सेना के भय से कांपते योद्धाओं के चित्त में एक द्रोणाचार्य की ही मूरत बैठ गई हो, अथवा जहाँ-जहाँ शत्रु सेना का जमाव था, वहाँ-वहाँ शीघ्रता से लड़ते द्रोण पहुँच जाते थे)।

करण उवाच
दोहा
करन कह्यो नृप द्रौन को, गिनहु न कछु अपराध।
जुद्ध श्रमित अरु वृद्ध वय, न करुं वचन तैं बाध।।७०।।
देखहु मेरो जुद्ध अब, करिहौं शत्रु निकंद।
देहूँ तोकौं विजय जश, हति कोउ पांडव नंद।।७१।।
द्रोणाचार्य के इस अद्‌भुत युद्ध को देख कर, दुर्योधन को कर्ण कहने लगा कि हे दुर्योधन! अब द्रोणाचार्य का कोई दोष नहीं गिना जाना चाहिए, फिर वे वयोवृद्ध हैं और युद्ध में थके हुए हैं। अब तुम उन्हें कुछ भी कह कर पीड़ा नहीं पहुँचाओगे।
अब मेरा युद्ध देखना। देखना, कि मैं कैसे शत्रुओं का नाश करता हूं और मैं किसी न किसी पांडु के पुत्र को मार कर कैसे तुझे विजय और सुयश दिलवाता हूँ।

छंद पद्धरी
सजि चल्यो करन जहां महाशूर, किय नाश पांडवी सैन्य कूर।
निज सैन्य कूक सुनि कपीकेतु, हरि तैं किय विनती जुक्त हेतु।।७२।।
ऐसा कह कर महा पराक्रमी कर्ण तैयार हो कर युद्ध में बढ़ा और वहाँ जा कर नितान्त क्रूर हो उसने पाण्डव सेना का संहार करना शुरू किया। उधर अर्जुन ने अपनी सेना का हाहाकर सुन कर श्री कृष्ण से सकारण विनती की।

अर्जुन उवाच
अब प्रेरहु मम रथ करन ओर, करि रह्यो सैन्य को कदन घोर।
मारिहौं ताहि तिहिं पुत्र मारि, पुत्र को शोक लैहै विचारि।।७३।।
हे कृष्ण! अब आप मेरा रथ कर्ण की ओर ले चलें क्योंकि वह निर्दय हो कर मेरी सेना को नष्ट कर रहा है। अब मैं उसके पुत्र को मार कर बाद मैं उसे मारूंगा ताकि उसे भी पुत्र शोक क्या होता है? इसका इल्म हो जाए।

श्रीकृष्णोवाच
यह समय कृष्ण कहि गूढ अर्थ, करन तैं भिरन नहिँ सुर समर्थ।
हरि कह्यो हिडंबा सुत हँकारि, निश जुद्ध ताहि लायक निहारि।।७४।।
अर्जुन की बात सुन कर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से मर्म भरी बात बताई कि अभी कर्ण से युद्ध करने में देवता भी समर्थ नहीं। अच्छी तरह समझा कर कृष्ण कहने लगे कि अभी रात्रि में युद्ध करने को सर्वाधिक उपयुक्त योद्धा हिडंबा का पुत्र घटोत्कच है। अतः उसे बुला कर कर्ण से लड़ने को भेजो।

घटोत्कचवाच
राक्षसी अक्षोहिणि सैन्य और, मम हती द्रोणसुत अबहि घोर।
तोउ करिहौं माया सहित जुद्ध, करन कौं रोकि राखिहौं सक्रुद्ध।।७५।।
बुलाने पर घटोत्कच ने आ कर कहा कि मेरी एक अक्षौहिणी सेना थी, उसको अभी अश्वत्थामा ने भयंकर युद्ध कर विनष्ट कर दिया है, फिर भी मैं अपनी राक्षसी माया के बल पर युद्ध करूंगा और कुपित कर्ण को रोके रखूंगा।

यों कहि रु गमन कीनो अकाश, पर्वतन करी वर्षा प्रकाश।
निज सैन्य सुयोधन होत नाश, लखि कह्यो करन प्रति जुत निसास।।७६।।
ऐसा कह कर घटोत्कच ने आकाश मार्ग से उस ओर गमन किया और ऊपर से पर्वतों की वर्षा की। स्वयं की सेना का नाश होते देख दुर्योधन ने निःश्वास छोड़ते हुए कर्ण से कहा –

मम सैन्य प्रलय सब होत आज, फिर शक्ति वासवी कवन काज।
मोखी सु करन यह सुनत बैन, इक वीरघातनी शक्ति ऐन।।७७।।
गइ मारि घटोत्कच इन्द्र धाम, सुनि हर्ष कियो ढिग विजय श्याम।
हे कर्ण! देख, मेरी सेना का अभी कितनी बुरी तरह से नाश हो रहा है, फिर तेरी वासवी शक्ति (इन्द्र द्वारा प्रदत्त) कब काम आएगी? यह सुन कर कर्ण ने एक वीरघातनी उत्तम शक्ति छोड़ी जो घटोत्कच को मार कर सीधी इन्द्रलोक को गई। यह सुन कर श्री कृष्ण ने अर्जुन से अपना हर्ष प्रकट किया।

(अर्जुन उवाच) किय हर्ष शोक ठां कवन काज,
(श्रीकृष्णोवाच) यह मरत बच्यो तूं पार्थ आज।।७८।।
अर्जुन ने तत्काल पूछा कि हे नाथ! आप शोक की जगह हर्ष कैसे कर रहे हैं? यह सुन कर श्रीकृष्ण ने प्रत्युत्तर दिया कि हे अर्जुन! तू आज इस घटोत्कच की मौत से बच गया इसलिए हर्षित हूं।

धृतराष्ट्र उवाच
दोहा
संजय श्वान-वराह की, स्वपच करावत रारि।
मरे दोउ विच एक के, वाको हितहि बिचारि।।७९।।
त्यों हि कृष्ण के करन वा, मरे भीमसुत प्रीति।
नर को बचबो भूमि को, मार हरन दोउ रीति।।८०।।
संजय का कहा सुन कर धृतराष्ट्र कहने लगे हे संजय! पारधी कुत्ते और सूअर की लड़ाई करवाता है उन दोनों में से एक के मरने पर स्वयं का हित विचार कर लेता है। उसी प्रकार कर्ण और घटोत्कच की लड़ाई में दोनों में से किसी एक के मरने पर श्री कृष्ण को हर्ष होगा ही क्योंकि निमित्त कारण में, अर्जुन का बचाव और पृथ्वी का भार हरना, इसके ये दो परिणाम उन्हें पहले से ज्ञात हैं।
[हमारे यहाँ स्थानीय कहावत है कि ‘कुत्ता मरा तो भों भों मिटी और सूअर मरा तो साट (कमर का चर्बी युक्त मांस) खाएंगे। कवि ने इसका सुन्दर और प्रसंगानुकूल प्रयोग किया है जो स्तुत्य है – सं.]

संजय उवाच
कटत सैन्य दोउ शर्वरी, तीन याम गई बीति।
हटत न कोऊ परसपर, सकत न कोऊ जीति।।८१।।
आगे संजय बताने लगा कि हे राजा! दोनों सेनाओं का आमने-सामने भीषण युद्ध हुआ। दोनों दलों के योद्धा एक दूजे को काटते रहे, इसमें तीन प्रहर रात बीत गई। दोनों ओर से कोई पीछे हटने को तैयार नहीं और दोनों ओर कोई हार-जीत भी नहीं हुई।

छंद पद्धरी
निशि प्रहर रही फिर कह्यो पाथ, सब शयन करहु कछु उभय साथ।
यह सुनत सबन दीनी आशीष, तव विजय होहु नर वसा वीश।।८२।।
सब हय गज रथ पर शयन सैन, निद्रा गत कीनी मिलत नैन।
पुनि बजै वीर बादित्र प्रात, लरते अरु मरते नृप लखात।।८३।।
फिर जब एक प्रहर रात्रि शेष रही तब अर्जुन ने कहा कि अब युद्ध विराम होना चाहिए और वीरों को कुछ देर सोना चाहिए। यह सुन कर सब ने आशीष दी कि हे अर्जुन! तेरी बीस विस्वा जीत हो। ऐसा कह कर दोनों ओर के योद्धा, हाथी, घोड़ों और रथों पर जहाँ ठौर मिली, सो रहे। आखे मूंदे थोड़ा विश्राम किया ही था कि फिर से प्रातः होते ही रणभेरी बजने लगी और दोनों दलों के शूरमा एक दूजे पर वार करते, मरते देखे गए।

दिन प्रथम पांच पांचालपुत्र, जमपुरहि पठाये द्रौन जत्र।
सोइ क्षोभ लिये नृप जिज्ञसेन, द्रौन तैं भिर्यो दुख दुसह दैन।।८४।।
द्रुपद के द्रौन कौं लगे बान, परवशहि विथातुत भये प्रान।
जिहि समय जर्यो द्विज कोप ज्वाल, किय रुद्र रूप मनु प्रलै काल।।८५।।
संजय बताने लगा कि यह तो पाँचवे दिन का युद्ध है पर इससे पहले चौथे दिवस के युद्ध में, जब पांचाल राजा (जिज्ञसेन) के पाँच पुत्रों को द्रोणाचार्य ने यमलोक भेज दिया तो वह क्षोभ से भरा जिज्ञसेन राजा असह्य दुख देने की सोच कर द्रोणाचार्य से भिड़ गया। द्रोणाचार्य को द्रुपद राज के बाण लगने से पीड़ा होने लगी। उसके प्राण वेदना के वेग में परवश हो गए। इस समय द्रोणाचार्य ने यकायक क्रोध की ज्वाला से प्रज्वलित हो कर अपना रुद्र रूप धर कर प्रलयकाल जैसा वातावरण बना दिया।

द्रुपद को काटि शिर भूमि डारि, वैराटपती पुनी लियो मारि।
वह समय धृष्टद्युम्न सु अभीत, पैंसठ हजार रथ जुत प्रतीत।।८६।।
बदलो पितु लैबे काज बीर, आयो जु भिर्यो द्विज तैं अधीर।
जूटे दोउ सेनापती जुद्ध, किय शत्रु नाश द्विज सहित क्रुद्ध।।८७।।
हति द्रौन रथी पैंसठ हजार, मार्यो न शत्रु कारन बिचार।
करि विरथ आपको हतक जानि, मोख्यो सु धृष्टधुम्नहि पिछानि।।८८।।
फिर उन्होंने द्रुपद राज का सिर काट कर भूमि पर पटक दिया और विराट राज को भी मार डाला। उसी समय निर्भय हो कर वीर धृष्टद्युम्न पैंसठ हजार रथियों को साथ ले कर स्वयं के पिता की मौत का बदला लेने आया और उतावला होकर द्रोणाचार्य से भिड़ गया। दोनों सेनापति युद्ध में आमने-सामने लड़े। इसमें कुपित द्रोणाचार्य ने कितने ही शत्रुओं का नाश किया और पैंसठ हजार रथियों को मार गिराया और शत्रु को पूर्व के कारण वश मारा नहीं परन्तु उसे रथविहीन अवश्य कर डाला और (यह मुझे मारने वाला है यह जान कर) छोड़ दिया।

दोहा
धृष्टकेतु शिशुपालसुत, मागधपति सहदेव।
भिरे बहुरि रनभूमि में, मारे द्रौन अजेव।।८९।।
इसके बाद शिशुपाल का पुत्र धृष्टकेतु और मगध देश का राजा सहदेव ये दोनों युद्धभूमि में आकर द्रोणाचार्य से भिड़ गए। ऐसे अजीत योद्धाओं को भी द्रोणाचार्य ने मार गिराया।

सवैया
दिन द्वै निशि एक जुरी नहिँ द्रौन की संधि उपासन अंजुलिका।
बहु वीरन पांडव के बरिबे उतरीं तेउ अच्छर आवलिका।
वरमाल के कारन हेरत ही फिरते परे पायन मैं फलिका।
सुरराज के बाग सु नंदन मैं कहाँ पुष्प जहाँ न मिलै कलिका।।९०।।
संजय आगे बताने लगा कि हे धृतराष्ट्र! दो दिन और एक रात में नित्यनियम रूप संध्या, गायत्री एवं अर्घादि के लिए द्रोण की अंजुरी जुड़ी नहीं। पाण्डव सेना के कई वीरों को वरने के लिए कितनी ही अप्सराओं की पंक्तियां उतरी थी। उनके पाँवों में छाले पड़ गए यह ढूंढ-ढूंढ़ कर कि कहीं फूल मिले तो वरमाला बनाएं पर इन्द्र के नन्दन वन में उन्हें पुष्प की जगह कोई कली भी हाथ न आई।

सोमक सृंजय नाग खिजे पर त्रास खगेंद्र सी मानत ताकी।
सांधत छोरत शत्रु प्रहारत, चिन्ह परै नहिँ शस्त्र चलाकी।
चारक द्यौष निशा इक मैं बिरले तहाँ बीर बचे फिर बाकी।
सात अक्षोहिणि पांडव सैन्य कौं एक हि द्रौन डकारि गो डाकी।।९१।।
सोमक और सृंजय रूपी सर्प खीजना चाहते हुए भी खीज नहीं सके क्योंकि उनके ऊपर (द्रोणाचार्य) गरुड़ की चोंच बराबर तनी रही। वे (द्रोणाचार्य) कब बाण लेते हैं, संधान कर छोड़ते हैं और शत्रुओं को मार गिराते हैं, उनकी यह शस्त्र- चालाकी कोई नहीं जान सकता। चार दिन और एक रात में उनके हाथों मरने से बिरले ही योद्धा बच पाए पर बाकी की पाण्डवों की सात अक्षौहिणी सेना को तो वह डाकी द्रोण अकेला ही डकार गया (खा गया)।

कवित्त
जैद्रथ की रक्षाकाज ठाढो भयो जब ही तैं,
एते बीर मारे गिनै पावै कवि पार को।
द्वादश पहर बीच भई षट संध्या तामैं,
नाहिँ बन्यो कर्म कुछ द्विज के विचार को।
केते देव तर्पन मैं केते पित्र तर्पन मैं,
अर्पन किये ज्यों शत्रु करिहै उदार को।
तीनेक अक्षोहिणी सँघार कियो एकादशी,
द्वादशी में पारना भो पैंसठ हजार को।।९२।।
जब तक जयद्रथ की रक्षार्थ द्रोणाचार्य रणभूमि में खड़े रहे, उतने समय में उन्होंने जितने योद्धाओं को मारा उनकी गिनती कोई कवि नहीं कर सकता। चौथे दिन रात्रि के आठ प्रहर और पाँचवे दिवस के चार प्रहर ये मिल कर बारह प्रहर में छः त्रिकाल संध्या होती है। उनमें से एक में भी द्रोणाचार्य से ब्रह्म कर्म की पूजा अर्चना न बन पड़ी, परन्तु क्षत्रिय धर्म उनसे ऐसा निभा कि कितने ही शूरवीरों को उन्होंने देव तर्पण में और कितने ही योद्धाओं को पितृतर्पण में ऐसे अर्पण किये कि वैसा तर्पण कोई उदार क्षत्रिय भी न कर सका। कृष्ण पक्ष की ऐकादशी के दिन तीन अक्षौहिणी सेना के संहार का व्रत पूरा किया और द्वादशी को पैंसठ हजार योद्धाओं का संहार रूपी पारणा किया।

सवैया
सलभान समान जे द्रौन के बान, प्रयान तैं भान न भान परै।
कितने असमान समान कितेक, बखानत पानन पाव टरै।
कटि प्रान किते सुरथान चलै, सु विमानन बैठिकै बाट डरै।
तित ग्यारस प्रात तैं द्वादशि सांझ लौं, रात प्रभात न जानि परै।।९३।।
द्रोणाचार्य के बाण जो टिड्डी दल की तरह चलते हैं, जिससे सूर्य है कि नहीं इसकी खबर नहीं पड़ती। कितने तो आकाश में समा गए और कितने सारे हाथ- पावों को टालने वाले गिने गए। कितने ही योद्धा कट गए जिनके प्राण स्वर्ग में गए पर आकाश मार्ग के बीच उनके प्राण विमान में बैठे हुए भी भयभीत रहे। फिर द्रोण के छोड़े हुए बाण आकाश में इस तरह छा गए कि ऐकादशी के प्रातःकाल से द्वादशी की संध्या तक रणभूमि में सुबह-सांझ की पहचान न हो सकी। (इसमें संबंधातिशयोक्ति अलंकार है-सं.)।

दोहा
रिखन कह्यो मिलि द्रौन तैं, करहु शस्त्र अब त्याग।
यह अपनो नहीँ धर्म है, करि हरि तैं अनुराग।।९४।।
इस प्रकार का द्रोणाचार्य का घोरतम युद्ध देख कर, ऋषियों ने मिल कर द्रोण से कहा कि हे आचार्य! अब आप शस्त्रों का त्याग करें। यह (युद्ध करना) अपना धर्म नहीं, यह जानें और अब श्रीहरि से प्रीति करें।

कह्यो कृष्ण सुत धर्म तैं, ताही समय सिखाय।
हत्यो अश्वत्थामा इती, द्रोनहि कहहु सुनाय।।९५।।
इस समय श्री कृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर को सिखा कर (पहले द्रोण द्वारा कहा गया वाक्य कि कोई सत्यमय अप्रिय वचन कहे, यह याद करते हुए) कहा कि आप ‘अश्वत्थामा हत्यो’ ऐसा बोल द्रोण को सुनाओ।

दूर द्रौन तैं कोस इक, लरत हुतो निज पूत।
प्रेर्यो नृप कौं तिहि समय, जय कारन हरि धूत।।९६।।
संजय बताने लगा कि हे राजा! उस समय अश्वत्थामा वहाँ से एक कोस की दूरी पर युद्धरत था, पर पांडवों की विजय हो, यह सोच कर श्री कृष्ण ने कपट से युधिष्ठिर को द्रोण के पास जाने की प्रेरणा दी।

धर्मोवाच
बोल्यो जूठ न आज लौं, सहज हि मैं जदुराज।
कैसे बोलौं पूज्य द्विज, द्रौण-बध्ध के काज।।९७।।
तब युधिष्ठिर बोले कि हे यदुराज! मैंने आज तक अपने जीवन में कभी झूठ नहीं बोला फिर आज उस पूज्य ब्राह्मण द्रोणाचार्य के वध के लिए झूठ क्यों बोलूं?

श्रीकृष्णोवाच
पद्धरी छंद
छल बल तैं कीजे शत्रु नाश, यह कहत राजनीतिहि प्रकाश।
निज सैन्य द्विरद अश्वत्थाम नाम, वह हत्यो भीम सुनि कृष्ण काम।।९८।।
यह सुन कर श्री कृष्ण ने कहा कि छल बल से शत्रु नाश करना ऐसा राजनीति के सिद्धान्त कहते हैं, फिर अपनी सेना में एक अश्वत्थामा नामक हाथी था उसे भीमसेन ने मारा है ऐसा सुना है, और यह कार्य अपनी विजय में सहायक होगा।

सबहिन मिलि प्रेर्यो धर्मराज, वह कहो बचन द्विज तैं अकाज।
वध पुत्र अप्रिय अति सुनै बोल, तजि शस्त्र भूमि आसन अडोल।।९९।।
करि दियो श्वास भृकुटी चढ़ाय, वह समय द्रुपद सुत निकट आय।
छेद्यो सु खड्‌ग लै द्रौन शीष, दुव सैन्य कहो धिक धिक अनीश।।१००।।
फिर सभी ने मिल कर राजा युधिष्ठिर को द्रोण के पास जाने को प्रेरित किया। वहाँ जा कर उन्होंने ‘अश्वत्थामा हत्यो’ ये वचन कहे। पुत्र अश्वत्थामा मारा गया, ये अति अप्रिय वचन सुन कर द्रोणाचार्य ने तत्काल शस्त्र डाल दिये और जमीन पर बैठ गये। साथ ही समाधि लगा कर कुंडली को जगाया तथा सांस को ब्रह्म रंध्र में चढा लिया। इसी समय द्रुपद पुत्र ( धृष्टद्युम्न) ने पास जा कर हाथ की तलवार से द्रोण का सिर काट डाला। यद्यपि बाद में दोनों सैन्य-दलों ने कहा कि हे सेनापति (धृष्टद्युम्न)! इस अकाज के लिए तुझे बार-बार धिक्कार है।

संजयोवाच
दोहा
कपट वाद सुत धर्मको, सुनि करि प्राणायाम।
धृष्टद्युम्न कौं निमित दै, गयो वीर सुरधाम।।१०१।।
संजय बताने लगा कि हे राजा! धर्मराज युधिष्ठिर के छल युक्त वचन सुन कर वीर द्रोणाचार्य प्राणायाम कर, धृष्टद्युम्न को स्वयं की मृत्यु का निमित्त बना कर, स्वर्ग लोक को गए।

सहस राजसुत गज अयुत, तीन सहस रथवृंद।
भये पयादे द्रौन कर, चवदा लाख निकंद।।१०२।।
एक हजार राजकुमारों, दस हजार हाथियों, तीन हजार रथियों के समूह और चौदह लाख पैदल सेना का द्रोणाचार्य के हाथों नाश हुआ।

कवित्त
द्रोण को पतन देखि सैन दुर्योधन की,
अष्ट विधि सात्विक को सेवन करत है।
पावन पयादे भगे वाहन बिकल देखि,
केते शूर धीरन के आयुध गिरत हैं।
केउ मरे कुंजर के पिंजर प्रवेश करै,
तेउ पलचारन के मुख तैं मरत हैं।
अपजश अजै शोक भय के भंयकर से,
दुस्तर समुद्र चार सहजे तरत हैं।।१०३।।
द्रोणाचार्य की मृत्यु देख कर दुर्योधन की सेना को आठ प्रकार के सात्विक भावों की प्राप्ति हुई। फिर वाहनों (हाथी, घोड़े, रथादि) को व्याकुल देख कर कितने ही योद्धा पैदल ही भाग निकले। कितने ही धैर्यवान योद्धाओं के हाथों से शस्त्र गिर पड़े। कितने ही अधमरे योद्धा, मरे हुए हाथियों के पिंजर में दुबकने को बढ रहे हैं जहाँ वे माँस भक्षी जानवरों के मुख से मारे जा रहे हैं और अपयश, अजय, शोक तथा भय के चार-चार न तैर कर पार किये जा सकने वाले समुद्रों में भी तैर रहे हैं।

उमर तो बरस पँचासी बीच महाबाहु,
और को जवान हू की उपमा घटै नहीं।
विचरत रह्यो जौ लौ उभय सँग्राम विषै,
शत्रु को बढै न जाको शस्त्र हू हटै नहीं।
मारे द्रौन कहाँ द्रौन इहैं द्रौन हतो द्रौन,
ऐसे हू बकत रोग मानसी कटै नहीं।
आंखिन तैं ह्रदै हू तैं पांडू सैन्य बीरन के,
द्रौन तो मिट्यो पै चित्र द्रौन को मिटै नहीं।।१०४।।
संजय बताने लगा कि हे धृतराष्ट्र! जिनकी उस तो पिचासी वर्ष की थी पर उस महाबाहु के लिए किसी जवान की उपमा भी पर्याप्त नहीं। जब तक वह वीर रण संग्राम में घूमता रहा, तब तक शत्रु सेना का कोई योद्धा आगे नहीं बढ़ सका, न शस्त्र ही प्रयुक्त कर पाया। द्रोण के मरने के बाद तक पाण्डव सेना ‘द्रोण मारेगा’, ‘द्रोण किधर है?’, ‘द्रोण आ रहा है’, ‘द्रोण को मारो’ इस प्रकार का प्रलाप ही करती रहती। पाण्डव योद्धाओं का मानसिक भय का रोग किसी तरह कम नहीं हो पा रहा। उनकी आखों के आगे से तो द्रोण मिट गया पर उसके आतंक का चित्र जो उनके मन में है वह मिटता नहीं।

प्रगट पिता को परलोक पेखि पानन मैं,
पीने बान पकरि पिनाकी सो लखा परो।
नारायन अस्त्र निरमुक्त कीनो शत्रु नाश,
अर्जुन तैं आदि नाहिँ और तैं सिखा परो।
पायन पयादे पुंज शस्त्र कौं धरे परोक्ष,
पारथ लौं पांडूसैन पौरुष म्रखा मरो।
दीह भट द्रौनी दल दोउन के बीच दूठ,
द्रौन तो परो पै दस द्रौन सो दिख परो।।१०५।।
पिता को प्रकट रूप में स्वर्ग में जाते देख कर अश्वत्थामा दोनों हाथों में तीखे बाण उठा कर पिनाकी (रुद्र) के जैसा दिखने लगा। फिर उसने शत्रुओं का नाश करने को नारायण नामक अस्त्र छोड़ा। यह शस्त्र अर्जुन के भी सीखा हुआ नहीं था, उसे छूटा देख योद्धा इधर उधर भागने लगे, कई शस्त्रों से विमुख हो गए और अर्जुन सहित पूरी पाण्डव सेना का पोरुष व्यर्थ हो गया। दोनों सेनाओं के मध्य महा पराक्रमी अश्वत्थामा ने युद्ध शुरू किया तब द्रोण तो मृत पड़ा था पर वह अकेला दस द्रोणाचार्यों जैसा दिखाई पडता था।

श्रीकृष्णोवाच
दोहा
कृष्ण कह्यो यह अस्त्र को, और न शांतिउपाय।
तजि वाहन सब शस्त्र तजि, परिये मन क्रम पाय।।१०६।।
उस समय नारायण अस्त्र का प्रताप देख कर श्री कृष्ण ने कहा कि इस अस्त्र की काट और कुछ नहीं। बस, एक ही उपाय हैं कि सभी को अपने वाहन और शस्त्र छोड़ कर, शुद्ध मन से साष्टांग प्रणाम की मुद्रा में नमन करना चाहिए।

सवैया
द्रौन के पुत्र के अस्त्र के तेज तैं त्यागि मरोर कै गैर मजै।
वाहन शस्त्र जे दूरि धरे सब, कृष्ण की सीख न वैर सजै।
भार तजे अहि सूर उदै नहि, मात वृथा पयपान लजै।
नीम पयार लौं पाँव अचाल क्यों? क्षत्रित्व सीम कौं भीम तजै।।१०७।।
अश्वत्थामा के नारायणास्त्र के तेज से कितने ही योद्धाओं को अपनी मरोड़ (गर्व) त्याग देनी पड़ी तथा जो वाहन और शस्त्र थे उन्हें अलग रख दिया, (खुला छोड़ दिया) पर भीमसेन ने श्री कृष्ण की सलाह नहीं मानते हुए वैर रूपी शस्त्र को सज्जित किया और कहने लगा कि यदि शेषनाग पृथ्वी का भार तजे, सूर्य उगे नहीं और माँएं बच्चों को दुध न पिलायें, ये सारी अनहोनियां हो जाएं पर पाताल तक जिसकी नींव हो, ऐसे नियम वाली क्षत्रिय मर्यादा को भीम कैसे छोड़े?

दोहा
भयो शस्त्रमय अग्निमय, भीमसेन पर व्यूह।
कृष्ण विजय सब शस्त्र तिहि, छिनहि मिट्यो समूह।।१०८।।
फिर भीमसेन के पास शस्त्रमय और अग्निमय समूह इकट्टा हुआ उस पूरे शस्त्र समूह के परिताप को श्रीकृष्ण और अर्जुन ने क्षण भर में मिटा दिया।

वृथा भयो सुत द्रौन को, वह नारायण अस्त्र।
विकल भई तब सैन नृप, गहे पांडवन शस्त्र।।१०९।।
संजय बताने लगा कि हे धृतराष्ट्र! जब अश्वत्थामा का नारायण अस्त्र व्यर्थ हो गया तब पाण्डव सेना ने अपने त्यागे हुए शस्त्र वापस उठा लिये, यह देख कर आपकी सेना चिन्तित हुई।

कवित्त
मैं हू कह्यो ताहि समै शकुनी दुसासन तें,
मानी ना बसीठी तबै कहा हियो सूनो हो?।
पांच द्यौस निशा एक शत्रु कै मिटाय मिट्यो,
सो तो द्विजराज देखो सब ही तै जूनो हो।
ताही बिन कुरू सैन्य भासत अलूनो अब,
मामा भागिनेय बीच बोनहार दूनो हो।
गांजीव की झार बीच क्यों न अंग भूनो हो जु,
द्रौन बोय लूने जैसे क्यों न बोय लूनो हो।।११०।।
फिर अश्वत्थामा कहने लगा कि हे शकुनि और दुःशासन! मैंने तुम्हें पहले कहा था तब तुमने सुलह करना स्वीकार नहीं किया। क्या उस वक्त तुम्हारा हृदय शून्य था? फिर देखो पाँच दिन और एक रात में कितने ही शत्रुओं को नष्ट कर वे स्वयं नष्ट हो गए, ऐसे द्रोणाचार्य जो सब से वृद्ध थे अब उनके बिना पूरी कौरव सेना अनाकर्षक लग रही है। इस का बीज बोने वाले मामा और भानजे तुम दोनों हो। इसके लिए गांडीव की ज्वाला में अब अपनी काया को क्यों नहीं भूनते? जैसे द्रोण ने बीज बो कर फसल ली वैसे तुम भी बो कर क्यों नहीं काटते?

धृतराष्ट्र उवाच
सवैया
भीम महा भुज दीप प्रकाश मैं, मो सुत संघ पतंग ज्यों नासत।
वाडव कोप पै लालचि वैश्य ज्यों, नाव प्रवेशत नेंक न त्रासत।
भीम भुजान के बीच सदा, जमराज को राज समाज प्रकाशत।
संजय! मो सुत कंज के क्यार, बयार तुषार ज्यों भीम विनाशत।।१११।।
धृतराष्ट्र कहने लगे कि हे संजय! भीमसेन के महाभुज रूपी दीपक के प्रकाश में मेरे पुत्रों का समूह पतंगों की तरह नष्ट हो रहा है मैं जानता हूं जब उसका वाडवाग्नि रूप कोप प्रकट होगा तब भी वे वैश्य जैसे लालच में फँस कर अपनी नाव को उधर ले जाते हुए भयभीत नहीं होंगे। जिस भीम की भुजाओं में सदा यमराज का राज्य बसता है, हे संजय! मुझे इसी बात का डर है कि मेरे पुत्रों की कमल क्यारी को कभी ठंडी दाहक हवा बन कर वह भीमसेन विनष्ट न कर दे!

बिच दीपक जोत पतंग गिरै कोउ नास व्है को उडि जावत है।
जमराज के लोक गये हु जिये तिनकी जग बात सुनावत है।
वडवानल बीच परे हु बचै करतूत मुकुंद दिखावत है।
सुनि संजय मो सुत काल ग्रसे भिरि भीम तैं कोउ न आवत है।।११२।।
जिस प्रकार दीपक की लौ पर पतंगे टूट कर पड़ते हैं उनमें से कुछ जल जाते हैं कुछ उड़ जाते हैं। उसी प्रकार यमलोक की रीत है कि वहाँ जा कर भी कुछ लोग जी उठते हैं। और बड़वानल में फंस कर भी कुछ लोग बच जाते है, जिसे ईश्वर अनुकंपा कह कर लोग बखानते हैं पर हे संजय! मुझे पक्का विश्वास है कि मेरा कोई पुत्र जो भीमसेन से लड़ता है, लौट कर वह कभी नहीं आता, उसे तो काल ग्रस ही लेता है।

कवित्त
जल हू तै आगि बाड़वागि हू तैं जैसे जल,
केसरी तैं जैसी विधि कुंजर निबल है।
बाज तैं कपोत जैसे सारख तैं उर्ग जैसे,
पौन सौ प्रचंड गौन अभ्र ज्यों विचल है।
इंदु हु तैं इंदीवर रुद्र तैं त्रिपुर क्षुद्र,
इंद्र हु तैं दैत्य इंद्र जा विधि विकल है।
पाछले शत्रु जैसे संजय सब मेरे पूत,
प्रथम के शत्रु जैसे मारुती प्रबल है।।११३।।
जैसे पानी से सामान्य अग्नि, बड़वानल से समुद्र जल और सिंह से जैसे हाथी निर्बल है। बाज से जैसे कपोत, गरूड़ से सर्प और प्रचंड पवन से जैसे बादल विचलित हो जाते हैं। जिस प्रकार चंद्रमा से कमल, रुद्र से त्रिपुरासुर और इन्द्र से दैत्येन्द्र (जंभासुर) व्याकुल होते हैं, उसी तरह हे संजय! पीछे के शत्रुओं की तरह मेरे पुत्र निर्बल हैं और अग्रिम बताए शत्रुओं में भीमसेन प्रबल है।

सवैया
कोप छिपी बडवानल आहि, तिमिंगल ग्राह गदा धनुधारी।
बान महा उरगादिक हैं उरमी सु मनोरथ व्योम बिहारी।
नाव को दाव कछू न लगै द्विज द्रौन सी कर्न सी फारि पछारी।
मो सुत नेंक न पैरि सकै भुज भीम भयंकर सागर भारी।।११४।।
हे संजय! जिस में क्रोध रूपी बड़वानल है, मगरमच्छ और ग्राह रूप गदाधारी एवं धनुषधारी हैं। बाण रूपी जलसर्प हैं और मेरे पुत्रों के गगनविहारी मनोरथों जैसी जिसमें तरंगें हैं। जिसमें मेरे पुत्र के हठ युक्त प्रयत्न रूपी नाव का दाँव नहीं लगता। क्योंकि जिसमें द्रोणाचार्य और कर्ण जैसी नावें भी फट कर नष्ट हो गयी उसमें इसकी क्या बिसात? ऐसे भीमसेन के भयंकर हाथों रूपी समूद्र को मेरा पुत्र (दुर्योधन) किसी भी तरह तैर कर पार नहीं कर सकता है।

रन मैं भिरिकै हिडँबासुर सो रु बकासुर सो न बिछूटहि गो।
फिरि कीचक सो रु जरासँध सो, कुल दोउन को शिर कूटहि गो।
जग मैं नहिं शत्रु बच्यो जिनतैं, तिनतैं सुत जीवन तूटहि गो।
भिर भीम महा भुज पाहन पाय, सुयोधन सो घट फूटहि गो।।११५।।
फिर जिससे भिड़ कर रण संग्राम से हिडंबासुर और बकासुर जैसे भी छूट कर नहीं जा पाए अर्थात् नष्ट हो गए। कीचक और जरासंध तो अपने कुल और मस्तक दोनों कटवा गए। जिससे जगत में कोई शत्रु बचा नहीं, इससे लगता है मेरे पुत्र का जीवन भी टूटेगा ही (नष्ट होगा)। ऐसे भीमसेन से लड़ कर वह दुर्योधन अपना जीवन कलश उसकी बलवान भुजाओं रूप पत्थर से फोड़ कर ही रहेगा।

कवित्त
गांजिव धनुष जहाँ अखय निखंग दोय,
वन्हि-दत्त वाहन हय मारुत के मीत हैं।
सारथी है कृष्ण, भीम सात्यकि सिखंडी और,
धृष्टद्युम्न आदि वीर, जग तैं अजीत हैं।
देव द्विज दीन वृद्ध सेवा नृप सावधान,
वेद कुल लोक की मृयाद बीच प्रीत है।
रवि के उदय को ज्यों निश्चय प्रतीत तैसे,
युधिष्ठिर विजय की विजय प्रतीत है।।११६।।
जहाँ गांडीव धनुष और दो अक्षय तुणीर हैं और वे भी अग्निदेव द्वारा प्रदत्त हैं। जिसके रथ के घोड़े पवन देव के मित्र हैं। जिसके सारथी कृष्ण हैं और भीमसेन, सात्यकि, शिखंडी कुमार तथा धृष्टद्युम्न आदि जैसे जिसके अजेय योद्धा हैं। इसके अतिरिक्त देव, ब्राह्मण, गरीब और वृद्धों की सेवा में सजग रहने वाला राजा युधिष्ठिर है जिनकी वेद, वंश और लोक की मर्यादा पालन में प्रीति है। इसलिए जिस प्रकार सूर्योदय होने का दृढ़ विश्वास होता है उसकी प्रकार हे संजय! युधिष्ठिर की और अर्जुन की विजय में मेरा विश्वास है, वह हो कर रहेगी।

सवैया
हो बलबंड जरासँध सो तिनतैं गये भूपन के गन कै दट।
और की का? जगदीश भगे सोई भीम पछारिकै मारि लियो झट।
जीति सुरेश सहाई सुरेश की, कीन्ही कपिध्वज लोक कहै रट।
को तिन जीति सकैं सुनि संजय, हैं जहाँ भीम-धनंजय से भट।।११७।।
फिर हे संजय! जो महाबलवान जरासंध था, जिससे सभी राजा डरते थे, अरे जिससे डर कर स्वयं श्री कृष्ण भागे थे तो फिर दूसरों की क्या बात? ऐसे जरासंध को भीमसेन ने तुरन्त पछाड़ कर मार डाला। जिस अर्जुन ने इन्द्र को जीत कर, इन्द्र की रक्षा की, इस बात को पूरा जग कहता है। इसलिए कहता हूं संजय! कि जहाँ अर्जुन और भीमसेन जैसे योद्धा हों, उनसे कौन जीत सकता है?

कवित्त
कीरतन नारद सो सौनक सो सुनिबो है,
पूजन पृथू सो पदसेव रमारानी सो।
दासत्व हनू सो सदा वंदन अक्रूर जैसो,
आत्मनिवेदन बलि दैत्यराज दानी सो।
सखापन उद्धव सो सुमरन शेष को सो,
मनु सी तपस्या ज्ञान दत्तात्रेय ज्ञानी सो।
नारायन युक्त नर ऐसो ताकौं जीत्यो चहै,
व्है है कौन? मूढ, मेरे पूत अभिमानी सो।।११८।।
फिर हे संजय! जो कीर्तन-आराधन में नारद मुनि जैसा है, श्रवण भक्ति में शौनक ऋषि जैसा है, पूजन भक्ति में पृथुराज जैसा है। पदसेवन में लक्ष्मी सा, दासत्व में हनुमान सा, वंदन भक्ति में अक्रूर जैसा और आत्मनिवेदन में दैत्यराज दानी बलि जैसा है। जो सख्यत्व में उद्धव सा, स्मरण भक्ति में शेषनाग की तरह (कवियों ने भक्ति को नवधा कह कर ही बखाना है) है। फिर मनु जैसी जिसकी तपश्चर्या है और दत्तात्रेय जैसा जिसका ज्ञान है। ऐसा नारायण (श्रीकृष्ण) सहित जो अर्जुन है उसे मेरा पुत्र दुर्योधन जीतना चाहता है। फिर तुम ही कहो, भला, मेरे पुत्र जैसा मूढ और अभिमानी दूसरा इस जगत में कौन है?

संजय उवाच
दोहा
सेनापति सुत द्रौन कौं, चाहत हो तव पुत्र।
करन छतै द्रौनी कह्यो, यह उचीत नहि अत्र।।११९।।
तब संजय बोला कि हे धृतराष्ट्र! तुम्हारा पुत्र अश्वत्थामा को सेनापति बनाना चाहता था। लेकिन प्रस्ताव सुन कर अश्वत्थामा ने कहा कि जहाँ तक कर्ण है, वहाँ तक सेनापति बनने के योग्य मैं नहीं।

करनहि सेनापति कियो, सौंपि अक्षोहिणि पंच।
तीन रही सुत धर्म के, तेउ नहि रहिहैं रंच।।१२०।।
अश्वत्थामा का यह उत्तर सुन कर तुम्हारे पुत्र ने कर्ण को सेनापति बनाया और उसे पाँच अक्षौहिणी सेना सोंपी। उधर युधिष्ठिर के पास केवल तीन अक्षौहिणी सेना शेष बची है। मुझे लगता है दोनों सेनाओं में से कोई बचेगा नहीं।

ले आज्ञा कुरुक्षेत्र प्रति, चल्यो सूत सिर नाय।
फिर जैसो जुध देखिहौं, तैसो कहिहौं आय।।१२१।।
इसके बाद संजय प्रणाम कर राजा धृतराष्ट्र की आज्ञा पा कर कुरुक्षेत्र में गया और कह गया कि आगे जैसा युद्ध देखेगा उसका वैसा ही वर्णन आपके पास आ कर करूंगा।

।।इति द्वादश मयूख।।

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