पांडव यशेन्दु चन्द्रिका – एकादश मयूख
।।एकादश मयूख।।
द्रोणपर्व (पूर्वार्द्ध)
वैशंपायन उवाच
दोहा
पांच दिवस लखि द्रोण जुध, हथनापुर में आय।
द्रोण पतन पांडव बिजय, संजय कहत सुनाय।।१।।
वैशंपायन बोले हे जन्मेजय! संजय ने द्रोणाचार्य के पाँच दिन का युद्ध देखा। उनकी मृत्यु और पांडवों की विजय देखी। वही अब पूरा हाल सुनाता है।
शार्दूल विक्रीडित छंद
गेहे यस्य श्रुति: पठन्ति नितरां, नाना स्वरैर्ब्राह्मणा।
वीराणां हि श्रणोति घोष मुदितं, ज्याकर्षिता धन्विनां।
उच्चैर्वेणु रवादि वाद्य विविधै, नृत्यन्ति वाराङ्गना।
हा हा! द्रोण कुतोसि तस्य सदने, वाक्यं समुद्दीर्यताम्।।२।।
जिस गुरु द्रोणाचार्य के घर से नित्यप्रति विविध प्रकार के ब्राह्मण-स्वरों में वेदवाणी सुनाई देती थी। जिसके घर से धनुष की प्रत्यंचा को खींचने वाले धनुर्धारी वीरों के शब्द सुनाई देते थे। जिसके घर से बांसुरी की मधुर तानें और विविध प्रकार के वाद्य यंत्रों की ताल पर थिरकती नृत्यांगनाओं के नुपुरों की मनोहारी रुनझुन सुनाई देती थी। हा हा! आज उसी घर से द्रोण कहाँ? ये वाक्योच्चार सुनाई पड़ते हैं।
श्र्लोकाशय
सवैया
जित जा द्विजराज के गेह विषे, द्विज घोष श्रुती स्मृति के करते।
फिर सोर धनू मुरवी सुनिकै, कुरुराज के शत्रु सबैं डरते।
बजि वाद्य अनेक हि गायक गान तैं, हिय सब श्रोतन के हरते।
तित हा! कित द्रोन बिदारि गयो, बहु शब्द असंभव से बरते।।३।।
द्विजराज के घर में जहाँ ब्राह्मणों के वेद और स्मृतियों के पाठ के स्वर गूंजते थे। जहाँ से आती धनुष की डोरियों की आवाज सुन कर दुर्योधन के तमाम शत्रु डरते थे और अनेक वाद्ययंत्रों की संगत में गायकों के गाये गायन से श्रोताओं का चित्त हरा जाता था। वहाँ (इसी घर से) आज हाय! द्रोण कहाँ गये? ऐसे अत्यन्त असंभव शब्द बोले जा रहे हैं। [कवि ने इसका काव्यरूपान्तर सवैया छन्द में किया है और बहुत सुन्दर बन पड़ा है। इस पद्यांश में व्याघात अलंकार है सं.]
सोरठा
महा असंभव मीत, द्रोण पतन संजय दुसह।
भाखहु जथा अभीत, जुद्ध कियो दुजराज ने।।४।।
धृतराष्ट्र पूछने लगे कि हे संजय! सुनने में असहनीय ऐसा, द्रोण का मरण असंभव है, मुझे यथार्थ बता कि द्रोणचार्य ने किस तरह का युद्ध किया? मुझे निर्भय हो कर पूरा वृतान्त सुनाओ!
संजय उवाच
सवैया
जीति सकै तिन तैं नर को? जयदायक जो व्है गोपाल सो नाहीं।
वा द्विजराज के थान समान, करैं उपमान पै काल सो नाहीं।
हाथन में चलचाल अनूपम, है चित मैं चलचाल सो नाहीं।
द्रोन बराह की दाढन तैं परिकै, कढिबो कछु ख्याल सो नाहीं।।५।।
संजय बताने लगा कि हे धृतराष्ट्र! पाण्डवों को विजय दिलवाने वाले यदि श्री कृष्ण जैसे सहायक न हों, तो ऐसा कौन सा वीर योद्धा है जो द्रोणाचार्य को हरा सके। द्विजराज द्रोणाचार्य के बाणों की उपमा किसी दूसरी चीज से नहीं दी जा सकती, वे तो साक्षात मूर्तिमान काल ही कहे जाएंगे। युद्ध समय में उनके दोनों हाथों की चपलता ऐसी कि उस जैसी चित्त की चपलता भी नहीं। ऐसे महावीर द्रोण रूपी बाराह की डाढ़ में पड़कर कुशलपूर्वक जीवित निकलना कोई खेल नहीं था। (इसमें प्रतिषेध मूलक प्रतीप विनोक्ति तथा उपमा रूपक होने से विचित्र संकरालंकार है सं.)
कवित्त
द्रोन के प्रहारे वात मारे ज्यों बिचारे बृच्छ,
भये मतवारे झूमैं झुकके झुकै सुकै।
बान को सँधान शत्रु प्रान को प्रयान साथ,
बिझकैं जहाँ के तहाँ लखत रुकै रुकै।
नैन बिडराने ऐन बैन तुतराने सबै,
सेन थहराने मुख अधर सुकै सुकै।
बावरे से व्है रहै उतावरे जितेक तितै,
जावरे के घाले रहैं डावरे लुकै लुकै।।६।।
हे धृतराष्ट्र! युद्ध में द्रोणाचार्य के मारे हुए मतवाले महारथियों की दशा पवन के प्रहार से मारे वृक्षों की तरह थी, जो झुक कर झुक जाते हैं और झुके हुए ही रहते हैं। द्रोणाचार्य के बाण का संधान और शत्रु के प्राण का छूटना एक साथ ही होता है। अकेला पड़ा शत्रु योद्धा जहाँ था वहीं रूक जाता है और यह देखने लगता है कि द्रोणाचार्य के बाण अब किस ओर से आएंगे? शत्रु योद्धाओं के विस्फारित नेत्र त्रास से भर गए और उनके बोल भय के मारे तुतलाने लग गए। सम्मुख उपस्थित शत्रु सेना कांपने लगी और उनके मुँह और होठ सूख गए। युद्ध में जो शत्रु उतावली दिखाते थे, वे अपनी ही ठौर पर रुधे बावरे से हो गए। उम्र में जोजरे (वृद्ध द्रोण) से डरे हुए नवयुवक राजकुमार यहाँ-वहाँ स्वयं को छिपाने लगे। (इसमें सर्वतुकान्त विप्सा अलंकार है तथा अन्तिम आधे पद में अकमातिशयोक्ति अलंकार है-सं.)
द्रोण कह्यौ मांगि नृप सुयोधन मांग्यो वर,
जीवत ही धर्मराज मोहि पकराइये।
अर्जुन छतै यहै कठीन दिगपाल कौं,
द्रौन कहै दोउ को वियोग कैसे पाइये।
त्रिगर्ताधिपति यों सुशर्मा नेम मरिबे को,
कीनो कही सैन्य कौं यहां अर्जुन बुलाइये।
नेम नर क्लैब्य दैन्य आयु आशा गिनै नाहिं,
शत्रु जुद्ध जाचै ताके सन्मुख सिधाइये।।७।।
इस प्रकार द्रोणाचार्य का अद्भुत पराक्रम देख कर दुर्योधन ने गुरु की प्रशंसा की, तब उत्तर में द्रोणाचार्य बोले कि हे दुर्योधन! कोई वरदान मांग। यह सुन कर दुर्योधन ने वरदान मांगा कि हे आचार्य! आप मुझे जीवित युधिष्ठिर को पकड़वाइये। इस पर द्रोणाचार्य ने कहा कि अर्जुन की उपस्थिति में तो यह कार्य दिक्पालों के लिए भी असंभव है। हां, यदि दोनों में वियोग हो जाए तो कुछ किया जा सकता है पर यह हो कैसे? द्रोणाचार्य के विचार जान कर त्रिगर्तदेश के राजा सुशर्मा ने युद्ध में मरने का निश्चय किया और स्वयं की सेना से कहा कि अर्जुन को अपने सम्मुख युद्ध करने को बुलाओ। वह जरूर आएगा ही, क्योंकि उसमें हेयता और कायरता नहीं है। फिर वह अधिक जीने की चाह भी नहीं रखता और उसके नियम है कि कोई उसके सामने युद्ध करने की याचना करे तो वह आगे हो कर वहाँ जाता है।
दोहा
नहीं क्लिवता दीनता, अर्जुन के यह नेम।
आयु अनहि दैहै अवसि, आपु राखिहै क्षेम।।८।।
सुशर्मा आगे कहने लगा कि रण में कायरता और दीनता नहीं दिखाने का अर्जुन का प्रण है। यही नहीं, अर्जुन सामने लड़ने वाले को आयुष्य भले ही न दे पर अपने प्रण को अवश्य कुशलता पूर्वक जीवित रखता है।
कविकथन-संजयोवाच
इतै एक गांजीवधर, उतै पचास हजार।
बहुत रथी इस प्रहर में, कीन्है बिजय सँहार।।९।।
संजय बताने लगा कि हे धृतराष्ट्र! सुशर्मा के बुलाने पर अर्जुन उसके सामने युद्ध करने को आया। अब रणभूमि के मुकाबले में एक ओर अकेला गांडीवधारी अर्जुन है और दूसरी तरफ पचास हजार योद्धा, परन्तु अर्जुन ने मात्र एक प्रहर के समय में अनेक रथियों का संहार कर डाला। (इसमें द्वितीय विभावना अलंकार है सं.)
मोह अस्त्र तैं सारथी, रथी कृष्ण अरु पाथ।
लखै परत अरि परसपर, हतत जात निज साथ।।१०।।
इस तरह युद्ध करते हुए अर्जुन ने शत्रु-सेना पर मोहास्त्र फेंका जिससे रथी, सारथी रूप कृष्ण और सारथी, रथी रूप पार्थ दिखने लगे और इस प्रकार के परस्पर मोहाछन्न भेद के कारण, अर्जुन का मोहास्त्र स्वयं उसकी सेना का ही नाश करने लगा।
कवित्त
संसप्तक युद्ध कौं किरीटी के गयै तैं करि,
प्रेर्यो भगदत्त भीम हू को अंत लै रह्यो।
स्व बल विचल निष्ट शब्द सुनि तिष्ट तिष्ट,
आयो यों उचारत ही गांजीव कौं छूवै रह्यो।
मार्यो बान एक ही प्रचारि ढिग आवत सो,
पखऊवा मुंड पैं लखावै तुंड च्वै रह्यो।
धर्मज के विजै के वितान से तनैंगे ता तैं,
महूरत आदि कील रोपिबे को ह्वै रह्यो।।११।।
इसके बाद अर्जुन के संसप्तक से युद्ध करने जाने से, मौका पा कर भगदत्त ने स्वयं के हाथी को भीम पर आक्रमण करने की ठान कर, बढ़ाया, वह भीमसेन का अन्त ही कर डालता। इतने में स्वयं की भगदड़ ग्रस्त सेना का शोर सुन कर, खड़े रहो! खड़े रहो!’ बोलता हुआ अर्जुन वहाँ आया। उसने गांडीव धनुष को उठा कर एक बाण चलाया जिसका सिर्फ पिछला सिरा बाहर रह गया और तीर का शेष अग्रिम भाग पूरा हाथी के मस्तक में घुस गया। इससे हाथी का रक्त उसकी सूंड पर से बहने लगा। कवि कहता है यह तीर इस तरह गड़ा कि मानों धर्मराज युधिष्ठिर का विशेष जय रूपी वितान (तंबू) तानने के लिए अग्रिम ही खूंटी रोपी हो। (इसमें गम्योत्पद हेतुत्प्रेक्षा अलंकार है सं.)
भगदत्त ने वैषणव अस्त्र प्रेर्यो अर्जुन पै,
नारायन बीच झेल्यो नर कौं बचाय कै।
पटका वर्दान को हो द्रष्ट काज शत्रु सीस,
कृष्ण ने कटाय गेर्यो कथा समुझाय कै।
वहै गज मारि सीस डारि भूपै भूप हू को,
विजय उचारि निज बल कौं सुनाय कै।
जे भिरै है आय कै कै आयुध उठाय कै वा
तेज हू कौं धाय केते परे मुरछाय कै।।१२।।
तत्पश्चात् भगदत्त ने अर्जुन पर वैष्णवास्त्र चलाया जिसे बीच में ही श्रीकृष्ण ने झेल कर अर्जुन को बचा लिया। इस भगदत्त को एक वरदान था और वह अपने ललाट पर पट्टी बांध कर रखता था। इस का भेद बताने वाली कथा श्री कृष्ण ने अर्जुन को समझा कर, अर्जुन से कहा कि इसकी पट्टी काट डाल। पूरा रहस्य जान कर अर्जुन ने उसकी पट्टी काट डाली और एक ही बाण से उसके हाथी को मार राजा भगदत्त का सिर काट कर पृथ्वी पर पटक दिया। इसके बाद अर्जुन ने स्वयं के बल को याद कर विजय उच्चार की ललकार की, जिसे सुनकर अपने अपने शस्त्र उठा कर अर्जुन पर आक्रमण करने को सन्नद्ध कई योद्धा मूर्च्छित हो कर गिर पड़े और कई योद्धाओं के हाथ से शस्त्र गिर पड़े। (विशेष विवरण के लिए देखें – महाभारत, द्रोणपर्व, अध्याय- २८ सं.)
दुर्योधन कथन
दोहा
द्वै दिन अर्जून बिन रह्यो, धर्म न पकर्यो आप।
वर वृथा कि अथवा वृथा, भये तोर सर चाप।।१३।।
दो दिन अर्जुन को इस प्रकार युद्ध में युधिष्ठिर से विलग करने के बाद दुर्योधन ने आचार्य द्रोणाचार्य से कहा कि हे द्विजराज! धर्मराज पूरे दो दिवस तक अर्जुन के साथ नहीं था पर आपने उसे नहीं पकड़वाया। इससे क्या मैं आपके वरदान को मिथ्या समझूं अथवा आपके धनुष बाण व्यर्थ हो गए हैं यह जानूं?
द्रोण कथन
चक्र व्यूह अब रचत हौं, आज पकरिहौं भूप।
नांतो हतिहौं सूर कोउ, ताही के अनुरूप।।१४।।
यह सुनकर द्रोणाचार्य ने प्रत्युत्तर दिया कि हे दुर्योधन! धैर्य रख, अब मैं एक व्यूह की रचना करता हूं और युधिष्ठिर को आज पकड़ लूंगा। यदि नहीं भी पकड़ा गया तो इस व्यूह की सहायता से किसी बड़े योद्धा को मार गिराऊंगा।
संजयोवाच
अर्जुन सो जुध कौं गये, संसप्तक के संग।
ता पीछे द्विज द्रोण ने, कीनो व्यूह अभंग।।१५।।
संजय बताने लगा कि हे राजा धृतराष्ट्र! अर्जुन तो संसप्तक के साथ युद्ध करने उसकी ओर गया और पीछे से द्रोणाचार्य ने न भेदने योग्य चक्रव्यूह की रचना की।
धर्मोवाच
व्यूह वेध पै हार जय, लगी पुत्र विख्यात।
भेदत है प्रद्युम्न हरि, तूं अथवा तव तात।।१६।।
युधिष्ठिर अभिमन्यू से बोले कि हे पुत्र! इस चक्रव्यूह को भेदने में ही हमारी हार-जीत निर्भर करती है। इस व्यूह को भेदने वाले प्रद्युम्न और श्री कृष्ण के अतिरिक्त बस, तुम और तुम्हारे पिता अर्जुन ही हो।
तो बिन अभिमन तीन हू, वे तो नहिं यह काल।
लूं बेधहु तव पृष्ट पै, रहिहैं हम सब लाल।।१७।।
हे अभिमन्यू! तुम्हारे अतिरिक्त ये तीनों योद्धा तो इस समय यहाँ उपस्थित नहीं हैं, इसलिए हे पुत्र! तुम ही इस व्यूह को भेदो और हम सारे तुम्हारी रक्षार्थ तुम्हारे पीछे रहेंगे।
अभिमन्यू का चक्रव्यूह में जाना
चक्रव्यूह के वेधबे, अभिमन कुँवर उदार।
धर्मराज आदेश तैं, चल्यो कवच धनु धार।।१८।।
संजय बताने लगा कि हे राजा! फिर धर्मराज की आज्ञा पा कर उदार अभिमन्यू कुमार बख्तर पहन, धनुष उठा कर चक्रव्यूह भेदने को चला।
कवि कथन
कवित्त
जैद्रथ को मृत्यु और अजय सुयोधन को,
छहूँ वीर धीरन को अजश लखा गयो।
विजय युधिष्ठिर को सुजश किरीटी जू को,
द्रौन को पतन नाहिं जतन रखा गयो।
सुभद्रा को शोक अहवात नाश उत्तरा को,
केउ नृप पुत्रन कों काल ज्यों सिखा गयो।
इतने पदारथ को चक्रव्यूह रंगभू में,
अर्जुनी के आगम तैं आगम दिखा गयो।।१९।।
कवि कहता है कि जयद्रथ की मृत्यु, दुर्योधन की पराजय तथा छः धैर्यवान वीरों का अपयश यह सभी कुछ पहले ही दिख गया। राजा युधिष्ठिर की विजय, अर्जुन का सुयश, द्रोणाचार्य की मृत्यु को न टाल पाने का यत्न, सुभद्रा का शोक और उत्तरा के (अहिवातण) सौभाग्य (सुहाग) का नाश, साथ ही कई राजाओं के पुत्रों का काल ये सभी कुछ अग्रिम रूप से समझ में आ गया। अर्जुनी (अर्जुन का पुत्र अभिमन्यू) के चक्रव्यूह की रंगभूमि में आने से ऊपर वर्णित बातों का अग्रिम रूप से आकलन हो गया। (इसमें अन्तिम पद्यांश से पहले के अर्थ से अत्यंतातिशयोक्ति और अन्तिम पद्य के अर्थ से अकमातिशयोक्ति अलंकार प्रतीत होता है-स.)
द्रौन को द्रढ़ायो दल दुसह दिखात दीर्घ,
दारुन दुसासन से चक्रव्यू बनायो है।
जाकी भीर भेदिबे कौं भर्त बंश भूषन यों,
पाय पितु आज्ञा भुज भार भीम भायो है।
पारे अवनीशन के शीष अभिषेष कीन्हे,
केते हू कुमार मारे तोउ न अघायो है।
सुभद्रा की कूख की बलैया लीजै बार बार,
जाके बीच वीर धीर अभिमन्यु जायो है।।२०।।
द्रोणाचार्य द्वारा निर्मित स्थिर व्यूह का शत्रु द्वारा पार न पाया जाए वह इतना विशाल है और विकट रूप से इसका निर्माण कर चक्र को रूपाकार दिया है। जिसे भेदने वाला भरतवंशीय वीर अभिमन्यू पिता (युधिष्ठिर) की आज्ञा पा कर, अपनी भुजाओं पर दुसह भार लिये हुए है। वीर अभिमन्यू ने कितने ही अभी-अभी अभिषेक कराए हुए राजाओं के सिर भूमि पर गिरा दिये और कितने ही राजकुमारों को मार डाला पर अभी भी नहीं अघाया। कवि कहता है कि सुभद्रा की कोख पर बार-बार बलिहारी जाऊं कि जिसने ऐसे धीर-वीर पुत्र को जन्म दिया है।
बैरी बखानत है सुयोधन की सैन्य वारे,
अर्जुन तैं जाको तेज लखत सवायो है।
बडिवा के भौंर जसो चक्रव्यूह तापै बेग,
दक्ष जग्य काज वीरभद्र दरसायो है।
बाप हू को आचारज और सब क्षत्रिन को,
ताके मुख बाप जैसो आप पद पायो है।
सुभद्रा की कूख की बलैया लीजै बार बार,
जाके बीच वीर धीर अभिमन्यु जायो है।।२१।।
जिसका पराक्रम अर्जुन से सवाया है, यह देख कर दुर्योधन की (शत्रु) सेना भी उसका बखान करती हैं। बाडवाग्नि के भ्रमर (चक्र) जैसे चक्रव्यूह पर वीर अभिमन्यू का आवेश मानों दक्ष प्रजापति के यज्ञ के विध्वंस में वीरभद्र लगा हो। अपने पिता के और सभी क्षत्रिय वीरों के आचार्य, ऐसे द्रोणगुरु जैसे योद्धा के मुँह से भी उसने अपने लिए ‘बाप रे’ शब्द कहलवा दिया। कवि कहता है कि सुभद्रा की कोख की बार-बार बलैया लीजिये कि उसने ऐसे वीर-धीर पुत्र अभिमन्यू को जन्म दिया है।
दोहा
काका और भतीज को, भयो युद्ध अदभूत।
दुस्यासन मूर्छित भयो, ताहि भगो लै सूत।।२२।।
जिस समय चाचा (दुःशासन) और भतीजे (अभिमन्यू) का अद्भुत युद्ध हुआ, उसमें दुःशासन मूर्च्छित हो कर गिर पड़ा तो उसे उसका सारथी उठा कर युद्ध क्षेत्र से बाहर ले भागा।
सवैया
मात पिता सुभद्रा रु धनंजय, द्वै पख तेज कदी बिसरै ना।
जेष्ट तो कष्ट में दृष्ट परै न, कनिष्ट की कष्ट में पृष्ट फिरैं ना।
तात को भ्रात डरै बहु शत्रु मैं, भ्रात को तात सदैव डरै ना।
काके की होड भतीज करै नहिं, काको भतीज की होड करैं ना।।२३।।
जिसकी माता सुभद्रा है और पिता अर्जुन, ऐसा अभिमन्यू अपने दोनों कुलों के पराक्रम की परम्परा को नहीं भूलता। युद्ध के समय ज्येष्ठ (दुःशासन) स्वयं के कष्ट के कारण छिपने का उपक्रम करता है और कनिष्ठ (अभिमन्यू) स्वयं के कष्ट में अपनी पीड़ा को अनदेखा करता है। अपने तात (अर्जुन) का भ्राता (दुःशासन) तो अपने शत्रुओं से डरता है और भ्रात (दुःशासन के भाई अर्जुन) का तात (बेटा अभिमन्यू) ऐसा निडर है कि किसी से नहीं डरता। युद्ध में काका की बराबरी भतीजा नहीं करता (अर्थात् काका दुःशासन की तरह पलायन नहीं करता) और भतीजे (अभिमन्यू) की होड़ करना (अभिमन्यू की तरह) चाचा के वश का नहीं (वीरता से लड़ने में)।
कवित्त
सुयोधन कोप किये सुभद्रानंद पै चल्यो,
ताकौं देखि सेनापति द्रौन अकुलायो है।
बार बार बरजौं मैं बरज्यो न मानै शठ,
मेरी दृष्टि बाल प्रलैकाल सो लखायो है।
अकेलो कुमार लाखौं लोक तेरी वाहनी को,
मारिकै अबार जमलोक में पठायो है।
आसव को छक्यो ज्यौं असावधान जात कितै,
आगे देख महाबीर वासवी को जायो है।।२४।।
दुःशासन के युद्ध में घायल हो जाने पर दुर्योधन कुपित हो कर अभिमन्यू की ओर बढ़ा, इसे देख कर सेनापति द्रोणाचार्य व्याकुल हो गए और कहने लगे कि हे शठ दुर्योधन! मैं तुझे बार बार रोक रहा हूं पर तू रुकता नहीं। सुन, मेरी नजर में तो यह बालक (अभिमन्यू) प्रलय का ही दूसरा रूप लगता है, यह अकेला कुमार (किशोरवय वाला) तेरी सेना के असंख्य लोगों को मार कर यमलोक भेजने में सक्षम है। हे दुर्योधन! तू भी सामने देख तो सही, यों शराब पिये हुए गाफिल की तरह बढ़ा कहाँ जा रहा है? आगे महावीर अर्जुन का पुत्र अभिमन्यू लड़ रहा है। वह भला अपने पिता से कम कैसे होगा?
दवावैत
अर्जुन के पीछे कुरुदल के उमगाये तैं।
बेधन चक्रव्यूह यमसुत के फुरमाये तैं।
अभिमन के त्री हाइन, घोरे रथ लागत ही।
बगतर तन धारत रव-शंखन के बागत ही।।२५।।
अर्जुन के संसप्तक से युद्ध करने को जाने के बाद, कौरवों की सेना को इस प्रकार उमड़ते देख, युधिष्ठिर की आज्ञा ले अर्जुन-पुत्र अभिमन्यू जब चक्रव्यूह भेदने को बहा। उस समय उसके रथ में तीन-तीन वर्ष के घोड़े जुते थे। उसके शरीर पर कवच पहनते ही शंख ध्वनि होने लगी।
रुक गो दश दिश हू तैं, बाबू दिन रूखो सो।
भैचक सो कालहि नृपपुत्रन को भूखो सो।
दिनमणि की रस्मी निर्तेजहि दरसावै त्यों।
कंपत भू भूधर अहि, कोलहि कसकावै त्यों।।२६।।
दशों दिशाओं से पवन बहता रुक गया और दिन हवा के रुकने से रूखा-रूखा हो गया। फिर जब साक्षात काल रूप अभिमन्यू जैसा भेचक ( भयानक चक्षुओं वाला) राजाओं के कुमारों के, प्राणों का भूखा, युद्ध में द्रोणाचार्य के चक्रव्यूह को भेदने बढ़ा, उस समय उसके तेज के समक्ष सूर्य की रश्मियों का तेज निस्तेज हो गया, पृथ्वी, पर्वत और शेषनाग कांपने लगे और कछुए की पीठ (जिस पर पृथ्वी टिकी है ऐसा विश्वास है) भी कसमसाने लगी।
कायर मुख सूखे तुतराने तन कंपत हैं।
सूरन के जश की परलोकहि में संपत है।
व्यूहे करि वेधन गो, कँवरन के झुंडन मैं।
छत्रन की छाया तकि, मारत सर मुंडन मैं।।२७।।
कायरों के गले सूखने लगे, उनके मुँह से तुतलाते स्वर निकलने लगे और देह कांपने लगी और शूरवीरों के सुयश की स्थापना परलोक (स्वर्ग) में होने लगी। व्यूह को भेद कर अभिमन्यू जब आगे शत्रु राजकुमारों के झुण्ड के बीच बढ़ा तब वह छत्रों की छाया तले शत्रुओं के गर्वोन्मत्त सिरों को अपने बाणों के प्रहार से छेदने लगा।
छाई सुघराई दल, अर्जुन के छौने की।
लाघवता कर की सुघराई मुख लौने की।
निरखे आचारज छवि, सुभद्रा के नंदन की।
कर की चल चालन गन शत्रुन निस्कंदन की।।२८।।
अर्जुन के पुत्र अभिमन्यू ने शत्रु सेना में अपना युद्ध-कौशल फैलाया। उसके हाथों की चपलता, सुन्दर चेहरे की सुघड़ता और सुभद्रा पुत्र की शोभा, द्रोणाचार्य देखते ही रह गए। उसका हस्तलाघव शत्रुओं की सेना का संहार करने वाला है।
पंचन तै बोलत चख अदभुतता पेखौं हौं।
द्धै अर्जुन ऐसी भइ, सृष्टी कौ देखौं हौं।
दायें अरु बायें धनु मंडल सर संजुत है।
रस्मी जु सूरज परिवेषहि में रंजत है।।२९।।
द्रोणाचार्य यह देख कर सेना के नायकों से कहने लगे कि मुझे आज आश्चर्यजनक दृश्य दिखाई देता है, मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है मानों इस सृष्टि में एक नहीं दो अर्जुन हों। अभिमन्यु के बाएं और दाएं दोनों ओर के धनुष-बाण इस तरह चमकते दिखाई दे रहे हैं जैसे सूर्य अपनी रश्मियों के परिवेश में शोभा देता है।
कालहि के बालहि से, बानन बरषावै जे।
सालन नटसालन दरसालहि दरसावै जे।
अभिमन के सनमुख अजरायल जे अड़ते हैं।
जमपुर के भर्गल केउ, घायल तड़फड़ते हैं।।३०।।
वह शत्रु सेना पर सर्प के छोटे छोटे सपोलों जैसे बाण बरसाता है। इन बाणों में से कुछ तो साल (शरीर के लग कर निकलने वाले) कुछ नटसाल (जो बाण शरीर में घुस कर रह जाएं) और दरसाल (जो शरीर के आरपार निकल जाएं) हैं। अभिमन्यू के सम्मुख जो बहादुर अडिग योद्धा लड़ रहे हैं, उनमें से कई घायल हो कर तड़प रहे हैं और कुछ घायल यमलोक को जा रहे हैं।
बीरन के जुथ्थन बिच, चालन तिह बेरूँ की।
सीधे मुँह बालन के भालन समसेरूँ की।
वीरा नृत नचिकै भट, जूटे रुचि रुचि कै त्यों।
मचके लगि बाहन खचि खचिके धर लचकै त्यों।।३१।।
युद्ध के समय वीरों के झुण्ड के सामने आने वाले शत्रु सेना के राजकुमारों के मस्तकों पर तलवारें चल रही हैं। शूरवीर अपने युद्ध-नृत्य में पूरी वीरता पूर्वक नाच-नाच कर अपनी रुचि का प्रदर्शन कर रहे हैं उससे और रथादि के खींचे जाने की खचखच से पृथ्वी भी लचक रही हैं। .
गड़गड़ते तूरन बड़बड़ते तेउ लड़ते हैं।
भिड़ते केउ मुड़ते केउ झड़ते केउ पड़ते हैं।
किलकैं मिल मिलकै दल बल कै अगवारी पै।
चलिकै छल बल कै अनजल कै इक तारी पै।।३२।।
रणतूर (रण बाद्य) गड़गड़ा रहे हैं, योद्धा आपस में तलवारों से लड़ते हुए खड़खडाट मचा रहे हैं। कुछ योद्धा शस्त्र छोड़ कर द्वंद्व युद्ध में संलग्न हैं, कुछ योद्धा पीछे हट रहे हैं, कुछ गिर-पड़ रहे हैं। कुछ योद्धा पीछे से कुमुक आ जाने पर हर्षित हो कर किलकारी कर रहे हैं। एक ताली बजे इतने समय में, अर्थात् फटाफट ही छल और बल के सहारे नाश हो रहे हैं।
होलै केउ डोलै केउ, तोलै तरवारन कौं।
खोलैं नीशानन केउ, बोलै अरि मारन कौं।
भूमै केउ घूमै केउ, वाहन रथ नागू पै।
झमै केउ टूमै भड़ अच्छे हय आगू पै।।३३।।
कुछ योद्धा इधर से उधर भाग रहे हैं, कुछ अपनी तलवार की मारक क्षमता देख रहे हैं। कुछ अपने निशान प्रदर्शित कर शत्रु को मारने दौड़ रहे हैं। कुछ रण भूमि में पैदल घूम रहे हैं, कुछ हाथी-घोड़ों पर, कुछ रथों पर आरूढ़ हैं। कुछ युद्धोन्मत हो कर झूम रहे है कुछ शत्रुओं के गले पड़ रहे हैं, कुछ अपने घोड़े धावे के लिए बढा रहे हैं।
क्षत्रन तैं शत्रुन की, सेना झरि परती है।
जोगनि मिलि रक्तन तैं, पत्रन कौं भरती हैं।
काका दुस्यासन कौं, मूर्छित करि डार्यो ही।
द्वै सत नृप पुत्रन जुत, लछमन कौं मार्यो ही।।३४।।
घायल हो कर शत्रु सेना बाण-वर्षा की झड़ी में पड़ी है। योगिनियां अपने- अपने खप्पर (पात्र) वीरों के रक्त से भर रही हैं। अविचल योद्धा अभिमन्यू ने इसी समय अपने चाचा दुःशासन को मूर्च्छित कर गिरा दिया और चपलता से लड़ते हुए, शत्रुओं की ओर से लड़ने वाले दो सौ राजकुमारों के साथ लक्ष्मणकुमार (दुर्योधन के लाड़ले पुत्र) को मार गिराया।
भानुसूत द्रोनी कृप, भूरीश्रव आचारज।
सलि जुत मिलि विरथी सो, कीनो जब मारन कज।
दीनो शिर शंकर कौं, पल रत पलचारी कौं।
पितु कौं जय मृत्यू भय, जैद्रथ अपकारी कौं।।३५।।
लाखन कौं दैकै विधवापन अरि प्यारी कौं।
उतरा कौं दीनो विधवापन निज नारी कौं।
(अन्तिम छन्द पूरा नहीं है, इसी प्रकार पद्धरी आदि छन्दों में भी अगे-पीछे टूटन थी- सं.)
सूर्य पुत्र कर्ण, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, भुरिश्रवा, द्रोणाचार्य एवं शल्य इन छहों योद्धाओं ने एक साथ मिल कर अभिमन्यू को मारने के लिए सर्वप्रथम उसे रथविहीन किया। इस समय वीर अभिमन्यू ने स्वयं का मस्तक शंकर को, अपना माँस और रक्त पलचरों को सोंपा। अपने पिता (अर्जुन) को जय तथा कृतघ्न जयद्रथ को मृत्यु का भय दिया। साथ ही लाखों शत्रुओं की स्त्रियों को विधवापन दे कर अपनी स्त्री उत्तरा कुमारी को भी वैधव्य सोंपा।
संजय उवाच
दोहा
मर्यो कँवर संध्या समय, भयो सैन्य अवहार।
शोक-सिंधु बिच धर्मसुत, परि करि उठत पुकार।।३६।।
संजय बताने लगा कि हे धृतराष्ट्र! अभिमन्यु कुमार संध्या समय में मृत्यु (वीरगति) को प्राप्त हुआ, इससे दोनों ओर की लड़ाई थम गई (बंद कर दी गई) और धर्मराज युधिष्ठिर शोक के समुद्र में डूब कर आर्त्त स्वर में पुकार करने लगे।
धर्मोवाच
कवित्त
नृपत गांधार जूकी तनया उछाह करौ,
कुंती भोज तनया को उछव मिटाये तैं।
वासुदेव अर्जुन कौं बदन बताऊँ कैसे,
युयुत्सु की कितै सीख दैहौं विचलाये तैं।
युधिष्ठिर कहै मोकौं बन को गमन श्रेय,
मन को मनोरथ सो मन मैं बिलाये तैं।
भये मन भाये पाये राजपद अंधपूत,
सुभद्रा के जाये वीर स्वरग सिधाये तैं।।३७।।
व्याकुल धर्मराज कहने लगे कि सुभद्रा के पुत्र (अभिमन्यू) के स्वर्ग सिधार जाने से दुर्योधन का मन जाना कार्य पूरा हुआ, उसे तो (आज) जैसे राज्य पद ही मिल गया हो। ऐसे में कुंतीभोज की पुत्री (कुंती) का उत्साह मिट जाने से, गंधार राजा की पुत्री (गांधारी) को उछाह भले ही हो पर मैं अब श्री कृष्ण और अर्जुन को क्या मुँह दिखाऊंगा? फिर अपने भाई से विमुख हो कर आए युयुत्सु को मैं क्या कह कर ढाढ़स बंधाऊंगा? मेरा मनोरथ मन में ही रह गया – अब ऐसी अवस्था में मेरा वन-गमन करना ही अच्छा है। (इसमें हेतु अलंकार है-सं.)
सवैया
मधु भोजन मैं मनि भूषन मैं सैजन मैं जहँ प्रानप्रिया।
शिव गौनन मैं शुध भौनन मैं थिर बाहन पै सुत देखि जिया।
करिये जिनकौं इन ठाहर अग्र सो हाय अबै अकुलात हिया।
थिक भो धिक क्षत्रन कौं जुध बीच कहा कहौं बालक अग्र किया।।३८।।
जिस कुमार को अभी मीठे भोजन के व्यंजनों के बीच, मणियों और रत्नजटित आभूषणों के मध्य, सुकोमल शय्या पर, अपनी प्राणप्रिया जहाँ हो वहाँ होना चाहिए था। उसकी सुन्दर आवास और अच्छे वाहनों पर आरूढ होने की उम्र थी, और उसे इन स्थितियों में निरख कर हमारे खुश होने के दिन थे। उस बालक को मैंने युद्ध में अगुआ किया, इस कारण मुझे और मेरे क्षत्रियपन को धिक्कार है। युधिष्ठिर कहते हैं कि हाय! अब मैं क्या करूं? मेरा हृदय अत्यन्त व्याकुल है। (इसमें व्याघातालंकार है-स.)
संजय उवाच
दोहा
अर्जुन देखे आइकै, सांझ शिविर हरि संग।
नहिं वादित्र प्रदीप नहिं, नहीं राग नहिं रंग।।३९।।
संजय कहने लगा कि हे राजा! अर्जुन जब संध्या समय श्री कृष्ण के साथ अपने खेमे की ओर लौटा तो क्या देखता हैं कि अभी दीपक नहीं जलाए गए हैं, तंबुओं में अंधेरा है। वाद्ययंत्र नहीं बज रहे है, कोई राग-रंग नहीं है।
कवित्त
आयो वीर संसप्तक गन को सँहार करि,
सूनो सो शिवीर देखि शोक बेशुमार है।
पूछै है दुसह दशा भ्रातन अमात्यन सों,
केशव के संग यौं, किरीटी बेकरार है।
भर्तवंश भूषन जो दूषन दुसह गन,
कुंता को लड़ैतो मेरे प्रान को अधार है।
बल-भागनेय कहाँ, सुभद्रा को छावा कहाँ,
कहाँ पांडुनंदन अभिमन्यु कुमार है।।४०।।
वीर अर्जुन जब संसप्तक का सेना-सहित संहार कर लौटा तब सुनसान तंबुओं को देख कर उसे अपार शोक हुआ। श्री कृष्ण के साथ, दिनभर युद्ध में थका हारा आया तब भी उसको चैन नहीं। वह अत्यन्त व्याकुल हो कर अपने भाइयों और अमात्यों से पूछने लगा कि भरत वंश का आभूषन, शत्रु-सेना को मारने वाला, कुंती का लाड लडाया हुआ, मेरे प्राणों का एक मात्र आधार और जो बलभद्र का भानजा है वह कहाँ है? सुभद्रा का पुत्र कहाँ हैं? पांडव नन्दन अभिमन्यु कहाँ है?
श्रीकृष्णोवाच
नाना सुरसेन, तेरी माता कुंती वीरसुया,
पितामह शांतनू त्यौं पिता नृप पंडु है।
कीनो सुरलोक अभै लीनो नरलोक जीति,
वासी नागलोक ही के मानैं बल बंडु है।
केशव किरीटी जे सौं कहै अभिमन्यु कहाँ,
शत्रु जीतिबे को तेरो बिरद अखंड है।
देखि ध्वजदंड तजि खंड अरि झुंड जात,
तेरे भुजदंड ही तैं अभय ब्रह्मंड है।।४१।।
अर्जुन को इस तरह शोकग्रस्त हो कर प्रलाप करते देख श्री कृष्णा उसे
अश्वासन देते हुए कहने लगे कि हे अर्जुन! तुम्हारे नाना सूरसेन हैं तुम्हारी माता कुंती वीर पुत्री है। पितामह शान्तनु जैसे हैं, तुम्हारे पिता पांडुराज हैं। फिर तुमने मृत्युलोक को जीत कर स्वर्गलोक को निर्भय कर दिया है और नागलोक के निवासी तुम्हें अपराजेय योद्धा मानते हैं। यह तुम बार-बार अभिमन्यु कहाँ हैं? कहाँ हैं? की क्या रट लगाए हो? तुम्हें दीनता से भरा क्रन्दन करना शोभा नहीं देता। तेरा विरुद शत्रुहंता है, तेरे रथ पर फहरती ध्वजा को देख कर शत्रुसमूह स्वयं का खंड (देश) तज कर दौड़ जाते हैं। फिर तुम्हारे भुजदण्डों के आसरे ही ब्रह्माण्ड निर्भय है। तुझे यह आचरण शोभा नहीं देता। (इसमें उदात्तांतर्गत स्वभावोक्ति अलंकार है-सं)
अर्जुन उवाच
दोहा
क्यों धारत हौ शस्त्र तुम, महावीर चहुँ भ्रात।
तुम ढिग शिशु कैसे मर्यो, यासौं चित अकुलात।।४२।।
इतने में अर्जुन ने अपने चारों भाइयों से कहा कि आप महावीर गिने जाते हैं, आप लोगों के साथ रहते हुए अभिमन्यू क्यों कर मरा? इससे मेरा चित्त व्याकुल है। बार बार मन में प्रश्न उठता है कि आप लोग फिर शस्त्र क्यों धारण करते हो? किसलिए?
युधिष्ठिर उवाच
कवित्त
तेरे गये पीछे द्रोण चक्रव्यूह रच्यो ताकौं,
बेधिबे को कीनो प्रन प्रेर्यो मैं कुमार कौं।
बेधिहौं मैं व्यूह पीछो आयबे को संशय है,
चारौं भ्रात तेरी पीठ रहिहैं, निकार कौं।
सिंधुराज वर के प्रभाव चारौं जीति रोके,
रुद्र के प्रताप तैं लख्यौ न होनहार कौं।
ऐसै जी पिराय बैठे शत्रु कौं सिराय बैठे,
लाख तैं भिराय के मराय बैठे बार कौं।।४३।।
युधिष्ठिर ने जवाब दिया कि हे अर्जुन! तुम्हारे उधर युद्ध में जाने के बाद द्रोणाचार्य ने चक्रव्यूह की रचना की, उसे बेधने का प्रण कर मैंने कुमार (अभिमन्यू) को भेजा। उस समय उसने कहा था कि वह चक्रव्यूह को भेद तो देगा पर ब्यूह से वापस लौटने में उसे संशय है। यह सुन कर मैंने ही उसे आश्वस्त किया था कि तेरे पीछे हम चारों भाई रहेंगे पर जयद्रथ ने अपने वरदान के बल से हम चारों भाइयों को जीत कर रोके रखा। महादेव के वरदान के फलस्वरूप मैं भावी (भविष्य) के अमंगल का आकलन न कर सका। इस प्रकार हम अनायास ही जीव में पीड़ा ले बैठे, और शत्रु के चित्त को शान्त कर बैठे। यही नहीं बहुत सारे योद्धाओं से अकेले को लड़ा कर उस बालक को मरा बैठे।
सल्य छेद्यो सूत, सूतपुत्र धनु, द्रोणी अश्व,
भूरिश्रवा त्रान, द्रौन ढाल करवाल कौं।
दुस्यासन पुत्र भये विरथ गदा तैं जुर्यो,
मूर्छित भये कौं देखि प्रहार्यो बिहाल कौं।
दंती कै पछारि वीर मारि मर्यो लाखन कौं,
लछन कुमार लौं बिदारि व्यूह जाल कौं।
मंगल निवारि बैठे विषय बिसारि बैठे,
यों अलोक धारि बैठे मारि बैठे बाल कौं।।४४।।
युद्ध में लड़ते हुए अभिमन्यु का अन्त में शल्य राज ने सारथी मार दिया, कर्ण ने उसका धनुष तोड़ दिया, अश्वत्थामा ने उसके रथ के घोड़ों को मार डाला, भूरिश्रवा ने उसका कवच काट डाला और शेष रही ढाल-तलवार को द्रोणाचार्य ने नष्ट कर दिया। इस प्रकार अभिमन्यु को रथविहीन पा कर दुःशासन का पुत्र गदा ले कर उससे लड़ने लगा। अन्त में वह मूर्च्छित हो गया, तभी मारा गया। पर मरने से पहले उस वीर बालक (अभिमन्यू) ने कितने ही रथियों को मार डाला, कई योद्धाओं को मार गिराया और लक्ष्मण कुमार को मार कर चक्रव्यूह का जाल काट डाला, उसके बाद कहीं उसने प्राणोत्सर्ग किया। इस प्रकार हम अमंगल कर बैठे, हमारे पर जो उसकी रक्षा का जिम्मा था उसे बिसार बैठे और अपयश ले कर उस बालक को मरा (मार) बैठे।
सुभद्रा वचन
बार बार वारि दृग धार बहै सुभद्रा के,
कहै पाथ नाथ जू सिरानो बल रावरो।
भीम आदि भूषन कौं धारत हैं शस्त्र भट,
तिनकौं न प्रेरे भूप भयो मति बावरो।
कुररी लौं कूकै हूकें उठत करेजे बीच,
देखौं प्यारो पूत कहां युद्ध को उतावरो।
हो तो सब छत्री, मेरे जाने तो निछत्री, दल,
द्रौनव्यूह दारुन बिदारन कौं डावरो?।।४५।।
यह पूरा वृतान्त सुन कर अर्जुन खेदयुक्त हृदय ले कर सुभद्रा के पास गया, उस समय सुभद्रा की आखों से अश्रुधार बह रही थी। अपने स्वामी को सामने आया देख कर सुभद्रा विलाप करती कहने लगी कि हे स्वामी! आपका पराक्रम ठंडा पड़ गया लगता है, फिर भीमसेन आदि जो शस्त्रों के गहनों से लकदक हैं, उन्हें युद्ध में नहीं भेजा गया, मुझे तो धर्मराज बुद्धि से बावरे हो गए लगते हैं। पुत्र के मरने की बात को बार-बार रटते हुए सुभद्रा ने टिटहरी की भांति कूकना (विलाप करना) जारी रखा। जिसे सुन कर अर्जुन के हृदय में शूल सी गड़ने लगी। सुभद्रा विलापती कहने लगी कि युद्ध में जाने की उतावली वाले अपने प्यारे बच्चे को अब कहाँ (जोवूं) देखूं? तुम सभी क्षत्रिय हो पर मेरी जान में तो पृथ्वी क्षत्रियविहीन हो गई लगती है। यदि ऐसा न होता तो भला द्रोणाचार्य के चक्रव्यूह को बेधने किशोर वय का बालक जाता भला?
अर्जुन उवाच
प्रात भये अग्रज तिहारो सो सवारी रथ,
सारथी ह्वै सेन्य बीच अभय विहारिहैं।
कपि की गरज घोष देवदत्त गांजीव की,
रिपु रिपुनारिन के गरब प्रहारिहैं।
नामांकित बान मेरे पान को सँजोग पाय,
आछे आछे बीरन के प्रान कौं अहारिहैं।
जैसे अत्र रोवै तेरे पुत्र की कलत्र प्यारी,
तैसे शत्रुपुत्र की कलत्र तूँ निहारिहैं।।४६।।
सुभद्रा का विलाप सुन कर अर्जुन कहने लगा कि हे भद्रे! सुनो, प्रातः होते ही तुम्हारे बड़े भाई (श्री कृष्ण) मेरे सारथी होंगे और मुझे युद्ध स्थल पर सेनाओं के बीच ले जाएंगे। रथ की ध्वजा पर बैठे वानरराज का गर्जन, देवदत्त शंख की ध्वनि तथा गांडीव धनुष की टंकार सुन कर शत्रु और शत्रु नारियों के गर्व चूर हो जाएंगे। फिर मेरे नामांकित बाण, मेरे हाथ का संयोग पा कर सारे के सारे शत्रु वीरों के प्राण हर लेंगे। जैसे अभी तुम्हारे पुत्र की प्यारी स्त्री रो रही है, उसी तरह कल शत्रु-पुत्रों की स्त्रियां विलाप करेंगी। यह तुम अपनी आखों से देखोगी।
अर्जुन की प्रतिज्ञा
दोहा
प्रात अस्त लौं ना रहैं, जैद्रथ वा मम प्रान।
दोउ रहैं तै होहु भल, मोकौं नर्क निदान।।४७।।
शरण युधिष्ठिर कृष्ण की, अथवा भजि नहिं जाय।
तौ इन्द्रादि सहाय तउ, पितृन दैहौं मिलाय।।४८।।
सुभद्रा को इतना आश्वस्त कर अर्जुन ने उसी के समक्ष प्रतिज्ञा की, कि कल सवेरे सूर्योदय से सूर्यास्त तक यदि जयद्रथ न मारा जाए तो मैं अपने प्राण तज दूंगा। कल सूर्यास्त समय तक यदि हम दोनों जीवित रहें तो मुझे निश्चय ही नरक गति की प्राप्ति हो।
जयद्रथ यदि कल, युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण की शरण में न जाए, अथवा कहीं भाग न जाए तो कुछ भी हो, यदि देवगण भी उसकी रक्षार्थ आ जाए तब भी मैं उसे उसके मृत पूर्वजों से मिला कर रहूंगा।
जयद्रथ का भागने का विचार
सुनी प्रतिज्ञा पार्थ की, दूतन तैं तिहि बेर।
जैद्रथ नृप भगि जान कौं, मतो कियो हिय हेर।।४९।।
दूतों द्वारा अर्जुन की प्रतिज्ञा की बात सुन कर जयद्रथ ने मन में विचार किया कि यहाँ से भाग जाना ही श्रेयस्कर है।
दुर्योधन वचन
कहै सुयोधन द्रौण तैं, जैद्रथ राखहु आप।
प्रात अस्त मिति भानु लौं, मम जय तोर प्रताप।।५०।।
यह जान कर दुर्योधन ने द्रोणाचार्य से कहा कि हे आचार्य! आप कल सूर्योदय से सूर्यास्त तक की अवधि तक यदि जयद्रथ को बचा कर रख सकें, तो समझें कि आपकी कृपा से मेरी विजय निश्चित है।
द्रोण कथन
द्रोण कहै मृगराज को, करि अपराध अमीत।
जंबुक की मति सिंधु नृप, यह तो परम अनीत।।५१।।
यह सुन कर द्रोणाचार्य ने कहा कि दुर्योधन! सिंह का अपार अपराध करने में जयद्रथ ने सियार की बुद्धि से काम लिया, यह तो सरासर अनीति है।
त्रिधा प्रात रचिहौं चमू, सकट पद्म सुचि व्यूह।
ता बेधन समरथ नहीं, सुर इंद्रादि समूह।।५२।।
पर मैं कल प्रातः कमल, गाड़ी और सूई के आकार वाले तीन व्यूहों की रचना में सेना को खड़ा करूंगा। जिसे बेधने में इन्द्र आदि देवता भी सक्षम नहीं हैं।
एते ही पै भवसि बसि, होय सिंधुनृप नाश।
अखय सुखन कौं भोगिहैं, निधि केउ स्वर्ग निवास।।५३।।
इतना करने पर भी भावी वश यदि जयद्रथ का नाश हो जाता है तो वह युद्ध में मरने से स्वर्ग का अधिकारी हो कर अक्षय सुखों का भोग करेगा।
कवि कथन
भूमि शयन रचि पाथ के, आप हाथ ब्रजनाथ।
ताहि सुवाय रु स्वप्न मैं, शिवपुर दरसिय साथ।।५४।।
इस बीच कवि कहता है कि श्री कृष्ण ने अपने हाथों से भूमि की चौकी बना कर उस पर अर्जुन को स्वप्नावस्था में स्वयं साथ रह कर शिवपुरी बताई।
शिवहि रिझाय रु पाय तहँ, एक बान अहि रूप।
जयद्रथ बध हित पाशुपति, दूजो अर्थ अनूप।।५५।।
शिवपुरी में शिव को रिझा कर एक सर्प के आकार का बाण जयद्रथ के वध के लिए प्राप्त किया और पशुपतास्त्र को प्राप्त करने का दूसरा अनुपम अर्थ भी साधा।
अस्त्र सिखायो स्वप्न मैं, हरि निज डेरनि आय।
कहत कामना अर्धनिशि, दारुक तैं समुझाय।।५६।।
श्री कृष्ण ने अर्जुन को स्वप्न में ही यह शस्त्र विद्या सिखलाई और बाद में अपने तंबू में आकर अपने सारथी दारुक को स्वयं की इच्छा बताई।
श्रीकृष्णोवाच
कवित्त
सुनौ मित्र दारुक जयद्रथ बचैबे काज,
द्रौन से असाध्य मिलि व्यूह की बिचारी है।
प्राप्त नहिँ छोरौ इन्द्र आदिक सहाय जोपै,
अर्जुन को शत्रु सो हमारो शत्रु भारी है।
अर्जुन है मेरो प्रान मैं हौं प्रान अर्जुन को,
अर्जुन की जीवनि सो जीवनि हमारी है।
अर्जुन बिना न छिन देखि सकौँ विश्व हू कौं,
कहै गिरिधारी मैं सदैव ऐसी धारी है।।५७।।
श्रीकृष्ण कहने लगे कि हे दारुक! सुन, जयद्रथ को बचाने के लिए द्रोणाचार्य ने शत्रुओं को मिला कर असाध्य व्यूह रचना का विचार किया है परन्तु यदि इन्द्र आदि देवगण भी उसकी रक्षार्थ आ जाएं तब भी मैं कल उसे (जयद्रथ) छोडूंगा नहीं, क्योंकि जो अर्जुन का शत्रु है वह मेरा महाशत्रु है। अर्जुन मेरा प्राण है और मैं अर्जुन का प्राण हूं। अर्जुन की जिन्दगी ही मेरी जिन्दगी है। अर्जुन के बिना मैं इस अखिल विश्व को देखने की कल्पना भी नहीं कर सकता। मेरी सदैव ही यह इच्छा रही है।
दोहा
मम रथ सज्जीभूत करि, राखहु मोर समीप।
अर्जुन तैं न मरै तउ, मारिहौं सिंधु महीप।।५८।।
इसलिए तुम मेरा रथ सजा कर मेरे आस पास ही रखना क्योंकि यदि जयद्रथ किसी कारणवश अर्जुन से नहीं मारा जाए तो मैं उसे मारूंगा।
कवि वचन
रात प्रतिज्ञा याद करि, चढ्यो प्रात कुरु-बीर।
महि जयद्रथ अकुलात दोउ, धरधरात तजि धीर।।५९।।
इसके बाद प्रातःकाल होते ही कुरुवंश का वीर अर्जुन कल रात को की गई अपनी प्रतिज्ञा को याद कर रण भूमि में गया। इस समय पृथ्वी और जयद्रथ दोनों व्याकुल हो गए और धीरज छोड़ कर थर-थर कांपने लगे।
कवित्त
कोप की कटाक्ष तैं निहारत ही रिपु ओर,
काम की कटाक्ष बाम तिनकी बितात हैं।
पूर्वी गांजीव ताको परस करत अरि,
नारिन के कज्जल को परस मिटात है।
डसत है ओठ आप पीर कौं सहत बीर,
शत्रु-वधू ओठन की पीर सो बिलात है।
बांह उसकारत ही अर्जुन के शत्रुन की,
स्त्रियन की चूरिन को चूरन दिखात है।।६०।।
अर्जुन के युद्ध भूमि में कुपित हो कर कटाक्ष से शत्रु सेना की ओर देखते ही उनकी स्त्रियों के काम-कटाक्ष नष्ट हो गए। गांडीव धनुष की प्रत्यंचा का अर्जुन के स्पर्श करते ही, शत्रुओं की स्त्रियों की आखों में लगा काजल पुंछ जाता है (रोने के कारण)। इसके अतिरिक्त जब वीर अर्जुन क्रोध में अपने होठों को दातों से चबाता है, इसे देखते ही शत्रु स्त्रियों के होठों की पीड़ा अपने आप नष्ट हो जाती है। इसके साथ ही तूणीर से निकाले बाण को प्रत्यंचा पर रखने को अर्जुन जब अपना हाथ लंबा करता है उससे शत्रु स्त्रियों के हाथों की चूड़ियों का चूरा हो जाता है। (इसमें काम कटाक्ष के नाश में भय छिपा है, काजल के धुल जाने में अश्रुपात छिपा है, होठों की पीड़ा के नाश में पति के साथ चुंबन आदि छिपे हैं और चूड़ियों के चूरा होने में वैधव्य की अर्थ गोणता है। सं.)
द्रोण उवाच
दोहा
रिन बिन जीते शत्रु के, तूं अर्जुन नहिं जात।
जो मोहि जैहै जीति अब, तव पन साँचो तात।।६१।।
युद्ध समय जब अर्जुन व्यूह के मोर्चे के आगे से निकल रहा था कि उसे द्रोणाचार्य ने कहा कि हे अर्जुन! तू रण में शत्रु को बिना जीते नहीं जाता, ऐसा तेरा विरुद है परन्तु हे पुत्र! यदि अभी मुझे जीत कर आगे जाए तो मैं जानूंगा कि तेरा विरुद सत्य है।
अर्जुन उवाच
तुम मेरे नहिँ शत्रु हो, आचारज द्विज बंश।
जिन्हतैं हारन जीत सम, छत्रिन कहत प्रशंस।।६२।।
अर्जुन ने प्रत्युत्तर में कहा कि हे आचार्य! आप मेरे शत्रु नहीं, फिर आप ब्रह्म वंशीय गुरु हैं, इसलिए आप से मेरी जीत-हार का प्रश्न ही नहीं उठता। अर्थात् आप से हारना भी मेरी जीत के समान है। यह बात क्षत्रिय लोग प्रशंसा करते हुए कहते है।
कवि कथन
दै गुरु कौं परदच्छना, अपसव्य ह्वै पाराथ।
जय लच्छन दै द्रौन को, चल्यो नायकै माथ।।६३।।
कवि कहता है कि समय देख कर अर्जुन, आचार्य द्रोणाचार्य की प्रदक्षिणा दे कर, अपसव्य हो कर, द्रोणाचार्य को जय का चिन्ह दे, सिर नवा कर आगे बढा।
कवित्त
कहते किरीटी जू सौं करिहैं कलह क्रूर,
महा सूरबीरन की मन मैं मनी रही।
वाहन के वेग वासुदेव प्रेरिबे तैं बाजी,
वाह तो भई ना चित्त चाह तो घनी रही।
दोय कोश आगे शत्रु नाश करैं ऐसे बान,
दोय कोश पीछे परै चकत अनी रही।
पाये हैं नृपति पति अच्छर तृपति हैं पै,
पाथ-शस्त्र-संपति तैं बिपति बनी रही।।६४।।
कवि कहता है कि युद्धारंभ में कितने कई योद्धा कहते थे कि मैं घोर संग्राम करूंगा। उन सारे शूरवीरों की इच्छा मन में ही धरी रह गई। श्री कृष्ण द्वारा रथ के घोड़ो को पवन वेग से हांकने पर शत्रुओं की वाह-वाही तो नहीं हो सकी हां, चित्त में इच्छा ही बनी रही। अर्जुन के बाणों का वेग ऐसा था कि दो कोस दूर तक शत्रुओं का नाश कर दे और पीछे भी दो कोस तक की दूरी पर सभी कुछ नष्ट कर दे। यह देख कर शत्रु सेना भ्रमित हो गई पर युद्ध में मारे गए राजाओं को पति रूप पा कर स्वर्ग की अप्सराएं अवश्य तृप्त हो गईं। और अर्जुन के शस्त्रों की बाण वर्षा रूपी संपत्ति से शत्रुओं के सभी ठिकानों पर विपत्ति छाई रही।
चार चार कोश विसतार दिशा चार हू मैं,
कपि चिन्ह लिये व्योममंडल मैं जूटिबो।
ऐसौ ध्वजदंड रथ वेग है अखंड जाको,
जा रव प्रचंड ब्रहमंड को सो फूटिबो।
अर्जुन की शीघ्रता को कौन पै बखान बनै,
एक साथ दूर पात शत्रु आयु तूटिबो।
पांच सत बानन को छिन मैं न जान्यो जात,
तौन तैं निकारिबो संधान एंचि छूटिबो।।६५।।
चारों दिशाओं में चार-चार कोस के विस्तार में उसका रथ ध्वजा पर वानर राज के चिह्न के कारण आकाश मंडल में दिखाई देने लगा। रथ कि जिसका ऐसा ध्वज दंड था और जिसका वेग अप्रतिहत था, उसके चलने की घड़घड़ाहट ब्रह्मांड के फूटने की सी ध्वनि जैसी थी। ऐसे में अर्जुन की युद्ध चपलता का किससे वर्णन हों सकता है। कवि कहता है कि जिसको दूर से निहारने मात्र से शत्रुओं की उम्र कम होती थी फिर उसका एक साथ पाँच सौ बाणों का तरकश से निकालना, धनुष पर उनका संधान करना, धनुष का खींचना और बाणों का छूटना निमिष मात्र में हो, जाता था, जिसकी किसी को खबर भी नहीं पड़ती थी।
शुचा हास्य करुण औ रौद्र वीर है बिभत्स,
भयानक अद्भुत और शान्त लौं बिख्यात है।
रती हाँसी शोक कोप उत्सव गिलान भीति,
विस्मय निर्वेद थाई कारन कहात है।
सुरी रिषि शत्रु-त्रि मैं राजा ले सकुनी मैं,
कायर दिखैये युधिष्ठिर में सुहात है।
दोनों अखै भाथन तैं अर्जुन के हाथन तैं,
काटे पृथिनाथन तैं नौ रस दिखात हैं।।६६।।
कवि कहता है कि (१) श्रंगार, (२) हास्य, (३) करुण, (४) रौद्र, (५) वीर, (६) वीभत्स, (७) भयानक, ( ८) अद्भुत और (९) शांत ये नो रस प्रसिद्ध हैं।
इसी तरह (१) प्रीति, (२) हाँसी, (३) शोक, (४) कोप, (५) वीरता, (६) उत्साह, (७) ग्लानि, (८) भय और (९) निर्वेद, ये सभी नो रसों के स्थाई भाव हैं।
अप्सराओं में पहला ऋषियों में दूसरा, शत्रुओं की स्त्रियों में तीसरा, राजाओं में चौथा शूरमाओं में पाँचवा, शकुनियों में छठा, कायरों में सातवां, देखने वालों में आठवां और युधिष्ठिर में नोवां ये सभी नो स्थाई भाव कम से दिखते हैं।
अर्जुन के दोनों अक्षय तरकशों से और उसके दोनों हाथों से राजाओं के कांप कांप जाने से ऊपर वर्णित नो ही रस दृश्यमान होते हैं। (इसमें यथा संख्या (क्रम) अलंकार है-सं.)
उतै वे निकारै वरमाल पुष्प संपुट तैं,
इतै अखै तून तैं निकारत ही बान के।
उतै देववधू माल ग्रंथि को सँधान करैं,
गांजिव की मुरवी पै होत ही सँधान के।
इतै जापै कोप की कटाक्ष भरे नैन परैं,
उतै भरे काम की कटाक्ष प्रेम पान तैं।
मारिबे कौं बरिबे कौं दोनों एक साथ चलै,
इतै पाथ हाथ उतै हाथ अछरान कै।।६७।।
कवि कहता है कि अक्षय तूणीर से अर्जुन के बाण निकालने के साथ ही, वहाँ (स्वर्ग में) अप्सराएं फूलों के संपुट से वरमाला निकालती हैं। यहाँ युद्धक्षेत्र में गांडीव धनुष की प्रत्यंचा पर बाण का संधान होने के साथ ही वहाँ अप्सराएं वरमाला की गांठ का संधान करती हैं। यहाँ शत्रुओं पर अर्जुन की कुपित कटाक्ष भरी नजर पड़ती है और वहाँ अप्सराएं प्रेम से भरे काम कटाक्ष करती हैं। यहाँ अर्जुन के हाथ शत्रुओं को मारने के लिए और वहाँ अप्सराओं के हाथ शूरवीरों को वरने के लिए, दोनो एक साथ चल रहे है। (इसमें सहोक्तिमूलक अकमात्तिशयोक्ति अलंकार है-सं.)
जाहि पै संधान बान गांजिव तैं अर्जुन को,
ताहि पै अच्छर चख चंचल चलात हैं।
रूप रंग भूषन जे बसन निहारत ही,
छिन ही मैं और ही के और से दिखात हैं।
मेरो ही बर्यो है कैंधो और को बर्यो है ऐसो,
अस्त्र बिन शस्त्र ही में बिस्मय बिख्यात है।
माही ख्याल बीच है बिहाल सुरबाल डारैं,
स्वेत फूलमाल लाल लाल भई जात हैं।।६८।।
कवि कहता है कि अर्जुन का जिस शत्रु पर गांडीव धनुष से बाण का संधान होता है उस पर अप्सराएं अपने चपल नेत्रों से वार करती हैं। फिर उन शूरवीरों के रंग रूप और वस्त्राभूषण निमिष मात्र में और के और जैसे (स्थिति पलट जैसे) दिखते हैं, इससे अप्सराएं शंका से भर उठती हैं और स्वयं से कहती हैं यह वर मेरा वरा हुआ है कि अन्य किसी का वरा हुआ है? इस तरह अस्त्र-शस्त्र से रहित शूरवीरों को ले कर अप्सराओं में प्रत्यक्ष आश्चर्य होता है। इस तरह के ख्याल में बेहाल हुई अप्सराएं जब-जब सफेद फूलों की मालाएं वीरों के गले में डालती हैं, कि वे सभी मालाएं रक्तवर्ण (लाल-लाल) हो जाती हैं। (इसमें तद्गुणालंकार – स.)
गंगा गति गांजिव विराजित सहित घोष,
रवि तनया के रूप इरखु धार पैनी है।
सरस्वती रूप जाकी पनच उदार सोहै,
लोक-लोक बीच अदभूत जश लैनी है।
नारायन ढिग तैं चली है कुरुखेत बीच,
महा शूरवीरन कौं जोत मैं मिलैनी है।
है तो गति उर्ध्य देनी चतुर्वर्ग श्रैंनी पर,
होय न त्रिवैनी सुरलोक की निसैंनी है।।६९।।
अर्जुन के गांडीव धनुष की गति कलकल करती मंदाकिनी की तरह है, इस पर बाण की तीखी धार रूप यमुना है। धनुष की उत्तम प्रत्यंचा जैसे सरस्वती हो जो इस लोक के साथ परलोक में भी अद्भुत यश देने वाली है। यह त्रिवेणी नारायण (श्रीकृष्ण) के पास से कुरुक्षेत्र में चली है जो शूरवीरों को ब्रह्मज्योति में मिलाने वाली है। यह त्रिवेणी तीर्थ तो चारों वर्ण की पंक्ति को उर्ध्वगति (मोक्ष) देने वाली है, यह त्रिवेणी तो जैसे त्रिवेणी न हो कर वीरों के लिए सुरलोक की सीढ़ी (नीसरणी) हो। (इसमें अपन्हुति मिश्रित सावयव रूपकालंकार है-सं.)
कौन समै तौन तैं निकारैं द्रौन सैन्य कहै,
करत संधान छोरि और कौं गहत है।
दोय दोय कोस आगे पीछे बायें दसों दिशा,
दस दस कुंजर के पिंजर दहत हैं।
जाके ताके जत्र तत्र जहाँ तहाँ जबै तबैं,
एक आन लगै फेरि ज्ञान न रहत है।
अर्जुन के बान को प्रमान देखि शत्रुन के,
प्रान को प्रयान निज पानन चहत है।।७०।।
अर्जुन के युद्ध समय की चपलता को देख कर, द्रोण के सेना नायक कहते हैं कि यह अर्जुन किस समय अपने तरकश से बाण निकाल, उसका संघान कर, उसे चला कर, कब दूसरा बाण ग्रहण करता है समझ नहीं पड़ता। बाण कि जो दो-दो कोस के विस्तार तक आगे-पीछे, दाएं-बाएं, दशों दिशाओं में छा जाते हैं। शक्ति में जो दस-दस हाथियों के पिंजर को दाहने वाले हैं। जिस किस को, यहाँ-वहाँ, जब-तब सिर्फ एक बाण आ कर लगता है फिर उस शत्रु को अपना कोई भान नहीं रहता। अर्जुन के बाणों का प्रमाण देखो कि शत्रुओं के प्राणों का प्रयाण स्वयं शत्रु चाहने लगते हैं।
पद्धरी छंद
करि प्रथम द्रौन तैं जुद्ध बीर, जय लच्छन तै पुनि चल्यौ धीर।
दंतिन की सेना सब बिदारि, जवनाधीपति अंबष्ट मारि।।७१।।
अवंतीपती व्यंदानुव्यंद, कीनो दो पुत्रन युत निकंद।
वीर अर्जुन चौथे दिवस के युद्ध में पहले द्रोणाचार्य के साथ युद्ध कर उन्हें जय का लक्षण दे कर आगे बढ़ा। उस रणधीर ने आगे हाथियों की सारी सेना का संहार कर यवनाधिपति (म्लेच्छराज) अंबष्ट को मार डाला। इसके बाद विंद एवं अनुविंद इन दो पुत्रों सहित, उज्जैनराज का नाश किया।
नदिसूत भूप हरि कियो खंड, निज अस्त्रहि तैं पायो सु दंड।।७२।।
मूर्छा हरि अर्जुन की मिटाय, हति शत्रु सैन्य परवेस पाय।
केउ रथी और हय गजारोह, कीने विनाश अर्जुन सकोह।।७३।।
फिर वरुण से उत्पन्न नदीपुत्र (श्रुतायुध) राजा का श्री कृष्ण ने नाश किया, जो स्वयं के शस्त्र से ही मृत्यु को प्राप्त हुआ। इसके बाद श्री कृष्ण ने अर्जुन की युद्ध मूर्च्छा का निवारण किया। उसने तब शत्रु सेना में जा कर कितने ही रथियों, घुड़सवारों तथा हाथियों पर आरूढ राजाओं का कुपित हो कर विनाश किया।
वह समय कृष्ण नर तैं उचारि, बहु श्रमित तृषातुर हय बिचारि।
ततकाल अस्त्र तैं रचहु ताल, साजहु इखुमय पुनि अश्वशाल।।७४।।
इस समय तक रथ के घोड़े अत्यधिक थक चुके थे, उन्हें प्यासे जान कर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि हे अर्जुन! तू अपने शस्त्र बल के सहारे तुरन्त यहाँ एक सरोवर प्रकट कर और बाणों से अश्व शाला का निर्माण कर।
निरसल्य करौं अश्वन पिवाय, करि अभय युद्ध तूं सथिर काय।
ज्यों कह्यौ कृष्ण त्यों कियो पाथ, सरवर हयशाला एक साथ।।७५।।
हय पाय कियो हरि ग्रह प्रवेश, सो रह्यो पयादो विजय शेष।
जिससे मैं घोड़ों को पानी पिला कर उन्हें निर्सल्य (शरीर में लगे बाणों को निकालना) करूं। उसके बाद भले ही तू निर्भय हो जम कर युद्ध करना। श्री कृष्ण के कहने पर अर्जुन ने एक साथ सरोवर और अश्वशाला को उत्पन्न किया। फिर घोड़ों को पानी पिला कर श्रीकृष्ण ने अश्वशाला में प्रवेश किया, इतने समय तक अर्जुन पैदल ही रहा।
दोहा
बिधि रथ हरि सारथि बिगर, पार्थ भूमिगत पेखि।
उमगे अरि फानूस बिनु, दीप सलभ गन देखि।।७६।।
इस समय ब्रह्मा द्वारा प्रदत्त रथ और सारथीविहीन अर्जुन को जमीन पर खड़ा देख कर, जिस प्रकार फानूस रहित दीपक देख कर शलभ आदि पतंगे टूट कर गिरते हैं, उसी प्रकार शत्रु अर्जुन पर टूट पड़े।
बिन रथ अर्जुन बहुरथी, रोकि लिये जुत छोभ।
अगनित गुन गन नरन के, ज्यों रोधत इक लोभ।।७७।।
जिस प्रकार मनुष्य के गुण-समूह (गुणों) को एक अकेला लोभ रोके रखता है (प्रकट नहीं होने देता) उसी तरह रथ विहीन अकेले अर्जुन को अनेक रथियों ने क्षोभ सहित रोके रखा।
कवित्त
मूरख के बैन मैं न कुलटा के नैन मैं न,
मीन गति लैन मैं न चपलाई ऐसी है।
तारख के गौन मैं न त्यों ही पुंज यौन मैं न,
विद्युत के हौन मैं न कौन जाने कैसी है।
सव्य अपसव्य हू की फुरती न जानी जाय,
किरीटी के हाथन मैं जैसी होय तैसी है।
जितै जितै जेति जेति शत्रु सैन्य जुरै जबै,
तितै तितै तेति तेति शीघ्रता अनैसी है।।७८।।
अर्जुन के बाएं और दाएं हाथ की चपलता ऐसी है जिसकी बराबरी किसी दूसरी चीज से नहीं की जा सकती है। न ऐसी चपलता मुर्ख के बोलों में है, न कुलटा स्त्री के नयनों में, और न मछली की चाल में। चपलता का ऐसा वेग न गरुड़ की उड़ान में है, न पवन के यूथ में, और न बिजली के चमकने में। फिर कौन जाने इन दोनों हाथों की चपलता कैसी है? जब-जब, जहाँ-जहाँ, जितनी-जितनी शत्रु सेना जुटती है, तब तब, वहाँ-वहाँ, उतनी-उतनी अर्जुन के हाथों की चपलता हो जाती है। यह चपलता सभी से जुदा है अर्थात् अनुपम है।
दोहा
श्रेष्ट ग्रही को अतिथ ज्यों, विमुख न कबहू जाय।
त्यों अर्जुन तैं भिरि समर, बिन छत कोउ न लखाय।।७९।।
जैसे उत्तम सद्गृहस्थ के यहाँ आने वाले अतिथि से गृहस्वामी कभी विमुख नहीं होता और अतिथि कभी निराश नहीं होता। उसी प्रकार युद्ध में अर्जुन के सम्मुख पड़ने वाला शत्रु घायल हुए बिना नहीं जाता। अर्थात् वह उनकी पूरी मेहमानदारी करता है, निराश नहीं करता।
कवित्त
व्हैकै प्रतिकूल जाने खांडूबन जारि दीनो,
सानुकूल व्हैकै शत्रु इन्द्र के किये निपात।
भोजन की बेर और पुत्र त्रिया स्परस कौं,
सबैको दक्षन कर बढत लखावै तात।
आहव मैं अर्जुन के उभै बाहु एक से हैं,
लखै ताकौं गांजिव अलात-चक्र सो लखात।
वाम आगे दक्षन त्यों दक्षन के आगे वाम,
वामन भू मापिबै के पैंड सो बढत जात।।८०।।
जिस अर्जुन ने विरुद्ध हो कर (इन्द्र द्वारा रक्षित) खांडव वन को जला डाला, और पक्ष में हो कर इन्द्र के शत्रुओं (समुद्र में बसने वाले राक्षसों को) का नाश किया। संजय कहता है कि हे राजा धृतराष्ट्र! भोजन के वक्त और पुत्र एवं स्त्री का स्पर्श (लाड़) करने में सभी का दायां हाथ ही बढ़ता दिखाई देता है परन्तु रण-संग्राम में अर्जुन के दोनों हाथ एक जैसे हैं। फिर गांडीव धनुष की गति को देखें तो अलात चक्र जैसी दिखती है, जिसमें अर्जुन के बाएं हाथ से आगे दांया हाथ और दांए हाथ के आगे बांया हाथ इस प्रकार चलता है जैसे राजा बलि के यहाँ याचना करने आए वामन अवतार के कदम (पृथ्वी को नापने में) चल रहे हों।
पार्थ के प्रहार परलोक पृथ्वीनाथन को,
पेखि दुर्योधन पछितात पानि पीसै त्यौं।
दुसह दुराप दीर्घ कपि ध्वजदंड देखि,
दुसासन आदि द्युतिहीन भये दीसै त्यौं।
सोहत है शस्त्र सों सराहत सरब बीर,
वाहत किरीटी बाण दश हू दिशी से त्यौं।
बर के वरीषे रूप सरस शशी से इतै,
कोदँड कसीसे उतै अच्छर असीसै त्यौं।।८१।।
कवि कहता है कि अर्जुन के बाणों के प्रहार से जिस प्रकार राजा परलोक वासी हो जाते हैं और यह देख कर दुर्योधन पछता कर अपने हाथ मलता है। उसी तरह अर्जुन के रथ पर विशाल ध्वजदंड में फहराती ध्वजा पर बैठे कपिराज को देख कर, दुःशासन तेजहीन दिखता है। शस्त्र से सज्जित अर्जुन जब अपने बाण दशों दिशाओं में फेंकता है, उसे देख कर सभी शूरवीरों के मुँह से वाह-वाह निकलती है। इधर रणशूरे वीरों का रूप, सुन्दर चन्द्रमा जैसा बरसता है उधर अर्जुन अपने धनुष को कसकसाता है तब उन सुन्दर रणशूरों को बरने की उतावली लिये अप्सराओं के मुँह से आशीर्वाद बरसता है।
सवैया
सिंधु नरेश के मारिबे काज, लयो पन वासवी सद्य गयो चल।
जाके प्रवेश के पीदे द्विजेश ने, मारि बिदारिकै टारि दिये खल।
वृद्ध है उम्मर शुद्ध पराक्रम, ताहिके जुद्ध मैं नाहिँ कछू छल।
पौन मृगेंद्र के होत गजेंद्र त्यों, द्रौन के पौन तैं पांडव को दल।।८२।।
उधर सिंधु नरेश (जयद्रथ) को मारने के लिए अर्जुन अपनी प्रतिज्ञा याद कर युद्ध क्षेत्र की ओर बढ़ा। इधर युद्ध में प्रवृत होने के बाद द्रोणाचार्य ने मार काट कर शत्रुओं का संहार कर डाला। द्रोण, जिसकी उम्र तो अधिक है (वृद्ध है) पर पराक्रम में विशिष्ट है। उसके युद्ध में थोड़ी भी कपट नहीं। जैसे वन में सिंह की गंध वाली वायु को सूंघ कर हाथी व्याकुल हो जाते हैं, उसी प्रकार द्रोणाचार्य के पसीने की पवन में मिली गंध को सूंघ कर पांडवों की सेना व्याकुल हुई जाती है।
।।इति एकादश मयूख।।
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