पांडव यशेन्दु चन्द्रिका – त्रयोदश मयूख
।।त्रयोदश मयूख।।
कर्णपर्व (पूर्वार्द्ध)
वैशंपायन उवाच
दोहा
लखि द्वै दिन को युद्ध पुनि, संजय परम सयान।
कहि नृप तैं तव पुत्र को, कट्यो कर्न तनत्रान।।१।।
वैशंपायन कहने लगे, हे जन्मेजय! फिर दो दिन का युद्ध देख कर परम सुजान संजय ने हस्तिनापुर में आ कर, धृतराष्ट्र से कहा कि तुम्हारे पुत्र का कवच वह कर्ण आज फट (मारा) गया।
संजय उवाच
कवित्त
भीम वाडवागि जाको नेक हू न कीनो भय,
सात्यकि तिमिंगल को त्रास हू न मान्यो राज।
नकुल सहदेव धृष्टद्युम्न रु शिखंडी जैसे,
महाबाहु ग्राहन को चिंत्यौ ना कछू इलाज।
किरीटी के कोप वायु चंड खंड खंड कीनी,
गांजिव लहर चली लोपिकै प्रमान पाज।
जातैं नृप चाहत हो आहव समुद्र पार,
सुयोधन वारी कर्न नवका डुबानी आज।।२।।
जिस सैन्य दल में भीम जैसी बड़वानल थी उसका जरा सा भी उसने भय नहीं माना, और हे राजा! सात्यकि रूपी मगरमच्छ का भी उसे तनिक भय नहीं लगा। नकुल, सहदेव, धृष्टद्युम्न और शिखंडी जैसे महा विकराल ग्राहों को कुछ नहीं मानते हुए, गांडीव धनुष की विकट लहरों की परवाह नहीं करते हुए, वह कर्ण रूपी नाव आगे ही आगे बढ़ती गई। पर हाय! जिस नैया पर बैठ दुर्योधन रण-समुद्र से पार उतरना चाहता था, वही दुर्योधन की सहायक नाव आज डूब गई। (इसमें समस्त विषयक रूपकालंकार है – सं.)
पंक युक्त भयो द्यूतक्रीडा तैं युधिष्ठिर के,
यश को सरोवर सो नीके कै निखरिगौ।
पौन पुत्र कोप को प्रचंड पौन गौन तातैं,
चौकरी चँडाल मेघमंडल बिखरिगो।
पान किये देखि श्रौन भीम कौं दुसासन को,
मन को महल ताको तूटि भू शिखरि गो।
कर्न नदी गांजिव की फैंट तैं सुयोधन को,
विजय मनोर्थ बृच्छ मूल तैं उखरिगो।।३।।
जुआ खेलने से धर्मराज युधिष्ठिर के यश रूपी सरोवर में कुछ गंदलापन आ गया था, वह अब सभी प्रकार से स्वच्छ जल वाला हो गया। भीमसेन का क्रोध रूपी प्रचंड पवन चला, जिससे चांडाल चौकड़ी (कर्ण, शकुनि, दुःशासन और दुर्योधन) रूपी मेघमंडल बिखर गया। भीमसेन का दुःशासन के रक्त-पान का दृश्य देख कर दुर्योधन के मनोरथ रूपी महत्व का शिखर टूट कर पृथ्वी पर आ पड़ा और गांडीव के झपट्टे से कर्ण रूपी नदी के किनारे को तोड़ निकल जाने से दुर्योधन की विजयेच्छा का वृक्ष जडमूल से उखड़ गया।
धृतराष्ट्र उवाच
मेरू को चलन इंदु रथ को पतन भूमि,
उदय प्रभाकर को प्रतीची मैं कहो काहि।
सिंधु को सो शोषण अदाह तेज अगनी को,
फूटिबो भूगोल को सो संजय बिचारो जाहि,
चारौं पांडुपुत्र दिशा जीती कौं जितैया पक,
न्याय तैं को आहव मैं देव दैत्य जीतै जाहि।
कोउ निरसंशै एती बातैं सुनि मानै जोपै,
तोउ निरसंशै मेरे कर्न को पतन नांहि।।४।।
धृतराष्ट्र कहने लगे कि हे संजय! सुमेरु पर्वत का चलायमान होना, चन्द्रमा के रथ का पृथ्वी पर गिरना, सूर्यदेव का पश्चिम दिशा में उदय होना, कोई कहे तो माना जा सकता है। समुद्र का सूखना, अग्नि की दाहकता का निःशेष होना और पृथ्वी का फट जाना ऐसी बातों पर भी विश्वास किया जा सकता है। यह भी माना जा सकता है कि पांडु पुत्रों ने एक-एक दिशा में जा कर उसे जीत लिया हो। पर चारों दिशाओं को अकेला जीतने वाला कर्ण कि जिससे संग्राम में देव एवं दैत्य भी नहीं जीत सकते। भला ऐसे मेरे कर्ण का पतन हो जाए यह बात मेरे लिए निःसंशय रूप से मानने योग्य नहीं।
सवैया
मारुति कौं विष दीनो जबै दश साहस्त्र दंतिन को अँसु लायो।
जारत हो सो जर्यो परधान उत्तै नृप द्रौपद तैं बल पायो।
श्रापन काज गयो द्विजराज सो आशिष दै हम हू सों रिसायो।
अंध कहै मम पूत हैं अंध ते जीतिबे की जुध-व्यूह रचायो।।५।।
जब भीमसेन को जहर दिया तो वह बच कर दस हजार हाथियों के बराबर बल पा गया। फिर जलाने को गया (लाक्षागृह मे) तो यवन प्रधान उस अग्नि में स्वयं जल गया और पांडव बच कर द्रुपदराज का बल भी पा गए। पांडवों को शाप देने गये दुर्वासा ऋषि, शाप न दे उन्हें आशीष दे कर आये और हम से क्रुद्ध हो गये। धृतराष्ट्र कहते हैं कि हे संजय, इस प्रकार जिन पर साक्षात ईश्वर मेहरबान है, उन्हें जीतने के लिए मेरे पुत्र ने युद्ध रचाया है। मुझे लगता है वह भी मेरी तरह अंधा है।
सोरठा
करन मरन सुनि कान, हिय न फटत कहा वज्र है।
कित सुत विजय विधान, प्रान हानि जानी परी।।६।।
धृतराष्ट्र आगे कहते हैं कि कर्ण का मरना सुन कर भी मेरा कलेजा नहीं फटा यह भी कैसा वज्ररूप है? अब मेरे पुत्र की विजय का विधान कहाँ रहा? मुझे तो उसकी भी प्राणहानि जान पड़ती है।
दोहा
कर्यो जुद्ध कैसे करन, मर्यो कर्न किम तात।
डर्यो मोर चित पुत्र हित, कहहु जथारथ बात।।७।।
हे संजय! कर्ण ने कैसा युद्ध किया? और वह किस प्रकार मारा गया? मेरा मन अब पुत्र के लिए भी डरने लगा है। इससे मुझे तुम पूरा यथार्थ विवरण सुनाओ!
सजय उवाच
मच्छ व्यूह कीनो करन, धृष्टद्युम्न शशि आध।
भिरी परस्पर सैन दोउ, होन लगे नृप बाध।।८।।
संजय बताने लगा कि हे राजा! कर्ण युद्ध को चढ़ा तब उसने मछली के आकार का सैन्य-व्यूह रचा और धृष्टद्युम्न ने अर्द्ध-चन्द्राकार आकृति में अपनी सेना जमाई। उसके बाद दोनों सेनाएं आमने-सामने लड़ने लगी और राजाओं के वध होने लगे।
भीम द्रोनी दोउन के युद्ध को समाज भयो,
लागे नर देव धरा व्योम बीच ध्यान से।
दोउन के कटे शस्त्र दोउ ग्रहै और और,
दोउन के तूटे ध्वज मान अप्रमान से।
दोउन के कवच कटे हैं फटे वस्त्र जैसे,
दोउन के अंग है पलास बिनु पान से।
दोउन के बान लगे दोउन के आनि भगे,
दोउन के ज्ञान ठगे दोउन के प्रान से।।९।।
भीमसेन और अश्वत्थामा इन दोनो का जब युद्ध हुआ तो पृथ्वी और आकाश में मनुष्य और देवता भी देखने लगे। दोनों अपना एक अस्त्र कट जाने पर दूसरा धारण करते हैं, उन दोनों के ध्वजदंड बिना प्रमाण के भी टूटने लगे हैं। जिस प्रकार वस्त्र फटते हैं उसी प्रकार उनके कवच फटने लगे और दोनों के अंग पातविहीन पलास के पेड़ की तरह लाल हो गए। इधर दोनों ओर की सेना एक दूजे पर बाणों की वर्षा से नष्ट होने लगी है और दोनों के प्राणों से उनका ज्ञान ठगा गया है अर्थात् दोनों को अपने प्राणों का भी भान नही।
पद्धरी छंद
यह रीति भयो मिलि द्वंद युद्ध, कुरु पांडव जूटत सहित कुद्ध।
कुल बिरद नाम निज शत्रुवंश, परसपर सुभट बोलत प्रशंस।।१०।।
नृप तोर मंत्र को यह विलास, निज वंश होत दोउ ओर नाश।
पांडवी सैन्य बिच गती पाय, हजारन कर्न दीन मिटाय।।११।।
इस रीति से आमने-सामने युद्ध शुरू हुआ, जिसमें कौरव और पांडव कुपित हो कर लड़ने लगे। फिर स्वयं के शत्रुओं के वंशजों के नाम लेकर योद्धा, परस्पर वंश की प्रतिष्ठा के अनुरूप विरुद बोलने लगे। संजय बताने लगा कि हे धृतराष्ट्र! दोनों ओर तुम्हारे ही वंश का नाश हो रहा है, यह सब कुछ तुम्हारे कुविचार का ही परिणाम है। ऐसे में कर्ण ने पाण्डवों की सेना में बलात प्रवेश ले कर, हजारों योद्धाओं को मिटा डाला।
दस भिरे भीम तैं तोर पुत्र, जमलोक गये दिन प्रथम जत्र।
लखि प्रलयरूप निज दल बिदार, प्रति करन नकुल बोल्यो हँकार।।१२।।
धनि आज दिवस रिन बीच धूत, सब कलहमूल तूं मिल्यो सूत।
तैं बये बीज कुरुकुल अन्याय, दैहौं संजमनीपुर पठाय।।१३।।
जो अब हि भागि जैहै न नीच, मिलिहै न कुटुँब सिर चढी मीच।
द्रुपदा के कढिहैं वचन साल, सुख शयन करहि धर्मज भुवाल।।१४।।
हे धृतराष्ट्र! तुम्हारे दस पुत्र तो भीमसेन से लड़ कर पहले दिन ही यमलोक को चले गए। फिर स्वयं की सेना का प्रलय की तरह नाश करते देख नकुल ने कर्ण को ललकार कर कहा कि हे सूत! आज का दिन मेरे लिए धन्य है कि सारे क्लेश का मूल रूप तू ठग मुझे आज रणभूमि में प्रत्यक्ष मिला है। तूने ही कुरुवंश में अन्याय का बीज बोया है इसलिए आज मैं तुझे यमलोक भेज कर रहूंगा। अरे नीच! यदि अब तू शीघ्र ही मेरे सामने से भाग नहीं छूटा तो अपने कुटंबियों से नहीं मिल पाएगा, क्योंकि तुझ पर मृत्यु सवार है। इससे तेरे द्वारा कहे गए कटु वचन जो द्रौपदी को प्रतिक्षण चुभते रहते हैं, वे निकल जाएंगे और फिर धर्मराज युधिष्ठिर आरामपूर्वक सो सकेंगे।
यह सुनत करन बोल्यो अभीत, नहिं बहुत बोलिबो सुभट रीत।
पौरुषहि दिखावत कर सँग्राम, ऐसे न सुभट बोलत अकाम।।१५।।
यों कहत चलै मार्गण अपार, इत उत हि भयो बाणान्धकार।
सरभर दोउ घटिका भयो जुद्ध, कर्न कौं भयो पुनि विषम क्रुद्ध।।१६।।
यह सुन कर निडर कर्ण ने कहा कि अधिक बोलना तो शूरवीर को शोभा नहीं देता, सही योद्धा व्यर्थ वचन नहीं कहता। वह तो युद्ध कर अपना उत्साह व्यक्त करता है। इतना कहते ही असंख्य बाण चले, दोनों ओर के बाणों से आकाश ढक कर अंधकार छा गया। इस प्रकार दो घड़ी तक बराबर ऐसा ही युद्ध चला। उसके बाद कर्ण को विषम क्रोध आ गया।
नकुल के प्रथम चहुँ अश्व मारि, सारथी एक बानहि सँहारि।
धानुष निखंग पुनि ध्वजादंड, हति बान किये सब खंड खंड।।१७।।
लै खड्ग चर्म फिर समुख दौरि, तेउ बान मारि दिय करन तोरि।
मार्यो न पृथा वायक सँभारि, कटु वचन कहे गल धनुष डारि।।१८।।
ऐसी न कहहु मुख कबहुँ बात, सम भटहि निमंत्रण करहु तात।
अनुज रथ भयो आरूढ आप, बिनु रद करंडगत यथा साप।।१९।।
इस से उसने नकुल के रथ के अगले चार घोड़ों को मार कर एक ही बाण में सारथी को काट डाला। यही नहीं उसके धनुष बाण और रथ के ध्वजदंड को बाण मार कर टुकड़े-टुकड़े कर डाला। तब नकुल ढाल तलवार ले कर कर्ण के सामने दौड़ा, उन्हें भी कर्ण ने तोड़ डाला। फिर कुंती को दिये हुए वचन को याद कर उसे मारा नहीं छोड़ दिया। कर्ण ने उसके गले में धनुष डाल कर वैसे ही कडुवे वचन सुनाए कि हे भाई! अब कभी भविष्य में लड़ाई की बात अपने मुँह से निकालना मत, फिर अपने बराबर के योद्धा को ललकारना। अंत में नकुल बिना दांतों वाला सर्प जिस प्रकार पिटारी में बैठता है, उसी प्रकार अपने छोटे भाई सहदेव के रथ में जा बैठा।
धनि धनि नृप मानत हौं सधीर, त्रयगर्तपती के अनुग वीर।
ज्यों ज्यों संसप्तक मरत जात, त्यों नर तैं भिरत न मुरत तात।।२०।।
अर्जुन तब सेना साँझ बेर, अति करी विकल नृप घेर घेर।
भो करन थकित थिर टेरि टेरि, सब भगत कपीध्वज हेरि हेरि।।२१।।
कटि परे वीर केउ समर घोर, अवहार भयो दोउ सैन्य ओर।
संजय कहने लगा कि हे राजा धृतराष्ट्र! त्रिगर्तपति (सुशर्मा) के सेवकों और उसके योद्धाओं को मैं धैर्यवान और धन्य-धन्य मानता हूं, कि हे तात! जैसे जैसे संसप्तक मरते जाते हें, वे अपनी लड़ाई अर्जुन के सामने और तेज करते जाते हैं, पीछे नहीं हटते। हे राजा! अर्जुन ने सांझ के वक्त घेर-घेर कर आपकी सेना को व्याकुल कर डाला, तो कर्ण ने उन्हें ‘डटे रहो’ ‘डटे रहो’ कह कर रोके रखा, नहीं तो अर्जुन को देखते ही कौरव सेना के योद्धा भागने लगे थे। इस प्रकार थोड़ी ही देर में इस भयंकर संग्राम में कई वीर खेत रहे, फिर दोनों सेनाओं की तरफ से युद्ध बंद हुआ।
दोहा
कहो तोर सुत करन प्रति, डेरन हृदय बिचार।
मानत हौं तव भुजन पर, सर्व जुद्ध को भार।।२२।।
हे धृतराष्ट्र! फिर खेमे में जा कर तुम्हारे पुत्र (दुर्योधन) ने कर्ण से अपने दिल की बात कही कि हे कर्ण! इस सम्पूर्ण युद्ध का भार मैं अब तेरी भुजाओं पर ही मानता हूं।
सोइ तव देखत सैन मम, करी किरीटी नाश।
जीबे को जय को बहुरि, राखहुँ कस विश्वास।।२३।।
तुम्हारे देखते (रहते हुए) किस प्रकार अर्जुन ने मेरी सेना का नाश किया है? अब तुम्हीं बताओ कि मैं विजय का और जीवित रहने का विश्वास कैसे करूं?
करण उवाच
रथ हय सूत निखंग धनु, नर सम मेरे नाहिँ।
तिहि समान जुध करत तउ, कहत न्यून मम काहिँ।।२४।।
यह सुन कर कर्ण ने कहा कि हे दुर्योधन! मेरे न तो अर्जुन जैसा रथ, न घोड़े न सारथी, न धनुष और बाण हैं, फिर भी मैं उसकी बराबर का हो कर युद्ध कर रहा हूँ फिर तू मुझे कम क्यों कहता है?
सल्य करहु मम सारथी, लेहुँ विजय धनु हाथ।
राखहु ढिग बानन शकट, कहा बिचारो पाथ।।२५।।
फिर भी हे दुर्योधन! सुन, शल्य राज को मेरा सारथी बना और मैं विजय धनुष उठाता हूँ। ऐसे में तू मेरे पीछे बाणों से भरी गाड़ी रख। फिर बेचारे अर्जुन की क्या बिसात कि वह मेरे आगे टिक सके!
परशुराम दत विजय धनु, बहु दिन पूजित बान।
अर्जुन हित राखे उभय, ग्रहिहौं वज्र समान।।२६।।
मेरे आचार्य परशुराम द्वारा प्रदत्त विजय नामक धनुष और पूज्य नामक बाण की मैं कई दिनों से पूजा कर रहा हूँ। उन दोनों को मैंने अर्जुन को मारने के लिए रख छोड़ा है, उन वज्र समान आयुधों को मैं अब धारण करूंगा।
छंद पद्धरी
तब पुत्र मद्र भूपति बुलाय, सब कहो कर्न वांछित सुनाय।
मम विजय तोर आधीन आज, हाँकिये कर्न रथ मोर काज।।२७।।
तुम अश्वकुशल कृष्णहि प्रमान, है कर्न रथी अर्जुन समान।
पुनि कर्न विजय धनु पुज्य बान, तुम जुक्त हरहु कपिकेतु प्रान।।२८।।
संजय बताने लगा कि हे राजा! उसके बाद आपके पुत्र (दुर्योधन) ने मद्रराज शल्य को बुला कर कर्ण की इच्छा कह सुनाई कि, हे शल्यराज! कल प्रातः मेरी विजय आपके अधीन है, इसलिए मेरे वास्ते आप कर्ण का रथ हांके।
क्योंकि आप घोड़े हांकने में कृष्ण की तरह कुशल हैं, और कर्ण अर्जुन के बराबर का रथी है, फिर ऊपर से कर्ण का विजय नामक धनुष और पूज्य नाम का बाण है। इससे आप दोनों मिल कर अर्जुन के प्राण हरें।
कपिकेतु बिना भीमादि और, ततकाल पठविहौं पितृ ठौर।
तजि भागनेय मम किय सहाय, यह पूर्न सुजश तोहि मिलहि आय।।२९।।
अर्जुन के अतिरिक्त भीमसेन आदि दूसरों को तो मैं तुरन्त पितृलोक में भेज दूंगा, फिर तुम अपने भानजों (पांडवों) को छोड़ कर मेरी सहायता को तत्पर हुए हो, यदि पूरी सहायता करोगे, तो तुम्हें यश मिलेगा।
संजय उवाच
दोहा
गयो युधिष्ठिर तैं मिलन, सल्य प्रथम वैराट।
मातुल तैं जाच्यो नृपति, समझि भविष्यत घाट।।३०।।
संजय कहने लगा कि हे धृतराष्ट्र! पहले जब शल्य राज युधिष्ठिर से मिलने विराट नगर में गया था तब युधिष्ठिर ने भविष्य की संभावित स्थिति देख कर मामा (शल्य) से वचन मांगा था।
युधिष्ठिर उवाच
तुम्हैं सुयोधन जाचिहैं, करन सारथि काज।
अकरन हू करिहौं अवसि, मेरे हित महाराज।।३१।।
युधिष्ठिर ने कहा था कि हे महाराज! कर्ण का सारथी बनने के लिए आपसे दुर्योधन कहेगा, यद्यपि यह काम आपके करने योग्य नहीं है परन्तु मेरे भले के लिए आप स्वीकार कर लेना।
करन स्तुती तैं अधिक बल, निंदा तैं बल छीन।
ह्वै सारथि निंदा करहु, होहि दुष्ट मदहीन।।३२।।
कर्ण का बल स्तुति करने से बढता है और निन्दा करने से घटता है इसलिए आप सारथी बन कर उसकी निंदा करना जिससे वह दुष्ट बलहीन हो जाए।
संजय उवाच
तथा अस्तु बोल्यो तऊ, नट्यो सल्य तिहि काल।
करन प्रान खंडन करन, कहे वचन जनु साल।।३३।।
संजय बताने लगा कि हे धृतराष्ट्र! शल्य राज ने युधिष्ठिर से कहा था कि तू कहता है तो ठीक है, मैं वैसा ही करूंगा परन्तु जब दुर्योधन ने यह सारथी होने का प्रस्ताव रखा तो उन्होंने ना कही, और कर्ण के प्राणों का नाश करने वाले वचन कहे जैसे घाव किया हो।
शल्य उवाच
सूतपुत्र को सारथी, करत नृपति कौं आज।
मैं भगनीसुत आयु ग्रह, भले तजे तब काज।।३४।।
शल्य बोले कि हे दुर्योधन! मैं राजा और तू मुझे सूतपुत्र (कर्ण) का सारथी बनाना चाहता है? तो ठीक है क्या मैंने इसी दिन के लिए अपने सगे भानजे, आयुष्य और घर को छोड़ा था?
संजय उवाच
ऐसे कहि नृप उठि चल्यो, करिहौं युद्ध इकंत।
कौन रहै तब ढिग जहाँ, सरभर संत असंत।।३५।।
संजय बताने लगा कि हे धृतराष्ट्र! यह कह कर राजा शल्य चलता बना कि मैं अकेला ही युद्ध करूंगा। हे दुर्योधन! तेरे यहाँ सज्जन और दुर्जन दोनों एक सरीखे (जैसे) हैं, फिर कौन रहे?
शल्य उवाच
करन हि गिनत पराक्रमी, और क्षत्रि का नांहिँ।
देवादिक की सैन कौं, मैं रोकौं रन माहिँ।।३६।।
शल्य आगे कहने लगे कि हे दुर्योधन! तू कर्ण को ही पराक्रमी गिनता है तो क्या दूसरे क्षत्रिय वीर नहीं? मैं भी देवताओं की सेना को रण में रोकने का हौंसला रखता हूँ।
संजय उवाच
फैंट पकरि बैठाय तिहि, विनती करी बहोर।
मानत हौं श्रीकृष्ण तैं, अधिक पराक्रम तोर।।३७।।
संजय कहने लगा कि हे धृतराष्ट्र! बाद में दुर्योधन ने शल्यराज की कसी हुई कमर का पल्ला पकड़ कर अपने पास बराबर के आसन पर बिठाया और समझाते हुए विनती की, कि हे शल्यराज! मैं आपको कृष्ण से अधिक पराक्रमी मानता हूं।
दुर्योधन कथन
आहि करन पै एक अब, अर्जुन हंतक बान।
तातैं चाहत हौं नृपति, सारथि तोर समान।।३८।।
दुर्योधन कहने लगा कि हे राजा शल्य! अब अर्जुन को मारने के लिए कर्ण के पास एक ही बाण शेष है, इसलिए मैं आप जैसा निपुण सारथी चाहता हूं।
करी सार्थिता रुद्र की, विधि त्रिपुरासुर बार।
नर रथ प्रेरक कृष्ण लखि, यहै प्रत्यक्ष व्युहार।।३९।।
फिर देखो, पहले त्रिपुरासुर को मारने के समय महादेव के सारथी स्वयं ब्रह्माजी बने थे। अर्जुन का रथ हांकते श्री कृष्ण अभी तुम्हारे सामने विद्यमान है। यह प्रत्यक्ष व्यवहार का उदाहरण है।
शल्य वचन
कहो कृष्ण तैं अधिक मुहि, भयो प्रसन गुनग्राम।
हरिहौं तोर विषाद नृप, करिहौं नीच हु काम।।४०।।
इस पर शल्य बोला कि हे दुर्योधन! तुमने मुझे कृष्ण से अधिक पराक्रमी माना, तेरे इस गुण कथन से मैं प्रसन्न हुआ, अब मैं कर्ण का रथ हांकने जैसा हेय कार्य भी कर, तेरे विषाद को हरने का प्रयत्न करूंगा।
करै कौल जो सूत सुत, सहै बचन मम सूल।
कटुँबी अर्ध विभाग को, भोक्ता मैं अनुकूल।।४१।।
पर एक शर्त है तुम उस कर्ण से भी कह देना कि वह मेरे कड़वे-मीठे वचनों को सहन करे क्योंकि उसका सारथी होते हुए भी, सामने वाले पक्ष के सुख-दुख में मेरा हिस्सा है। मैं उनका भी रिश्तेदार हूं।
करण कथन
रथि सार्थी कौं होत है, सुख दुख भोग समान।
उभय परस्पर बनत ही, कष्ट परै तनत्रान।।४२।।
यह सुन कर कर्ण ने कहा कि रथी और सारथी के सुख-दुःख भी साथ जुड़े हुए होते हैं। किसी एक पर कष्ट आते ही दूसरे को उसका कवच बन जाना पड़ता है।
तातैं हित की अहित की, कहिहै मद्रनरेश।
मैं सहिहौं रनभूमि मैं, करिहौं क्रोध न लेश।।४३।।
इसलिए हे दुर्योधन! शल्यराज मेरे हित की और अहित की जो भी बात कहेंगे, उसे मैं रणभूमि में सहन करूंगा और थोड़ा सा भी क्रोध नहीं करूंगा। इन्हें आश्वस्त कर दे।
छंद पद्धरी
भये प्रात दुंदुभी बजे घोर, करि व्यूह सैन्य चढ़ि उभय ओर।
रथ एक करन अरु मद्रराज, गिरि एक जथा रवि दुवन भ्राज।।४४।।
रात्रि को ये सारी बातें तय हो जाने के बाद, प्रातःकाल में युद्ध के भयंकर बाजे बजने लगे और दोनों पक्षों की सेनाएं अपने अपने व्यूह रचने लगी। जिस प्रकार उदयाचल पर्वत पर सूर्य शोभा देता है उसी तरह एक ही रथ पर कर्ण और शल्यराज दोनों शोभा देने लगे।
तहँ भये शुकुन विपरीत रूप, भय त्रसित भई सब सैन भूप।
गिरि पड़्यो करण को ध्वजादंड, पुनि कियो सकुथ ठाढो प्रचंड।।४५।।
उलका निपात भो चार ओर, धर ध्रूजि मिट्यो रवि प्रभा जोर।
संजय बताने लगा कि ऐसे में कर्ण को बुरे शकुन होने लगे, इससे हे धृतराष्ट्र! तुम्हारी पूरी सेना भयभीत हुई। कर्ण के रथ का ध्वजदंड गिर गया तब प्रचंड ध्वजदंड को फिर से खड़ा किया गया। इसी समय चारों ओर उल्कापात हुआ, पृथ्वी कांपने लगी और सूर्य की किरणों का तेज घटने लगा।
तित कह्यो करन नृप सुनहु मद्र, रवि बिंब लखावत सहित छिद्र।
उत जुरी समुख दोउ सैन आय, सबन प्रति करन बोलत सुनाय।।४६।।
तब कर्ण ने कहा कि हे मद्रराज (शल्य)! देखो, सूर्य का प्रतिबिंब छेद वाला दिख रहा है। यह अपशकुन है। इतने में दोनों सेनाएं आमने-सामने आ जुटी तब कर्ण सभी उपस्थित योद्धाओं को सुना कर कहने लगा-
करण उवाच
कवित्त
देहूँ अश्व करी आज किरीटी दिखावैं ताकौं,
देहूँ वा अमोल वस्त्र भूषन अपार मैं।
देहूँ शत पांच त्रिया श्यामा देश मागध की,
ये हू ना चहैं तो और दैवे कौं उदार मैं।
देहूँ निज दारा पुत्र और मन वांछित जे
कपिध्वज देखत ही कहौं निरधार मैं।
पांडव को विभौ और वासुदेव हू को विभौ,
विश्व मैं विख्यात कर्ण ठाढो देनहार मैं।।४७।।
आज मुझे यदि कोई अर्जुन दिखा दे तो उसे मैं हाथी और घोड़े पुरस्कार स्वरूप दूं अथवा अमूल्य और अपार वस्त्र, गहने-आभूषण दूं। मैं उसे श्याम देश की पाँच सौ स्त्रियां दूं। यदि इनकी बजाय कुछ और लेना चाहे, तो उसे मैं मुँह मांगी चीज देने को तैयार हूं। मैं निश्चयपूर्वक कह रहा हूं कि अर्जुन को देखते ही उसके बताने वाले को मैं, अपनी स्त्री और पुत्र तक देने को तैयार हूं। उसकी प्रत्येक मनवांछित अभिलाषा पूरी करने को तैयार हूं। इसके अतिरिक्त पांडवों का वैभव और वासुदेव (श्रीकृष्ण) के वैभव का भी देने वाला मैं, विश्वविख्यात कर्ण यहाँ सब के सामने खड़ा यह घोषणा करता हूं।
शल्य उवाच
गरुड की समता कौं मच्छर उडान चहै,
तिमिंगल समता कौं झींगा बह्यो जात है।
केहर की समता कौं जंबुक करत जोर,
रवि की समानता खद्योत कबै पात है।
शेष की समानता ज्यों डिंडभ कियो ही चहै,
हंस की समानता कौं काक अकुलात है।
सल्य कहै कुंजर की समता चहै ज्यों चींटी,
अर्जुन की समता तूं करन दिखात है।।४८।।
कर्ण की गर्वोक्ति सुन कर शल्य कहने लगा कि हे कर्ण! जैसे गरुड़ की उड़ान देख बराबरी करने को मच्छर उड़ने की इच्छा करे, मगरमच्छ का मुकाबला करने को झींगा मछली तैरने लगे और थक जाए। सिंह की देखा-देखी सियार भी जोर मारे और सूर्य की बराबरी करने का जुगनू प्रयत्न करे तो क्या वह कर सकता है? जैसे शेषनाग की बराबरी करने की परड़ (छोटा सांप) इच्छा करे, हँस की बराबरी करने को कौआ अकुलाए। जैसे हाथी की बराबरी करने की चींटी इच्छा करे उसी तरह तू हे कर्ण! अर्जुन की बराबरी करने का दिखावा कर रहा है। कहाँ अर्जुन और कहाँ तू?
कहां सांच जूठ कहां काच कहां हीराकनी,
कहां राई मेरु कहां मही व्योम थान है।
कहां निशा द्यौष कहां दीप कहां राका चंद्र,
कहां क्षीरसिंधु कहां कूप को प्रमान है।
कहां देवतरू कहां विकल बबूल वृक्ष,
कहां है कथीर कहां कंचन की खान है।
अचलता ध्रू की कहां कहां पान पीपर को,
कहां कर्न अर्जुन की शीलता समान है।।४९।।
फिर हे कर्ण! कहाँ सत्य और कहाँ झूठ? कहाँ हीरे की कणी और कहाँ काँच? कहाँ सुमेर पर्वत और कहाँ राई का दाना? कहाँ आकाश का स्थल और पृथ्वी की ठौर कहाँ? कहाँ दिन और कहाँ रात, कहाँ पूनम का चांद और कहाँ दीपक? क्षीर समुद्र के सामने कुए की क्या बिसात? कहाँ कल्प वृक्ष और कहाँ फल रहित बबूल का कांटेदार पेड़? कहाँ सोना और कहाँ कथीर (चंगा)? ध्रुव तारे की अचलता के सामने पीपल के पान की क्या बिसात? इसी तरह कहाँ अर्जुन और कहाँ तू? तुम्हारी उसकी क्या बराबरी?
करण उवाच
एक श्याम काज दूजै सारथी बन्यो तूं भूप,
तीजैं बँध्यो कौल सों न मारौं तीन व्यंग तैं।
कर्ण कहै सल्य मरूत्रिया तैं है जन्म जाको,
चित्र कहा ऐसो कटु बोलो सो उमंग तैं।
मांस मदहारिणी उचारिणी ते कामगीत,
धारिणी कुसंग अंग व्याकुल अनंग तैं।
पति कौं तजै विसारि पूत कौं तजै निकारि,
जारि कौं तजै न नारि प्यार के प्रसंग तैं।।५०।।
शल्य के चुभने वाले वचन सुन कर्ण को क्रोध आ गया और वह कुपित हो कर कहने लगा कि हे शल्य! सुन, एक तो श्याम (दुर्योधन) का काम है, दूसरा तू राजा हो कर मेरा सारथी बना है और तीसरा यह कि मैं वचन से बंधा हूं। तीनों बातों के कारण और मैं धर्म पर चलने वाला होने के कारण तुम्हें मार नहीं रहा हूं। फिर मारवाड़ की स्त्री से जन्म लेने के कारण तू कड़वे बोल बोले तो इसमें आश्चर्य क्या? क्योंकि वहाँ की स्त्रियां शराब पीने वाली और मांसाहारी होती हैं, वे वासना भरे गीत गाने वाली होती हैं और कामदेव की सताई होने पर कुसंग संग धारण करने वाली भी होती हैं। स्वयं के पति को त्याग, उसे बिसार, पुत्र का भी त्याग कर, घर से निकालने वाली होती हैं और पर पुरूष के प्रेम में व्यभिचार को नहीं छोड़ती हैं। इसमें मद्रपति तुम्हारा क्या दोष?
पुनर्यथा
बोलै कटु वाद मर्म छेदक कुवासी सठ,
गावत पुरान मारू नेष्ट हैं कुढंग तैं।
सूचि तैं रहित जो सदीव लीन सुतिग मैं,
जाड्यता न छोड़ैं तेउ विधि हू के संग तैं।
निरजल थान पान करत अजा को दूध,
केर समी फोग आक विजन प्रसंग तैं।
देश मरू देशपति तेरे जुद्ध जानौं सबै,
जाहर करन काज तोसों एही जंग तैं।।५१।।
फिर हे कुवासी (अशुभ स्थान में बसने वाले) शठ! तू मर्म भेदक कड़वे वचन बोल रहा है, परन्तु सुन! पुराणों में कहा गया है कि मरु देश के मनुष्य कुढंग से नेष्ट कहलाते हैं, जो हमेशा पवित्रता से रहित और सूतक में डूबे हुए होते हैं। उन्हें ब्रह्मा की संगत मिल जाए तो भी वे स्वयं की अज्ञानता को नहीं छोड़ते हैं। जिनके स्थल निर्जल हैं, जो बकरी का दूध पीते हैं और जो शाक सब्जी के रूप में केर, सांगरी, खाते हैं। जहाँ चारों ओर फोग और आक दिखाई देते हैं। कर्ण कहता है कि हे मरूदेशपति (मद्रपति) शल्य राज! मुझे तेरे सभी युद्धों की जानकारी भी है, मैं सब जानता हूं। तू युद्ध की क्या चर्चा करने काबिल है?
प्राकृत धनुष मेरे अर्जुन धनु अनाश,
मेरे बाण क्षीण वाके अक्षय निखंग है।
वाके कृष्ण सारथी सदैव अनुकूल मति,
मेरे प्रतिकूल तो सो सारथी कुसंग है।
मोकौं श्राप होय गुरु रिषी के महान हानि,
वाकौं वरदान रुद्र इन्द्र के अभंग हैं।
अश्व रथ वैसै ना बरोबरी करौं हौं युद्ध,
ऐसो क्यों न बोलै तोकौं कोटि कोटि रंग है।।५२।।
हे शल्य! मेरा धनुष साधारण और नाशवान है और अर्जुन का धनुष गांडीव कभी नष्ट न हो जैसा है। मेरे बाण तो खत्म भी हो सकते हैं जब कि अर्जुन के पास दो अक्षय तूणीर हैं। फिर हमेशा अनुकूल बुद्धि वाले श्री कृष्ण उसके सारथी हैं और मुझे तेरे जैसा प्रतिकूल बुद्धि वाला सारथी मिला है। मुझे अपने गुरु और एक ऋषि का शाप मिला हुआ है जबकि अर्जुन को महादेव और इन्द्र द्वारा अभंग (अक्षय) रहने का वरदान है। फिर उसके जैसा रथ और उसके जैसे घोड़े मेरे नहीं। तब भी मैं उसके बराबर युद्ध कर रहा हूं ऐसा क्यों नहीं बोलता कि ‘तुझे कोटि कोटि रंग है।’
शल्य उवाच
श्लोक
ग्राह पत्रीश सिंहैश्र्च, कं व्योमवनचारिभि।
द्वेषं कृत्वा क्व गंतासि, बक त्वं स्वास्थ्य मिच्छया।।५३।।
यह सुन कर शल्य कहने लगा कि हे कर्ण! पानी, आकाश और वन में विचरने वाले जीव यदि ग्राह, गरुड़ और सिंह से द्वेष रखें तो फिर वे कहाँ जा कर अपने जीने की इच्छा पूरी करें? [विस्तृत अर्थ के लिए अगले दोहे का अर्थ देखें, क्योंकि श्लोक सं. ५३ एवं दोहा सं. ५४ लगभग एक ही है सं.]
यथा दोहा
ग्राह खगेंद्र मृगेंद्र तैं, जल नभ बनचारीन।
बक कित जैहै बैर करि, चहि थिर वास प्रवीन।।५४।।
जल, आकाश और वन में विचरने वाला धूर्त बगुला यदि ग्राह, गरुड़ और सिंह से वैर कर ले तो फिर वह कहाँ अपना स्थिर निवास ढूंढे? अर्थात् जल में रहे तो ग्राह खाए, ऊपर आकाश में उड़े तो गरुड़ मारे और वन में जाए तो सिंह मारे? शल्य कहता हे कि हे कर्ण! इसी तरह तेरी धूर्तता भी निकामी है।
श्लोक अनुष्टुप
गिरिसानु पादपाग्रे, त्वं विष्टस्युपदेशकृत्।
प्रमत: सम् भवानत्र, उछ्रितान्मा परिष्यसि।।५५।।
यथा दोहा
चढे अग्र गिरि शिखर तरु, अन्य बचावन काज।
सावधान मति आप हू, गिरि जावहु महाराज।।५६।।
दूसरे को (दुर्योधन) को बचाने के लिए पर्वत के शिखर पर खड़े झाडू पर चढ़े हुए ओ महाराज! (हे कर्ण!) सावधान बुद्धि से रहना, कहीं आप स्वयं न गिर जाना। [नोट : यहाँ कवि ने कुछ श्लोकों का प्रयोग किया है पर श्लोक और नीचे दिये गए ‘यथा दोहा’ वस्तुतः एक ही अर्थ वाले हैं। बस कवि ने अपनी मेधा से उन्हें प्रसंगानुकूल बना दिया है। अतः यही सोच कर श्लोक का अलग से अर्थ नहीं दिया जा रहा है – क्योंकि अगला छंद उसी का रूपान्तरण है – सं.]
श्लोक
भृष्टाचार सारमेया, राज्ञा सत्कृत वानयम्।
दुर्धरेणैव सिंहेन समतां गंतु मिच्छति।।५७।।
यथा दोहा
भूपति तैं सत्कार लहि, श्वनीपुत्र हठ रूढ।
करी प्रहारक सिंह तैं, समता चाहत मूढ।।५८।।
शल्य बोला कि हे कर्ण! राजा से सत्कार पाकर हठ चढ़ा मूर्ख कुत्ता, हाथी को मारने वाले सिंह की बराबरी करने की चाहना करता है।
सूतपुत्र संध्या समय, घूक हु करत गलार।
अर्जुन-रवि व्हैहै उदय, जैहै तेज तुम्हार।।५९।।
शल्य आगे कहने लगा हे सूतपुत्र (कर्ण) जैसे उल्लू सांझ ढले गलार (हर्ष में बोलना) करता है, उसकी तरह तू भी कर रहा है पर जानता नहीं रात्रि के बाद जब अर्जुन रूपी सूर्य उदय होगा तब तेरा तेज नष्ट हो जाएगा। तू भी उल्लू की मानिन्द चुप हो जाएगा।
कर्णोवाच
कवित्त
आदि श्राप भयो मोकौं गुरु जामदग्नि जू को,
दूजे द्विज श्राप रथ आश्रय धरन के।
तीजे शक्ति वासवी निशा के जुद्ध मोघ भई,
सुने समाचार हिडंबेय के लरन के।
राधापुत्र कहै मद्रकेश मूढ देखिहै तूं,
ढांपिहैं अकाश बान कंचन परन के।
रुद्र हू के शर्न नर मरन बचातो कैसे
होते जो न हर्न त्रान कुंडल करन के।।६०।।
प्रत्युत्तर में कर्ण बोला कि हे शल्य! प्रथम तो मेरे गुरु परशुराम का मुझे शाप मिला हुआ है (शस्त्र के निष्फल होने का) और दूसरा शाप एक ऋषि द्वारा प्रदत्त है कि मेरे रथ का पहिया पृथ्वी में धँस जाएगा। तीसरा कारण यह है कि द्रोणाचार्य के युद्ध वाली चौथी रात्रि को मेरी वासवी शक्ति (इन्द्र द्वारा दी गई) जिसे मैंने अर्जुन को मारने के लिए रख छोड़ी थी, को घटोत्कच पर चलाना पड़ा। इस तरह वह व्यर्थ गई। घटोत्कच से मेरे युद्ध के समाचार तो तुमने भी सुने होंगे। फिर भी हे मूर्ख! तू देखना, मेरे सोने की पूंख वाले बाण आकाश को ढांप देंगे। यदि मेरे कुंडल और कवच (इन्द्र द्वारा प्रदत्त) का हरण न हुआ होता तो अर्जुन चाहे रुद्र (महादेव) की शरण में चला जाता, उसकी मृत्यु निश्चित थी। अर्थात् मैं तुझे अर्जुन को मार कर दिखाता।
संजय उवाच
दोहा
संसप्तक के सैन्य कौं कोटि कोटि है रंग।
लीनो तहाँ फँटायकै, अर्जुन समर अभंग।।६१।।
संजय बताने लगा कि हे धृतराष्ट्र! संसप्तक की सेना करोड़ों बार धन्य है कि जो उनके स्वामी सुशर्मा से न हटे, ऐसे अर्जुन को कर्ण के सामने लड़ते छुड़ा कर, उसने स्वयं की ओर बुला लिया।
नर कौं आवाहन कियो, सूशर्मा युध साज।
जा पीछे जूटत भये, कुरु-पांडव जय काज।।६२।।
सुशर्मा ने अपनी सेना जमा कर अर्जुन को ललकार कर उससे लड़ने का आवाहन किया। उसके बाद कौरव और पाण्डव विजय के लिए लड़ने लगे।
इतै करन रक्षक उतै, भीमसेन रणधीर।
कटत-मिटत नाहिँन हटत, उभय सैन्य वरवीर।।६३।।
इस तरफ कौरव सेना में कर्ण रक्षक है और दूसरी ओर पाण्डव सेना की रक्षा का भार भीमसेन पर है। इस तरह दोनों ओर की सेनाओं में योद्धा मरते हैं, कटते हैं पर हटते नहीं हैं।
छंद मोतीदाम
भटक्कत क्रोध जुरे तेहि काल, अटक्कत एक न एक अचाल।
चटक्कत बोलत बान कमान, हटक्कत अस्त्रन शस्त्र समान।।६४।।
संजय कहने लगा, हे राजा धृतराष्ट्र! क्रोध से भरे सुभट योद्धा एक दूजे के सामने चक्कर लगा रहे हैं। एक से एक भिड़ने को आतुर हैं, भिड़ रहे हैं पर अडिग हैं। धनुष-बाणों से चटकने की ध्वनि आ रही है। दोनों ओर के वीरों के शस्त्र- अस्त्र समान रूप से चल रहे हैं।
रटक्कत मानहु सिंह वराह, कटक्कत आयुध दंत सनाह।
पटक्कत जा शिर घाय प्रहार, लटक्कत सो तन ज्ञान बिसार।।६५।।
वहाँ उनके आयुधों, कवचों और योद्धाओं के क्रोध में बजने वाले दाँतों का कड़कड़ाट सुनाई दे रहा हैं, जैसे सिंह और सूअर आमने-सामने घुर्रा रहे हों। जिन योद्धाओं के सिर पर वार हो रहे हैं उनके सिर प्रहार से कट कर धड़ के साथ इस प्रकार लटक रहे हैं कि उन्हें स्वयं इसका भान नहीं है।
अटक्कत नाहिँन अंग प्रहार, सटक्कत बोल कढै तन पार।
ठठक्कत कायर के कहि हाय, छटक्कत शस्त्र न हाथ रहाय।।६६।।
घाव कर शरीर में पेसने वाले बाण शरीर में ठहरते नहीं, वे तो सनसनाट करते हुए आर पार हो रहे हैं। कई कायरों के मुँह से हाय निकलती है और उनके हाथ वाले शस्त्र छिटक कर गिर पड़ रहे हैं।
बटक्कत स्वापद आदि अनेक, गटक्कत कंक रु गिद्ध कितेक।
मटक्कत भैरव वीर अपार, झटक्कत लेत उठाय अहार।।६७।।
युद्ध में मरे योद्धाओं के शवों को सियार आदि मुंह से काट-काट कर खा रहे हैं, वहीं गिद्ध और कंक पक्षी उनके मांस को गटक रहे हैं। भैरव आदि गण इधर उधर घूम-घूम कर मनचाहा आहार उठा रहे हैं।
सरक्कत नाहिंन मीच विहाय, ढरक्कत मंचन तैं शिर काय।
खरक्कत त्रान रु म्यान अनेक, परक्कत बान वरम्मन छेक।।६८।।
करक्कत मानहु बीच अकाश, धरक्कत नेक न देख विनाश।
भरक्कत वाहन भाजत दूर, फरक्कत हैं ध्वजदंड समूर।।६९।।
मरने को कुछ न मानने वाले वीर मरने से पहले पीछे हटते नहीं, रथों के मचान से शूरवीरों के धड़ और सिर नीचे ढुरकते हैं। बाण जब कवचों से टकराते हैं तब और जब तीरकश और म्यांनें आपस में टकराती हैं तो उनमें खड़खडाट होती है, मानों ऊपर आकाश में बिजली कड़कती हो। और इस तरह का विनाश होते देख कर भी वीरों के दिल कायरों की तरह नहीं धड़कते पर इन आवाजों से हाथी-घोड़े भड़क कर दूर भाग रहे हैं और रथों पर यथावत ध्वजदंडों में ध्वजाएं फरफर फरफरा रही हैं।
मुरक्कत आवत आहव बीच, बरख्खत बान मचावत कीच।
करख्खत कोदंड कान प्रमान, जरर्कत त्रान त्वचा अरु प्रान।।७०।।
योद्धा मुस्कराते हुए युद्ध में आ रहे हैं और बाणों की वर्षा कर रक्त का कीचड़ मचा रहे हैं। धनुष की प्रत्यंचा को कान तक खींच कर छोड़े गए बाण शत्रुओं के कवच, चमड़ी और प्राणों को जर्जर बना रहे हैं।
जिते तित नाचत केक कबंध, जिते तित फूटत तूटत कंध।
जिते तित जोगनि पत्र भरंत, जिते तित अच्छर वीर वरंत।।७१।।
युद्ध भूमि में जहाँ-तहाँ देखें, बिना सिर धड़ (कबंध) नाच रहे हैं। जहाँ-तहाँ कंधे टूट-फूट रहे हैं। यहाँ-वहाँ योगिनियां अपने खप्पर वीरों के रक्त से भर रही हैं और जहाँ-तहाँ देखें अप्सराएं शूरवीरों का वरण कर रही हैं।
जिते तित जूटत शस्त्र विहीन, जिते तित कुंजर पिंजर खीन।
जिते तित होत प्रहार प्रचार, जिते तित नाहिंन मानत हार।।७२।।
जिते तित खालिय मंच लखाय, जिते तित घायल केक बकाय।
जिते तित श्रौन-नदी उसकात, जिते तित देखत बीर बहात।।७३।।
रणभूमि में जहाँ-तहाँ देखें, शस्त्र विहीन योद्धा लड़ रहे हैं और हाथियों के हाड-पिंजर का क्षय दिखाई देता हैं। यहाँ-वहाँ सभी जगह एक दूजे पर प्रहार ही प्रहार हो रहे हैं पर दोनों ओर के योद्धा हार मानने को तैयार नहीं है। युद्ध के मैदान में जहाँ-तहाँ रथों के खाली मचान दिखाई देते हैं और इधर उधर घायल पड़े योद्धा हाहाकार कर रहे हैं। जहाँ-तहाँ रक्त की नदियां उफनती दिखती है और उनमें मरे हुए योद्धाओं के शव तैर रहे हैं।
जिते तित केश ग्रहाग्रही होय, जिते तित मल्ल ज्यों जूटत दोय।
जिते तित हाथन लातन जुद्ध, जिते तित दांतन घातन क्रुद्ध।।७४।।
रणांगन में जहाँ-तहाँ एक दूजे के केश गहते योद्धा दिख रहे हैं और कहीं कहीं मल्ल युद्ध में भिड़ते हुए योद्धा दिखते हैं, कहीं कहीं हाथों और लातों से और कहीं एक दूजे को दांतों से काटने के दृश्य दिखाई देते हैं।
हँकारत बीरन कौं तिहि ओर, प्रहारत आय परै शिर जोर।
कहावत आप महारन शूर, न आवत आज बजायकै तूर।।७५।।
न पावत पूठ रहै भट नाम, न भावत ईश हि कौं यह काम।
न भावत बोलत बीर सु बान, नसावत प्रान न खोवत मान।।७६।।
युद्ध भूमि में वीर एक दूसरे को युद्ध के लिए ललकार रहे हैं और सरजोरी से प्रहार कर घाव कर रहे हैं, और कह रहे हैं आपस में कि तुम तो बड़े वीर कहलाते थे फिर आज रणभेरी बजाते हुए क्यों नहीं आ रहे हो? जो योद्धा पीछे की पंक्ति में रहता है वह वीर यश को प्राप्त नहीं होता और न पीछे रहने का काम स्वामी को पसन्द आता है। जो सच्चे शूरवीर होते हैं वे अपने कहे अनुसार अपना वादा निभाते हैं, वे प्राण भले ही खो दें, अपना मान नहीं खोते।
सहो तन बानन के हि प्रहार, रहो थित मीचहि कौं शिर धार।
कहो मुख बोल सभा बिच क्रुद्ध, जुरो न मुरो लखि दारुन जुद्ध।।७७।।
वे हर हाल में कहते हैं कि शूरवीरो! बाणों के प्रहारों को शरीर पर सहन करो, मरना सोच कर रणभूमि में अचल रहो। जिस प्रकार सभा में सब के सामने अपने मुँह से क्रोध युक्त वचन कहे हैं तो उस के अनुरूप द्रढ़ रहो। दारुण युद्ध देख कर पीछे नहीं हटो, युद्ध करो।
दोहा
कर्यो विरथ सुत धर्म कौं, बान विकल करि अंग।
कहे करन दुर्वचन अति, हत्यो न नियम प्रसंग।।७८।।
इतने में कर्ण ने धर्मसुत युधिष्ठिर को अपने बाण प्रहारों से व्याकुल कर रथ विहीन कर दिया और अत्यन्त ओछे शब्दों में भला बुरा कहा। परन्तु स्वयं के वचन (कुंती को दिये हुये) का स्मरण कर जान से नहीं मारा।
करणोवाच
आप निपुन रिषिधर्म मैं, क्षात्र कर्म अति क्रूर।
अग्निहोत्र संध्या करहु, लखहु जुद्ध रहि दूर।।७९।।
कर्ण ने कहा कि हे धर्मराज! आप ऋषि-मुनियों के धर्म में निष्णात हैं पर यह क्षत्रिय धर्म तो अत्यन्त क्रूर है इसलिए आप को हवन-यज्ञ और संध्या करनी चाहिए और युद्ध को दूर से निहारना चाहिए। युद्ध आपका काम नहीं।
संजयोवाच
बानन तैं दुर्वचन तैं, भयो दुखित सुत धर्म।
गयो शिविर बिच द्रुपदजा, सपरश तैं भो शर्म।।८०।।
संजय बताने लगा कि हे राजा! कर्ण के बाणों से और दुर्वचनों से युधिष्ठिर तन और मन दोनों से व्यथित हो गए और अपने खेमे में लौट गए पर वहाँ द्रौपदी के स्पर्श से भी लज्जित हुए।
हति त्रिगर्त की सैन्य कौं, कृष्ण सहित कौंतेय।
भीम करन तैं भिरि रह्यो, आयो तहाँ अजेय।।८१।।
इतने में त्रिगर्तपति (सुशर्मा) की सेना का नाश कर श्रीकृष्ण सहित कौंतेय (अर्जुन) रणभूमि में वहाँ पहुँचा, जहाँ कर्ण भीमसेन से लड़ रहा था।
छंद पद्धरी
तित पर्यो दुसासन भीम द्रष्ट, भो शोक सुमरि त्रिय पूर्व कष्ट।
ध्वज काटि प्रथम पुनि धनुष छेदि, रथ चतुर अश्व हति वर्म छेदि।।८२।।
पुनि केशजूट ग्रहि महि पछारि, करनादि लखत तव पुत्र मारि।
उर फारि कर्यो रक्त उष्ण पान, विकराल रूप राकस विधान।।८३।।
उसी समय दुःशासन पर भीमसेन की नजर पड़ी और इससे भीमसेन को द्रौपदी का कष्ट याद आ गया और वह आत्मपीड़ा से कसमसा उठा। इसके बाद हे धृतराष्ट्र! उसने झपट कर दुःशासन के रथ का ध्वजदंड काट डाला, फिर उसका धनुष काटा और रथ के चार घोड़े मार डाले। इसके बाद भीमसेन लपका और उसे बालों से पकड़कर पृथ्वी पर दे मारा। कर्ण आदि देखते रह गए और उसने तुम्हारे पुत्र (दुःशासन) को मार कर, उसकी छाती चीर डाली और वह उसका निवाया रक्त पीने लगा। उस समय भीमसेन एकदम राक्षस जैसा लग रहा था।
श्रीकृष्ण असंभव कहत सोय, पीबो रत बांधव क्रूर होय।
भीमसेन उवाच
मांसादि भखत लगे अस्ति घात, नित ताहि रुधिर सब निगलि जात।।८४।।
निज रक्त भ्रात रत कहा भेद, यातैं न कृष्ण कछु करहु खेद।
पुनि उभय सैन्य प्रति बदत बैन, जुत कृष्ण सुनहु यों भीमसेन।।८५।।
यह देख कर श्रीकृष्ण ने भीमसेन से कहा कि हे भीमसेन! इस प्रकार क्रूर हो कर खून पीना, यह करने योग्य कार्य नहीं। तब भीमसेन ने कहा कि मांसादि खाते हुए जो स्वयं के मुँह में हड्डी का घाव लगता है तब खून निकलता है, वह भी तो पेट में जाता है। और फिर स्वयं के लहू और भाई के लहू में भेद क्या है? इसलिए हे कृष्ण! आपको कोई खेद नहीं करना चाहिए। इसके बाद दोनों सेना के योद्धाओं को सुना कर जोर से बोला कि दोनों ओर के योद्धा! सभी कृष्ण सहित सुनो!
भीमसेन उवाच
कवित्त
द्रौपदी के ऐंचे केश ता दिन उठी बिशाल,
ज्वाल की कराल माल रोम रोम दाग्यो है।
भीमसेन कहै नाथ सुनिहौ हमारी गाथ,
आज लौं भयो न चैन महा क्रोध जाग्यो है।
दुसासन मारि याकौं पुहवी पछारि फारि,
वक्षस्थल रक्त पियो तातैं दुख भाग्यो हैं।
दुष्टन के लोहु को कहोगे कोउ स्वाद कैसो,
नागलोक सुधा पियो तातैं ज्यादा लाग्यो है।।८६।।
जिस दिन दुष्ट दुःशासन ने द्रौपदी के सिर के केश खींचे थे उस दिन उठी महा विकराल ज्वाला से मेरा रोम-रोम जल गया था। भीमसेन कहने लगा कि हे नाथ! आप मेरी बात सुनें, जब से मुझ में महाक्रोध उत्पन्न हुआ तब से आज तक चैन नहीं आया। इससे मैने दुःशासन को पृथ्वी पर पटक कर मारा और उसका वक्षःस्थल चीर कर रक्त पी गया, इससे मेरा दुख थोड़ा कम हुआ। कोई पूछे मुझ से कि दुष्टों के लहू का स्वाद कैसा होता है? तो मैं बताता हूं कि जब नागलोक में मैंने अमृत पिया था उससे यह कई गुना अधिक मीठा लगा।
ऊख को पियूख को न चंद की मयूख को त्यों,
चाह्यो भक्ष भूख को न चाहत हौं जिनकौं।
पृथा माता दुग्ध हू तैं ज्यादा शत्रु श्रौनपान,
और का बताऊं स्वाद याद मोर मन कौं।
कर्नादिक बीर कौं वकारि कह्यो रक्षा कीजे,
रुधिर निकारि पियो पूर्ण कियो पन कौं।
भार गयो द्रौपदी तैं उरुण अबार भयो,
कह्यो यों पुकारिकै डकारि दुसासन कौं।।८७।।
ऐसा मीठा न तो ईख का रस है न अमृत और न चन्द्रमा की किरणों का रस। ऐसा कहते हैं कि भूख में भोजन मीठा लगता है पर मैं यह स्वाद नहीं जानता। मैंने अपनी माता कुंती का दूध पिया है पर मुझे उससे भी अधिक इस दुष्ट के लहू में स्वाद आया। इनके अतिरिक्त और कौन सा स्वाद गिनाऊं, मुझे अधिक स्वाद याद नहीं। इसके बाद उसने कर्ण आदि वीरों को फटकारते हुए कहा, तुम लाख दुःशासन की रक्षा में लगे पर मैंने तो उसका लहू निकाल कर पी लिया और अपने प्रण को पूरा कर डाला। इससे मैं अब द्रौपदी के ऋण के भार से मुक्त हुआ, इतना कह कर भीमसेन ने डकार ली।
कवि कथन
दोहा
श्रौन पियत रन शत्रु को, दरसत भीम अनूप।
कहि राकस सब चख ढकत, लख्यो न जाइ स्वरूप।।८८।।
कवि कहता है कि रणभूमि में शत्रु का लहू पीते हुए भीमसेन को कोई उपमा नहीं दी जा सकती हैं क्योंकि सभी देखने वालों ने उसे राक्षस कह कर अपनी आखें बन्द कर लीं। उस समय का दृश्य उनसे देखा नहीं गया।
दुस्यासन के हृदय तैं, सबै कुटिलता शोध।
वायुतनय कुटिलान कौं, मनहु दिखावत बोध।।८९।।
कवि कहता है कि दुःशासन के हृदय की सारी कुटिलता को लहू के रूप में निकाल कर मानों पवन तनय भीमसेन सभी कुटिल जनों को यह बोध करवा रहा हो कि देखो, अधम जनों की यह दशा अपरिहार्य है।
संजयोवाच
भिरे चतुर्दश पुत्र तव, अग्रज बध लखि और।
भीम गदा तैं छिनक मैं, गये दुसासन ठौर।।९०।।
संजय कहने लगा कि हे राजा धृतराष्ट्र! दुःशासन का भीमसेन ने वध किया यह देख कर तुम्हारे चौदह पुत्रों ने बदला लेने को भीमसेन से युद्ध किया पर वे भी सभी भीमसेन की गदा के प्रहारों से, क्षणभर में ही दुःशासन के पास यमलोक में पहुँच गए।
।।इति त्रयोदश मयूख।।
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