यह तो बहन-बेटियां भी उठा सकता है

भोम परखो हे नरां, कहां परक्खो विंद?
भुइ बिन भला न नीपजै, कण तृण तुरी नरिंद।।
किसी राजस्थानी कवि ने कितनी सहज और सटीक बात कही है कि अपनी पुत्री को ब्याहने से पहले वर को परखने की आवश्यकता नहीं है बल्कि उसकी जन्मभूमि को परखने की आवश्यकता है। क्योंकि सब कुछ भूमि की भूमिका ही होती है। उसकी उर्वरा शक्ति बता देती है कि वहां कण (अन्न) तृण (घास) तुरी (घोड़ी) और नरिंद (राजा) कैसे हैं?
इस दोहे के परिपेक्ष्य में हम राजस्थान के गांवों का परीक्षण करें तो बात सोले आने सत्य प्रतीत होती। वहां की माटी में ऐसा तपोबल होता है कि सत्य, साहस, स्वाभिमान व शौर्य की जन्मघुट्टी वहां के पानी में स्वतः समाहित रहती है।[…]
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