किणनैं दरद सुणाऊं कान्हां

एक तीन पुत्रों की माँ, जिसने मेहनत मजदूरी करके तीनों को पाला-पोषा। तीनों अपने अपने क्षेत्र के महारथी बने। तीनों की विशेषता ये कि जिसके साथ हो गए, उसका विश्वास कभी तोड़ा नहीं, मुंह कभी मोड़ा नहीं। ना बाहुबल में कमजोर तो ना बुद्धिबल में लेकिन दुर्भाग्य से तीनों की ही अपनी माँ के प्रति कोई श्रद्धा नहीं। वृद्ध माँ अपने पुत्रों के दुर्व्यवहार से बेहद दुखी होकर अपने सांवरे को याद करती है तथा पश्चाताप के आंसू बहाती है कि हे प्रभो मैं अपना दर्द किसे सुनाऊं। किसके कंधे पर सर रख कर आंसू बहाऊँ। किसके दर पर जाकर फरियाद करूँ। वो स्वीकार करती है कि मैंने बड़ और पीपल लगाने की बजाय ईख उपजाने का उपक्रम किया जिसका परिणाम यह है कि आज वो ईख ईर्ष्या बनकर मुझे ही खाने को दौड़ रही है। मेरे बुढ़ापे की तीन तीन लाठियां हैं, जो एक से एक मजबूत हैं तथा रक्षा एवं आक्रमण दोनों करने में सक्षम हैं, उसके बावजूद मेरे किसी काम की नहीं रही। (राजस्थानी में भाइयों की गणना करने का एक प्रसिद्ध पैटर्न यह भी रहा है कि उस घर में एक साथ चार लाठी उठती है यानी चार भाई है)। मित्रो! यह तो आज घर घर की कहानी हो गई लेकिन माँ की महानता यह है कि वह अपने सांवरे को अपने पुत्रों की दुष्टता एवं अमानवीयता की शिकायत करते हुए भी पुत्रों की विशिष्टताएं ही बयां करती है। माँ कभी अपने पुत्रों में कोई कमी देखती ही नहीं और देखती भी है तो बयां नहीं करती। वो माँ अंत में अपने बेटों की माँ के प्रति निष्ठा नहीं होने का दोषी भी खुद को ही मानती है। तथा मरने के बाद अपने शरीर की खाख से भी अपने बेटों के खेत में खाद बनाने का मन रखती है, ऐसी माँ की महानता को कौन नकारेगा। नाम-गाम को नहीं बताते हुए निवेदन करता हूँ कि मैंने अपने कानों से एक माँ को इस रूप में सुना तो दुनियां की हर माँ की महानता को नमन करने का मन बना एवं तथाकथित रूप से बड़े बने बैठे उन दुष्ट बेटों को धिक्कारने की मन मे आई। उस दुखियारी वृद्ध माँ ने जो कहा, उन भावों को उसी रूप में काव्यबद्ध करने का प्रयास किया, रचना आप सबके अवलोकनार्थ प्रस्तुत है। (सन्दर्भ को ध्यान में रखने से अर्थबोध में सहजता रहेगी, इसको मद्देनजर रखते हुए, यह पृष्ठभूमि लिखने की धृष्टता की है)
किणनैं दरद सुणाऊं कान्हां, किण आगळ फरियाद करूं।
कुणसै कांधै सिर धर रोऊं, कह दै किणनैं याद करूं।।
किणनैं दरद सुणाऊं कान्हां…………।।
बूढापै री लाठ्यां म्हांरी, अेक नहीं है तीन मुरारी।
जाझै जतनां करी करारी, तीनां री शोभा हद भारी।
तीनूं तेल पियोड़ी ताजी, जिणरै हाथ लगै सो राजी।
रिच्छा राड़ दोनां में रूड़ी, कोनी म्हारी आ कथ कूड़ी।
पण म्हारै हित आज माधवा, परतख तीनूं तीन पराई।
हाथ घालतां फांस गड़ै है, खपत करंतां खाल बचाई।
सांस-सांस रै संग सांवरा, सुबक-सुबक कर साद करूं।
किणनैं दरद सुणाऊं कान्हां…………।।
बड़-पींपळ जे बोती गिरधर, इण गत नीं रोती अवनी पर।
फळ नीं तो छाया तो होती, सौरी सांस लेय मैं सोती।
पण मैं तो माया री लोभी, इकलखोरड़ी ईखां चोभी।
आस-पास री फसल उजाड़ी, ब्हाया बांस बिगाड़ी बाड़ी।
नेड़ै सूं निकळ्यो जो कोई, उणरै अंगां फांस चुभोई।
बोल्यो उणनैं कह-कह दोसी, जण-जण री मैं इज्जत खोसी।
आज म्हारोड़ी लाज अडाणी, उर में थिर अवसाद धरूं।
किणनैं दरद सुणाऊं कान्हां……….।।
ऐ आँख्यां रा तारा म्हारा, आँख दिखावै औगणगारा।
उजियारै सूं अटल नियारा, अँधियारै रा परम पुजारा।
ऊग्या जद कोनी हो बेरो, आं रातां रो इसो सवेरो।
टिमटिम देख अणूंती फूली, अहंकार रै झूलां झूली।
देख आगियो दूर ब’गायो, चांदै नैं मैं कदे न चायो।
जिण सूरज सूं मिली रोसणी, उणरो माण रख्यो न रखायो।
(हूं) विगत रात हारी दुखियारी, खुद रा औगण याद करूं।
किणनैं दरद सुणाऊं कान्हां…………।।
कदेक म्हारी बात सांवरा, सुणल्यै कोई मात सांवरा।
सोचै जे घड़ी-स्यात सांवरा, पड़ै न पल्लै घात सांवरा।
हूं भोगूं म्हारोड़़ी करणी, जो भोगी सो साची बरणी।
संस्कार नीं स्वारथ चायो, परमारथ पग तळै दबायो।
मतोमती बण बैठी मोटी, सीखी और सिखाई खोटी।
पड़ी आज पसवाड़ै परतख, जियां कोई नारेळी-जोटी।
जे तूं जहर भेजद्यै सांवरा, झट उणनैं परसाद करूं।
किणनैं दरद सुणाऊं कान्हां…………।।
ममता मोह लोभ मद मत्सर, अजे नहीं मिट पाया ईसर।
पर अर निज में अजे आंतरो, भरम भर्यो है भांत-भांत रो।
बेटा-बहू सगा न सनेही, दुख-दाझ्योड़ी म्हारी देही।
म्हारै सूं सब आगा-पाछा, पण औरां सूं लागै आछा।
म्हारी भूल रही है मोहन, साच छुपाई, कूड़ी भाखी।
समझी दोष म्हारो है सारो, आंं सगळां नैं सौरा राखी।
म्हारी देह मिलाऊँ माटी, आं खेतां में खाद करूं।
किणनैं दरद सुणाऊं कान्हां…………।।
~~डॉ. गजादान चारण “शक्तिसुत”