रघुवरजसप्रकास [12] – किसनाजी आढ़ा
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वारता
गीत पालवणी १, गीत झड़लुपत २, गीत दुमेळ ३, गीत त्रबंकड़ौ ४ नै सावक अडल, अे पांच छोटे सांणोर री विखम तुक पै’ली, तुक तीजी अे विखम तुक त्यांरा वणै नै यतरा गीतां रै तुक प्रत सोळै मात्रा हुवै नै मोहरा में तफावत होय। कठे’क गुरु तुकांत कठे’क लघु तुकांत होवै नै यतरा गीत बडा सांणोर री विखम तुकां रा वणै, सावझड़ौ अरध सावझड़ौ आद। तुक प्रत मात्रा बीस होय। पै’ली तुक मात्रा तेवीस होय।
अथ गीत बडा सावझड़ा तथा अरध सावझड़ा लछण
दूहौ
मुण धुर तुक तेवीस मत, अवर वीस रगणंत।
मिळ चव तुक वड सावझड़ौ, दुमिळ अरध दाखंत।।२५६
अरथ
गीत बडौ सावझड़ौ नै अरध सावझड़ौ दोन्यूंई वडा सांणोर री विखम तुक पै’ली तीजी रा हुवै। पै’ली तुक मात्रा तेवीस। बीजी तुक मात्रा बीस और सारा ही तुकां मात्रा बीस होय। तुकांत रगण आवै नै च्यारू तुकां रा मोहरा मिळै सौ वडौ सावझड़ौ नै अरध सावझड़ा रै दोय तुकांत मिळै नै कठे’क रगण तुकांत आवै, कठे’क गुरु करणगण तुकांत आवै औ भेद सौ अरध सावझड़ौ कहावै।
अथ गीत वडौ सावझड़ौ उदाहरण
गीत
लछण कसीसै भुजां धांनंख दूध लाजरा।
गोम नभ घड़ड़ आनंक जय गाजरा।।
सझण पारंभ किय उछव सांमाजरा।
रे असुर देख आरंभ रघुराजरा।।
२५७. लछण-लक्ष्मण। कसीसै-धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाता है। धांनंख-धनुष। दध-(उदधि) सागर। गोम-पृथ्वी। धड़ड़-ध्वनि हो कर, गर्ज कर। आनंक-नगाड़ा। पारंभ-तैयारी। आरंभ-तैयारी।
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रारियां सुभट तूटै दमंग रीसरा।
त्रिलोचण जिसा खुटे नयण तीसरा।।
सिर कसै ऊकसै लसै भुजगीसरा।
जोय दससीस थट कीस जगदीसरा।।
दहल पुर नयर पूगी महळ दोयणां।
भय रहित किया सुर नाग नर-भोयणां।।
उमंग जुध करग चंचळ अचळ औयणां।
लेख लंकेस अवधेस दळ लोयणां।।
मांन पीव वच. . . . . . . सूंप ससमाथनै।
हर चरण जाह जुड़ दूणदसहाथनै।।
कुळ अनेक करै निज सुधारै काथनै।
नांम तौ माथ दसमाथ रघुनाथनै।।२५७
अथ गीत अरध सावझड़ौ उदाहरण
[ऊपरला सावझड़ा गीत नै दुमेळ कर पढणौ तथा दरसावां छां]
गीत
कमर बांधियां तूण सारंग गहियां करां।
सुकर खग दांन जेहांन ऊंचासरा।।
२५८. तूण-तर्कश। सारंग-धनुष। गहियां-पकड़े हुए। करां-हाथों। जेहांन-संसार। ऊंचासरा-श्रेष्ठ।
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सुचित धंका जनां निवारण सांकड़ा।
वाह रघुनाथ लंका लियण बांकड़ा।।२५८
अथ दुतीय गीत झड़मुकट लछण
दूहौ
खुड़दतणै तुक अग्ग पछ, देह झमक दरसाय।
जिणनूं दूजौ झड़ मुकट, रटै वडा कविराय।।२५९
अरथ
खुड़द गीत छोटौ सांणोर होय। पै’ली तुक मात्रा अठारै। दूजी तुक मात्रा तेरै। तीजी तुक मात्रा सोळै नै चौथी तुक मात्रा तेरै होय। तुकांत दोय लघु होय सौ खुड़द गीत कहावै। जीं खुड़द गीत री सोळैई प्रत तुक रै आद अंत जमक होय सौ गीत बीजौ झड़मुकट कहावै। अेक आगै कह्यौ छै सौ देख लीज्यौ। सावझड़ौ छै।
अथ गीत झड़मुकट उदाहरण
गीत
रेणायर मथण मथण रेणा यर, भर धर टाळण समर भर।
कर जन साता जगत अभै कर, वरदाता जांनकीवर।।
सारंग पांण बांण तन सारंग, धरणसुता धव खग धरण।
वारण जम भै तारण वारण, करण प्रसुण अघ सुख करण।।
धर ध्रम चाळण धरम धुरंधर, कमळ पांण मुख चख कमळ।
नायक अकह जांनुकी नायक, अचळ तार दध जुध अचळ।।
धन अन विलस जनम मांनव धन, म कर ईरखा तन मकर।
सर पर कियौ चहै व्है जग सिर, धर निज मन रघुवर सधर।।२६०
२५९. जीं-जिस। झमक-यमकानुप्रास। बीजौ-दूसरा।
२६०. रेणायर-समुद्र। मथण-मंथन। रेणा-पृथ्वी। यर-शत्रु। भर-बोझ। धर-पृथ्वी। टाळण-दूर करने वाला। समर-युद्ध। साता-कुशल। वरदाता-वरदान देने वाला। जांनकीवर-सीतापति, श्रीरामचंद्र भगवान। सारंग-धनुष। बांण-तीर। सारंग-बादल, मेघ। धरण-सुता-सीता। धव-पति। खग-तलवार। वारण-मिटाने वाला। जम-यमराज। भै-भय। तारण-तारने वाला। वारण-हाथी। पांण-हाथ। चख-चक्षु, नेत्र। अचळ-पर्वत। दध-उदधि, समुद्र। अचळ-दृढ़, अटल। धन-धन्य। म-नहीं। ईरखा-इर्ष्या।
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अथ गीत दुतीय सेलार लछण
दूहौ
धुर अठार सोळह सरब, सावझड़ौ अध सोय।
अलंकार विध चतुर तुक, सख सेलारह सोय।।२६१
अरथ
अेक सेलार गीत तो पै’ली कह्यौ अर दूजा रौ यौ लछण छै। पै’ली तुक मात्रा अठारै और सारी तुकां मात्रा सोळै सोळै होय। गुरु लघु तुकंतरौ नेम नहीं पण गुरु तुकंत बोहोत होय। चौथी तुक में कह्यौ सब्दारथ फेर कहणौ विध-अलंकार होय, जीं गीत नै दुतीय सेलार गीत कहीजै।
अथ गीत सेलार उदाहरण
गीत
चित करणी म्रखा दिसी नह चाहै, आप विरदचा पखा उमाहै।
पतित खीण कुळहीण अपारै, तारै रे सीतावर तारै।।
कळिया दुख सागर जन काढै, विपत रोग अघ आगर बाढै।
नातौ दीनदयाळ निहाळै, पाळै रे संतां हरि पाळै।।
अजामेळ सा घोर अधम्मी, नारी गणिका भील निकम्मी।
असरण दीन अनाथ अथाहै, साहै रे माधौ कर साहै।।
गाफिल आळ जंजाळ न गावै, भुज सांभळियौ सरम भळावै।
‘किसन’ कह जमहूंत म कंपै, जंपै रे मन राघव जंपै।।२६२
२६२. म्रखा (मृषा)-असत्य, व्यर्थ। खीण-क्षीण। अपारै-अपार। सीतावर-श्रीरामचंद्र। कळिया-डूबा हुआ, मग्न। जन-भक्त। काढै-निकालते हैं। अघ-पाप। आगर-समूह। बाढै-काटते हैं। नातौ-संबंध, रिश्ता। निहाळै-देखते हैं। पाळै-पालन-पोषण करते हैं। अधम्मी-अधर्मी। निकम्मी-बेकार, नीच। साहै-उद्धार करते हैं। माधौ-माधव, विष्णु। सांमळियौ-श्रीकृष्ण, श्रीराम। भळावै-सौंप देता है। जमहूंत-यमराज से। कंपै-डरना।
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अथ गीत त्राटकौ लछण
दूहा
धुर अठार सोळह दुती, ती सोळह मिळतेह।
बेद अग्यार तुकंत बळ, अख गुरु लघु अच्छेह।।२६३
मिळै तीन तुक आदरी, त्रिण तुक अंत मिळंत।
मिळै चवथी आठमी, किव त्राटकौ कहंत।।२६४
अरथ
त्राटक रै पै’ली तुक मात्रा अठारै। दूजी तुक मात्रा सोळै। तीजी तुक मात्रा सोळै। चौथी तुक मात्रा अग्यारै। गुरु लघु तुकंत होय। पांचमी तुक मात्रा सोळै। छठी तुक मात्रा सोळै। सातमी तुक मात्रा सोळै होय। आठमी तुक मात्रा अग्यारै होय। गुरु लघु तुकंत होय। पछै सारा दूहां पै’ली तुक सोळै। दूजी तुक मात्रा सोळै। तीजी तुक मात्रा सोळै। चौथी तुक मात्रा अग्यारै। पांचमी तुक मात्रा सोळै। छठी तुक मात्रा सोळै। सातमी तुक मात्रा सोळै। आठमी तुक मात्रा अग्यारै। पै’ली दूजी तीजी रा मोहरा मिळै। पांचमी छठी सातमी रा मोहरा मिळै। यण रीत होय सौ गीत त्राटकौ कहावै।
अथ गीत त्राटकौ उदाहरण
गीत
भज रे मन रांम सियावर भूपत, अंग घणाघण सोभ अनूप।
नीरज जात सुगाथ निरूपित, कौटिक कांम सकांम।।
२६४. तिण-तीन। चवथी-चौथी। किव-कवि। कहंत-कहते हैं। पछै-बाद में, पश्चात। मोहरा-तुकबंदी।
२६५. सियावर-सीतापति, श्रीरामचंद्र। घणाघण-बादल। सोभ-कांति, दीप्ति। अनूप-अद्भुत। नीरज-कमल। सुगाथ-सुन्दर शरीर। कौटिक-करोड़।
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पीत दूकूळ कटी लपटांणौ, बीर अभंग निखंग बंधांणौ।
अंस अजेव धनू उरमांणौ, रूप यसै नृप रांम।।
सोहत बांम दिसा निज सीता, बादळ बीज प्रभाव वनीता।
पाय खळांहळ गंग पुनीता, की ताखै अघ कोड़े।।
लोभत कंज सरभ्र लोयण, भाळ सखी नहचै नर-भोयण।
आहव खंभ विजै जिम औयण, मांणस दोयण मोड़े।।
जै रघुराज जपै जगजाहर, है उर मांझ निवास सदा हर।
सेस धनेस दिनेस रटै सुर, ईखण जे अभिलाख।।
माथ पगां सुरनाथ नमावै, गौरव सारद नारद गावै।
पार गुणां करतार न पावै, सौ स्रुति संप्रत साख।।
मारुति जेण कियौ अजरामर, केकंध भूप सुकंठ दियौ कर।
रीझ भभीखण लंक नरेसुर, की जन सारै काज।।
ऊ करसी चित सोच असंन्नह, सास उसास संभार रसंन्नह।
कीरत स्रीवर भाख ‘किसन्नह’, राख रिदे रघुराज।।२६५
— 304 —
अथ गीत मनमोह लछण
दूहौ
कह दूहौ पहला सुकव, कड़खा ता पर कथ्थ।
पंथ प्रगट कड़खौ दुहौ, सौ मनमोह समथ्य।।२६६
अरथ
पै’लां तौ अेक दूहौ कहीजै। पछै दूहा ऊपर कड़खा छंदरी च्यार तुकां कहीजै। यण तरै अेक अेक दूहौ वणै। यसा च्यार दूहा होवै जिण गीत रौ नांम मनमोह कहीजै। दूहा री तुक प्रत मात्रा तेरै। ग्यारै, तेरै, ग्यारै कड़खा री तुक प्रत मात्रा सैंतीस होय। दूहा कड़खा रौ लछण यण ग्रंथ में प्रसिध छै सौ देख लीज्यौ।
अथ गीत मनमोह उदाहरण
गीत
तारै दासां त्रिकमाह, भय वारै जम भूप।
हूं बळिहारी स्रीहरी, रै थांने निज रूप।।
रूप थारौ हरि हरि भूप त्रयलोकरा।
मांझ अनूप त्रैभू न मावै।।
नाग नर देव भूपाय आहुट नथो।
गणी बळदाब तळ वेद गावै।।
दास तन भजन विन तौ सबी दासरथ।
थिरू बस कौड़ बाते न थावै।।
देवपत रूप वैराट थारौ दुगम।
अणु मन सेवगां सुगम आवै।।
आवै तूं ऊतावळौ, पावै दास पुकार।
धारण गिर ज्यूं धांमियौ, बारण तारण बार।।
वार वारण तिरण करण कारण विसन।
घरण तज तरण ब्रद चीत घालै।।
२६७. त्रिकमाह (त्रिविक्रम)-विष्णु का एक नाम। वारै-दूर करता है। मांझ-मध्य में। त्रैभू-तीन भवन, त्रिभुवन। देवपत-विष्णु। वैराट-महान, बड़ा। दुगम-दुर्गम। सुगम-सरलता से। उतावळौ-शीघ्रता से। पावै-प्राप्त करता है। बारण-हाथी। बार-अवसर, समय। विसन-विष्णु। घरण-गृहिणी, स्त्री।
— 305 —
मंद लख वाह सुपरण तजे मागमें।
चरण ऊबांहणै धरण चाले।।
हरण नक्रण वहै सुदरसण हरोली।
पाय तंता गरण छिद्र अपाळै।।
खंड जळचार गिरधार आरत खटक।
झटक करतार करतार झाले।।
झाले भुजडंड झूसरी, मार झुंड यर मांण।
भांज रांम कोडंड भव, प्रचंड खित्रीवट पांण।।
पांण खित्रीवट अघट मित्र जग पाळियौ।
रिख त्रिया तिरी रिखदेव रंजे।।
जांनकी व्याह उछाह पण धनुख जिग।
सुज नृपत अनग आरंभ संजे।।
लसै बळ भूप अन जनक मन दुमन लख।
भुजां बळ दासरथ चाप भंजे।।
बांण दसमाथ भ्रगुनाथ दे आद बोह।
गाव रघुनाथ खळ साथ गंजे।।
गंजे रिम केतां गरब, धार सरब ब्रद धेठ।
दे कौड़ां दुजबर दरब, जीत परब जग-जेठ।
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जेठरा भांण सम असह बरफांण जम।
मांग दुजरांण असहांण मारे।।
किता जुध जीत अग जीत नहचळ कदम।
सेवगां प्रीत कर काज सारे।।
रोपियां दास यर जास कीधा सरद।
धींग रविवंस भुज बिरद धारे।।
रटै कवि ‘किसन’ महराज तन लाज रख।
तेण रघुराज के संत तारे।।२६७
दूजा दूहा रौ अरथ
वांणी धारी आरत री जिण खटक क्रोध पर जळचर ग्राह नै खंड्यौ नै करतार कर झाले हाथ पकड़ने कर हाथी नै तारयौ झटक सताबीसूं — इति अरथ।
अथ गीत ललितमुकट लछण
दूहौ
प्रथम दूहौ कर तास पर, दाख त्रिभंगी छंद।
ललित मुकट जिम सीहलख, कह जस रांम कव्यंद।।२६८
अरथ
पै’ली दूहौ कहीजै। जठा उपरांत दूहा पर त्रिभंगी छंद री तुक च्यार कहीजै। यण तरै च्यार ही दूहा होय। सिंघावलोकण तरै तुक होय जिण गीत रौ नांम ललितमुकट कहीजै। दूहा रौ नै त्रिभंगी छंद रौ लछण यण ग्रंथ में प्रसिद्ध छै जिणसूं अठै दूहारौ नै त्रिभंगीरौ लछण न कह्यौ छै।
२६८. तास-उस। दाख-कह। सोहलख-सिंहावलोकन। कव्यंद (कवीन्द्र)-महाकवि। जठाउपरांत-तत्पश्चात। यण-इस। तरै-तरह, प्रकार।
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अथ गीत ललित मुकट उदाहरण
गीत
वडा भाग ज्यांरी विसू, लछबर चरणां लाग।
पाव रांम गुण प्रीतसूं, आठ पहर अनुराग।।
राघव अनुरागी भव बडभागी मति सुभ लागी पंथमही।
हरि संत कहांही जम भय नांही स्यंध तिरांही सुभ वसही।।
कहि सिव सनकादं धू प्रहळादं अहपत आदं जेण जपै।
सुक नारद व्यासं जल कहि जासं थिर कर तासं दास थपै।।
थपे दास कर सथर, रघुबर किता अरोड़।
बिरद पीत ‘सागर’ बिये, मीततणैकुळ मौड़।।
मौड़ कुळमीता जुध अरि जीता, लख जस लीता अवन अखै।
अत दास उधारे सरण-सधारे रांमण मारे सुमन सखै।।
सुग्रीव सकाजा रच कपिराजा भूपत निवाजा भ्रात भणे।
भुरजास भभीखण क्रत दत कंचण साख पुरांणण वेद सुणे।।
सुणे छकोटा तन सुजस, रिम दोटा सुर रंज।
धन राघव मोटा धणी, भव जन तोटा भंज।।
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तूं भंजण तोटा अनम अंगोटा जुध यर जोटा जै वाणं।
रिख गोतम नारी उपळ उधारी देह सुधारी देवांणं।।
पय मिथुला पथ्थं साझ समथ्थं हण धनु हथ्थं पह पांणे।
सिय परण सिधाये दुजपत आये गरब गमाये जग जांणे।।
जग जांणै बळ जगतपत, कुळ हांणे दसकंध।
सुख गिरबांण समपिया, आंणे सिया उकंध।।
आणे सिय उकंधं जीपण जंगं रूप अभंगं दासरथी।
आकाय अनंतं तारण संतं क्रीत सुमंतं वेद कथी।।
न भजै रघुनंदं दयासमंदं जे मतमंदं जांण जडा।
गुण राघव गाणै ‘किसन’ कहांणै विच प्रथमांणे भाग वडा।।२६९
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अथ गीत मुकताग्रह लछण
दूहौ
कह प्रहास सांणोर किव, अंत विखम सम आद।
तुक सिंघाविलोकण तिम, मुकताग्रह मुरजाद।।२७०
अरथ
प्रहास सांणोर कहौ तथा गरभित सांणोर कहौ जिण प्रहास सांणोर री विखम तुक कहतां पै’ली तीजी नै सम तुक कहतां दूजी चौथी पै’ली तुक रौ अंत नै सम तुक रौ आद होय जठे स्यंघाविलोकण तरै होय, जिणनै मुकताग्रह गीत कहीजै।
अथ गीत मुकताग्रह उदाहरण
गीत
सुतण दासरथ रूप लसवांन कौटक समर।
समर जसवांन नृप सियासांमी।।
तवंतां नांम नसवांन अघ भवतणा।
भवतणा हिया वसवांन भांमी।।
चीत ऊदार दत कनक आपण चुरस।
चुरस निज जनक कुळ आब चाड़ा।।
धड़च दससीस खळ रहण हिकधारणा।
धारणा धनख सर भुजा धाड़ा।।
लोभियां क्रीत कज गंज समपण लछी।
लछीवर सराहे त्रिहूं लोका।।
खेध अह पूंज विमुहा खड़ै झाट खग।
झाट खग थाट यर भंज झोका।।
२७१. सुतण-पुत्र। लसवांन-शोभायमान। कौटक-करोडों। समर-कामदेव। समर-युद्ध। जसवांन-यशपूर्ण, यशस्वी। सियासांमी-श्रीरामचंद्र। तवंतां-कहने पर। नसवांन-नाश। अघ-पाप। भवतणा-जन्म के, संसार के। भवतणा-महादेव के। हिया-हृदय। वसवांन-निवास करने वाला। भांमी-न्यौछावर, बलैया। चीत ऊदार-चित्त उदार, दातार। दत-दान। कनक-सुवर्ण, सोना। आपण-देने को, देने वाला। चुरस-चाह से, इच्छा से, हर्ष, प्रसन्नता। चुरस-श्रेष्ठ। जनक-पिता। आब-कांति, दीप्ति। चाड़ा-चढ़ाने वाला। धड़च-संहार कर, मार कर। दससीस-रावण। हिकधारणा-एक ही तरह। धारणा-धारण करने वाला। धनख-धनुष। सर-तीर, बाण। धाड़ा-धन्य-धन्य। लोभियां-लोभ करने वाले। कज-लिये। गंज-पुंज, समूह। समपण-देने को। लछी-लक्ष्मी। लछीवर-लक्ष्मीपति, विष्णु। सराहे-प्रशंसा करते हैं। खेध-द्वेष। अह-नाग, हाथी। पूंज-समूह। विमुहा-विमुख। झाट-प्रहार। खग-तलवार। थाट-समूह, दल। यर-शत्रु। झोका-धन्य धन्य।
— 310 —
संत जण तरण चख क्रपा रुख साहरै।
साह रे विरद भुजडंड सिघाळा।।
वीस भुज भांजणा समर हथवाह रे।
वाह रे रांम अवधेस वाळा।।२७१
अथ गीत पंखाळौ लछण
दूहौ
छोटा वडा सांणोर रौ, नेम नहीं नहचेण।
निमंधे त्रिण दूहा निपट, तवै पंखाळौ तेण।।२७२
अथ गीत पंखाळौ उदाहरण
गीत
दसरथ नृप नंदण हर दुख दाळद, मिटण फंद जांमण मरण।
कर आणंद वंद नित ‘किसना’, चंद रांम वाळा चरण।।
दीनानाथ अभै पद दानंख, भांनख अंतक समर भर।
मांनख जनम सफळ कर मांगण, धांनखधर पद सीसधर।।
सुरसर सुजळ नृमळ संजोगी, दळ मळ अघ ओघी दुख दंद।
साझ कमळ पद रांम असोगी, मन अलियळ भोगी मकरंद।।२७३
अथ दुतीय वरण उपछंद गीत सालूर लछण
दूहा
धुर बे गुरु चौवीस लघु, अंत सगण तुक अेक।
सावझड़ौ यम च्यार तुक, विध सालूर विवेक।।२७४
२७२. नेम-नियम। नहचेण-निश्चय। निमंधे-रचे, बनाये। त्रिण-तीन। तवै-कहते हैं।
२७३. नंदण-पुत्र। हर-मिटा। दाळद-कंगाली। फंद-बंधन, जाल। जांमण-जन्म। मरण-मृत्यु। मांनख-मनुष्य। मांगण-याचक। धांनखधर-धनुषधारी। सुरसर-गंगा नदी। नृमळ-निर्मल। अघ-पाप। ओघी-समूह। अलियळ-भौंरा। भोगी-भोग करने वाला, रसास्वादन करने वाला। मकरंद-फूलों का रस।
२७४. यम-ऐसे। विध-प्रकार, तरह।
— 311 —
यक तुक गुणतीसह अखिर, जांण वरण उपछंद।
वरण व्रतरा अंत विच, कहियौ अगर कविंद।।२७५
अरथ
सालूर गीत वरण उपछंद छै। तुक अेक प्रत गुणतीस अखिर होवै। पै’ली दोय गुरु होवै। पछे चौबीस लघु होवै। पछै अेक सगण होवै। यौ ईं गीत कौ संचौ छै। ऽऽ।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।ऽ अेक करण, छ दुजबर, अेक सगण, यौ अेक तुक प्रमांण, यूं पनरै तुकां होवै। अेक दूहा प्रत तुक च्यार का मोहरा मिळै, सावझड़ौ छै। यौ गीत वरण व्रत में वरण छंदां में सालूर छंद कह्यौ छै सौ देख लीज्यौ।
अथ गीत सालूर उदाहरण
गीत
माया मत भिद सम हण भव दुसतर।
तरण मनव सुण सर समझौ।।
सीतापत समर सुज अहनिस।
सुतन लहण फळ सुमन सझौ।।
लाखां छळ कपट झपट अणघट।
लख ललच मुचत लत करण लजौ।।
भूपाळ धनखधर म धर अडर जग।
अवर करत तज सु हर भजौ।।२७६
ईं प्रकार दुतीय सालूर रा च्यार ही दूहा जांणणा
२७६. अहनिस-रात दिन। सुमन-देवता, श्रेष्ठ मन। अणघट-अपार।
— 312 —
अथ गीत भाख मात्रा छंद लछण
दूहौ
ले धुरहूं तुक सोळ लग, चवदह मत्त सवाय।
सावझड़ौ तुक अंत लघु, भाख गीत यण भाय।।२७७
अरथ
पै’ली तुक सूं लगाय नै सोळै ही तुकां तांई तुक अेक प्रत मात्रा चवदै होय। अंत लघु होय। च्यार तुकां रा मोहरा मिळै, सावझड़ौ, जिण गीत रौ नांम भाख कहीजै। इति भाख नांम गीत निरूपण। भाख गीत री दोय तुकां रा मोहरा मिळै सौ अरधभाव कहीजै-यणनै गजल पिण कहै छै।
अथ गीत भाख उदाहरण
गीत
सुंदर सोभत घणस्यांम, तड़िता पट-पीत छिब तांम।
वांमे अंग सीता वांम, रूप अनंग कौटिग रांम।।
निज कटि सुघट तट तूनीर, सर धनु सुकर धार सधीर।
भंजण कौड़ संतां भार, रे मन गाव स्री रघुबीर।।
विध त्रिपुरार रिख पाय बंद, सरणसधार करणसमंद।
कह गुण गाथ ‘किसन’ किवंद, नाथ अनाथ दसरथनंद।।
कवसळ सुता राजकुमार, अबखी बखत सुजन अधार।
सुसबद कियौ तिण मत विसार, जीता जिके नर जमवार।।२७८
अथ गीत अरधभाख लछण
दूहौ
भाख गीत तुक कवि भणै, मोहरा दोय मिळंत।
अरध भाख जिणनूं अखै, कोइक गजल कहंत।।२७९
२७८. तड़िता-बिजली। पट-पीत-पीताम्बर। छिब-शोभा, कांति। वांमे-बायां। वाम-स्त्री। अनंग-कामदेव। कौटिग-करोड़। कटि-कमर। सुघट-सुंदर। तूनीर-तर्कश। सर-बाण, तीर। धनु-धनुष। सुकर-श्रेष्ठ हाथ। भंजण-मिटाने वाला। भीर-संकट, कष्ट। विध (विधि)-ब्रह्मा। त्रिपुरार-त्रिपुरारि, शिव। रिख-ऋषि। पाय-चरण। बंद-वंदन करते हैं। सरणसधार-शरण में आए हुए की रक्षा करने वाला। करणसमंद-करुणासागर। गाथ-कथा, वर्णन। किवंद-कवींद्र, कवि। अबखी-कष्टप्रद, भयावह, संकट का। बखत-समय। सुजन (स्वजन)-भक्त। अधार-सहारा, आश्रय। सुसबद-यश। तिण-उस, जिस। मत-बुद्धि। जमवार-जीवन, जिंदगी, यमराज का प्रहार या वार।
— 313 —
अथ गीत अरधभाख उदाहरण
गीत
पर हर अवर धंध अपार, भज नित जांनुकी भरतार।
करमत कलपना मन कोय, हरि बिण बिये मुकत न होय।।२८०
अरथ
लखपत पिंगळ मध्ये छंद उधोर जींरी च्यार तुकां रौ अेक दूहौ सोही गीत भाख। इति अरथ।
अथ गीत जाळीबंध बेलियौ सांणोर लछण
दूहा
आद अठारै पनर फिर, सोळ पनर क्रम जेण।
अंत लघु सांणोर कहि, तवै वेलियौ तेण।।२८१
नव कोठां मझ अेक तुक, लखजै चित्त लगाय।
उरध अधबिचलौ आखर, दौवड़ वंच दिखाय।।२८२
लखियां दीसै नव अखिर, ऊचरियां अगीयार।
जाळीबंध जिण गीतरौ, नांम सुकव निरधार।।२८३
अरथ
जाळीबंध गीत वेलियौ सांणोर होवै। जिणरै पै’ली तुक मात्रा अठारै। दूजी तुक मात्रा पनरै। तीजी तुक मात्रा सोळै। चौथी तुक कहौ अथवा पाछली तुक मात्रा पनरै होवै। पाछला तीन ही दूहां पै’ली तुक मात्रा सोळै। दूजी तुक मात्रा पनरै। तीजी तुक मात्रा सोळै अर चौथी तुक मात्रा पनरै होवै। ईं क्रमसूं होवै। अंत लघु होवै सौ वेलियौ सांणोर जींकौ जाळीबंध वणै। जाळीबंध रै तुक एक प्रत कोठा नव होवै। लिखतां आखर कोठा में न दीसै। सूधी ओळां आखर लेखैतौ अग्यारै होवै। नव कोठांरै मांहै ऊपरलौ नै हेठलौ विचाळा दोय कोठांरा दोई आखर दोय वेळां वंचै सौ गीत जाळीबंध सांणोर चित्रकाव्य कहीजै।
२८१. अठारै-अठारह। पनर-पनरह। सोळ-सोलह। जेण-जिस। तवै-कहते हैं। तेण-उसको।
२८२. कोठां-कोष्टकों। मझ-मध्य। उरध-ऊपर। अधबिचलौ-मध्यका, बीचका। दौवड़-दोनों ओर। वंच-पढ़ने की क्रिया।
२८३. ऊचरियां-उच्चारण करने पर। अगीयार-ग्यारह। निरधार-निश्चय। ईं क्रमसूं-इस क्रम से।
— 314 —
अथ जाळीबंध गीत वेलियौ सांणौर उदाहरण
गीत
साखी रे भांण नसापत सारै, कीध महाजुध कीत सकांम।
साच तकौ कज साधां सारत, राच महीप सु रांमण रांम।।
दासरथी सुखदाई सुंदर, नमै पगां सुर नर आनूप।
नरकां मिट जन तारै नकौ, भाख पयोध प्रभाकर भूप।।
पती-सीत भूतप परकासी, वासी सिव उर वास विसेस।
आपी तसां लंक आसत अत, नरा सत्र हण नमौ नरेस।।
कळ नावै नेड़ौ कह ‘किसन, आव थरु सुख आसत आथ।
दख नांके जैरै दन अदना, नाथ थयां समना रघुनाथ।।२८४
२८४. साखी-साक्षी। भांण-सूर्य। नसापत-चंद्रमा। कीध-किया। तकौ-वह। कज-काम। सारत-सफल करता है। राच-लीन हो। महीप-राजा। दासरथी-श्रीरामचंद्र भगवान। सुखदाई-सुख देने वाला। सुर-देवता। नकौ-कोई नहीं। भाख-कह। पयोध-समुद्र। प्रभाकर-सूर्य, चन्द्रमा। पत-सीत (सीतापति)-श्रीरामचंद्र भगवान। वासी-निवास करने वाला। सिव (शिव)-महादेव। आपी-दी, प्रदान की। तसां-हाथों। लंक-लंका। आसत-शक्ति, बल। अत-अति। सत्र-शत्रु। हण-नाश करने वाला। कळ-पाप, कलयुग। नेड़ौ-निकट। आथ-धन-दौलत। दख-दुख। जैरै-नाश करे। दन-दिन। अदना-बुरा, खराब। थयां-होने पर। समना-अनुकूल, प्रसन्न।
— 315 —
अथ गीत गहांणी वेलियौ सांणोर लछण
दूहा
गाहा लछण ग्रंथरै, वदियौ आद विचार।
सुज बेलियौ सांणोर रौ, लिखियौ लछण लार।।२८५
पहली गाहौ पर वजै, गीत दूहौ यक पच्छ।
फिर गाहौ दूहौ सुफिर, गीततणौ दख दच्छ।।२८६
च्यारूं गाथा गीतरा, च्यार दूहां धुर तथ्थ।
गाहा सामिळ गीत जिण, नांम गहांणी कथ्थ।।२८७
अरथ
वेलिया सांणोर गीत रा दूहा दूहा प्रत आद गाथौ होय। च्यार ही गीत रा दूहां रै आद च्यार गाथा होय। क्यूंक गाथा री चौथी तुक रा अखिरां रौ आभास गीत री पै’ली तुक में होय। गाथौ नै गीत सांमिळ छै जिणसूं गीत रौ नांम गहांणी छै। मात्रा दंडक छंद छै। गहांणी तथा गाथा रौ लछण पै’ली ग्रंथ में कह्यौ छै नै वेलिया सांणोर गीत रौ पण लछण कह्यौ छै जिणसूं अठै लछण न कह्यौ छै।
२८६. यक-एक। पच्छ-पश्चात। गीततणौ-गीत का। दख-कह।
नोट:-प्राचीन राजस्थानी में पूर्ण विराम का चिन्ह।
— 316 —
अथ गीत गहांणी उदाहरण
गीत
नर नह ले हरि नांम, जड़िया जंजीर कौड़ अघ जीहा।
नर ले राघव नांम, ज्यां सिर रांम अनुग्रह जांणै।।
सिर ज्यांरै जांण अनुग्रह स्रीवर, चरणकमळ चींतवण सचेत।
पातक दहणतणौ गह पैंडौ, हरिहर कहणतणौ मन हेत।।
सह पढियौ गुण सार न, नह पढियौ हेक नांम रघुनायक।
पढ पसु नांम प्रकार, पेखौ जे मांनवी पायौ।।
पढ खट भाव संसक्रत पिंगळ, सुकवी वगौ समझ गुण सांम।
प्रांणी रांम नांम विण पढियां, निज पढ पसु धरायौ नांम।।
सुरसरी राघव सुजस, मंजण जिण कीध सुध चित मांनव।
तीरथ अड़सठ तेण, बोलै स्रुत लाभ ग्रह बासत।।
बोलै बेद लाभ ग्रह बासत, तीरथ अड़सठ सुफळ तयार।
निज मन हुलस सांपड़ै जे नर, जस रघुबर सुरसरी मझार।।
वदन सुरस ना वांणी, सिर लोयण उदर हाथ पग सहता।
जस तिलक लख पै जळ, जुइ फिर रांम पवितर जेण।।
दीध प्रदछण हाथ जोड़ न हरि, चरणाम्रत दरस निहार।
करै तिलक राघव जस किता, जीता ‘किसन’ जिके जमवार।।२८८
— 317 —
अथ गीत घणकंठ सुपंखरौ लछण
दूहा
पहल अठारह बी चवद, सोळ चवद लघु अंत।
आद अंत गिणती अखर, गुण सुपंखरौ गिणंत।।२८९
कंठ सुपंखरा बीच कह, आठ प्रथम बी सात।
आठ सात क्रम यण अधिक, नावै कंठ निघात।।२९०
आद कंठ चव अक्खिरां, अंत दोय ठहराव।
यौ सुबंध घट अक्खियां, बिगड़ै कंठ वणाव।।२९१
अरथ
सुपंखरौ गीत वरण छंद छै जिकै तुक प्रत आखिर गिणती। पै’ली तुक वरण अठारै। दूजी तुक वरण चवदै। तीजी तुक वरण सोळै। चौथी तुक वरण चवदै होवै। पाछला दूहां रा वरण सोळै चवदै सोळै चवदै ईं क्रम सूं होवै, जींसूं सुपंखरा गीत में कंठ की हद कहै छै। पै’ली तुक में कंठ आठ होय। दूजी तुक में कंठ सात होय। तीजी तुक में कंठ आठ होय। चौथी तुक में कंठ सात होय। अठा आगै कंठ न होय। च्यार ही आखरां रौ कंठ तौ उरलौ होय। अठा सवाय आखर आयां कंठ सिथळ होय। दोय अखिर सूं कंठ घटतौ न होय। दोय अखिर सूं कंठ की हद छै सो दरसाई छै। पछे पाछला दूहां में कंठ घाट-बाध छै। घणा कंठां में कारण कारज सारथक आवै नहीं। थोड़ा कंठां में कारण कारज सारथक आवै। घणा कंठां सूं तुक आछी वणै नहीं। समभाव कंठ सूं तुक रूप पावै।
२९०. कंठ-अनुप्रास। निघात-अधिक।
२९१. चव-चार। अक्खिरां-अक्षरों। घट-कम। वणाव-रचना, बनावट। पाछला-पीछे के। हद-सीमा। अठा आगै-इससे अगाड़ी। उरलौ-चौड़ा, विस्तारपूर्ण। घटतौ-कम। घाट-बाद-कम-अधिक। पावै-प्राप्त करे।
— 318 —
अथ गीत घणकंठ सुपंखरौ उदाहरण
गीत
कार कार खार बार धार सुरार संघार कार।
प्यार राख मार छार कार बार पार।।
डार गार लार लार चार हार भार डार।
बार नार तार सार धार बार बार।।
सुराळ नराळ व्याळ आळ पाळ ढाळ सक्र।
सिघाळ अकाळ काळ टाळ वेद साख।।
आळ पाळ बंधमां विसार रे जंजाळ आळ।
दयाळ विसाळ भाळ विरदाळ दाख।।
भांम गांम धांम ठांम ठहांम नकूं भ्रांम।
तमांम निहार सांम ले अरांम तांम।।
दांम दांम विसार निकांम झौड़ ह्वै उदांम।
नरां जांम जांम में उचार रांम नांम।।
पनंगेस धरेस सुरेस तेस सझै पेस।
भूतेस विसेस चिंतवेस ध्यान भेस।।
जीतेस अरेस बंध सेस क्रीत जपौ जेस।
‘किसनेस’ कवेस नरेस कौसळेस।।२९२
— 319 —
अरथ
कंठ सांकड़ा छै। गीत रा पहला दूहा रा जीं ताबै पहला दूहा रौ अरथ लिखां छां। तुक पै’ली अरथ स्रीरांमचंद्र किसाक छै। अरथ अन्वय सूं लागसी। खार बार धार कैतां–खार=समुद्र जींकै कार कार कैतां म्रजादा कौ करणहार, दरियाव के पाज नहीं, म्रजाद की पाज कीधी इसौ स्रीरामचंद्र फेर सुरार राखस ज्यांकौ सिंहारकार कैतां सिंघार करता इसौ रांम।।१
तुक दूजी अरथ–जीं रामचंद्रजी सूं मार छार कार कैतां कांमदेव का बाळणहार सिव कौ प्यार छै, हर फेर रांम नांम तथा जस महातम का सिव समुद्र छै, इसौ रांम जींनै हे प्रांणी तूं भज।
तुक तीजी रौ अरथ-हे प्रांणी, तूं मार कैतां मारियां. . . . . . . स जींकौ डार समूह मांनवी छै जींका लार लार कैतां पाछै पाछै चार कैतां चालणौ, माटी का मनखां री लार लार फिरवा सूं हार कैतां हठ मती। फिरै भार डार कैतां संसार की कामना को भार बोझ सौ डार कैतां पटक दै, अळगौ मेल।
तुक चौथी रौ अरथ–हे प्रांणी, तूं तरबौ चाहै छै तौ बार नार तार कैतां बेस्या गणका कौ तारणहार स्री रांमचंद्र सार छै, सत्य छै, जींनै तूं हरदा में बार बार धारण कर। जीभ सूं तौ रांम नांम लै, हर ध्यान कर, सौ गणका नीच जात नै अजांण सूं सुवौ पढ़ावतां तारी इसौ स्री रांमचंद्र दयाळ छै तौ तौनै सुध मन भजतां तारै ही तारै। ईमें संदेह नहीं। यौ पै’ला दूहा रौ अरथ छै। कठण जिणसूं लख्यौ छै। बाकी रा तीन ही दूहां रौ अरथ सुगम छै जींसूं नहीं लख्यौ छै। यूं कोई कवि घणकंठ गीत वणावौ सौ देख विचार लीज्यौ। म्हेंतौ म्हारी बुध माफक गैलौ बताय दीधौ छै। कोई बात सुध असुध होवै तौ वडा कवि तगसीर खिमा कीज्यौ। म्हेंतौ स्री रांम-जस कीधौ छे सौ सीतारांमजी नै सरम छै।
— 320 —
अथ गीत सुपंखरौ उरला कंठां ताबै तथा सांकळिया कंठां ताबै अरथ रा कारण कारज सहेत स्री हणूंमांनजी रौ किसना क्रत।
गीत
मही राखण गाथरा आखियातरा गातरा मेर।
दैण सत्रां दाथरा हाथरा घाव दाव।।
साथ रै माथरा भंज क्रोधवांन समाथरा।
स्रीनाथरा जोध झौका वातरा-सुजाव।।
धांनमाळी पछाड़ा हुकमां चाड़ा सीस धणी।
रोखंगी ऊपाड़ा द्रोण भुजां राह दूत।।
बैरियां ऊबेड़ जाड़ा धंखी माह बांबराड़ा।
दुबाह अखाड़ाजीत धाड़ा रांमदूत।।
तैही लंक सांगा सौ जोजनां गिणै तूछरेल।
मूछरेल अढांगा अयारां मेल मीच।।
डरावणे रूपरा दयंतां भांगा दूछरेल।
भांमणै रामरा लांगा पूंछरेल भीच।।
संतां अभैदांनकी उछाह रे अरोड़ा सदा।
बिजै रोड़ा आंनकी जाहरे बार बार।।
मोड़ा जातधानंकी ग्रीवरा हणू उमाहरे।
जांनकी पावराखोड़ा बाहरे जोधार।।२९३
— 321 —
अथ गीत दूजौ स्री हणमांनजीरौ
गीत जयवंत सावझड़ौ
ओपत तन तेल सिंदूरां आंगा, आच गदाधर रूप अढंगा।
भारथ थोक सबळ खळ भांगा, लागै झौका महाबळ लांगा।।
खळ दसखंध उपाड़ण खूंटा, कीरत भुज जाहर चिहूं कूंटा।
लखण काज आंणण गिर लूंठा, टेक निवाह वाह किप-टूंटा।।
दायक खबर रांम सिय दौड़ा, तोयक काळ नेस सिर तोड़ा।
राड़ फतै पायक आरोड़ा खायक असुर धाड़ भड़ खोड़ा।।
जै नांमी गढ़ लंक जयंता, सिव एका दसमा निज संता।
कीधौ अमर जांनुकी कंता, हुकमी दास जांण हणमंता।।२९४
दूहौ
किया निरूपण ‘किसन’ किव, गुण हर विध विध गीत।
जड़ता दाघव कविजनां, जस राघव जग जीत।।२९५
२९५. निरूपण-वर्णन। गुण-यश। हर-हरि, विष्णु, श्रीरामचंद्र। विध विध-तरह-तरह के। जड़ता-अज्ञान। दाघव-जलाने को।
— 322 —
अथ गीत रूपग तथा दुतीय गजगत लछण
गीत
च्यार दूहांके च्यार ही, धुर आंकणी दवाळ।
ग्यार मत धुर नव दुती, ग्यारह नव क्रम भाळ।।२९६
अठाईस मत अंत गुरु, आंन दवाळा होय।
रूपग जस रघुनाथ रट, समझौ गज गत सोय।।२९७
बीस छ मता अंत लघु, छजै भाखड़ी छंद।
आठ वीस मत अंत गुरु, गजगत अे प्रबंध।।२९८
अरथ
आंकणी रौ दवाळौ भाखड़ी रै तौ दवाळां सारां प्रत अेक ही होय। हर गजगत रै दवाळा दवाळा प्रत आंकणी रौ दवाळौ नवीन नवीन होय। अेक तौ गजगत नै भाखड़ी रौ यौ भेद होय। दूजौ भेद भाखड़ी रै दूजा भाखड़ी रा दवाळां मात्रा छाईस अंत लघु होय। गजगत रै दूजा दवाळां री तुक अेक प्रत मात्रा अठाईस नै अंत गुरु होय। अतरौ भेद होय। दूजां गजगत भाखड़ी अेक तरै रा रूपग छै। आंकणी री मात्रा नव नव होय। सवाय रैकार तथा जीकार अंत होय। तुक पै’ली तीजी रै प्रमांण पै’ली तुक मात्रा अग्यारै, दूजी तुक मात्रा नव, तीजी तुक मात्रा अग्यारै, चौथी तुक मात्रा नव, अंत गुरु होय। दूजा दवाळां प्रत तुक मात्रा अठावीस सारी तुकां होय। अंत गुरु होय। ईं प्रकार रूपग गजगत कहीजै। आगै गजगत गीत न कह्यौ छै, भूल गया जींसूं पछै कह्यौ छै। गीत गजगत री आंकणी तौ भाखड़ी री’ज होवै। भाखड़ी रै तुक अेक प्रत मात्रा छबीस होय। अंत लघु होय। गजगत रै तुक अेक प्रत मात्रा अठावीस होय, अंत गुरु होय तथा भाखड़ी री तुक रै अंत अेक स ना य गुरु अखर धरजै सोई गीत गजगत रूपग छै।
२९७ आंन-दूसरा। सोय-वह।
२९८. यौ-यह। रे कार-रे तू शब्द कह कर पुकारने का शब्द, लघु रूप से पुकारने का शब्द, संबोधन शब्द। जीकार-जी, सम्मानपूर्वक पुकारने का शब्द।
— 323 —
अथ गीत रूपग गजगत उदाहरण
गीत
रिव कुळ रूपरा रे, समथ सरूपरा, प्रगट अनूपरा रे,
भुज रघु भूप।
भूपरा रघु भुजदंड भास तरह चयर सगरांमरा।
नव खंड भूम अरोड़ नांमण कौट मंड सकांमरा।
धुज धरम सर कोदंड धारण मेर ओपत मांमरा।
आनूप भुज परचंड आहव रूप रिवकुळ रांमरा।
सुज ब्रद साहणौ रे निबळ निबाहणौ चित जिस चाहणौ रे,
गज थट गाहणौ।।
गाहणौ गज थट अघट गाढंम प्रगट रजवट पेखजै।
लंकाळ घट छट अलल लाटण तीख कुळवट तेखजै।
जिण कीध वटपट निपट जळधर अद्र तार ऊभेखजै।
सिर मुगट जग रट अघट स्रीवर विरद धार विसेखजै।
मह जस मंडियौ रे बाळ बिहंडियो ते रण तंडियौ रे,
खळदळ खंडियौ।।
खळदळां कंकळ सबळ खंड वीर तंडै भुजबळी।
सुज गळां समपै ग्रीध समळां पळां भोजन परघळी।
— 324 —
खळहळां खत चळवळां खापर वीसहथ भर विळकुळी।
मह वळां चव रघुनाथ अमलां मंड सुसबद मंडळी।
संत सधारिया रे जुध रिम जारिया भुज व्रद भारिया रे,
अवन उचारिया।।
ऊचरै अवनी विरद अहनिस करण सिध सुरकाजरा।
दस माथ दुसह सिंघार दारुण सूर कुळ सिरताजरा।
कर तेण गजगत किसन कवि कह लखां जन रख लाजरा।
साधार संत अपार स्रीवर रांम सुसबद राजरा।।२९९
— 325 —
अथ निसांणी छंद वरणण
अथ निसांणी लछण
दूहौ
छै नीसांणी छंदरै, मत तेवीस मुकांम।
मांझ अेक तुक त्रदस दस, वदै दोय विसरांम।।१
अरथ
निसांणी छंद रै अेक तुक प्रत मात्रा मात्रा तेवीस आवै। इण लेखे तौ निसांणी मात्रा छंद छै नै अेक तुक रा विभाग तथा विस्रांम दोय छै। अेक पहलौ विस्रांम तौ मात्रा तेरै ऊपर होवै। दूजौ विस्रांम मात्रा दस पर होवै यौ लछण छै। पै’ली मात्रा असम चरण छंद कह्या जठे छंद निस्रेणिका कह्यौ, सोई निसांणी छंद जांणणौ। जिके च्यार प्रकार रा छै सौ फेर कहां छां।
दूहा
रे नीसांणी छंदरा, पढ़िया च्यार प्रकार।
तिण लछण निरणै तिकौ, वरणै सुकव विचार।।२
अेकण दु लघु तुकंत अख, बीजी गुरु लघु अंत।
अंत तीसरी लघु गुरु, चौथी बि गुरु तुकंत।।३
अरथ
निसांणी छंद एक तुक प्रत मात्रा तेवीस होवै। जिणरा च्यार प्रकार। अेकरै तौ तुरंत दोय लघु अखर होवै। दूजी रै तुकंत आद गुरु अंत लघु होवै। तीजी रै तुकंत आद लघु अंत गुरु होवै। चौथी रै तुकंत दोय गुरु करण-गण होवै। अै च्यार प्रकार री निसांणी छै।
अथ प्रथम लघु तुकंत गरभितनांमा निसांणी जांगड़ी उदाहरण
निसांणी
गह भर राघव तारिया, दरियाव विच गेंवर।
किया स्राध जटायका, निज हत्थ नरेसर।।
२. तिण-उस।
३. अख-कह। करण-गण-दो दीर्घ मात्रा का नाम SS।
४. गह-गर्व। तारिया-उद्धार किये। दरियाव-समुद्र, सागर। विच-बीच, मध्य। गेंवर-हाथी। स्राध-श्राद्ध। जटायका-जटायु के। हत्थ-हाथ। नरेसर-नरेश्वर, राजा।
— 326 —
मन रुच खाया बेर फळ, जिण सवरी पांमर।
ते कदमूं रज आभड़े, अवरत गौतम तर।।
तोते कीन्ह सहाय हत, यळ गणका उद्धर।
परचौ नांम तिराइया, पांणी सिर पाथर।।
जेण उधारे अवधपुर, जग सारे जाहर।
नांम ब्रह्म सिव आद ले, प्रभणै अह सुर नर।।
. . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .।
वे जिन्हां जीता जमार, गाया सीताबर।।४
अथ निसांणी दुमळा नांम जांगड़ी (आद गुरु अंत लघु तुकंत) उदाहरण
निसांणी
विप आनूप सरूप स्यांम, घट वरसण वार।
कसियौ कट तट कोमळा, चपळा पट-चार।।
भुज-आजांन विसाळ भाळ, कट संघ प्रकार।
नयण भ्रूंह नासिका कमळ, धनु सुक निरधार।।
परम जोत दसरथ प्रथीप, ते ग्रह अवतार।
जंग अडोळ अबोळ नाट, दस सिर खळ जार।।
सोवन्न लंक भभीखणह, दी सरणसधार।
औ जगनायक रामचंद, निरधार अधार।।५
५. विप-शरीर। आनूप-अनुपम। कट-कटि, कमर। कोमळा-कोमल। चपळा-बिजली। पट-चार-वस्त्र। भुज-आजांन-आजानबाहु। भाळ-ललाट। कट-कमर, कटि। संघ-सिंह। नासिका-नाक। सुक-तोता। जोत-प्रकाश। प्रथीप-राजा। ते-उसके। ग्रह-घर। जंग-युद्ध। अडोळ-दृढ़। नाट-निषेधात्मक शब्द। दससिर-रावण। खळ-राक्षस। जार-ध्वंश, संहार। सोवन्न-सुवर्ण, सोना। सरणसधार-शरण में आए हुए की रक्षा करने वाला। निरधार-जिसका कोई आश्रय या सहारा न हो।
नोट–उपर्युक्त दुर्मिळा निसांणी छंद का लक्षण ग्रंथ में स्पष्ट नहीं है। इस दुर्मिळा निसांणी छंद के प्रत्येक चरण में चौदह और नव पर विश्राम सहित कुल २३ मात्राएँ हैं तथा अंत में गुरु लघु होते हैं।
— 327 —
अथ दुतिया दुमिळा निसांणी छंद लछण
दूहौ
धुर चवदह नव फेर धर, अंत गुरु लघु अक्ख।
यक तुक मिळ मोहरा उभै, सौ दुमिळा कवि सक्ख।।६
अथ दुतिय दुमिळा निसांणी उदाहरण
निसांणी
अह नर सुर कह कवण ओड़, जै दत खग जोड़।
चक्रवत कर सुधा सुधा नीचोड़, मद वंका मौड़।।
वहिया मख रिख ठोड़ ठोड़, काटे भय कौड़।
तेगां खळ दसमाथ तोड़, रघुनाथ अरोड़।।७
अथ सुद्ध निसांणी जांगड़ी (तीजी तुकांत लघु गुरु) उदाहरण
निसांणी
तैं रघुनाथ विसारिया, त्रिहुं ताप तपणा।
छूटा गरभ ग्रभवासमें, बह बार छपांणा।।
धर धर तन असीचियार, लख जोणां धपणा।
खिण खिण आव संसारह, बुदबुद ज्यूं खपणा।।
कर कर पर उपकार पुन, तन प्राचत कपणा।
संसारी दा भगळखेल, जांणै जिम सपणा।।
आखर-दिन अवधेस विण, नह कोई अपणा।
जिण कज हे मन रांम रांम, जीहा नित जपणा।।८
७. अह-नाग। कवण-कौन। ओड़-समान। जै-जीत। दत-दान। जोड़-समानता। चक्रवत-राजा, चक्रवर्ती राजा। सुधा-सीधा। मद-गर्व। वंका-बाँकुरा। मौड़-श्रेष्ठ। मख-यज्ञ। रिख-ऋषि। तेगां-तलवारों। खळ-राक्षस। दसमाथ-रावण। तोड़-संहार कर, काट कर। अरोड़-जबरदस्त।
८. तैं-तूने। विसारिया-विस्मरण किया। त्रिहुं-तीन। ताप-तप, तपस्या। तपणा-तप करने वाला। गरभ-गर्व। ग्रभवासमें-गर्भवास में। बह-बहुत। छपांणा-गुप्त रहा। असीचियार-चौरासी। जोणां-योनियों। खिण-क्षण। बुदबुद (बुद्ध बुद्ध)-पानी का बुल्ला बुल्ला, जल का फफोला। खपणा-नाश होना। संसारीदा-संसार का। भगळ खेल-इन्द्रजाल, मायावी, धोखा। सपणा-स्वप्न। आखर-दिन-मृत्यु-समय। कज-लिए। जीहा-जीभ।
— 328 —
अथ सुद्ध निसांणी जांगड़ी चौथी तुकांत दौ गुरु उदाहरण
निसांणी
कदम सुभंदा मेरगिर, नहचळ मझ कंका।
सुज तर बंक पधोर कीध, के सूध-सणंका।।
बहिया बाळ मुकाळ बुळ, हीया ब्रद बंका।
डारण सज्झे दहकमळ, वज्जे जस डंका।।
रिम सबळ मारण सुभाव, साधारण रंका।
धू-धारण कारण जनां, कज सारण धंका।।
आचां झौक रांमचंद, सुदतार असंका।
लिन्हां-विण जिण दिन्हियां, सरणायत लंका।।९
— 329 —
अथ निसांणी मारू लछण
दूहौ
मत सोळह फिर बार मुण, दख मोहरे गुरु दोय।
मारू नीसांणी मुणै, सुकव महा मत सोय।।१०
अथ मारू निसांणी उदाहरण
निसांणी
कांम क्रोध मद लोभ मोह कर, अवस रहे अडगांणे।
लाह नह रख न सोच अलाभे, मन संतोख समांणे।।
सत्र मित्र पर भाव अेक सम, पत्थ रहेम प्रमांणे।
घर में ‘किसन’ कहै ते नर धन, जे मन राघव जांणे।।११
अथ निसांणी वार लछण
दूहौ
मुण तुक प्रत जिण तीस मत, मगण क र तुकंत।
वार निसांणी ‘किसन’ कवि, मत उपछंद मुणंत।।१२
अरथ
तुक अेक प्रत मात्रा तीस होय, तुकंत मगण अथवा रगण होय सौ निसांणी वार नांमा मात्रा उपछंद छै।
अथ वार नांमा निसांणी उदाहरण
निसांणी
बंध ग्राह दरीयाव बीच, पड़ संघट फील पुकारियां।
ईस ऊबाहण-पाय आय, घर हत्थूं सूंड उधारियां।।
धू भजीया हरी धूधड़ै, कर नहचळ तै सुखकारियां।
सत-व्रत भगती सज्झीयां, ते प्रळय पयोनिध तारियां।।
११. अवस-अवश्य। अडगांणे-अटल, निश्चल। लाह-लाभ। संतोख-संतोष। समांणे-समा गया, समाया हुआ। सत्र-शत्रु। पत्थ-मार्ग। रहेम-ईश्वर। धर-पृथ्वी। धन-धन्य।
१२. मुण-कह। तुक प्रत-प्रति चरण। जिण-जिस। मत-मात्रा। क-या, अथवा। र-रगण गण। मुणंत-कहता है।
१३. दरीयाव-सागर। संघट (संकट)-दुख। फील-हाथी। पुकारिया-पुकार करने पर। ऊबाहण-पाय-नंगे पैर। धर-पकड़ कर। हत्थूं-हाथ से। उधारियां-उद्धार किया। धू-भक्त ध्रुव। धूधड़ै-निशंक, निर्भय। नहचळ-निश्चल। सत-ब्रत (सत्यव्रत)-सातवें मनु का नाम, इक्ष्वाकुवंशी हरिश्चंद्र के पिता का नाम। सज्झीयां-साधन किया। ते-वे। पयोनिध-समुद्र, सागर।
— 330 —
बेख दास प्रहलाद बारह, बिप नरहर धार उबारियां।
सत्य बळ दे सोह जग सखै, हरि तन सझ मंगणहारियां।।
गोह अहल्या सवरी गीध, बळ व्याध कमंध बिचारियां।
भी सुग्रीव भभीखणांह, ब्रजराज सतोल बधारियां।।
निबळ अनाथ निधार नेक हरि, सबळां कीन्ह निहारीयां।
सीताबर संत सधारियां, सीताबर संत सधारीयां।।१३
अथ मात्रा उपछंद निसांणी हंसगत तथा रूपमाळा लछण
दूहौ
मुण तुक प्रत बत्तीस मत, अंत भगण गण आंण।
गण निसांणी हंसगत, वरणत रांम बखांण।।१४
अरथ
तुक अेक प्रत बतीस मात्रा होय। तुक के अंत भगण गण होय, सौ निसांणी हंसगत कहीजै तथा बेअखरी छंद री दोय तुकां सूं अेक तुक वणै सौ हंसगत निसांणी। हंसगत निसांणी रै नै बेअखरी छंद रै अतरौ तफावत छै सौ कहां छां। बेअखरी छंद रै तौ तुक रै अंत गुरु लघु रौ नीयम नहीं छै। कठैक तुकंत गुरु, कठैक तुकंत लघु होय नै हंसगत रै तुकंत भगणहीज आवै सौ लघु तुकंत रौ नेम छै। यतरौ भेद छै। यणनै कोई रूपमाळा पिण कहै छै।
अथ हंसगत निसांणी उदाहरण
निसांणी
स्री रघुनाथ अनाथ नाथ सुज, बेढ सत्र दसमाथ विहंडण।
जाहर मही जहूर सुजस जिण, महपत नूर सूरकुळ मंडण।।
१४. मुण-कह। तुक प्रत-प्रति चरण। मत-मात्रा। बखांण-यश। अतरौ-इतना। तफावत-भेद, फर्क। कठैक-कहीं पर। नैम-नियम। यतरौ-इतना। यणनै-इसको। पिण-भी।
१५. बेढ-युद्ध। सत्र-शत्रु। दसमाथ-रावण। विहंडण-संहार करने को। जाहर-जाहिर प्रसिद्ध। मही-पृथ्वी। जहूर-प्रकाशन। सुजस-सुयश। महपत-राजा। नूर-कांति, दीप्ति। सूरकुळ-सूर्य वंश। मंडण-आभूषण।
— 331 —
झूठ अवाच अपूठ महाजुध, दूठ सरूठ अदंडांदंडण।
भुज परचंड मंड जय भासत, खंडपरस कोदंड बिखंडण।।
दसरथनंद निकंद पाप दळ, घणनांमी आणंदतणौ घण।
संतां काज सकाज सुधारण, महाराज सुरराज सिरोमण।।
दीनदयाळ पाळकर गौ दुज, निज प्रिया सिया मनरंजण।
जाप ‘किसन’ मा बाप रांम जस, भव त्रय ताप पाप दुळ भंजण।।१५
अथ निसांणी झींगर लछण
दूहौ
धुर अठार फिर चवंद घर, मोहरे मगण मिळंत।
झींगर निसांणी जिकाह, ‘किसन’ कवेस कहंत।।१६
अथ झींगर निसांणी उदाहरण
निसांणी
जिण कीड़ी कुंजर जीव दुनीदा, रूप चराचर रच्चा है।
रक्ख हत्थूं डोर लख चौरासी, नाच नच्चाय नच्चा है।।
तिणदी विण जोत गोत मिट्टी तन, ‘किसन’ कहै सब कच्चा है।
बोलै स्रुत संम्रत स्यंभ अज वायक, सीतानायक सच्चा है।।१७
१६. मोहरे-तुकबंदी में। मिळंत-मिलता है। कवेस (कवीश)-महाकवि। कहंत-कहता है, कहते हैं।
१७. कीड़ी-चिउंटी। कुंजर-हाथी। दुनीदा-संसार का। रच्चा है-रचा है, बनाया है। हत्थूं-हाथ। चौरासी-चौरासी लाख जीव योनि। तिणदी-उसकी। स्रुत-श्रुति। संम्रत-स्मृति। स्यंभ-शंभु शिव। अज-ब्रह्मा। वायक-वाक्य, वचन। सीतानायक-सीतापति, श्रीरामचंद्र। सच्चा है-सत्य है।
— 332 —
अथ निसांणी सीहटप लछण
दूहौ
तुक प्रत मत छबीस तव, तगण क जगण तुकंत।
सौ निसांणी सीहटप, हणु आंकणी कहंत।।१८
अरथ
प्रत तुक मात्रा छावीस होय। तुकंत में जगण बोहत होय। कठैक तगण गण पण तुकंत में होय। दोय तुकां रै पछै हणु इसा सबद री आंकणी होय सौ निसांणी सीहटप पण कहीजै।
अथ सीहटप निसांणी उदाहरण
निसांणी
यक आद-पुरुख अनादसूं दख भ्रहम माया दोख।
त्रय भ्रहम विसन महेस त्रे गुण हुवा जिण जग होय।।
हणु हुवा जिण जग होय हरखित चाह बेद चियार।।
तत पंच कर खट तरक तै दरियाव सात उदार।।
हणु सात दध दस आठ सर जे नवे ग्रह नर नाह।
अवतार दस कर रुद्र ग्यारह बारह मेघ दुबाह।।
हणु बारह मेघ नीर विरचित मास तेरह मंड।
दस च्यार विद्या रतन दाखव पनर तिथि परचंड।।
हणु पंच दस तिथ सोळ कळ पढ सरस नार सिंगार।
साहंस सतरह खंड गूजर थाप ग्रांम बिथार।।
हणु थाप गांम बिथार भार अठार वन कर भेद।
उगणीस वरसे भोम जोबन विसावीस अखेद।।
१६. यक-एक। आदपुरुख-आदि पुरुष। दख-कह। भ्रहम-ब्रह्मा। विसन-विष्णु। महेस-महादेव। दध (उदधि)-सागर, समुद्र। दाखव-कह। तिथ-तिथि, तारीख। सोळ-सोलह। बुध-पंडित। खंड-देस। विसावीस-पूर्ण, पूरा।
— 333 —
हणू विसावीस अखेद विचार बुध यण कीध मंड अनेक।
सौ आदपुरख उचार ‘किसना’ अचळ राघव अेक।।
अथ अन्यविधि निसांणी सोहटप तथा सीहचली लछण
चौपई
सोळह दस मत यक पद साज, गीत प्रोढ गुरु लघू गाय।
सीहचली तुक उलट सकाय,. . . . . . . . . . . . . . . . .।।२०
अथ दुतीय सीहचली निसांणी उदाहरण
निसांणी
तन स्यांम अंबुद रूप तड़िता, वसन पीत विचार।
वासन्न पीत विचार सरवर, धनुख सायक धार।।
धानंख सायक धर धरम धर, भुजां झल्लण भार।
जुध जार दससिर कुंभ जेहा, सकळ कांम सुधार।।
सह कांम दास सुधार समरथ, अेक रांम उदार।।२१
अथ निसांणी सिरखुली लछण
दूहौ
मध्य मेळ मत बार पर, नव मत सीस खुलाय।
तुक प्रत मत यकवीस तव, सिर खुल्ली कह साय।।२२
अरथ
जिण निसांणी रै तुक अेक प्रत मात्रा यकवीस होय। तुक अेक का दोय विभाग होय। पै’ला विभाग री मात्रा बारै होय जठे मध्य मेळ निसांणी रौ तुकंत, दूजौ विभाग मात्रा नव रौ होय जठे सिरखुली कहीजै।
२१. अंबुद-बादल। तड़िता-बिजली। वसन-वस्त्र। पीत-पीला। वासन्न-वस्त्र। धनुख-धनुष। सायक-बाण, तीर। झल्लण-धारण करने वाला। जार-संहार कर, मार कर, व्यभिचारी पुरुष। कुंभ-रावण का भाई कुंभकर्ण। जेहा-जैसा। सह-सब।
२२. बार-बारह। यकवीस-इक्कीस। तव-कह।
— 334 —
अथ सिरखुली निसांणी उदाहरण
निसांणी
राघव सिफत बखांणी, सच्चे सायरां।
आफताब दुनियांणी, दीद नगाहए।।
जिन्हां तज जुलमांणी, हक्क सराहियां।
रुख चुगलक ब. . . . . . . जांनी, सिरदह सझियां।।
परस लिया मद पांनी, दार जुनारदा।
बभ्भीछण बगसांणी, लंक पनाहियां।।
खळक तमांम रचांनी, छिनमें खानी खालकां।
जपै सुकर जबांनी, कुदरत कौनदी।।
बंदु परवर सांनी, सीतासांइयां।।२३
अथ घग्घर निसांणी लछण
दूहौ
लछण संजुत आठ तुक, जोड़ त्रिभंगी छंद।
अंत जगण बत्तीस मत, घग्घर अेह प्रबंध।।२४
अरथ
त्रिभंगी छंद रौ लछण सोई घग्घर निसांणी रौ लछण छै। त्रिभंगी छंद री आठ तुक सोई घग्घर निसांणी। तुक अेक प्रत मात्रा बतीस। च्यार विस्रांम। पै’लौ विस्रांम दस पर होवै। दूजौ विस्रांम मात्रा आठ पर होवै। तीजौ विस्रांम मात्रा आठ पर होवै। चौथौ विस्रांम मात्रा छै पर होवै। अंत जगण होवे। सोई त्रिभंगी छंद, सोई घग्घर निसांणी। त्रिभंगी की तुकांत और अखिर ऊपर मिळै। घग्घर निसांणी का तुकांत अेक अखिर ऊपर मिळै सौ भेद छै।
२४. लछण-लक्षण। संजुत-संयुक्त। मत-मात्रा। अेह-यह। सोई-वही।
— 335 —
अथ मात्रा उपछंद घग्घर निसांणी उदाहरण
निसांणी
पोह क्रत कविराजं हरख उछाजं सुजस समाजं दध पाजं।
रिखबर मुनिराजं सिवसिध राजं स्तुति दुजराजं नित साजं।।
मुख सहस समाजं जपि अहिराजं रटत सकाजं सुर राजं।
मुख जोतिस काजं कबि ग्रहराजं जांन सुभाजं खगराजं।।
कज संख गदाजं चक्र उछाजं आयुध साजं भुज भ्राजं।
मह गौ दुजमानं रिखि नर राजं सुचित दराजं दत साजं।
रघुकुळ सिरताजं जन रखि लाजं जय महाराजं रघुराजं।।२५
अथ दुतीय घग्घर निसांणी लछण
दहौ
दस अठ मत विसरांम दौ, चवद तियौ विसरांम।
अंत मगण जिणनूं घग्घर, कौ कवि कहै सकांम।।२६
अथ दुतीय घग्घर निसांणी उदाहरण
निसांणी
हिरणायख हांणे संख सझांणे हयग्रीवा खळ हंता है।
हरणाकुस हत्ते महणसु मथ्थे छितले बळि छळंता है।
यमराज उधारे रांमण मारे ते हण कंस अमंता है।
कह बुद्ध किलंकी ईस असंकी कळ पूरण सीकंता है।।२७
२६. चवद-चौदह। तियौ-तीसरा। विसरांम-विश्राम।
२७. हिरणायख-हिरण्याक्ष नामक राक्षस। हांणे-मारा। संख-एक असुर का नाम। सझांणे-संहार किया। हयग्रीवा-एक राक्षस का नाम। हंता है-मारने वाला है। हरणाकुस-हिरण्यकशिपु। हत्ते-संहार किया। महणसु-समुद्र। मथ्थे-मंथन किया। छित-पृथ्वी। सीकंता-श्रीकंत, विष्णु, श्रीरामचंद्र भगवान।
— 336 —
अथ पैड़ी निसांणी लछण
दूहौ
ठार सोळ सोळह चवद, तुक प्रत मत चवसाठ।
नीसांणी मगणंत निज, पैड़ी यण विध पाठ।।२८
अरथ
पैड़ी निसांणी रै तुक अेक प्रत मात्रा चौसठ होय। तुकांत गुरु होय तथा मगण होय। तुक अेक में विसरांम च्यार होय। पै’लौ विसरांम मात्रा अठारै पर होय। दूजौ विसरांम मात्रा सोळै पर होय। तीजौ विसरांम मात्रा सोळै पर होय। चौथौ विसरांम मात्रा चवदै पर होय। ईं प्रकार च्यार विसरांम होय। तुक अेक प्रत मात्रा चौसठ होय, सौ पैड़ी नांम निसांणी कहीजै।
अथ पैड़ी निसांणी उदाहरण
निसांणी
भारा आक्रांत हुवंदी भूम्मी, वरतंदी सुरवार विक्खम्मी।
अमरूं कथ भ्रहमांण अखंम्मी, थंदे उभ्थल यांनूंदा।।
आदम अरु बंभदेव मिळियंदे, आए सब दरियाखीरंदे।
काहल दस्तबंध कुवरंदे, गिरीअरि गुजरांनूंदा।।
अरजी सुण कर दरियाफत अल्ला, बरदे महरबांन के बुल्ला।
हूं दे तुम कज जंगूं हमल्ला, यळ अवतार असांनूंदा।।
संभूमन नृप दसरथ्य समथ्थी, कोसळ्या सत रूपा कथ्थी।
जाहर पूत च्यार जग जथ्थी, जांमण सेर जवांनूदा।।
२९. भारा-भार, वजन। आक्रांत-घिरा हुआ, आवृत। हुवंदो-होती। भूम्मी (भूमि)-पृथ्वी। वरतंदी-हो रही हो। सुरवार-देवताओं का समय। विक्खम्मी-विषम। अमरूं-देवता। कथ-कथा। भ्रहमांण-ब्रह्मा। अखंम्मी-कही। उथ्थल-उलटा। थांनूंदा-स्थान। आदम-ईश्वर, शिव। बंभदेव-ब्रह्मा। मिळियंदे-मिले। दरिया-खीरंदे-क्षीर-सागर पर। काहल-व्याकुल। दस्तबंध-कर-बद्ध। गिरीअरि (गिरिअरि)-इन्द्र। अल्ला-ईश्वर। हूं दे-मैं। कज-लिये। यळ-भूमि। असांनूंदा-मेरा, हमारा। संभूमन-स्वायंभू मनु।
— 337 —
कौसिकदे जिग परबरसी कित्ता, पै रज करी सिला परवित्ता।
भंजे चाप अमाप अभित्ता, सीता ब्याह सुमांनूंदा।।
ते तेज हरा दुजरांम अताई, पितदे हुकम रिखी व्रत पाई।
मारे ब्याध कबंध अमाई, वाटीपंच वमांनूंदा।।
रांमण तद हरी जांनुकी रांणी, भीली बेर भखांनूंदा।।
मिळ कपि हणुमंत सुकंठी म्यंता, चौपट मारे बाळ अचंता।
दांन भभीखण लंक दीयंता, बध पाज जळवांनूंदा।।
. . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .।
बंबी जद घोर जंगदा बग्गा, लड़ण मेघनाद रिण लग्गा।
भिड़ तिण सेस भुजूं बळ भग्गा, मिटा सोच मघबांनूंदा।।
जोधा रिण कुंभ दसानन जुट्टे, कोपे रांम बिहूं सिर कट्टे।
आंण सिया दुख देव अहुट्टे, जंपै क्रीत जिहांनूंदा।।२९
अथ मछटथळ तथा सोहणी नांम निसांणी लछण
दूहौ
तेर प्रथम सोळह दुती, मझ तुक बे बिसरांम।
गुणति मत अंते बे गुरु, निमंध मछटथळ नांम।।३०
अरथ
मछटथळ नांम निसांणी रै तुक प्रत मात्रा गुणतीस होय। तुक रै अंत दोय गुरु अखिर होय। तुक अेक प्रत मात्रा गुणतीस होय, जींरा दोय विसरांम होय। पै’लौ विसरांम तौ मात्रा तेरै ऊपर होय। दूजौ विसरांम मात्रा सोळै ऊपर होय, सौ निसांणी मछटथळ नांमा कहीजै। इणरौ दूजौ नांम सोहणी पिण छै।
३०. तेर-तेरह। दुती-दूसरी। बे-दो। गुणति-उनतीस। मत-मात्रा। निमंध-रच, बना। गुणतीस-उनतीस।
— 338 —
अथ मछटथळ तथा सोहणी निसांणी उदाहरण
निसांणी
तज मक्कर फक्कर तसूं, उर सुध करखे रात अपंदे।
वस करदे इंद्री अवस, तन मझी तप सील तप्पंदे।।
आप रहंदे अघ अळग, पर छिद्रूं निसदीह ढपंदे।
सेव सझंदे सांइयां, पै करमूं कबहू न लपंदे।।
आदम लखूं दरमियांन, छित विरले नर नांहि छिपंदे।
सत ग्रह रदे तजदे असत, धर कदमूं सुभ पंथ धपंदे।।
नांम जिन्हूदा अमर नित, खित जाये जे जीव खपंदे।
जिन्हां जीतब जीतिया, जे रघुबर नित जीह जपंदे।।३१
— 339 —
अथ मात्रा असम चरण कड़खा छंद लछण
दूहौ
धुर तुक मत चाळीस धर, तुक अन मत सैंतीस।
अंत गुरु तुक प्रत अखिर, कड़खौ छंद कहीस।।३२
अरथ
पै’ली तुक री मात्रा चाळीस होय। पछली तीन ही तुकां तथा सवाय करै तौ पिण तुक प्रत मात्रा सैंतीस होय। तुकंत गुरु अखिर तथा करणगण होय। जीं छंद रौ नांम कड़खौ छंद कहीजै। निसांणी छंद रै उतरारध में कड़खौ छंद ढाढ़ी
बोहत कहै छै।
अथ कड़खौ छंद उदाहरण
छंद
रसणा रांम रट रांम रट रांम रट।
रांम रट रांम रट रांम रट रांम रट।।
नेह आछेह आरेह सुख गेह निज।
भूप आनूप पतीसीय भांम।।
पांण धनु बांण आपांण पंचाण पह।
ठाह गुण गाह जग ठांम ठांम।।
सुकवि ‘किसनेस’ महेस भुजगेस सुज।
जाप जस जेस प्रति जांम जांम।।३३
अथ कळसरौ छप्पै कवित्त
छप्पै
थाघै कुण दध अथघ कमण प्रभणै गिण रज कण।
बूंदां जळ वरसात गिणै केहौ तारक गण।।
पुणै कमण तर पत्र भ्रहम माया कुण भक्खै।
मह उत्तर पथ माप आप लहरां कुण अक्खै।।
कुण सकै जोग निरणौ करै रे गोरख सिव राजरौ।
किव ‘किसन’ समथ कुण जस कहण रांमचंद्र महराजरौ।।३४
३३. रसणा-जीभ। सीय-सीता। भांम-स्त्री। पांण-हाथ। आपांण-शक्ति। पंचांण-सिंह। ठाह-स्थान, ज्ञान। ठांम-स्थान। माहेस-शिव। भुजगेस-शेषनाग। जेस-जिसका। जांम जांम-याम याम।
३४. थाघै-सीमा या हद की जांच करे। कुण-कौन। दध-समुद्र। अथघ-अथाह, असीम। कमण-कौन। प्रमणै-कहे। रज-धूलि। केहौ-कौन। पुणै-कहै। तर-वृक्ष। पत्र-पान। ब्रह्म-ब्रह्मा। भक्खै-कहे। मह-भूमि, पृथ्वी। आप-पानी। अक्खे-कहे। समथ-समर्थ।
— 340 —
अथ कविवंस वरणण छप्पै कवित्त
छप्पै
‘दुरसा‘ घर ‘किसनेस‘ ‘किसन‘ घर सुकवि ‘महेसुर‘।
सुत ‘महेस‘ ‘खूमांण‘ ‘खांन साहिब‘ सुत जिण घर।।
‘साहिब‘ घर ‘पनसाह‘ ‘पना‘ सुत ‘दुलह‘ सुकव पुण।
‘दुल्ह‘ घरे खट पुत्र ‘दांन‘ ‘जस‘ ‘किसन‘ ‘बुधौ’ भण।।
‘सारूप‘ ‘चमन‘ मुरधर उतन, प्रगट नगर पांचेटियौ।
चारण जाती आढा विगत ‘किसन‘ सुकव पिंगळ कियौ।।३५
उदियापुर आथांण रांण भीभाजळ राजत।
कवरां-मुकट ‘जवांन‘ नीत मग जग नीवाजत।।
अठ्ठारै सै समत वरस अैसियौ माह सुद।
बुद्धबार तिथ चौथ हुवौ प्रारंभ ग्रंथ हद।।
अठारै अनै अकियासिये, सुद आसोज सराहियौ।
सनि बिजैदसमी रघुबर सुज ‘किसन’ सुकवि सुभक्रत कियौ।।३६
दूहा
रघुबर सुजस प्रकासरौ, अहनिस करै अभ्यास।
सकौ सुकवि वाजै सही, रांम क्रपा सर रास।।३७
प्रगट छंद अनुस्टपां, संख्या गिणियां सार।
सुज रघुबर प्रकास जस, है गुण तीन हजार।।३८
जिणरौ गुण भण जेणनूं, न गिणै गुर निरधार।
पड़ रौरव ले प्रगट, अवस स्वांन अवतार।।३९
इति स्रीरघुवरजसप्रकास पिंगळ ग्रंथे आढा किसना
विरचिते कड़खौ अेक अेकादस प्रकार निसांणी
निरूपण वरणण नांम पंचमौ प्रकरण संपूरण।
।।समाप्त।।