रघुवरजसप्रकास [8] – किसनाजी आढ़ा

— 169 —

दूहौ
साठ सहस सुत सगररा, नहचै मुवा निकांम।
तै धन ग्रीध जटाय तं, रिण रहियौ छळ रांम।।१२

वारता

जींनै रूपग कहै जींसूं अपूठी कहीजै सौ सुद्ध पर मुख उक्ति कहावै, और रौ जस और प्रत सूं भाखण करणौ सौ सुद्ध परमुख उक्ति।

अथ सुध परमुख उक्ति उदाहरण
सोरठौ
जीपे दससिर जंग, समंदां लग दीपै सुजस।
ऊ रघुनाथ अभंग, जन पाळग समराथ जग।।१३

वारता

परमुख उक्ति ने अन्योक्ति री कर कहणौ सौ गरभित परमुख उक्ति कहावै।

अथ गरभित परमुख उक्ति उदाहरण
दूहा
हर समरौ होसी हरी, जीते जमरौ जंग।
कर उदिम रोलंब करै, भमरौ कीटी भ्रंग।।१४
जिणनूं जांण अजांण रौ, ईखौ भेद अभंग।
लाठी खर ऊपर लगत, पूजै जगत पमंग।।१५

वारता

कवि विना वरणनीय नै पैलौ पैलानै कहै सौ सुद्ध परामुख उक्ति कहावै।


१२. नहचै-निश्चय। निकांम-व्यर्थ। रिण-युद्ध। छळ-लिए। जींनै-जिसको। रूपग-गीत छंद। जींसू-जिससे। अपूठौ-उलटा। और-अन्य, दूसरा। प्रत-प्रति, लिए। भाखण-भाषण।
१३. जीपे-जीत कर। दससिर-रावण। जंग-युद्ध। लग-पर्यन्त तक। दीपै-शोभा देता है। पाळग-पालन करने वाला। समराथ-समर्थ।
१४. जंग-युद्ध। उदिम-उद्यम, उद्योग। रोलंब-भौंरा। भमरौ-भौंरा। कीटी-छोटा कीटाणु। भ्रंग-भौंरा।
१५. जिणनूं-जिसको। अजांण रौ-अज्ञान का। ईखौ-देखो। खर-गधा। पमंग-घोड़ा।

— 170 —

अथ सुद्ध परामुख उक्ति उदाहरण
दूहौ
समपी लंका सोवनी, दीन भभीखण दांन।
जेण रांम उज्जळ सुजस, जंपै सकळ जिहांन।।१६

वारता

सकळ नांम सिव रौ है सौ सिवप्रत पारबती बचन छै। पैलौ पैलानै कहै सौ परामुख उक्त जिण रांम सौ परमुख उक्त अदभुत रस, पारबती रौ बयण सौ परामुख उक्त नै सिवप्रत संभाखण।

वारता

परामुख में सनमुख री छाया नीसरै सौ गरभित परामुख उक्ति कहावै।

अथ गरभित परामुख उक्ति उदाहरण
दूहौ
हर जैरै कच-कूप मह, वसै कौड़ ब्रहमंड।
केम प्रभू मावै तिके, परगट कीड़ी पिंड।।१७

वारता

सातमीं सुद्ध स्त्रीमुख नांम उक्ति जठै परमेस्वर कौ वचन तथा कोई देवता कौ, तथा राजा कौ वचन तथा नाग वचन, सौ सारा रूपग में एक निव है सौ सुद्ध स्रीमुख उक्ति कहावै।

अथ सुद्ध स्रीमुख उक्ति उदाहरण
दूहौ
हूं आखूं नय वयण हिक, सांभळ भरथ सुजांण।
करणौ तौ मौ अवस कर, पितचौ हुकम प्रमांण।।१८


१६. समपी-दी। सोवनी-स्वर्ण की। दीन-गरीब। भभीखण-विभीषण। सकळ-समस्त, सब अथवा महादेव, शिव। जेहांन-संसार। पैलौ-पहिला या दूसरा। प्रत-प्रति। संभाखण-संभाषण।
१७. हर (हरि)-विष्णु। जैरै-जिसके। कच-कूप-रोम कूप, रोम छिद्र। मह-में। ब्रहमंड-ब्रह्मांड। केम-कैसे। तिके-वे। परगट-प्रकट। पिंड-शरीर।
१८. हूं-मैं। आखूं-कहता हूँ। नय-नीति। वयण-वचन। हिक-एक। सांभळ-सुन। भरथ-भरत। सुजांण-चतुर। पितचौ-पिता का।

— 171 —

वारता

आठमी कवि-कल्पित स्रीमुख उक्ति कहावै, जिणमें कवियण नै स्रीमुख रौ वयण दोनूंई नीसरै।

वारता

स्रीरांमजी रौ बचन लछमण प्रति नै यूं कहियौ — अवधेस कवियण दोनूं भेळा छै।

अथ कवि कल्पित स्रीमुख उक्ति उदाहरण
दूहौ
कोपै तूं मौ राज कज, सांभळ वायक सेस।
गरवां मत ग्रहियौ नहीं, यूं कहियौ अवधेस।।१९

वारता

नवमी मिस्रत उक्ति जठै गीत कवित्त छंदादिक में तुक-तुक प्रति तथा दवाळा दवाळा प्रति वचन पलटै, सौ मिस्रित उक्ति कहावै।

अथ मिस्रित उक्ति उदाहरण
सोरठौ
वांण सराहै वांण, खाग सराहै समर खळ।
मौज उझळ महरांण, सारा है रघुबर सुकव।।२०

इति नव उक्ति निरूपण।

अथ अग्यारह प्रकार डिंगल की जथा निरूपण

अथ अग्यारह जथा नांम छंद चंद्रायण
विधांनीक सर सिर फिर वरण वखांणजै।
अहिगत आदसु अंत सुध पिण आंणजै।।
अधिक न्यून सम नांम अग्यारह उच्चरै।
‘किसन’ जथा अै डिंगळ कवि आरै करै।।२१


१८. कवियण-कविजन, कवि। दोनूंई-दो ही।
१९. मौ-मेरे। कज-लिए। सांभळ-सुन। सेस-लक्ष्मण। अवधेस-श्री रामचन्द्र।
२०. दवाळा-गीत छंद के चार चरण का समूह। वांण-वाणी। वांण-सरस्वती या पंडित। खाग-तलवार। समर-युद्ध। खळ-शत्रु। मौज-उदारता, दान। ऊझळ-तरंग, लहर। महरांण (महार्णव)-सागर। सारा है-प्रशंसा करते हैं। निरूपण-निर्णय, विचार।
२१. ग्यारह जथाओं के नाम-विधांनीक, सर, सिर, वरण, अहिगत, आद, अंत, सुध, अधिक न्यून और सम। पिण-भी। आरै करै-स्वीकार करते हैं।

— 172 —

वारता

प्रथम तो विधांनीक जथा कहावै जठै विधांनीक तिसर गीत वणै सौ।

अथ विधांनीक नांम जथा उदाहरण

गीत सुपंखरौ
जात विधांनीक तिसर गीत
वंसी ऐराकरां छ-भाख पैराकरां खड़गवाहां,
जोस मेघा आखरां आसुरां भंज जंग।
मोड़ाकरां नायबां-वाकरां अरांतोड़ा मनै,
साकुरां आखरांजोड़ा ठाकुरां स्रीरंग।
अछेहां पै धाव सिधां सभाव पटैत अंगां,
कछ अंबा भांण कुळां अरेहां सकांम।
दौड़ बाद जीपणां लूणचै काज भंजे देहां,
रेवंतां नीपणां सूरां रंजै अेहां रांम।।
तेजरा जळोधां वाक अरोधां विरोधां तीखा,
तातां पै निघातां जंगी होदां तेग ताव।
बेग ऐण रोधां बैण सबोधां सक्रोधां बंदै,
वाजंदां कब्यंदां जोधां इसां औधराव।।
सींधुरां ढहाड़ सूं बां दहाड़ बिभाड़ सत्रां,
धाव सिघ्र बिरदाई प्रवाड़ धरेस।
तुरंगां कब्यंदां बांबराड़ भड़ां रांम ताखा,
निखंगां रीझणा धाड़ जांनकी नरेस।।२२


२२. वंसी-वंश का। ऐराकरां-नस्ल विशेष के घोड़ों। छ भाख-छः भाषाओं। पैराकरां-पार करने वाले। खड़गवाहां-योद्धाओं। मेधा-स्मरण रखने की शक्ति, धारण शक्ति, धारणा शक्ति। आसुरां-शत्रुओं को, राक्षसों को। भंज-संहार करते हैं। जंग-युद्ध। मोड़ाकरां-नस्ल विशेष के घोड़े। नायबांवाकरां-कवि। अरांतोड़ा-शत्रुओं का नाश करने वाले। साकुरां-घोड़ा। आखरांजोड़ा-कवि। ठाकुरां-योद्धाओं। स्रीरंग (श्री रंग)-विष्णु, श्री रामचंद्र। अछेहां-बहुत। धाव-दौड़। सिधां-सिद्धां। पटैत-योद्धा। कछ-देश विशेष जहां के घोड़े प्रसिद्ध होते हैं। अंबा-देवी, शक्ति। भांण-सूर्य। अरेहां-शत्रुओं को मारने वाले, अथवा निष्कलंक। दौड-शीघ्र गमन या गति। बाद-शास्त्रार्थं। जीपणां-जीतने वाला। लूणचै-नमक के। भंजे-नाश करते हैं। रेवंता-घोड़ों। नीपणां-कवियों। सूरां-योद्धाओं। रंजे-प्रसन्न होता है। अेहां-ऐसों पर। जळोधां (जलधि)-सागर। वाक-वाणी। तीखा-तेज। तातां-तेज स्वभाव, चंचल। निघातां-अति तेज। जंगी-बड़ा। होदां-हाथी की पीठ पर रखने की अमारी। तेग-तलवार। ताव-जोश। बेग-गति। ऐण-हरिण। बैण-बचन। सबोधां-ज्ञान वाला। वाजंदां-घोड़ा। कब्यंदां-कवियों। जोधां-योद्धाओं। औधराव-श्री रामचंद्र भगवान। सींधुरां-हाथियों। ढहाड़-गिराने वाला। सूंबां-कृपणों। दहाड़-गर्जना, घोर ध्वनि। बिभाड़-संहार करने वाले। सत्रां-शत्रुओं। धाव-दौड़। बिरदाई-बिरुद वाले। प्रवाड़-शाका। धरेस-धारण करने वाले। तुरंगां-घोड़ों। कब्यंदां-कवियों। बांबराड़-जबरदस्त। ताखा-महान, जबरदस्त। निखंग-वह जो किसी का प्रभाव या रौब न मानता हो परन्तु कर्त्तव्यपरायण हो, निशंक। रीझणा-प्रसन्न होने वाले। धाड़-धन्य धन्य। महैं-में, अंदर। चरणारब्यंदां (चरणारबिंद)-कमल-चरण।

— 173 —

वारता

दूजौ सर नांमा जथा सौ गीत रा दूहां री तीन तुक में तो और वात वरणै नै च्यार ही दूहां री चौथी तुक में कहै सौ वात निभी चाहै। आगै सात सांणौरां महैं वेलियौ सांणौर गीत छै जीं महैं चरणारब्यंदां रौ नांम च्यार ही दूहां री चौथी तुक में साबत निभ्यो छै सौ देख लीज्यौ।

अथ सरजथा उदाहरण
गीत वेलियौ सांणौर
औयण जे रांम सिया नित अरचै,
सुज चरचै सिव भ्रहम सकाज।
जग अघहरण सुरसरी जांमी,
राजतणां चरणां रघुराज।।२३

वारता

तीजी सिर नांमा जथा कहावै जठै प्रमांणिक चौसर सूं लगाय ने प्रमाणीक सत सर तांई रूपग लखौ छै सौ अगाड़ी रूपग में है, सत सर सुधी सांणौर कह्यौ छै सौ देख लीज्यौ।


२३. औयण-चरण। सुज-वह। भ्रहम-ब्रह्मा। सुरसुरी-गंगा। जांमी-पिता, जनक। राजतणां-आपके, श्रीमानके। रूपग-गीत (छंद)।

— 174 —

अथ सिर नांमा जथा उदाहरण
सुद्ध सांणौर सतसर गीत
अडग तेज अणथघ सरद, ध्यान स्रुत आसती,
नीम वर कार कळ जोग तप नांम।
थिर प्रभा नीर पय यंद बुध नीत थट,
मेर रिव समंद चंद चंद भव भ्रहम रांम।।२४

अथ चौथी वरण नांम जथा कहावै।

वारता

चौथी वरण नांम जथा कहावै, जिण महै नख सूं लगाय सिख तांई, तथा सिख सूं लगाय नख तांई वरणण होवै सौ यण ग्रंथ मधे बावीस जात रा छप्पै वरण्या जठै एक तौ समवळ विधांन छप्पै देख लीज्यौ। दूजौ बावीस छप्पै में स्त्री प्रतैं विधांनीक छप्पै।

अथ वरण जथा उदाहरण
समवल़ विधान छप्पै
नयणकंज सम निपट, सुभत आंनन हिमकर सम।।२५

इत्यादि दुतीय विधांनीक छप्पै
तुक
सेस इंदु म्रग दीप, जांण कोकिल म्रगपति गज।
बेणि बदन चख नाक, बोल कटि जंघ चाल सज।।२६

वारता

पांचमी अहिगत नांम जथा कहवै, जिण गीत री आद री तुक रा आद में जो पदारथ कहै, जिण रौ संबंध तुक रा अंत में नीसरै वचै और वात वरणै सापरीगत ज्यूं रूपग रा वरणण री वक्रगति होय सौ अहिगत नांम जथा कहावै।


२४. अडग-न डिगने वाला, अटल। अणथघ-जिसका थाह न हो, अपार। स्रुत (श्रुति)-वेद। आसती-आस्तिकत्व। कार-मर्यादा, सीमा। कळ-कला (चंद्रकला)। जोग-योग। तप-तपस्या। थिर-स्थिर। प्रभा-कांति। पय-समुद्र। यंद-इन्द्र। बुध-बुद्धि। नीत-नीति। थट-है। मेर-सुमेरु पर्वत। रिव-सूर्य। समंद-समुद्र। भव-महादेव। भ्रहम-ब्रह्मा।
नोट-सिर जथा के उदाहरण का गीत सतसर अगाड़ी मय अर्थ के दिया गया है, उसे पढ़ कर पाठक समझें।

— 175 —

अथ अहिगत जथा उदाहरण
साणौर गीत
सिव देवां इंद्र सिध सिध राजां,
है ग्रह रिव, रिवचो है राज।
तरसुर सरित गंग तरराजं,
राजां सह सरहर रघुराज।।
कनक करग धातां हिम करगां
रति-पति गरुड़ खगां सारूप।
दधां विधाता दुजां खीर-दध,
भूपां सिधां जांनुकी भूप।।
गिरां हणू, रुद्रां सोव्रनगिर,
गाथां रुघ वेदां हरि गाथ।
कोटां गणं गजानन लंका,
नृपां सिरोमण सीतानाथ।।
भारथ लखण सेस अह भायां,
सुकवि दुति धारां सुकवियां डुडंद।
लिछमीवर भगतां धू लायक,
नायक जगत दासरथ नंद।।२७


२७. तरसुर-कल्प वृक्ष। सरित (सरिता)-नदी। गंग-गंगा नदी। कनक-सोना, स्वर्ण। धातां-धातुओं में। हिम-स्वर्ण, सोना। रति-पति-कामदेव। दधां (उदधियों)-समुद्रों। विधाता-ब्रह्मा। दुजां (द्विजों)-ब्राह्मणों। खीर-दध (क्षीर उदधि)-क्षीर-समुद्र। गिरां (गिरियों)-पर्वतों। हणू-हनुमान। सोब्रनगिर-स्वर्णगिरि, सुमेरु पर्वत। गाथां-कथाओं। रुघ-ऋग्वेद। गाथ-कथा। सिरोमण-शिरोमणि। दुडंद-सूर्य, भानु। दवाळा-गीत छंद के चार चरणों का समूह। जायगां-जगह, स्थान।

— 176 —

वारता

छठी आद जथा कहावै सौ पहलरा दवाळा में कहै सौ सारा दवाळा में कहणौ जिण जायगां थांणा-बंध वेलियो रूपग गीत वणै सौ इण रूपग माहै अगाड़ी जांगड़ौ प्रहास थांणा-बंध वेलियौ गीत छै सौ देख लीज्यौ। सात सांणौरां महै छै।

अथ आद जथा उदाहरण
थांणबंध वेलियौ गीत रौ दूहौ छै
गीत
सरण वखांणै जगत चित विखांणै जेम सिंध,
मौज किव वखांणै चंदनांमा।
बुध गिरा रांम हथवाह रिम वखांणै,
वखांणै काछदृढ़पणौ बांमा।।२८

वारता

सातमीं अंत नांमा जथा कहावै, जठै चौटीबंध रूपग वणै। जौ रूपग सारा में वरणन करै सौ अंतरा दवाळा में कहणौ, सौ इण ग्रंथ रै आद बावीस कवितां मध्ये चौटीबंध कवित छै सौ देख लीज्यौ, यूंहीं गीत जांणज्यौ।

अथ अंत जथा उदाहरण चौटीबंध
छप्पै
सूरजपणौ सतेज, स्रवण यम्रत हिमकर सम।।२९


२८. दूहौ-गीत छंद के चार चरण का समूह। वखांणै-वर्णन करते हैं। प्रशंसा करते हैं। सिंध-(सिंधु) समुद्र। मौज-उदारता। चंदनांमा-यश, कीर्ति। बुध-पंडित। गिरा-वाणी। हथवाह-हाथ से किया जाने वाला शस्त्र प्रहार। रिम-शत्रु। काछ-द्रढ-पणौ-जितेन्द्रियता। संयमशीलता। बांमा-स्त्री। यूंही-ऐसे ही।
२९. स्रवण-श्रवण। यत्रत-अमृत। हिमकर-चंद्रमा। सम-समान। जठै-जहां। रूपग-गीत छंद, काव्य। कहावै-कही जाती है। यण-इस।

— 177 —

वारता

आठमी सुध नांमा जथा कहावै, सौ जठै रूपग री एक राह निभै, पहला दूहा री पैहली तुक में भाव सौ च्यार ही दूहा री पहली तुक में भाव। पैल्हा री दूजी तुक में भाव सौ सारा दूहां री दूजी तुक में भाव। पैला री तीजी तुक में भाव सौ सारा दूहां री तीजी तुक में भाव। पैला री चौथी तुकमें भाव सौही दूजा दुहां री चौथी तुक में भाव होय सौ सुध जथा कहावै सौ यण रूपग में आगै घौड़ादमौ गीत छै सौ देख लीज्यौ।

अथ सुद्ध जथा उदाहरण
घोड़ादमौ गीत
राघव गह पला कीर कह पै रज,
सिला उडी जांणै जुग सारौ।
जीवन जगत कुटंब दिस जोवौ,
पग धोवौ तौ नाव पधारौ।।३०

वारता

नवमी अधिक नांमा जथा कहावै, जठै रूपग में अधिका सूं अधिकौ वरणण होवै, एक तौ फलांणा सूं फलांणौ अधिकौ यूं होय हर दूजी गणना क्रम सूं होय। एक दोय तीन च्यार पांच इत्यादिक क्रम सूं दो भांत की अधिक जथा।

अथ अधिक जथा उदाहरण
सोरठौ
रट नर अधिका राज, राजां अधिका सुर रटै।
सुरां अधिक सुरराज, अवधेसर सुरपत अधिक।।३१

वारता

दूजी यण ग्रंथ रा बावीस छप्पै मध्ये नीसरणीबंध नांम छै, छप्पै में देख लीज्यौ, अधिक क्रम छै सौ देख लीज्यौ।

नीसरणीबंध छप्पै कवित्त
एक रमा अहनिसा, दोय रवि चंद त्रिगुण दख।
च्यार वेद तत पंच, सुरत छह सपत सिंध सख।।३२


३०. गह-पकड़ कर। पला-अंचल। कीर-धीवर, नाविक। पै-चरण। जुग-संसार। सारौ-समस्त। दिस-तरफ। अधिका सूं अधिकौ-अत्यधिक। अधिकौ-अधिक। यूं-ऐसे।
३१. राज-राजा। सुर-देवता। सुरराज-इन्द्र। अवधेसर-श्री रामचंद्र महाराज। सुरपत-इन्द्र। यण-इस।
३२. सपत-सप्त, सात। सिंध-(सिंधु) समुद्र।

— 178 —

इत्यादिक अधिक जथा दुविधि
वारता

दसमी सम नांमा जथा कहावै, जिण महै अभेदसम रूपग वरणै, तथा सविसय सावयव रूपकालंकार वरणै, तथा वागेटौ, जागेटौ, नागेटौ, वादेटौ, रूपग गीत वणै सौ सम जथा कहावै। इण उदाहरण रा दूहा माफक गीत कवित्त नीसांणी छंद जांण लीज्यौ।

अथ सम जथा उदाहरण
दूहौ
अवधि गगन बाजी अयण, सयण कुमुद सुख साज।
जस कर सिय रोहिणी जुकत, रामचंद्र महराज।।३३

वारता

अठै अधिक न्यूंन ही छै। स्री रांमचंद्रजी नै हर चंद्रमा नै समांन वरण्या छै, जींसूं सम जथा जांणज्यौ।

वारता

अग्यारमी न्यूंन नांमा जथा कहावै, सौ आगै सुध नांमा आठमी जथा कही जींनै क्रम भंग कर अस्तव्यस्त कर कहणी सौ न्यून जथा जांणज्यौ। पण रूपग मध्ये घड़उथल्ल नांमा गीत छै। पैल्हा दूहा री पैली दोय तुकां रौ धरम तौ तीन दूहां में नहीं छै, हर पाछला दूहां रौ धरम आगला दूहां में नहीं जींसूं क्रम भंग छै। अस्तव्यस्त पद छै जींसूं न्यून जथा छै।

अथ न्यून जथा उदाहरण
घड़उथल्ल गीत
जम लग कठै भै सीस जियां,
तन दासरथी नित वास तियां।
तन दासरथी नह वास तियां,
जम लगसी माथै जोर जियां।।३४

इति ग्यारह जथा संपूरण


३३. जिण-जिस। महै-में। अभेदसम रूपग-अभेदसम रूपकालंकार। सावयव रूपकालंकार-रूपकालंकार का एक भेद विशेष। सयण-सज्जन। सिय-सीता। जुकत-युक्त। हर-और। जींसूं-जिससे।
३४. कठ-कहां। भै-डर, भय। माथै-ऊपर। जियां-जिनके।

— 179 —

अथ गीतां का एकादस दोख निरूपण
छप्पै कवित्त
उकतसु सनमुख आदि निभै नह जिकौ अंध
निज वरणै भाख विरोध सही छबकाळ दोख सुज ।।
नह व्है जात पित नांम हीण दोखण सौ कहिये
वरण होय विसुध निनंग दोखण ते नहिये ।।
पद छंद भंग सौ पांगळौ अधिक ओछ कळ ऊचरै।
वेलिया खुड़द विच जांगड़ौ वणै सजात विरुद्ध रे ।।

अरथ होय आमूंझ अपस सौ दोख उचारत।
जथा निभै नह जेण नाळछेदक निरधारत।।
तिकौ दोख पख तूट जोड़ कच्ची जिण मांझळ।
सुभ आखर मुड़ असुभ लखावै वधिर १० जिकौ वळ।।
यक आद अंत वाळौ अखिर करै अमंगळ ११ सोमकर।
अगीयार दोख कवि आखिया अे निवार रूपग ऊचर।।३५

अथ अंधादिक एकादस दोख उदाहरण कथन
छप्पै कवित्त
कहियौ मैं के कहूं किसूं अंधौ तैं कहियौ।
लिता पांन धनंख रांम छबकाळौ लहियौ।।
जेव अजेव जग ईस निमौ तैं हीण दोख निज।
रत नदीतरत कबंध सार इम चली निनंग सुज।।
कवि छंदोभंग पंग कह तुक धुर लछण तोर में।
जात विरुध जांगड़ा रौ दूहौ वणै लघू सांणोर में।।३६


३५. निभै-निभता है। जिकौ-वह। अंध-एक साहित्यिक दोष का नाम। भाख-भाषा। छबकाळ-एक साहित्यिक दोष का नाम। सुज-वह। पित-पिता। हीण दोखण-एक साहित्यिक दोष का नाम। निनंग-एक साहित्यिक दोष का नाम। पांगळौ-एक साहित्यिक दोष का नाम। ओछ-कम। कळ-मात्रा। आमूंझ-वह जो कठिनता से समझ में आवे। अपस-एक साहित्यिक दोष का नाम। नाळ छेदक-एक साहित्यिक दोष का नाम। तिकौ-वह। पखतूट-एक साहित्यिक दोष का नाम। जोड़-काव्यरचना। मांझळ-मध्य में। वधिर-एक साहित्यिक दोष का नाम। वळ-फिर। अमंगळ-एक साहित्यिक दोष का नाम।
३६. छबकाळौ-छबकाळ, दोष का एक नाम। पंग-पांगळा नामक एक साहित्यिक दोष का नाम।

— 180 —

विस्णु नांम कुळ विस्ण विस्णु सुत मित्र अपस वद।
कच अहिमुख ससि लंक स्यंघ कुच कोक नाळ छिद।।
मनख्या मत विललाय गाय प्रभुजी पख तूटल।
रांमण हणियौ रांम गूह खाधौ तारक खळ।।
यण भांत कहै बहरौ यळा महपत में पय रांम रे।
तुक एण अमंगळ आद अंत कवियण विध गुण नह करे।।३७

अथ ग्यारह दोख छप्पै अरथ

कहियो में अती सन्मुखादिक नव उक्ति कही ज्यां महली एक ही उक्ति रौ रूप निभै नहीं, उक्ति री ठीक पड़ै नहीं सौ अंध दोख। कहियौ मैं के कहूं किसूं, अठे कवि वचन छै के कोई और वचन छै, कै देव नर नाग वचन छै कै मांनसी विचार छै, अठै बचन री खबर नहीं, संदेह छै, उक्ति रौ रूप रुळियौ छै। सनमुख छै कै परमुख छै, के परामुख छै, कै स्रीमुख छै, कै गरभित छै, कै मिस्रित छै। अठै कांई निस्चय नहीं जिणसूं अंध दोख छै।

भाखा बिरुद्ध सौ छबकाळ दूखण कहावै। लिता, पांन, धनंख रांम। लिता पंजाबी भाखा छै। पांन ब्रज भाखा छै। रांम देस भाखा। अठै तीन भाखा सांमल, जिणसूं छबकाळ दोख छै।

जातरौ पितारौ मुदौ जाहर न होवै सौ हीण दोख कहावै। अज अजेव जगईस नमौ। अठै अज सिव ने कह्यौ के विस्णु नै, दोई अजैव दोई जगत रा ईस छै, यां दोयांई रै जात किसो नै मा बाप किसा, फेर अजन्मा रै मा बाप रौ लेखौ कांई ठीक नहीं, नांमरी पण ठीक नहीं। जिण ताबै हीण दोख हुवौ।


३७. नाळ छिद-नाळ छेद नामक साहित्यिक दोष का नाम। पख-तूटळ-वह जिसका पक्ष खंडित हो-एक साहित्यिक दोष का नाम। खाधौ-ध्वंश किया, मारा। तारक-तारकासुर नामक राक्षस। बहरौ-एक साहित्यिक दोष का नाम।
१. ज्यां-जिन। महली-अन्दर की। ठीक-ज्ञान, पता। कै-या, अथवा। मांनसी-मनुष्य सम्बन्धी। रुळियौ-नष्ट हुआ।
२. दूखण-दोष। सांमल-साथ।

— 181 —

बिना ठिकांणै विकळ वरणण होय सौ निनंग दोख तथा नग्न दोख। पैली कहवा री वात पछै वरणै, पछै वरणवा री वात पहली वरणै सौ विकळ वरणण वाजै ज्यूं अठै रत नद तिरत कबंध सार इम चली। पैहली तरवार चालै जद लोही आवै, जद नदी वहै, अठै पैहली लोही री नदी वरणी, फिर कबंध वरण्या, जठा पछै तरवार चली कही, ठिकांणाचूक वरणण छै, जींसूं निनंग दोख हुवौ।

छंद भागै सौ छंदभंग, पांगुळौ दोख कहावै। तुक कवि छंदोभंग कह, इण तुक में एक मात्रा घाट छै। गगा कका विचै ससौ चाहीजै, छप्पै री नवमी तुक रै तथा पांचमी तुक रै पूरबारध में पनरै मात्रा चाहीजै सौ अठै चवदै मात्रा छै। एक मात्रा कम छै। छंद भागौ जींसूं छंदभंग पांगळौ दोख हुवौ।

जात विरोध सौ लघु सांणौर मही गीत ४ वेलियौ सुहणौ खुड़द भेद भेळा होवै पिण जांगड़ौ भेळौ न हुवै। जांगड़ा रौ दूहौ वणै सौ जात विरोध (दोख) हुवौ।

जठै अमूझ्यौ अरथ होय दस्टकूट गूढा ज्यूं क्लिस्टारथ ज्यूं महाकस्ट सूं अरथ होय सौ अपस दोख कहावे ज्यूं विस्णु नांम कुळ विस्णु विस्णु सुत मित्र। इति विस्णु कौ नांम हरी नैं हरी नांम सूरज कौ जींसूं सूरज का वंस का रामचंद्र सूरज छै। फेर विस्णु को हरी नांम नै हरी नांम सूरज को जींसूं सूरज का सुत सुग्रीव का मित्र स्री रांमचंद्र इसी तरै महाकस्ट सूं अरथ होय सौ अपस दोख कहावै।

जीं रूपग में विधांनीक आदि नव जथा नहीं निभै सौ नाळ छेद नांम दोख कहावै, कच अहि मुख ससि स्यंघ लंक कुच कोक नाळ छिद, चोटी कही मुख कह्यौ कमर कही नै पछै कुच कह्या, जींसूं क्रम भंग हुवौ, चौथी वरण नांमा जथा जठै सिख नख कै वरणण होय सौ अठै निभी नहीं। जींसूं नाळ छेद दोख हुवौ।

जिण रूपग में पतळी जोड़ होय सौ पख तूट दोख कहावै, मनख्या मत विललाय गाय प्रभूजी पख तूटल। अरथ मनख्या पद कची जोड़ ग्रांमीण विलोवड़ी, विललाय चौपद। गायक चौपद प्रभूजी प्रभूपद ठीक पिण जीकारा सूं यौ पण कचौ। इसी कची पतळी जोड़ जीं रूपग में होय सौ पख तूट दोख कहावै।

सुभवायक है, सौ मुड़ नै पाछौ असुभ मालम हुवै सौ बहरौ दोख कहावै। रांमण हणियौ रांम, गूह खाधौ तारक खळ, हणियौ पद रांम रावण सब्द विचै छै सौ दुवांसूं अरथ लागे छै, रांम हणै या रामण हणै। रांम रांमण नै हण्यौ के रामण राम नै हण्यौ, निरधार नहीं, तारकासुर दैत नै, गूह नांम स्वांमी कारतिक रौ छै सौ तारक खळ दुस्ट नै स्वांमी कारतिक खाधौ। जुध में विनास कियौ अरथ छै, जींकौ सुभपणौ मुड़ै नै असुभ अरथ मालम होवै छै। गूह खाधौ इसौ ग्लांण सब्दारथ असुभ भासै छ जींसूं बहरौ दोख छै, तथा कोई कवि सींगमंड पिण इण दोखनै कहै छै। १०

रूपगरी आदरी तुकरौ आद अखिर नै रूपग सूं पूरण होय जिण अंत री तुक रौ अंत रौ अखिर मिळायां असुभ अरथ प्रगटै सौ अमंगळ दोख कहावै छै। ज्यूं महपत में पय रांम रै। अण तुक रौ आद रौ मकार अंत रौ रैकार भेळा कियां मरै। यसौ असुभ सब्द भासै छै जिणसूं अमंगळ नांम दोख हुवौ। ११

इति एकादस प्रकार दोख संपूरण।


३. मुदौ-ज्ञान। दोयांई-दोनों ही।
४. ठिकांणौ-स्थान।
५. घाट-कम।
७. अमूझ्यौअरथ-कविता या गद्य का वह अर्थ जो आसानी से समझ में न आ सके, दृष्टकूट अर्थ। द्रस्टकूट-दृष्टकूट। क्लिस्टारथ-क्लिष्टार्थ।
८. जीं-जिस। रूपग-गीत छंद या काव्य।

— 182 —

अथ नीसांणी त्रिविधि वैण सगाई नांम लछण उदाहरण

दूहौ
वयण सगाई तीन विधि, आद मध्य तुक अंत।
मध्य मेल हरि मह महण, तारण दास अनंत।।३८

वारता

दूहा री पैहली री दोय तुकां में तुक रा आद अखिर रौ तुकंत रा आद अखिर सूं संबंध जिणसूं वैण सगाई हुई। १। सौ यधक कहीजै। दूहा री तीजी तुक में मध्य मेळ वयण सगाई हुई सौ समवैण सगाई। २। दुहा री चौथी तुक में अंत वयण सगाई, सौ न्यून वैण सगाई। ३। आद रौ अखिर तुकंत रा अखिर हेठै आवै सौ तौ उतिम वैण सगाई। १। आद रौ अखिर तुकंत रा दोय अखिरां हेठै आवै सौ मध्यम वैण सगाई हुवे। २। आद रौ अखिर तुकंत रा तीन अख्यरां नीचे आवै सौ मध्यम वैण सगाई हुई। ३। नै आद रौ अखिर तुकंत रा च्यार अखिरां हेठै आवै सौ अधमाधम वैण सगाई कहीजै। ४। अठा सवाय सौ निकमी सिथळ वयण छै।


१०. दुवां-दोनों। हण्यौ-मारा, संहार किया। खाधौ-भक्षण किया, ध्वंश किया। निरधार-निश्चय। ग्लांण-ग्लानी।
३८. महमहण (विष्णु)-ईश्वर। यधक-अधिक। अखिर-अक्षर। हेठै-नीचे। उतिम-उत्तम, श्रेष्ठ। वयण-वर्ण मैत्री, वयण सगाई।

— 183 —

अथ उतिम मध्यम अधिम धमाधम च्यार प्रकार वैण सगाई उदाहरण
सोरठौ
लेणा देणा लंक, भुजडंड राघव भामणै।
आपायत अणसंक, सूर दता दसरथ तणा।।३९

वारता

पैली तुक में उतिम। १। दूजी तुक में मध्यम। २। तीजी तुक में अध्यम। ३। चौथी तुक में अधमाधम। ४। अै च्यार वैण सगाई। तीन आगै कही इण प्रकार सात वैण सगाई कही। पैला दूहा में आद वैण सगाई कही सौ नै दूजा दूहा में उतिम वैण सगाई कही सौ एक गिणां तौ छ भेद नै जुदी दोय गिणां तौ सात भेद छै। इण प्रकार वैण सगाई समझ लीज्यौ।

अथ सावरणी अखिरां री अखरोट वैण सगाई वरणण
नीसांणी
आ ई उ ए य व यता मित वरण मुणीजै।
ज झ ब व प फ न ण ग घ बि ब ह अै मित्र अखीजै।
त ट ध ठ द ड च छ सुकवते गत जुगम गिणीजै।
अकाराद जुग जुग अखर अखरोट अखीजै।
अधिक अनै सम न्यूंन ऐ त्रहुं भेद तवीजै।।४०

उदाहरण
आद अखिर सौ अंत में खुल अधिक सखीजैं।
अधिक खुलै तद बे अधिक सम तिकौ सहीजै।
ज झ ब वाद १ क्रम २ न्यूं न अै अछरोट कहीजै।।४१


३९. भांमणै-बलैया, न्यौछावर। आपायत-शक्तिशाली, समर्थ। अणसंक-निर्भय, निशंक। दता-दातार। तणा (तनय)-पुत्र। तुक-पद्य का चरण।
४०. सावरणी-सवर्ण। अखरोट-राजस्थानी (डिंगल) साहित्य में वयण सगाई का ही एक भेद जहाँ पर मित्र वर्ण से या जुगम (युग्म) अक्षर का युग्म अक्षर में यथास्थान मेल हो। अखिरां री-अक्षरों की। यता-इतने। मित-मित्र। वरण (वर्ण)-अक्षर। मुणीजै-कहे जाते हैं। अखीज-कहे जाते हैं। जुगम (युग्म)-दो, जोड़ा। गिणीजै-गिने जाते हैं। जुग (युग)-दो। अखीज-कहे जाते हैं। अनै-और। तवीजै-कहे जाते हैं।
४१. सखीजै-साक्षी दी जाती है। अछरोट-अखरोट।

— 184 —

अथ अकारादिक वकारांत अधिक मित्र अखरोट उदाहरण
दूहौ
अवधि नगर रै ईस रा, एहा हाथ उदार।
यण सरणागत वासतै, दीध लंक सुदतार।।४२

सम अखरोट उदाहरण कवित्त
जस कज करै झळूस वाज गजराज वडाळा।
पह दे पीठ अफेर गहर रघुनाथ सिघाळा।।
नृपत रूप मघवांण,

अथ न्यून अखरोट।

तसां वरसण द्रब अट्टळ।
धमचा कां ढींचाळ डौळ खग झाट लखां दळ।।
चौरंग उरस चाचर छिबै हर अज पूरण हूंस रौ।
महाराज रांम सम महपती दांन खाग कुण दूसरौ।।४३

अरथ

पैला दूहा में तौ वैण सगाई। आाद मध्य तुकांत तीन कही ज्यांनै हीज अधिक सम न्यूंन जांणजै। १। दूजा दूहा में उतम मध्यमादिक च्यार प्रकार कही। २। फेर नीसांणी में सावरणी अख्यरां री अखरोट कही सौ पैला दुहा में तौ अकारादि वकारांत कही सौ अधिक। पछै कवित री पांच तुकां में जकारादि णकारांत सम अखरोट कही, फेर छप्पै री च्यार तुक में तकारादि छकारांत न्यूंन वरण मित्र तथा वैण सगाई, तथा अखरोट कही सौ समझ लीज्यौ। दस प्रकार छै-आद १ मध्य २ अंत ३ उतिम ४ मध्यम ५ अध्यम ६ अधमाधम ७ अधिक ८ सम ९ न्यूंन १०।

इति दस वैण सगाई वरणण।


४३. झळूस-जलसा। वाज-घोड़ा। गजराज-हाथी। वडाळा-बड़ा। पह (प्रभु)-राजा। गहर-गंभीर। सिघाळा-श्रेष्ठ। मघवांण-इन्द्र। तसां-हाथों। वरसण-वर्षा करने वाला, दान देने वाला। अट्टळ-निरंतर। ढींचाळ-हाथी। चौरंग-युद्ध। उरस-आसमान। चाचर-शिर। हर-महादेव। अज-ब्रह्मा। हूंस-अभिलाषा। ज्यांनै-जिनको। होज-ही।

— 185 —

अथ गीतां का नांम निरूपण
दूहौ
पढ वसंतरमणी १ प्रथम, मुण जयवंत २ मुणाळ ३।
आदगीत त्रय अक्खिया, खगपत अगै फुणाळ।।४४

पुनरपि सात सांणौर का नांम कथन
छप्पै
सुध १ वडौ सांणौर २ समझ दूसरौ प्रहासह ३।
वळ तीजौ वेलियौ खुड़द चौथौ सर रासह ५।।
सुज पंचम सूंहणौ छठौ जांगड़ा सुछज्जत ६।
सोरठियो सातमौ ७ विहद मुखक्रत वज्जत।।
त्रय दुहै मांझ छपय सपत आद गीत ग्रह अखीया।
न मिळै गीत यांसुं अवस भांत नदी दध भखीया।।४५

अन्य प्रकार गीत नांम कथन
दूहौ
सांणौरां सूं गीत के, अन छंदां होय।
बेछंदां मिळ गीत के, वरणूं नांम सकोय।।४६

अथ पुनरपि गीत नांम कथन
छंद बेअख्यरी
स्री गणराज सारदा सुखकर।
बगसौ सुमत रांम सीताबर।।
पिंगळ नाग क्रपा जौ पाऊं।
गीत नांम दीठा जूं गाऊं।।
गीत अपार अगम जग गावै।
दीठा जेण जिता दरसावै।।४७


४४. निरूपण-निर्णय, विचार। मुण-कह। अक्खिया-कहे। खगपत-गरुड़। फुणाळ-शेषनाग।
४५. वळ-फिर। सुज-फिर। सुहणौ-सोहणौ नामक गीत छंद। सुछज्जत-शोभा देता है। अह-शेषनाग। अखीया-कहे। अन-अन्य। यांसूं-इनसे। अवस-अवश्य। दध (उदधि)-समुद्र। भखीया-कहे।
४६. सकोय-सब।
४७ गणराज-श्री गणेश। सारदा-सरस्वती। बगसौ-प्रदान करो, दो। सुमत (सुमति)-श्रेष्ठ मति, सुबुद्धि। पिंगळ नाग-शेषनाग। दीठा-देखे। जूं-जैसे। गाऊं-वर्णन करूं।

— 186 —

अथ फेर गीतां का नांम कथन
छंद बेअख्यरी
विधांनीक १ पाडगती २ त्रेवड ३।
वंकौ ४ त्रबंकड़ौ ५ सुकवी धड़।।
चौटी-बंध ६ मुगट ७ दौढौ ८ चव।
सावझड़ौ ९ हंसावळ १० सूत्रव ११।।
गजगत १२ त्रिकुटबंध १३ मुड़ियल १४ गण।
तिरभंगौ १५ एक अखर १६ भांण १७ तण।।
भण अड़ीयल १८ झमाळ १९ भुजंगी २०।
चौसर २१ त्रिसर २२ रेणखर २३ रंगी २४।।
अट्ठ २५ दुअट्ठ २६ बंधअहि २७ अक्खव।
सुपंखरौ २८ सेलार २९ प्रौढ ३० तव।।
विडकंठ ३१ सीहलोर ३२ सालूरह ३३।
भमर-गुंज ३४ पालवणी ३५ भूरह ३६।।
घणकंठ ३७ सीह ३८ वगा उमंगह ३९।
दूणौगोख ४० गोख ४१ परसंगह।।
प्रगट दुमेळ ४२ गाहणी ४३ दीपक ४४।
सांणोरह ४५ संगीत ४६ कहै सक ४७।।
सीहचलौ ४८ अर अहरनखेड़ी ४९।
भणिया नाग गरुड़ सांभेड़ी।।


— 187 —

ढोलचाळौ ५० धड़उथल ५१ रसखर ५२।
चितविलास ५३ कैवार ५४ सहुचर।।
हिरणझंप ५५ घोड़ा दम ५६ मुड़ियल ५७।
पढ लहचाळ ५८ भाखड़ी ५९ अणपल।।
वळै हेकरिण ६० धमळ ६१ वखांणां।
पढ काछौ ६२ गजगत ६३ परमांणां।।
भाख ६४ गीत फिर अरधभाख ६५ भण।
मांगण जाळीबंध ६६ रूपक मुण।।
कहै सवायौ ६७ सालूरह ६८ किव।
त्रीबंकौ ६९ धमाळ ७० फेर तव।।
सातखणौ ७१ ऊमंग ७२ इकअखर ७३।
यक अमेळ ७४ बे गूंजस ७५ भमर ७६।।
कवि चौटियौ ७७ मंदार ७८ लुपतझड़ ७९।
त्रीपंखौ ८० व्रध ८१ लघू ८२ सावझड़ ८३।।
दुतिय झड़मुकट ८४ दुतिय सेलारह ८५।
त्राटको ८६ मनमोह ८७ विचारह।।
ललितमुकट ८८ मुकताग्रह ८९ लेखौ।
पंखाळौ ९० अै गीत परेखौ।।
वसंतरमण ९१ आद कव वतावै।
गीत निनांण नांम गिणावै।।
सुणिया दीठा जिके सखीजै।
विणा दीठा किण भांत वदीजै।।
रांम सुजस भणतां रघुराई।
देसी असुधां सुध दिखाई।।४८


— 188 —

अथ गीत वरण्या तत्रादि वसंतरमणी नांमा गीत लछण
दूहौ
आद पाय उगणीस मत, बीजी सोळ वखांण।
अंत भगण जिण गीतनूं, वसंतरमणि बखांण।।४९

अथ गीत वसंतरमणी नांम सावझड़ौ उदाहरण
गीत
कर कर आद में हिक नगण सुभंकर।
धुर उगणीस मत्त नहचै धर।।
बे लघु होय तुकंत बराबर।
सुसबद रांम कहै मझ सुंदर।।
गीत वसंत रमण किव गावत।
सोळह पद-प्रत मात सुभावत।।
पात जकौ जग सोभा पावत।
रच सावझड़ौ रांम रिझावत।।
मांझ रदा भासै कौसत-मण।
भुज आजांन आसुरां भांजण।।
वण भ्रगु लात उवर विसतीरण।
तण दासरथ धनौ जन तारण।।
साझै पय बंदगी सुरेसर।
जस प्रभणै अह सिंभ दुजेसर।।
‘किसन’ कहै कर जोड़ कवेसर।
नमौ रांम रघुवंस नरेसर।।५०


५०. हिक-एक। सुभंकर-श्रेष्ठ। धुर-प्रथम, प्रारम्भ में। मत्त-मात्रा, कला। नहचै-निश्चय। सुसबद-यश, कीर्ति। मझ-मध्य में। किव-कवि। गावत-वर्णन करता है। पद-प्रत-प्रतिपद, चरण। सुभावत-सुन्दर लगती है। जकौ-वह जो। सोभा-कीर्ति। पावत-प्राप्त करता है। रिझावत-प्रसन्न करता है। कौसत-मण (कौस्तुभमणि)-पुराणानुसार एक रत्न जो समुद्र मंथन के समय मिला था और जिसको विष्णु अपने वक्ष-स्थल पर धारण करते हैं। आसुर-असुर राक्षस। भांजण-नाश करने को, नाश करने वाला। तण (तनय)-पुत्र। धनौ-धन्य-धन्य। जन-भक्त। तारण-उद्धार करने वाला। साझै-करते हैं। पय-चरण। बंदगी-सेवा, टहल। सुरेसर-इन्द्र। प्रभणै-वर्णन करते हैं। अह-शेषनाग। सिंभ-शंभु महादेव। दुजेसर-द्विजेश्वर, महर्षि। कवेसर-कवीश्वर।

— 189 —

अथ मुणाळ नांम गीत सावझड़ौ लछण
दूहौ
आद चरण अट्ठार मत, सोळह अवर सचाळ।
जांण सगण तुक अंत जिण, मुण सौ गीत मुखाळ।।५१

अथ मुणाल़ नांम गीत उदाहरण
धैधींगर कदम आवळा धरतौ।
झड़ वरसात जेम मद झरतौ।।
सुज आयौ जळ पीवण सरतौ।
करणी जूथ बीच सुख करतौ
मैंगळ कुटंब सहत उनमतरे।
आब हिलोळ चोळ की अतरै।।
धूंम सुणै चख आग धकतरै।
जाजुळ ग्राह जागीयौ जतरै।।
चख मिळ बिहूं हुवौ चख-चड़बौ।
जोम अथाग जाग उर जुड़बौ।।


५१. आद-आदि प्रथम। अट्ठार-अठारह। मत-मात्रा। अवर-अपर, अन्य। जिण-जिस। मुण-कह।
५२. धैधींगर-हाथी। आवळा-विकट। धरतौ-चरण रखता हुआ। झड़-छोटी-छोटी बूंद की निरंतर होने वाली वर्षा। जेम-जैसे। झरतौ-टपकता हुआ, श्रवता हुआ। सुज-वह। सरतौ (सरिता)-नदी। करणी-हथनी। जूथ-यूथ, झुण्ड। करतौ-करता हुआ। मैंगळ-हाथी। सहत-सहित। उनमत-उन्मत्त, मस्त। आब-जल। हिलोळ-विलोड़ित कर। चोळ-क्रीड़ा। अतरै-इतने में। धूम-कोलाहल। चख (चक्षु)-नेत्र। आग-अग्नि। धकतरै-प्रज्वलित होते हैं। जाजुळ-भयंकर। जतरै-जितने में। बिहूं-दोनों। चख-चड़बौ-कोप से लाल नेत्र। जोम-जोश, आवेग। अथाग-अपार। जुड़बौ-भिड़ना, टक्कर लेना।

— 190 —

बिहुंवां नह सूधौ बाहुड़बौ।
भारथ हुवौ ग्राह गज भड़बौ।।
कर प्रब सहंस बरस भारथ कौ।
जोर टूट बीछड़बौ जुथ कौ।।
सुज बळ बध जळ ग्राह समथकौ।
थळचारी जिण हूं गज विथको।।
चौवळ ग्राह तंत गज चरणां।
जकड़ डबोवण खंच जबरणां।।
बे आंगुळ जळ सूंड उबरणा।
करी करी हरिहूंता करणा।।
दीन पुकार स्रवण सुण हसती।
तज कमळा पाळा करत सती।।
आतुर चक्र ग्राह हण असती।
हरि ग्रह हाथ तारियौ हसती।।
असरण दीन दुखित ऊपररौ।
धू धारण झेलौ गिरधर रौ।।
कीजंतां ऊपर निज कर रौ।
विरद हुवै जुग जुग रघुबर रौ।।५२


५२. बिहुवां-दोनों। सूधौ-सीधा। बाहुड़बौ-वापिस मुड़ना, वापिस आना या होना। भारथ-युद्ध। भड़बौ-टक्कर, टक्कर लेना। प्रब-पर्व। बीछड़बौ-दूर होना। जथ (यूथ)-झुण्ड। समथ-समर्थ। थळचारी-स्थलचारी। जिण-जिस। हूं-से। विथकौ-व्यथा-पूर्ण, पीड़ित, दुखी। चौवळ-चारों ओर। तंत-तंतु। जकड़-बांध कर। डबोवण-डुबाने को। खंच-खींच कर। जबरणां-जबरदस्ती से, बलात्। बे (द्वे)-दो। आंगुळ-उंगली। उबरणा-बची। करी-हाथी। करी-की। हरिहूंता-ईश्वर से। करणा (करुणा)-आर्त, पुकार। दीन-श्रार्त, करुणापूर्ण। स्रवण-कान। हसती-हाथी की। कमळा-लक्ष्मी। पाळा-पैदल। आतुर-तेज। हण-मार कर। असती-दुष्ट। धू-धारण-निश्चय। झेलौ-सहारा, मदद।

— 191 —

दूहौ
धुर उगणीसह कळहधर, अन तुक सोळह ठाह।
गण जिण अंतह करण गण, सौ जयवंत सराह।।५३

अथ गीत जयवंत सावझड़ौ उदाहरण
गीत
तीकम पाळगर जन देवतरौ सौ।
रात दिनां मुख नांम ररौ सौ।।
समण त्रास कीनास सरौ सौ।
भारी राघवतणौ भरोसौ।।
जोय ग्रीध कपि कारजि सारै।
दे द्रग सवरी गौहद सारै।।
थूं विसवास राख मन थारै।
सांमळियौ जन नौज विसारै।।
गाढौ प्रसन रहै जस गायां।
बाधारै ईजत बिरदायां।।
ऊगै नहीं अरक दिन आयां।
सीताबर भूलै सरणायां।।
पर प्रहळादतणी प्रतपाळी।
वळ धू अखी कियौ वनमाळी।।
तीकम करै तीसरी ताळी।
वाहर नाथ अनाथां वाळी।।५४


५३. धुर-प्रथम। उगणीसह-उन्नीस। कळह-मात्रा, कला। अन-अन्य दूसरी। ठाह-रख। करण-दो दीर्घ मात्रा का नाम। सराह-प्रशंसा कर।
५४. तीकम (त्रिविक्रम)-विष्णु, ईश्वर। पाळगर-पालनकर्ता। जन-भक्त। देवतरौ-देवता का। ररौ-र अक्षर जो राम नाम में प्रथम आता है। भारी-बड़ा, महान। राघवतणौ-रामचंद्रका। भरोसौ-विश्वास। सवरी-भिल्लनी। गौहद-गुह नामक निषादराज जो राम का भक्त था। थूं-तू। विसवास-विश्वास। थारै-तेरे। सामळियौ-श्रीकृष्ण। नौज-नहीं। विसारै-भूलता है, विस्मरण करता है। गाढौ-गहरा, पूर्ण। प्रसन-प्रसन्न, खुश। अरक (अर्क)-सूर्य। सीताबर-श्रीरामचंद्र। सरणायां-शरण में आए हुए, भक्त। पर-प्रण, प्रतिष्ठा, मान, इज्जत। प्रहळादतणी-भक्त प्रह्लाद की। प्रतपाळी-पालन की, निभाई। वळ-दैत्यराज वलि। धू-भक्त ध्रुव। अखी-अमर। वनमाळी-श्रीकृष्ण। तीकम (त्रिविक्रम)-श्रीकृष्ण, विष्णु। वाहर-रक्षा।

— 192 —

अथ बड़ा सांणौर आद सप्त गीत निरूपण
अथ गीत बड़ा सांणौर लछण
चौपई
धुर तुक कळ तेवीसह धार, विखम वीस सम सतर विचार।
लघु गुरु मोहर क दु गुरु मिळाय, सौ प्रहास सांणौर सुभाय।।५५
वीस विखम तुक सम दस आठ, पात गुरु लघु मोहरै पाठ।
समझ सुध सांणौर सकोय, जिण मोहरै गुरु लघु कवि जोय।।५६
सुज मिळ सुध प्रहास सुजांण, वडौ जिकौ सांणौर वखांण।।५७

वारता

कठे’क लघु तुकंत दवाळौ कठे’क गुरु तुकंत दवाळौ आवै। सुद्ध नै प्रहास सांणोर रा दवाळा भेळा आवै सौ वडौ सांणोर कहावै।

अथ गीत वडौ सांणौर उदाहरण
गीत
करी चूर कुळ सुभावहूंत सादूळ कह,
विधु नखित्र सोभ भरपूर वरसै।
कमळ-भवहूंत कहजै दूजां नूर कुळ,
सूर कुळ दासरथहूंत सरसै।।


५५. निरूपण-विवेचन, निर्णय, विचार। धुर-प्रथम, पहिले। तुक-पद्य का चरण। कळ-मात्रा। तेवीसह-२३। धार-रख। विखम-विषम। सतर-सतरह।
५६. मोहरै-पद्य के द्वितीय और चतुर्थ चरणों के अंतिम अक्षरों का मेल।
५७. सकोय-सब। कठे’क-कहीं।
५८. करी-हाथी। चूर-ध्वंश, नाश। सार्दूळ (सार्दूल)-सिंह। विधु-चंद्रमा। नखित्र-नक्षत्र। सोभ-कांति, दीप्ति। कमळ-भवहूंत-ब्रह्मा से। दूजां (द्विजां)-ब्राह्मणों। सूर कुळ-सूर्यवंश, वीर पुरुषों का वंश। दासरथहूँत-श्रीरामचंद्र से। सरसै-शोभा पाता है।

— 193 —

सिधां-सुत गंग अणभंग साहसीयां,
सुज अजन सिधा यर नसियां साथ।
हर दियै आब थट सिधां आहंसियां,
निपट रवि-वंसियां आब रघुनाथ।।
सह तरां रूप कळविरछ अखै सकळ,
थरू दुत मेर सिखरां अथाघौ।
नगां आकरतणौ रूपहर मणी निज,
रूप कुळ दिवाकरतणौ राघौ।।
सुरा-सुर नाग नर अडग राखण सरण,
धरण धानंख दुखहरण सुख-धांम।
सूर कु हेळक दुत करण अचरज किसूं,
राज त्रिभुवण प्रभा करण रघु-रांम।।५८

अथ सुद्ध सांणौर गीत लछण
दूहा
तेवीसह मत पहल तुक, बी अठार ती बीस।
चौथी तुक अठार चव, लघु गुरु अंत लहीस।।५९
बीस अठारह क्रम अवर, दूहां मांझळ दाख।
गीत सुध सांणौर गण, सौ अह-पिंगळ साख।।६०


५८. निपट-बहुत, अधिक। आब-कांति, दीप्ति। सह-सब। तरां-तरुओं, वृक्षों। कळविरछ-कल्पवृक्ष। अखै-कहते हैं। सकळ-सब। मेर-सुमेरु पर्वत। अथाघौ-वह जिसकी सीमा का थाह न हो, बहुत, बहुत ऊंचा। दिवाकरतणौ-सूर्य का भानु का। राघौ-श्रीरामचंद्र भगवान। अचरज-आश्चर्य। प्रभा-कांति, दीप्ति।
५९. मत-मात्रा। पहल-प्रथम। बी (द्वि)-दूसरी। ती-तीसरी। चव-कह।
६०. दूहां-गीत छंद के चार चरणों का समूह। मांझळ-मध्य में। दाख-कह। अह-पिंगळ-शेषनाग। साख-साक्षी।

— 194 —

वारता

सुध साणौर रै पैली तुक मात्रा २३, तुक दूजी मात्रा १९, तुक तीजी मात्रा बीस, तुक चौथी मात्रा १८, पछै दूजा साराई दूहां री पैली तुक मात्रा बीस, दूजी तुक मात्रा १८ होवै।

गीत सुध सांणौर उदाहरण (गीत जात सतसर)
गीत
अडग तेज अणथघ सरद ध्यांन स्रुति आसती,
नीम वर कार कळ जोग जप नांम।
थिर प्रभा नीर पय यंद बुध नीत थट,
मेर रिव समंद चंद भव भ्रहम रांम।।
भूमंडळ पाज नभ सिखर पुर उवर भव,
गुरत दुत गहर मुद कोप छिब गाथ।
रिख रिखी रिख उदध भ्रिहम कज दासरथ,
नाग खग दध हरी हर बिरंचनाथ।।
देव चक्र हंस दध सिद्ध दुज जन अनंद,
स्रंग ग्रह कंभ गण विप्र अवनीस।
सद्रढ आतप अथग हेम सिध मेघ सत,
अद्र हरि सिंध निसय सिव दुहित ईस।।
विवुध कंज मीन तर भूप जग सेवगा,
अभै मुद सुख अनंद वर अखय आथ।
हेम गिर भांण दध चंद स्रब भ्रहम,
हूं निज जनां पाळगर अधिक रघुनाथ।।६१

अथ अरथ

सुध सांणौर गीत रै आद री तुक मात्रा २३ तेवीस होवे। तुक दूजी मात्रा १८ अठारै होवै। तुक तीजी मात्रा २० बीस होवे। तुक चौथी मात्रा १८ अठारै होवे। गीत के अंत में लघु होवै, और दूहां मात्रा पैली तुक की मात्रा २०, तुक दूजी मात्रा १८, तुक तीजी मात्रा २०, तुक चौथी मात्रा १८ ईं प्रकार होवै सौ सुध सांणौर गीत कहीजै। यो गीत कौ संचौ अब गीत की सतसर जात छै जींसूं अरथ लखां छां।


६१. सतसर-वड़ौ सांणौर, प्रहास सांणौर आदि गीतों की संज्ञा विशेष। हूं-से।

— 195 —

पहला दूहा कौ अरथ
सुमेर १। सूर्य २। समुद्र ३। चंद्रमा ४। सिव ५। ब्रहमा ६। हर सातमा। श्रीरामचंद्र १। सुमेर कौ अडगपणौ १। सूर्य कौ सतेजपणौ २। समुद्र कौ अथगपणौ ३। चंद्रमा कौ सीतळपणौ ४। सिव कौ ध्यांनपणौ ५। ब्रहमां कौ वेद-धारणपणौ ६। श्रीरामचंद्र कौ आस्तीकपणौ ७। १ सुमेर की नीम द्रढ। सुरज कौ वर द्रढ। समंद की कार द्रढ। चंद्रमा की कळा द्रढ। सिव कौ जोग द्रढ। ब्रहमा कौ तप द्रढ। रांमचंद्र कौ नांम नहचळ २। सुमेर २। सुमर थिरपणां नै धारण करै। सूर्य प्रभा नै धारै। समुद्र जळ नै धारै। चंद्रमा अम्रत धारै। सिव चंद्रमा धारै। ब्रहमां बुध धारै। श्रीरामचंद्र नीत धारै। ३

दूजा दूहा कौ अरथ
सुमेर जमी पर रहै। सूर्य मंडळ में रहै। समंद पाज में। चंद्रमा आसमान में रहै। सिव सिखर कैळास रहै। ब्रहमा ब्रह्मलोक में रहै। श्री रामचंद्र सिव का हृदा में रहै। १। सुमेरकी गुरता सूरज की दुती। समंद कौ गहरापणौ। चंद्रमा को आणंदपणौ। सिव को कोप। ब्रहमा की खिमा। रामचंद्रजी की जस गाथा। सुमेर कौ पिता कस्यप रिखी। सूर्य कौ पिता कस्यप। समंद कौ पिता कस्यप। चंद्रमा को पिता समंद। सिव कौ पिता ब्रह्मा। ब्रहमा कौ पिता कमळ। रामचंद्रजी को पिता राजा दसरथ। ३

तीजा दूहा कौ अरथ
सुमेर देवतां नै सुखदाई। सूर्य चकवानै। समंद हंसां ने। चंद्रमा कुंमोदनी नै। सिव सिधां ने। ब्रहमा ब्राह्मणां नै। स्री रामचंद्र संतां नै सुखदाई। १। सुमेर परवतां कौ राजा। सूर्य ग्रहां को राजा। समुद्र जळ कौ। चंद्रमा रिखभ कहतां तारागण छत्रां कौ। सिव गणां कौ। ब्रहमा द्विजां कौ। स्री रामचंद्र राजां कौ राजा। २। सुमेर कौ सुद्रढपणौ। सूर्य को तप। समुद्र को अथगपणौ। चंद्रमा को सीतळपणौ। सिव को सिद्धपणौ। ब्रहमा को मेधाबुधपणौ। स्री रामचंद्र कौ सतपणौ। ३


१. ब्रहमा-ब्रह्मा। हर-और। अडगपणौ-स्थिरत्त्व या अटलत्त्व। तेजपणौ-तेजत्त्व। अथगपणौ-असीम, गहराई। सीतळपणौ-शीतलता, शैत्य। आस्तीकपणौ-आस्तिकता। कार-मर्यादा। ब्रहमा कों-ब्रह्मा का। नहचळ-निश्चल, अटल। थिरपणा-स्थिरत्व। नीत-नीति।
२. पाज-मर्यादा, सीमा। हृदा-हृदय। गहरापणौ-गहराई। आणंदपणौ-आनंद। खिमा-क्षमा।
३. सुखदाई-सुख देने वाला। ब्राह्मणां नै-ब्राह्मणोंको।

— 196 —

चौथा दूहा कौ अरथ
सुमेर विवुध देवतां नै अभै दै। सूर्य कमळां नै मोद दै। समुद्र मीनां नै सुख दै। चंद्रमा रूंख अठार भार वनास्पती का रुंखां ने आणंद दै। सिव राजा नै बर दै। ब्रहमा जगत नै अखै बर दै। स्री रांमचंद्र संतां नै आथ दै। दोई तुकां कौ अरथ भेळौ। २। सुमेर १। सूर्य २। समंद ३। चंद्रमा ४। सिव ५। ब्रहमा ६। यां छ ही देवतां वचै स्री रामचंद्र में संतां सूं दीनदयाळपणौ सरणाई साधारपणौ अधिक। इति अरथ। ४

अथ गीत दूजा प्रहास साणौर रौ लछण
दूहौ
धुर तुक मत वेवीस धर, सतर बीस सतरास्य।
वीस सतर गुरु अंत बे, सौ जांणजै प्रहास।।६२

अरथ
पैली तुक मात्रा २३। दूजी तुक मात्रा १७। तीजी तुक मात्रा २०। चौथी तुक मात्रा १७। तुकांत दोय गुरु अखिर आवै, पछै सारा दूहां मात्रा पैली तुक २०। दूजी तुक मात्रा १७। तीजी तुक मात्रा २०। चौथी तुक मात्रा १७ होवै जिण गीत रौ नांम प्रहास साणौर कहै छै।


४. विवुध-देवता। अभै-अभय, निर्भयता। दै-देता है। मोद-आनंद। मीनां-मच्छियों। अखै-अक्षय। आथ-धन, दौलत। भेळौ-साथ। यां-इन। वचै-अपेक्षा। सरणाई-साधारपणौ-शरण में आए हुए की रक्षा करने का कर्त्तव्य।

— 197 —

अथ गीत प्रहास साणौर उदाहरण
थांणबंध बेलियौ जिणमें आद जथा रौ वरण छै।

गीत
सरण वखांणै जगत चित वखांणै जेम सिध,
मौज किव वखांणै चंदनांमा।
बुध गिरा राम हथवाह रिम वखांणै,
वखांणै काछद्रढ़पणौ बांमा।।
कोपियां बाळ सुगरीव छंडे कळह,
घरोघर भटकियौ विपत घायौ।
पांण ग्रह रांम कहि मित्र अपणावतां,
पय सरण आवतां राज पायौ।।
बन पिता हुकम जुत सिया चवदह बरस,
एक आसण सयन जोग जगीयौ।
धण बिनां चलै मन रांम सह त्रिया धन,
द्रढ मदन ताप मन निकूं डिगीयौ।।
अंजसै कनक भूखण पहर नृप अवर,
कनक में विधाता त्रकुट कीधी।
लहर हिक सरण हित भभीखण रंक लख,
दांन गढ लंक अणसंक दीधी।।
स्रुत सम्रत छंद खट पंच नव संपूरण,
भेदगर च्यार दस बोध भाळी।
अरथ जुत बोलबौ हेळ बीजा ‘अजा’,
वेळ अम्रततणा उदधवाळी।।
दासरथ सुजस नव खंड जाहर दुझल,
करां भुजदंड वाखांण केहा।


६३. मौज-दान। किव-कवि। चंदनांमा-यश, कीर्ति। बुध-पंडित। गिरा-वाणी। हथवाह-शस्त्र प्रहार। रिम-शत्रु। वखांणै-प्रशंसा करते हैं। काछदृढ़-जितेन्द्रियता, संयमशीलता। बांमा-स्त्री। बाळ-बालि बंदर। कळह-युद्ध। घरोघर-प्रत्येक घर। भटकियौ-भ्रमण किया। घायौ-पीड़ित, दुखी। पांण-हाथ। अपणावतां-अपना बनाने पर। पय (पाद)-चरण। पायौ-प्राप्त किया। जुत-युक्त। सिया-सीता। सयन-सोना। धण-अर्द्धांगिनी। सह-साथ। त्रिया-स्त्री। मदन-कामदेव। निकूं-नहीं। अंजसै-गर्व करते हैं। कनक–स्वर्ण, सोना। भूखण-आभूषण। अवर-अन्य। विधाता-ब्रह्मा। त्रिकुट-लंका स्थित एक पर्वत अथवा लंका का एक नाम। कीधी-की, किया। भभीखण-विभीषण। रंक-गरीब। लख-देख कर। अणसंक-निशंक। दीधी-दी। स्रुत (श्रुति)-वेद। सम्रत-स्मृति। भेदगर-भेद जानने वाला, भेद का पता लगाने वाला। बोध-विद्या। भाळी-देखी। वेळ-तरंग, लहर। उदध (उदधि)-सागर। दासरथ-श्रीरामचंद्र भगवान। जाहर-जाहिर। दुझळ-वीर। केहा-कैसा।

— 198 —

जुधां टंकारिया धनख राघव ज तैं।
जारिया दुसह दहकंध जेहा।।
पाय वय जोर बुध रूप नृपता प्रसिध,
नय‍ण लख छटा नाता अनाता।
जांनुकी विना तरणी अवर जिकांनूं,
मुणी बेटी वहन काय माता।।
देखतां छहूं बिध ‘सगर’ ‘हरचंद’ दुवा,
सौगुणौ अधिक अहनिस सुभावै।
रांम असरण सरण भूप गुण राजरां,
पार सीतारमण कमण पावै।।६३

गीत छोटा सांणौर लछण
दूहा
कहजै गुरु मोहरा कठै, वण कठैक लघुवंत।
सुज छोटौ सांणौर सौ, कवि मत ग्रंथ कहंत।।६४
भेद च्यार जिणरा भणौ, आद वेलियौ अक्ख।
कवी सोहणौ २ खुड़द ३ कह, वळ जांगड़ौ ४ विसक्ख।।६५

अथ गीत मिस्र वेलिया लछण
दूहौ
समिळ वेलियौ सोहणौ, सझ फिर खुड़द समेळ।
मिस्र वेलियौ कवि मुणै, भळ जांगड़ौ न भेळ।।६६

अरथ
वेलियो १। सोहणौ २। खुड़द ३। तीन ही गीत भेळा वणै जिण गीत रौ नांम मिस्र वेलियो कहीजै। यां भेळौ जांगड़ा री दूहौ वणै नहीं नै वणै तो जात-विरोध दोस कहीजै। यूं सारौ समझ लेणौ।


६३. टंकारिया-धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाई या प्रत्यंचा की ध्वनि की। दुसह-शत्रु दुष्ट। दहकंध-रावण। जेहा-जैसा। छटा-शोभा, सुन्दरता। जांनुकी-जनक पुत्री, सीता। अवर-अन्य, दूसरी। जिकां नूं-जिनको। मुणी-कही। काय-या, अथवा। सगर-सूर्यवंशी राजा सगर। हरचंद-सूर्यवंशी राजा हरिश्चंद्र। दुवा-दूसरा, वंशज। अहनिस-रातदिन। कमण-कौन। पावै-प्राप्त करता है।
६४. कहजै-कहिए। मोहरा-छंद के द्वितीय तथा चतुर्थ चरण के अन्तिम शब्दों या अक्षरों का परस्पर मेल, तुकबंदी। कहंत-कहते हैं।
६५. वळ-फिर, और।
६६. समिळ-साथ। मुणै-कहता है। भळ-फिर। भेळ-मिला, मिश्रित कर।

— 199 —

अथ गीत मिस्र वेलियौ उदाहरण
गीत
बूडंतौ सरवर फील उबारे,
गुणतै बेद उचारै गाथ।
धना नांम दे सदना उधारे,
नेक जनां तारे रघुनाथ।।
गणका अजामेळ सवरीगण,
दुख अघ ओघ मिटाय दिया।
किता अनाथ सुनाथ क्रपा कर,
कोसळराज-कुंवार किया।।
सीता हरण भभीखण रिवसुत,
लख जटाय कोसिक मिथळेस।
हेर हेर लज रखी हुलासां,
धणियप कर दासां अवधेस।।
रख जन अभै त्रास जम हरणा,
सुज ऊबरणा जगत सहै।
सूंपी सरम चरण तौ सरणा,
करणानिध किव ‘किसन’ कहै।।६७


६७. बूडंतौ-डूबता हुआ। सरवर-सरोवर, तालाब। फील (सं० पील)-हाथी। उबारे-बचाया। धना-एक हरि-भक्त का नाम। नांमदे-एक भक्त का नाम। सदन-घर। गणका-एक वेश्या जो ईश्वर की परम भक्त थी। अजामेळ-अजामिल नामक एक कन्नौज निवासी ब्राह्मण जिसने आजीवन न तो कोई पुण्य कार्य किया और न ईश्वराधन। इसके पुत्र का नाम नारायण था। कहते हैं कि मृत्यु के समय इसने अपने पुत्र को नाम लेकर बुलाया जो कि भगवान के नाम का पर्याय था और इसी से इसकी सद्गति हो गई। सवरी-शबरी, भिल्लनी जो राम भक्त थी। अघ-पाप। ओघ-समूह। किता-कितने। भभीखण-विभीषण। रिवसुत (रविसुत)-सुग्रीव। जटाय-जटायु नामक गिद्ध। कोसिक-विश्वामित्र। मिथळेस-राजा जनक। धणियप-स्वामित्व, कृपा, महरबानी। त्रास-भय। करणानिध-करुणानिधि। किव-कवि।

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