घड़ा लीवी पण जड़सी कुण

अेकर अेक गाम में कुत्तां री भरमार होगी। गळी-गळी में गंडकां रा टोळा फिरै। चावै जिकै घर में मौको लागतां ई गंडकां री डार आ बड़ै अर लाधै ज्यांनैं ई चट कर ज्यावै। लोगां आप आपरै घरां रै किंवाड़ लगा लिया। अेक दो आळसी हा बां ई दौरा-सौरा किंवाड़िया लगा’र गंडकां सूं गैल छुडावण रो जतन कर्यो। सगळै घरां रै किंवाड़ देखतां ई कुत्तां मिटिंग करी अर फैसलो लियो कै भाई अबै इण गाम में आपणी पार कोनी पड़ै। कठैई दूजी जाग्यां देखां।[…]

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बाळपणो बर-बर बतळावै – हेत-हथायां हमैं कठै

“छाती दुखै, गोडा दुखै; छाती दुखै, गोडा दुखै” इण ओळी नैं होळै-होळै बोलतां-बोलतां बां इयांकली गड़कै चाढ़ी कै आखती-पाखती बैठा लोगड़ां री बाक फाटगी। मूंढ़ै सूं आवाज निकाळणै रै साथै-साथै बै आपरै डील अर हाथ-पगां नैं ई इयां संचालित करै हा जाणै कोई सावचेती सूं कीं काम नैं सिग चाढ़तो हुवै। सगळा सोचण लाग्या डोकरां रै हुयो कांई ? अेको सांस “छाती दुखै, गोडा दुखै/छाती दुखै, गोडा दुखै/छाती दुखै, गोडा दुखै/छाती दुखै, गोडा दुखै/छाती दुखै, गोडा दुखै” री रुणकार अेक-डोढ मिनट ताणी इकसार लागती री। सुर होळै सूं तेज, और तेज, और तेज हुयो। छेवट अेकदम सूं रुणकार रुकगी, जाणै कोई “इमरजेंसी-ब्रैक” लाग्या हुवै।[…]

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आफत नीं आभूषण है बुजुर्ग

अबै आयो बुढापो। मुंशी प्रेमचंदजी ‘बुढापै नै बाळपणै रो पुनरागमन’ बतायो है। आ बात साव साची है। आदमी रो मन बेगो सो’क बूढो कोनी हुवै। बाळपणै में टाबर रो मन करै कै तेज दौड़ूं पण सरीर सांभणो कोनी आवै जणा दौड़ीजै कोनी। मन में आवै कै चांद नै पकड़ूं पण हाथ आवै नीं। घर में पड़ी चीजां रै ढोळण-पंचोळण री घणी जी में आवै पण घर वाळा पार नीं पड़ण द्यै। लबोलवाब ओ कै बाळापै में मन तो बणै पण तन रो साथ कोनी मिलै। आ री आ गत बुढापै में हुवै। मन तो मालजादो मोट्यार रो मोट्यार रैवै, बेगो सो क्यांरो मानै। ताल मिलतां ई तालर घालण ढूकै पण गोडा साथ द्यै जणा। […]

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देश भगती री जगमगती जोतः क्रांति रा जोरावर (पुस्तक समीक्षा)

(महान क्रांतिकारी केशरीसिंहजी बारठ री पुण्यतिथि माथै विशेष)
राजस्थानी भाषा रै साहित्यिक विगसाव सारु पद्य सिरजण सूं बती जरूरत गद्य रो गजरो गूंथण री है। आ बात आजरी युवा पीढी सूं घणी आपांरी पुराणी पीढी रा विद्वान सावल़सर जाणै। बै जाणै कै जितै तक आपांरी भाषा रो गद्य लेखन समृद्ध नीं होवैला जितै तक आपां भारतीय साहित्य रै समकालीन लेखन री समवड़ता नीं कर सकांला। इणी बात नैं दीठगत राखर कई विद्वानां कहाणी, निबंध अर उपन्यास लेखन कानी आपरी मेधा रो उपयोग करण अर गद्य भंडार भरण सारु ठावको काम कियो अर कर रैया है।[…]

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बाईजी को बोलणो अर भलै घरां की राड़

मिनखाजूण रै फळापै अर फुटरापै सारू आपणां बडेरां, संत-साहितकारां अर लोकनीत-व्यवहार रो ज्ञान करावणियां गुणीजणां खास कर इण बात पर जोर दियो है कै आ जीभ जकां रै बस में है, वां रो ई जीवण धन्य है। ‘बाई कैवतां रांड’ कहीजै जकां नैं जस री ठौड़ जूता ई पानै पड़ै। वाणी तो व्यक्तित्व री आरसी मानीजी है। आदमी नीं बोलै जितरै उणरो ठा नीं पड़ै पण जियां ई बोलै उणरो कद आपणै सामी आवणो सरू हुवै। बोली में मिनख रा संस्कार, व्यवहार, ग्यान अर सभाव रो अेकै सागै खुलासो हुवै। आदमी री ठीमरता, धीरज अर संयत व्यवहार री सूचना उणरी वाणी ई दिया करै। जियां ई मिनख बोलै आ ठा पड़ ज्यावै कै ओ कुणसी संगत अर संस्कारां में रैवणियो आदमी है। […]

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मतलब जठै, बठै न मिताई

अखिल चराचर मांय मानखै जितरा रिश्ता-नाता बणाया है, वां मांय अेक उल्लेखणजोग रिश्तो है- मिताई वाळी। मिताई यानी कै मित्रता, यारी, दोस्ती, भायलाचारी। इतियास री आंख सूं देखां तो मिताई री मोटी-मोटी मिसालां आपणै सामी है, जिणमें भगवान कृष्ण अर सुदामा री मिताई तो जगचावी है। कृष्ण अर अरजण पण तगड़ा मित्र हा। श्रीराम रै ई सुग्रीव अर विभीखण जियांकला मित्रां री कथावां आपणै सामी है। भगवान कृष्ण री फोटू वाळो अेक पोस्टर देख्यो, जकै माथै लिख्योड़ो हो कै – कृष्ण सूं कोई पूछ्यो कै महाराज मित्रता रो मतलब कांई है? कृष्ण भगवान मुळकता सा जबाब दियो कै भोळा “मतलब हुवै बठै मित्रता कद हुया करै?”[…]

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सोढै ऊमरकोट रै, सिर पड़ियां बाहीह !

किणी राजस्थानी कवि रो ओ दूहो कितरो सतोलो है कै-

हीरा नह निपजै अठै, नह मोती निपजंत।
सिर पड़ियां खग सामणा, इण धरती उपजंत।।

आजरै संदर्भ में ओ दूहो भलांई केवल एक गर्विली उक्ति लागती हुसी जिणरै माध्यम सूं कवि आपरी मातृभूमि री अंजसजोग बडाई करी है पण जिण कवियां इण भावां रै मार्फत परवर्ती पीढी नै प्रेरणा दी है तो कोई न कोई तो कारण रह्यो ई हुसी। सूर्यमल्लजी मीसण लिखै–

बिन माथै बाढै दल़ां, पोढै करज उतार।
तिण सूरां रो नाम ले, भड़ बांधै तरवार।।[…]

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बिन बेटी सब सून

यह संसार सामाजिक संबंधों का जाल है, जिसमें हर व्यक्ति एक-दूसरे से किसी न किसी रिश्ते से जुड़ा हुआ है। अरस्तु ने तो यहां तक लिखा है कि बिना समाज के रहने वाला व्यक्ति या तो पागल है या फिर पशु है यानी कि व्यक्ति के लिए समाज का होना अत्यावशक है। समाज की एक सशक्त कड़ी है – परिवार। परिवार ही वह आधारशिला है, जहां रिश्तों का ताना-बाना बुना जाता है, रिश्तों की फसलों को सींचने तथा सहेजने-संवारने का काम यहीं से होता है। परिवार रूपी बगिया में खिलने वाला हर पुष्प रिश्तों के मिठास का जल पाकर सुरभित […]

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