કંઠ કહેણીના મશાલચી : મેરૂભા ગઢવી (લીલા)

મેઘાવી કંઠના ગાયક શ્રી મેરૂભા ગઢવીનો જન્મ સૌરાષ્ટ્રમાં લોકવાર્તાઓ દ્વારા લોકસાહિત્યના સંસ્કાર ચેતાવનારા છત્રાવા ગામના લોકસાહિત્યના આરાધક પિતા મેઘાણંદ ગઢવી લીલા શાખાના ચારણને ખોરડે માતા શેણીબાઈની કૂખે સંવત ૧૯૬૨ના ફાગણ સુદ ૧૪ ના રોજ થયો. ગામડા ગામની અભણ માતાએ ગળથુથીમાં જ ખાનદાની, સમાજસેવા અને ભક્તિના સંસ્કારો બાળકમાં રેડ્યા. ચાર ગુજરાતીનું અક્ષરજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરી બાળક મેરૂભાએ શાળાને સલામ કરી અને પછી આછી-પાતળી ખેતીમાં જોડાયા. પિતાની વાર્તા કથની મુગ્ધભાવે અને અતૃપ્ત હૈયે માણતા મેરૂભા લોકસાહિત્યના સંસ્કારોના રંગે રંગાઈ ગયા.[…]

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स्नेह, संवेदना व सादगी का संगम रामदयालजी बीठू

सींथल गांव का नाम आते ही मेरे मनमें गर्व व गौरव की अनुभूति इसलिए नहीं होती कि वहां मेरे समुज्ज्वल मातृपक्ष की जड़ें जुड़ती हैं बल्कि इसलिए भी होती है कि इस धरती ने साहस, शौर्य, उदारता, भक्ति, के साथ ही मातृभूमि के प्रति अपनी अनुरक्ति का सुभग संदेश परभोम में भी गर्वोक्ति के साथ दिया है–

“लिखी सहर सींथल़ सूं आगै गांम कल़कतिये”[…]

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शंकर स्मृति शतक – कवि अजयदान लखदान जी रोहडिया मलावा

लीम्बडी में राजपूत समाज द्वारा लीम्बड़ी कविराज शंकर दान जी जेठी भाई देथा की प्रतिमा का अनावरण दि. ११-मार्च-२०१९ को हुआ। कविराज शंकरदान जी से स्व. अजयदान लखदान जी रोहडिया मलावा बीस वर्ष की आयु में एक बार मिले थे और उस एक ही मुलाकात में इतने अभिभूत हुए कि जब कविराज शंकरदान जी जेठी भाई देथा लीम्बड़ी का देहावसान हुआ तब उन्होंने उनकी स्मृति में पूरा “शंकर स्मृति शतक” रच डाला। जो बाद में “शंकर स्मृति काव्य ” और “सुकाव्य संजीवनी” मैं शंकर दान जी देथा के सुपुत्र हरिदान जी देथा नें संपादित काव्य में समाहित किया।[…]

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પદ્મશ્રી દુલા કાગ

ભગતબાપુના પ્યારા અને લાડીલા નામે ઓળખાતા પદ્મશ્રી દુલા કાગનો પરિચય ગુજરાતની પ્રજાને આપવાનો હોય શું? દેશ-પરદેશમાં વસતા ગુજરાતીઓમાં પણ ભગતબાપુના નામથી કોઈપણ અપરિચિત હોય?
પોતાની મૌલિકવાણીમાં ‘‘કાગવાણી’ ને આઠ – ભાગની ભેટ ગુજરાતની જનતાને આપનાર કવિશ્રી ગુજરાતની વિરલ વિભૂતિ છે, એમના વિશે શું લખવું? ગુજરાતના સાક્ષર વર્ગ ધણું લખ્યું છે,ભગતબાપુનો જન્મ સૌરાષ્ટ્રના મહુવા પાસેના સોડવદરી ગામે તુંબેલ (પરજિયા ચારણ) કુળમાં વિ.સં. ૧૯૫૮ના કારતક વદ અગીયારસ શનિવારે ઇ.સ. ૧૯૦૨માં થયો હતો. તેમના પિતાશ્રીનું નામ ભાયા કાગ અને માતાશ્રીનું નામ પાનબાઈ હતું. તેની શાખા કાગછે.[…]

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લોક સાહિત્યના કલાધરઃ શ્રી મેઘાણંદ ગઢવી

મેધાવી કંઠના સુપ્રસિદ્ધ વાર્તાકાર મેઘાણંદ ગઢવીનો જન્મ ઘેડ વિસ્તારના છત્રાવા ગામે ચારણ જ્ઞાતિની લીલા શાખના ખેંગાર ગઢવીને ત્યાં સંવત ૧૯૧૮માં થયો હતો.

લોકસાહિત્યના ક્ષેત્રમાં “લોકવાર્તા” આગવું સ્થાન ધરાવે છે. પહેલાના જમાનામાં આવી લોકવાર્તાઓ જામતી. કોઈ રાજદરબારે, પણ આતો જનસમાજની વાતું જનસમાજમાં સહુને સાંભળવી હોયને! પોતાની રત્ન સમી સંસ્કૃતિની ગાથાથી જનસમાજ કેમ વંચિત રહે? અને આમ મેઘાણંદ ગઢવી જેવા પ્રચંડકાય વીર વાર્તાકારના બુલંદ કંઠને આમજનતા સમક્ષ વહેતો મૂક્યો શ્રી ગોકળદાસ રાયચૂરાએ.[…]

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चारणों की उत्पत्ति – ठा. कृष्ण सिंह बारहट

चारणों की उत्पत्ति के सन्दर्भ में ठा. कृष्ण सिंह बारहट ने अपने खोज ग्रन्थ “चारण कुल प्रकाश” में विस्तार से प्रामाणिक सामग्री के साथ लिखा है। उसी से उद्धृत कुछ प्रमाणों को यहाँ बताया जा रहा है। ये तथ्य हमारे प्राचीनतम ग्रंथों श्रीमद्भागवत्, वाल्मीकि-रामायण तथा महाभारत से लिए गए हैं।

चारणों की उत्पत्ति सृष्टि-श्रजन काल से है और उनकी उत्पत्ति देवताओं में हुई है, जिसका प्रमाण श्रीमद्भागवत् का दिया जाता है कि नारद मुनि को ब्रह्मा सृष्टि क्रम बताते हैं, वहां के द्वितीय-स्कंध के छटे अध्याय के बारह से तेरह तक के दो श्लोक नीचे लिखते हैं :-

अहं भवान् भवश्चैव त मुनयोऽग्रजाः।।
सुरासुरनरा नागाः खगा मृगसरीसृपाः।।१२।।
गंधर्वाप्सरसो यक्षा रक्षोभूतगणोरगाः।।
पशवः पितरः सिद्धा विद्याधरश्च चारण द्रुमाः।।१३।।

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प्रथम राष्ट्र कवि व जनकवि दुरसाजी आढ़ा – डॉ. नरेन्द्र सिंह आढ़ा (झांकर)

दुरसाजी आढ़ा का जन्म चारण जाति में वि.स.1592 में माघ सुदी चवदस को मारवाड़ राज्य के सोजत परगने के पास धुन्धला गाँव में हुआ था। इनके पिताजी का मेहाजी आढ़ा हिंगलाज माता के अनन्य भक्त थे जिन्होंने पाकिस्तान के शक्ति पीठ हिंगलाज माता की तीन बार यात्रा की। मां हिंगलाज के आशीर्वाद से उनके घर दुरसाजी आढ़ा जैसे इतिहास प्रसिद्ध कवि का जन्म हुआ। गौतम जी व अढ्ढजी के कुल में जन्म लेने वाले दुरसाजी आढ़ा की माता धनी बाई बोगसा गोत्र की थी जो वीर एवं साहसी गोविन्द बोगसा की बहिन थी। भक्त पिता मेहाजी आढ़ा जब दुरसाजी आढ़ा की आयु छ वर्ष की थी, तब फिर से हिंगलाज यात्रा पर चले गये। इस बार इन्होनें संन्यास धारण कर लिया। […]

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स्वामी कृष्णानन्द सरस्वती

वह महामानव थे। उदार थे, व्यवहारिक थे, यंत्र-तंत्र-मंत्र में विश्वास नहीं था उनका। मानव सेवा उनका कर्म था। उसी सेवा के आसपास सभी मसलों का वह हल देखते, खोजते समेटते थे। वह सहज थे, सरल थे, सादा जीवन जीते थे। पहनते बेशक वह गेरूआ वस्त्र थे लेकिन घुर, कट्टर साधुओं-स्वामियों-संतों जैसी भावभंगिमाओं से अछूते थे। गतिशील विचार थे, रचनात्मक सोच थे, विचारशील थे, वर्तमान स्थितियों-परिस्थितियों से परिचित थे, उपदेश से परहेज करते थे। गहन अध्ययन था। केवल धार्मिक, आध्यात्मिक ग्रंथों का ही नहीं क्लासिक ग्रंथों से भी भलीभांति परिचित थे। उनके गहन और व्यापक व्यक्तित्व को जानने-समझने-परखने के लिए पारखी नजरों की जरूरत हुआ करती थी। आशीर्वाद तो सभी को देते थे जो उनसे मुलाकात करने आता था लेकिन दिल की बातें उसी से किया करते थे जो उनकी पारखी नजरों पर खरा उतरते थे। जी हां, मैं जिक्र कर रहा हूं अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त संत स्वामी कृष्णानंद सरस्वती का।[…]

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हमारे अग्रज – भंवरदान रत्नू ‘मधुकर’ (खेड़ी)

जिन चारण साहित्यकारों ने व्यापक फलक पर काम किया लेकिन अपरिहार्य कारणों से उनकी पहचान सर्वत्र नहीं बन पाई।कारण कोई भी रहा हों लेकिन यह सत्य तथ्य है कि इन मनीषियों के काम की कूंत साहित्यिक जगत के समक्ष नहीं के बराबर आई है। ऐसे ही काम में अग्रणी और नाम में विश्वास नहीं रखने वालें एक मनीषी हैं, भंवरदान रत्नू ‘मधुकर’

‘मधुकर’ एक ऐसी शख्सियत हैं जिन्होंने मौलिक लिखने के साथ अपने पूर्ववर्ती विद्वानों द्वारा प्रणीत काव्य जो आजकी पीढ़ी के लिए सुलभ तो हैं लेकिन अध्ययनाभाव के कारण उनके लिए सुगम नहीं, को बौधगम्य बनाने हेतु स्तुत्य कार्य किया है।

इनके कार्य की तरफ इंगित करूं उससे पहले इनकी साहित्यिक विरासत की तरफ थोड़ा ध्यानाकर्षण करना समीचीन रहेगा।[…]

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भक्तकवि महात्मा नरहरिदास बारहट

भक्त कवि श्री नरहरिदासजी बारहट महान पिता के महान पुत्र थे। इनके पिता लखाजी बारहट भी अपने समय के प्रसिद्ध कवि एवं विद्वान् थे जिन्हें मुगल सम्राट अकबर ने बहुत मान दिया। जोधपुर के महाराजा सूरसिंह जी के ये प्रीतिपात्र थे। लखाजी के दो पुत्र थे। ज्येष्ठ गिरधरदासजी एवं कनिष्ठ नरहरिदासजी। इनका जन्म १५९१ ई. में राजस्थान के नागौर जिले के मेड़ता उपखंड में स्थित टहला ग्राम में हुआ। नरहरिदासजी बाल्यावस्था से ही बड़े होनहार एवं तेजस्वी थे। प्रारम्भ से ही नरहरिदासजी को अपने पूर्व के संस्कारों के कारण, भगवान की कथाओं और पौराणिक शास्त्रों में बहुत रूचि थी। वे […]

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