जनकवि उमरदान जी लाळस – जीवन परिचय

जनकवि ऊमरदान का नाम राजस्थानी साहित्याकाश में एक ज्योतिर्मय नक्षत्र की भांति देदीप्यमान है। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की पृथक पहचान है। पाखण्ड-खंडन, नशा निवारण, राष्ट्र-गौरव एवं जन-जागरण का उद्घोष ही इस कवि का प्रमुख लक्ष्य था। इसकी रचनाओं में सामाजिक व्यंग की प्रधानता के साथ ही साहित्यिकता, ऐतिहासिकता एवं आध्यात्मिकता की त्रिवेणी सामान रूप से प्रवाहमान है। मरू-प्रदेश की प्राकृतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक छवियों के चितांकन में यहाँ के लोक-जीवन की आत्मा की अनुगूंज सुनाई देती है। डिंगल एवं पिंगल के विविध छंदों की अलंकृत छटा, चित्रात्मक शैली और नूतन भावाभिव्यंजना सहज ही पाठक का मन मोह लेती है।[…]

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भक्तिमति समान बाई (मत्स्य की मीराँ)

राजस्थान की पुण्यधरा में अनेक भक्त कवयित्रियों ने अपनी भक्ति भावना से समाज को सुसंस्कार प्रदान कर उत्तम जीवन जीने का सन्देश दिया है। इन भक्त कवियित्रियों में मीरां बाई, सहजो बाई, दया बाई जैसी कवियित्रियाँ लोकप्रिय रही है। इनकी समता में मत्स्य प्रदेश की मीराँ के नाम से प्रख्यात समान बाई का अत्यंत आदरणीय स्थान है। राजस्थान के ग्राम, नगर, कस्बों में समान बाई के गीत जन-जन के कंठहार बने हुए हैं। पितृ कुल का परिचय: समान बाई राजस्थानी के ख्याति प्राप्त कवि रामनाथ जी कविया की पुत्री थी। रामनाथजी के पिता ज्ञान जी कविया सीकर राज्यान्तर्गत नरिसिंहपुरा ग्राम […]

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विप्लव का कवि “मनुज देपावत”

धोरां आळा देस जाग रै, ऊंठा आळा देस जाग।
छाती पर पैणां पड़्या नाग रै, धोरां आळा देस जाग।।

इस क्रान्तिकारी कवि का जन्म कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी विक्रम संवत 1984 को बीकानेर जिले के देशनोक ग्राम में हुआ। इनका असली नाम मालदान देपावत था, परन्तु रचनाकार के रूप में ये मनुज देपावत के नाम से जाने जाते थे। आप डिंगल भाषा के ख्याति प्राप्त कवि श्री कानदान जी देपावत के सुपुत्र थे। मनुज ने श्री करणी-विद्यालय देशनोक और फोर्ट हाई स्कूल बीकानेर से क्रमशः मिडिल और मेट्रिक पास की।[…]

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स्वामी स्वरूपदास जी (शंकरदान जी देथा)

स्वामी स्वरूपदास चारण जाति की एक अप्रतिम प्रतिभा माने जाते हैं। इनका जन्म चारणों की मारू शाखा के देथा गोत्र वाले परिवार में हुआ। उन्होंने ३८ वर्ष की वय में वर्ष १८३९ ई. (तदनुसार विक्रम संवत १८९६) में हन्नयनांजन नामक ग्रंथ की रचना रतलाम शहर में की थी। इसके आधार पर उनका जन्म १८०१ ई. (वि.सं.१८५८) में हुआ। उन्होंने अपने ग्रंथ हन्नयनांजन के तृतीय सलाका के अंतिम भाग में स्वयं लिखा है-

महिपत की पंचवीसमी, जन्मगांठि सक जान।
उमर दास स्वरूप की, अष्टत्रिस उनमान।।
राग, रतन वसु चंद्रमा, संवत् विपर्यय रीत।
माघ कृष्ण तृतिया भयो, पूरन ग्रंथ सुप्रीत।।
[मैंने वि.सं.१८९६ की माघ कृष्णा तृतीया के दिन इस ग्रंथ को प्रेम पूर्वक सम्पूर्ण किया। यह अवसर रतलाम नरेश बलवन्त सिंह राठौड़ की पचीसवीं वर्ष गांठ का है और इस समय मुझ स्वरूपदास की वय अड़तीस वर्ष है। ] यदि वि.सं.१८९६ (१८३९ ई.) में ग्रंथ प्रणेता की उम्र अड़तीस वर्ष थी तो इस हिसाब से उनका जन्म वर्ष वि.सं.१८५८ (१८०१ ई.) हुआ।[…]

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कविवर जाडा मेहडू (जड्डा चारण)

कविवर जाडा मेहडू चारणों के मेहडू शाखा के राज्यमान्य कवि थे। उनका वास्तविक नाम आसकरण था। राजस्थान के कतिपय साहित्यकारों ने अपने ग्रंथों में उनका नाम मेंहकरण भी माना है। किंतु उनके वशंधरो ने तथा नवीन अन्वेषण-अनुसंधान के अनुसार आसकरण नाम ही अधिक सही जान पड़ता है। वे शरीर से भारी भरकम थे और इसी स्थूलकायता के कारण उनका नाम “जाड़ा” प्रचलित हुआ। जाडा के पूर्वजों का आदि निवास स्थान मेहड़वा ग्राम था। यह ग्राम मारवाड़ के पोकरण कस्बे से तीन कोस दक्षिण में उजला, माड़वो तथा लालपुरा के पास अवस्थित है। दीर्धकाल तक मेहड़वा ग्राम में निवास करने के […]

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लोक में आलोक के कवि डॉ आईदानसिंह भाटी

जैसलमेर के रेतिले गांव ‘ठाकरबा’ में जन्मे डॉ आईदानसिंह भाटी भले ही एक जाने-माने आलोचक और एक प्रखर कवि के रूप में समादृत हैं परंतु सही मायने में ये आज भी शहरी चकाचौंध में गंवई संस्कृति के प्रबल पैरोकार, संस्कारों को अपने में जीने वाले संजीदा इंसान के रूप में भी अपनी अलग पहचान रखतें हैं। वर्षों महाविद्यालयों में अध्यापन कराने व शहरी वातावरण में रहने के बावजूद भी गांव इनके जहन से निकल नहीं पाएं हैं। आज भी गांवों की आत्मीयता, अनौपचारिकता, बेबाकी, खुलापन, सहजता तो परिलक्षित होती ही है, साथ ही भाव व भाषा को भी पूरी शिद्दत के साथ अपनी पहचान बना रखा है।[…]

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स्वातंत्र्य चेतना के प्रखर चिंतक: कविराजा बांकीदासजी आशिया

साहित्य की परिभाषा ही सब का हित संधान करने वाली होती है तो फिर इसका सृजक चाहे वो किसी भी जाति, समुदाय अथवा धर्म का क्यों न हो वो व्यष्टिपरक हितसंधान की बात कैसे सोच सकता है? क्या कबीर, रहीम, ईशरदास बारहठ आदि मनीषी केवल अपने धर्म तक ही सीमित रहे या उन्होंने उस क्षुद्र बंधनों को तोड़ा!!

इसी बात को मध्यनजर रखकर मैंने कविराजा बांकीदासजी आशिया को अनेकों बार पढ़ा। जब हम डिंगल कवि के बतौर बांकीदास जी को पढ़तें हैं तो जो आरोप डिंगल कवियों पर लगाए जाते रहें हैं वे सारे के सारे निर्मूल सिद्ध होते हैं।[…]

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पद्मश्री डा. सीताराम लालस

पद्म श्री डा. सीताराम जी लालस (सीताराम जी माड़साब के नाम से जनप्रिय) राजस्थानी भाषा के भाषाविद एवं कोशकार थे। आपने ४० वर्षों की अथक साधना के उपरान्त “राजस्थानी शब्दकोष” एवं “राजस्थानी हिंदी वृहद कोष” का निर्माण किया। यह विश्व का सबसे बड़ा शब्दकोष है जिसमे 2 लाख से अधिक शब्द, १५ हज़ार मुहावरें/कहावतें, हज़ारों दोहे तथा अनेकों विषय जैसे कृषि, ज्योतिष, वैदिक धर्म, दर्शन, शकुन शास्त्र, खगोल, भूगोल, प्राणी शास्त्र, शालिहोत्र, पशु चिकित्सा, संगीत, साहित्य, भवन, चित्र, मूर्तिकला, त्यौहार, सम्प्रदाय, जाति, रीत/रिवाज, स्थान और राजस्थान के बारे में जानकारी एवं राजस्थानी की सभी उप भाषाओं व बोलियों के शब्दों का विस्तार पूर्वक एवं वैज्ञानिक व्याकर्णिक विवेचन है। इस अभूतपूर्व कार्य के लिए स.१९७७ में भारत सरकार ने आपको पद्मश्री से सम्मानित किया। जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर ने आपको मानद पी.एच.डी. (डाक्टर ऑफ़ लिटरेचर) की उपाधि प्रदान की।
जोधपुर दरबार मानसिंह जी का जालोर के घेरे में जिन १७ चारणों ने साथ दिया था उनमे से एक थे नवल जी लालस जिनको सांसण में नेरवा गाँव मिला था।[…]

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परंपरा-पच्चीसी

चारणां में रतनू चावी जात है, जिणरो उद्गम पुष्करणां बांमणां री पुरोहित शाखा सूं होयो। तरणोट रै राजकुमार देवराजजी नैं बिखमी में शरण देवण अर उणांरै भेल़ै भोजन करण सूं बामणां रतनैजी नै त्याग दिया। कालांतर में देवराजजी शासन थापियो जद रतनैजी नैं आपरा मोटा भाई मान अणहद सम्मान दियो। चारण बणाय आपरा पोल बारहठ बणाया। इणी रतनैजी री संतति चारणां में रतनू चारण है। रतनैजी रै पिताजी वासुदेवायतजी सूं लेयर फगत म्हारै (गिरधर दान रतनू दासोड़ी) वडेरां रो अर म्हारै तक रो प्रमाणिक विवरण आप तक पूगाय रैयो हूं। लंबी कविता भेजण सारु आंगूच माफी।

।।परंपरा-पच्चीसी।।
वीसोतर चारण वसू, विद्याधर विदवान।
ज्यां में रतनू जात इक, रसा गुजर रजथान।।1
सामधरमी सतवादिया, दिपिया के दातार।
भगत केक धरती भया, जबर कई जोधार।।2[…]

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परिचय: राजकवि खेतदान दोलाजी मीसण – प्रेषित: आवड़दान ऊमदान मीसण

चारण समाज में ऐसे कई नामी अनामी कवि, साहित्यकार तथा विभिन्न कलाओं के पारंगत महापुरुष हुए हैं जो अपने अथक परिश्रम और लगन के कारण विधा के पारंगत हुए लेकिन विपरीत संजोगो से उनके साहित्य और कला का प्रसार न हो पाने के कारण उन्हें जनमानस में उनकी काबिलियत के अनुरूप स्थान नहीं मिल पाया। अगर उनकी काव्य कला को समाज में पहुचने का संयोग बेठता तो वे आज काफी लोकप्रिय होते।

उनमे से एक खेतदान दोलाजी मीसण एक धुरंधर काव्य सृजक एवं विद्वान हो गए है।[…]

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