धवल उजवल मरुधरा – कवि श्री मोहन सिंह रतनू

जिण भोम उपजे भीम सा भट, थपट भूमंड थरथडै।
धड शीश पडियो लडे कमधज, झुण्ड रिपुदल कर झडे।।
जुध काज मंगल गिणत जोधा, वीरवर विसवासरा।
प्रचंड भारत दैश प्रबल, धवल उजवल मरुधरा।।[…]
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जिण भोम उपजे भीम सा भट, थपट भूमंड थरथडै।
धड शीश पडियो लडे कमधज, झुण्ड रिपुदल कर झडे।।
जुध काज मंगल गिणत जोधा, वीरवर विसवासरा।
प्रचंड भारत दैश प्रबल, धवल उजवल मरुधरा।।[…]
।।भैरवानाथ।।
।।छप्पय।।
डमर डाक डम डमक, घमर घूघर घरणाटै।
पग पैजनि ठम ठमक, स्वान झमझम सरणाटै।
द्युति आनन दम दमक, रमक गंध तेल रऴक्कै।
गयण धरा गम गमक, खमक मेखऴी खऴक्कै।
सम समक संप चम चम चमक, धमक बहै रँग धौरला।
मोरला काम कज चढ हद मदद, (रे) गुरज लियाँ कर गौरला।।1।।[…]
सुन आर्यभूमि का आर्तनाद, उठ गए देश के दीवाने।
जल उठी काल लपटें कराल, आ गए शमा पर परवाने।।
चुप रह ना सका सौदा प्रताप, जग उठा जाति का स्वाभिमान।
जगती तल के इतिहासों में, गूँजे थे जिसके कीर्ति-गान।।
आखिर चारण का बच्चा था, वह वीर “केसरी” का सपूत।
पद दलित देश की धरती पर, वह उतरा बनकर क्रांतिदूत।।[…]
लोहित मसि में कलम डुबाकर कवि तुम प्रलय छंद लिख डालो।।
अम्बर के नीलम प्याले में ढली रात मानिक मदिरा-सी।
कर जग को बेहोश चाँदनी बिखर गई मदमस्त सुरा-सी।
तुमने उस मादक मस्ती के मधुमय गीत बहुत लिख डाले।
किन्तु कभी क्या देखे तुमने वसुंधरा के उर के छाले।
तुम इन पीप भरे छालों में रस का अनुसन्धान कर रहे।
मौत यहाँ पर नाच रही तुम परियों का आव्हान कर रहे।
तुम कहते संघर्ष कुछ नहीं, वह मेरा जीवन अवलंबन !
जहाँ श्वास की हर सिहरन में, आहों के अम्बार सुलगते !
जहाँ प्राण की प्रति धड़कन में, उमस भरे अरमान बिलखते !
जहाँ लुटी हसरतें ह्रदय की, जीवन के मध्यान्ह प्रहर में !
जहाँ विकल मिट्टी का मानव, बिक जाता है पुतलीघर में !
भटक चले भावों के पंछी, भव रौरव में पथ बिसार कर !
जहाँ ज़िंदगी साँस ल़े रही महामृत्यु के विकट द्वार पर !
मैं प्रलय वह्नि का वाहक हूँ !
मिट्टी के पुतले मानव का संसार मिटाने आया हूँ !
शोषित दल के उच्छवासों से, वह काँप रहा अवनी अम्बर !
उन अबलाओं की आहों से, जल रहा आज घर नगर-नगर !
जल रहे आज पापों के पर, है फूट रहा भयकारी स्वर !
इस महा-मरण की वेला में त्यौहार मनाने आया हूँ !
मिट्टी के पुतले मानव का संसार मिटाने आया हूँ !
।।षोड़श मयूख।। अंतिम पर्व वैशंपायन उवाच दोहा धृतराष्टर आदेश, धर्मपुत्र शिर पर धर्यो। यथा सुयोधन लेश, कबहुँ न अंगीकृत कर्यो।।१।। वैशंपायन मुनि आगे कहने लगे कि हे राजा जन्मेजय! धृतराष्ट की एक-एक आज्ञा को जिस प्रकार राजा युधिष्ठिर ने शिरोधार्य किया, उसी प्रकार दुर्योधन ने उनकी एक भी आज्ञा को नहीं माना था। दोहा स्नान दान गज गाय महि, भेजन सयन सुभाय। प्रथम करै धृतराष्ट्र जब, पीछे नृपति सदाय।।२।। श्रेष्ठ भाव से स्नान कर, हाथी, गायें एवं पृथ्वी का दान कर, भोजन और शयन आदि नित्य कार्य पहले धृतराष्ट्र करते उसके बाद धर्मराज युधिष्ठिर अपना नित्य कर्म निबटाते। जो पदार्थ […]
» Read moreमैं किसी आकुल ह्रदय की प्रीत लेकर क्या करूंगा !
सिकुड़ती परछाइयाँ, धूमिल-मलिन गोधूलि-बेला !
डगर पर भयभीत पग धर चल रहा हूँ मैं अकेला !
ज़िंदगी की साँझ में मधु-दिवस का यह गान कैसा ?
मोह-बंधन-मुक्त मन पर स्नेह-तंतु-वितान कैसा ?
मरण-बेला में मिलन-संगीत लेकर क्या करूँगा ?
मैं किसी आकुल-ह्रदय की प्रीत लेकर क्या करूँगा ![…]
।।पंचदश मयूख।। शल्यपर्व वैशंपायन उवाच दोहा संजय और युयुत्सु दोउ, आये नृप कौं लैन। त्रियन युक्त कुरुखेत हित, बड़ी बधाई दैन।।१।। वैशंपायन कहने लगे कि हे जन्मेजय! युद्ध के सम्पूर्ण होने पर संजय और युयुत्सु ये दोनों, गांधारी आदि स्त्रियों सहित, राजा धृतराष्ट्र को कुरुक्षेत्र ले जाने को तथा बधाई देने को हस्तिनापुर में आए। संजय उवाच कवित्त भीम कौं दयो हो विष ता दिन बयो हो बीज, लाखागृह भये ताको अंकुर लखायो है। द्यूतक्रीड़ा काल बिसतार पाय बड़ो भयो, द्रौपदी हरन भये मंजरी तैं छायो है। मच्छ गाय घेरी जबै पुष्प फल भार भयो, तैंने ही कुमंत्र जल सींचिकै […]
» Read moreराज्य-लिप्सा के नशे में, विहँसता है आज दानव !
दासता के पात में जो, पिस रहा है आज मानव !
आज उसकी आह से धन की हवेली हिल रही है !
आज होली जल रही है ![…]