इनसे तो देव ही डरते हैं तो फिर

स्वमान व सत्य के प्रति आग्रही जितने चारण रहे हैं उतने अन्य नहीं। इनके सामने जब सत्य व स्वमान के रक्षण का संकट आसीन हुआ तब-तब इन्होंने निसंकोच उनकी रक्षार्थ अपने प्राण अर्पण में भी संकोच नहीं किया। चारणों ने सदैव अपने हृदय में इस दृढ़ धारणा को धारित किया कि सत्य सार्वभौमिक, शाश्वत, व अटल होता है। यही कारण था कि इन्होंने कभी भी सत्य के समक्ष असत्य को नहीं स्वीकारा। यही नहीं इन्होंने तो सदैव लोकमानस को यह प्रेरणा दी कि- ‘प्राणादपि प्रत्ययो रक्षितव्य’
यानी प्राण देकर भी विश्वास बनाए रखना चाहिए।[…]

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मेरे कानों के लोल़िये तोड़े तो तोड़ लेना

जब-जब सत्ता मदांध हुई तब-तब जन सामान्य पर अत्याचारों का कहर टूटा है। राजस्थान के मध्यकालीन इतिहास के गर्द में ऐसी अनेक घटनाएं दबी पड़ी है जिनका उल्लेख इतिहास ग्रंथों व ख्यातों के पन्नों से ओझल है परंतु लोकमानस ने उन घटनाओं का विवरण अपने कंठाग्र रखा तथा पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित करता रहा है। यही कारण है कि उक्त घटनाएं लोकजीव्हा पर आसीन रहकर भूत से वर्तमान तक की सहज यात्रा करती रही है।
हालांकि बीकानेर के शासकों के अपनी जनता के साथ मधुर संबंध रहें थे लेकिन दो-तीन शासकों के समय में इन संबंधों में कड़वाहट तब आई जब कान के कच्चे शासकों ने कुटिल सलाहकारों की सलाह अनुसार आचरण किया। ऐसे में उस सलाह के भयावह परिणाम आए तथा शासक अपयश के भागी बने।
ऐसी ही एक घटना बीकानेर महाराजा रतनसिंहजी के समय सींथल गांव में घटी।[…]

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मैंने तुझे स्तनपान करवाया है!

…जब हम मध्यकाल का इतिहास खंगालते हैं तो ऐसे क्रूर अध्याय हमारे सामने आते हैं जिन्हें पढ़कर या सुनकर हमारा हृदय द्रवित हो उठता। पश्चिम राजस्थान में ऐसे छोटे-मोटे कई सामंत हुए हैं, जिन्होंने अपने पूर्वजों की पुनित परंपराओं को तिलांजलि देकर ऐसे कलुषित अध्याय सृजित किए जिनका कलंक अभी तक नहीं मिट पाया है।

ऐसा ही एक किस्सा है झांफली गांव की रांणां माऊ व कोटड़ा के राणा दुर्जनसाल का।…

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मेघवाल़ बिनां धण्यां रो नीं है

[….]जब हम मध्यकालीन राजस्थान के मौखिक इतिहास का श्रवण करते हैं तो तत्कालीन सत्ता और सत्ता के कारिंदों के अत्याचारों की ऐसी-ऐसी घटनाएं सुनने को मिलती है कि सुनकर हमारा हृदय करुणार्द्र हो जाता है।
ऐसी ही एक घटना है झांफली गांव की गोमा माऊ की।
गोमा माऊ का जन्म बाल़ेबा के पूनसी बारठ जसराजजी के घर उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में हुआ था। यहां यह उल्लेख्य है कि जसराजजी को संतान प्राप्ति प्रौढावस्था में हुई थी। इस खुशी में उन्होंने तमाम स्थापित परंपराओं को त्यागते हुए बेटी के जन्म पर न केवल गुड़ बंटवाया अपितु ढोलियों को बुलाकर मंगल गीतों के साथ खुशियां भी मनाई।[…]

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मैं जैसी तेरी मा वैसी ही जालमे की

ऐसी ही एक घटना है, लोकहितार्थ अपना तन अग्नि को समर्पित करने वाली अमरां माऊ की। अमरां माऊ का जन्म वि. की उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में कोडां गांव के रतनू हरदासजी धनजी रां के घर हुआ था। अमरां माऊ का ससुराल पुसड गांव में था। पुसड़ में मीसण जाति के चारण हैं। पुसड की सीमा धारवी गांव से लगती है और धारवी खाबड़िया राठौड़ों का गांव है। यहां के निवासी होने के कारण यह धारोइया कहलाते हैं।
पुसड के चारण धनवाल़ तो थे ही साथ ही खेती भी खूब करते थे लेकिन आए चौमासे सूरो और कलो धारोइयो इनके खेतों में उजाड़ कराते थे जिसके कारण हमेशा विवाद रहता था।[…]

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बेटी का अपमान असह्य है (कलू माऊ)

…कोडा गांव की धरती के रजमे का ही कारण है कि यहां आई और जाई दोनों में देवीय गुणों के समुज्ज्वल दर्शन होते हैं। इन्होंने अन्याय, अत्याचार, शोषण, और साधारणजन के हितार्थ जमर की ज्वालाओं में अपने प्राण समर्पित करते समय किसी भी प्रकार की हिचकिचाहट महसूस नहीं करके पश्चिम राजस्थान में ‘आ कोडेची है’ के गौरवपूर्ण विरुध्द से अभिमंडित हुई। इसी श्रृंखला में एक नाम आता है कलू (कल्याण) माऊ का।
कलू माऊ का जन्म वि. की अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में कोडा गांव के रतनू गजदानजी के घर हुआ था-
प्रसिद्ध डिंगल कवि कैलाशदानजी झीबा अपनी रचना ‘कलू मा रा छंद’ में उल्लेख करते हैं-

धन ऊजल़ कोडा धरा, दूथी धन गजदान।
धन्न धन्न कलु धीवड़ी, उण घर जनमी आय।[…]

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मातृ रूपेण संस्थिता

स्त्री की संपूर्णता व साफल्यमंडित जीवन का सारांश है मातृरूप का होना। जरूरी नहीं है कि मा जन्मदात्री ही होती है, मा वो भी होती है जो अपने ममत्व की सरस सलिला से दग्ध हृदय का सिंचन करती है तथा अपने स्नेह के आंचल में व्यथित व व्याकुल हृदयों को निर्भय होकर विश्रांति की शीतल छाया उपलब्ध करवाती है।
जब हम मध्यकालीन चारण काव्य का अध्ययन करते हैं तो निसंदेह हमारे सामने मानवीय मूल्यों के रक्षण तथा जीवमात्र के प्रति असीम दया के उदात्त उदाहरण मिलते हैं।
ऐसी ही एक दया, समर्पण, स्नेह व ममत्व की चतुष्टय दृष्टिगोचर होती है बाईस बाइयां की कथा।[…]

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ભગવતી આઈ શ્રી જીવામાં – લખીયાવીરા (भगवती आई श्री जीवा मां-लाखीयावीरा)

માતૃપૂજાની શરૂઆત તો સૃષ્ટિના આરંભ સાથે જ થઈ હશે. ભારતમાં તો આદિકાળથી જ માતૃપૂજા થતી આવી છે.

ઋગ્વદમાં પણ જગદંબાને સર્વદેવોના અધિષ્ઠાત્રી આધાર સ્વરૂપ, સર્વને ધારણ કરનારા સચ્ચિદાનંદમયી શક્તિ સ્વરૂપે વર્ણવ્યા છે.

ચારણ આઈઓની ઉજળી ગૌરવશાળી અને ભવ્ય પરંપરા રહી છે. ચારણ તો મુળથી જ જગદંબાનો ઉપાસક રહ્યો છે. તેથી જ ચારણ દેવીપુત્રલેખાય છે. દેવી ઉપાસનાને કારણે જ ચારણોમાં નારીને ભાગ્યા નહીં પુજનીય ગણવામાં આવે છે. સ્ત્રી સન્માનને કારણે જ ચારણ પુત્રીઓ તપ – સાધના – આરાધના કરી આઈનું જગદંબાનું પદ પામી પુરાવા લાગી. ચારણોનું આ નારીતત્ત્વ સંયમ, શીલ, સદાચાર, માનવપ્રેમ, વિઘાર્થન, નિયમ અને તપને કારણે પ્રાપ્ત થયેલી આત્મશક્તિને આભારી છે અને એટલે જ કદાચ આવી ચારણપુત્રીઓ પરમ શક્તિની વાહક બની છે. તેમની આત્મશક્તિ એવી હતી કે તેઓ જે વચન બોલી જાય તેને સાચા પાડવા પ્રકૃતિને પણ તેનો નિયમબદલવો પડે. એટલે જ મેઘાણીજી નોંધે છે કે “આવું નારીતત્ત્વ જગતના ઈતિહાસના અન્ય કોઈ વિર સ્તુતીકાર સંસ્થા સાથે જોડાયેલું જડતું નથી.”[…]

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शरणागत पंखी रै सारू मरणिया !!

महात्मा ईसरदासजी आपरी काल़जयी कृति ‘हाला-झाला रा कुंडलिया’ में लिखै कै “सिंह रा केश, नाग री मणि, वीरां रो शरणाई, सतवंती रा थण अर कृपण रो धन फखत उणां रै मरियां ईज दूजां रै हाथां पड़ै, जीवतां नीं। जे ऐ जीवता है ! अर कोई इणां री इण चीजा़ं रै हाथ घालै, तो घालणिये नै मरणो ईज पड़ै। उणां आ बात किणी अटकल़ पींजू डोढसौ री गत नीं लिखी बल्कि कानां सुणी अर आंख्यां देखी रै मेल़ सूं मांडी-

केहर केस भमंग मण, शरणाई सूहड़ांह।
सती पयोहर कृपण धन, पड़सी हाथ मूवांह।।[…]

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गैली दादी!

आथूणै राजस्थान री धरा वास्तव में सिद्धां, सूरां, सतियां, जतियां री धरा है। बांठै-बांठै कन्नै लोक-निर्मित उण महामनां री कीरत रा कमठाण, इण बात री साख भरै कै-

कीरत महल अमर कमठाणा।

लोकहितार्थ जीवण जीवणियां अर अरपण करणियां रो जस सदैव जनकंठां में ई गूंजतो सुणीजै, क्यूंकै लोक कदै ई गुणचोर नीं हुवै अर साथै ई लोक जात रो पूजक नीं, बल्कि गुणां ग्राहक हुवै-

गुण नै झुरूं गंवार, जात न झींकूं जेठवा।[…]

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