दीपै वारां देस, ज्यारां साहित जगमगै (एक) – डॉ. रेवंत दान बारहट

…राजस्थानी भाषा के इन युवा कवियों के बीच एक नौजवान और प्रगतिशील कविता की उभरती हुई बुलंद आवाज है-तेजस मुंगेरिया की।

यथा नाम तथा गुण। गिरधर दान जी के शब्दों में कहूं तो ‘बीज की बाजरी ‘ अर्थात बहुत ही अनमोल।

तेजस मुंगेरिया राजस्थानी कविता और खासकर डिंगल की उस प्राचीन विशिष्ट काव्य शैली का भरोसेमंद नाम है।…

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डिंगळ/पिंगळ की पोषक एक महान संस्था “भुज की पाठशाला” एवं उसका त्रासद अंत

शियाले सोरठ भलो, उनाले गुजरात।
चोमासे वागड भली, कच्छडो बारे मास।।

इसी कच्छ के महाराव लखपति सिंह (सन १७१०-१७६१ ई.) ने गुजरात/राजस्थान की काव्य परंपरा को सुद्रढ़ एवं श्रंखलाबद्ध करने का अभूतपूर्व कार्य किया जिसका साहित्यिक के साथ साथ सांस्कृतिक महत्त्व भी है। उन्होंने भुजनगर में लोकभाषाओँ एवं उनके काव्य-शास्त्र के अध्ययन एवं अध्यापन के लिए सन १७४९ ई. में “रा. ओ. लखपत काव्यशाला, भुजनगर” की स्थापना की जो “डिंगळ-पाठशाला” एवं “भुज नी पोशाळ” अथवा “भुज की पाठशाला” के नाम से लोकप्रिय हुई। यह पाठशाला स्वातंत्र्य-पूर्व काल अर्थात सन १९४७ ई. तक कार्य करती रही।
अपने लगभग २०० वर्षों के अंतराल में भुज की इस अनौखी काव्यशाला ने काव्य जगत को सैंकड़ों विद्वान् कवि दिए जिन्होंने अनेकों ग्रन्थ रचे एवं डिंगल/पिंगल काव्य परंपरा को नयी ऊँचाइयों पर पहुचाया।[…]

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सहजता और संवेदना को अभिव्यंजित करती कहानियां।

राजस्थानी कहानियों की गति और गरिमा से मैं इतना परिचित नहीं हूं जितना कि मुझे होना चाहिए। इसका यह कतई आशय नहीं है कि मैं कहानियों के क्षेत्र में जो लेखक अपनी कलम की उर्जा साहित्यिक क्षेत्र में प्रदर्शित कर अपनी प्रज्ञा और प्रतिभा के बूते विशिष्ट छाप छोड़ रहे, सरस्वती पुत्रों की लेखनी की पैनी धार और असरदार शिल्प शैली से प्रभावित नहीं हुआ हूं अथवा उनके लेखन ने मेरे काळजे को स्पर्श न किया हो। निसंदेह किया है। इनकी कहानियों ने न केवल मेरे मर्म को स्पर्श किया है अपितु इनकी लेखन कला, भाषा की शुद्धता तथा भावाभिव्यक्ति के कारण इन लेखकों की एक अमिट छवि भी मेरे मानस पटल पर अंकित हो गई है।[…]

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मन में रही उम्मेद!

राजस्थानी साहित्य रो ज्यूं-ज्यूं अध्ययन करां त्यूं-त्यूं केई ऐड़ै चारण कवियां रै विषय में जाणकारी मिलै जिकां रो आभामंडल अद्भुत अर अद्वितीय हो। जिणां आपरै कामां रै पाण इण पंक्ति नै सार्थक करी कै-

सुत होत बडो अपनी करणी, पितु वंश बडो तो कहा करिए?

पण दुजोग सूं ऐड़ै सिरै कवियां रै विषय में साहित्येतिहास में अल्प जाणकारी ईज मिलै। कारण कोई ई रह्यो हुसी पण साहित्येतिहास माथै काम करणियां ऐड़ै कवियां रै बारै में कोई ठावी जाणकारी नीं दी।
ऐड़ा ई एक सिरै कवि अर मिनखाचार सूं मंडित साहित्य मनीषी हा उम्मेदरामजी पालावत।[…]

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सांईदीन दरवेश – एक ओल़खाण

मध्यकालीन राजस्थानी काव्य में एक नाम आवै सांईदीन दरवेश रो। सांईदीनजी रै जनम विषय में फतेहसिंह जी मानव लिखै कै- “पालनपुर रियासत रै गांम वारणवाड़ा में लोहार कुल़ में सांईदीनजी रो जनम हुयो। सांईदीनजी बालगिरि रा चेला हा। ”

सूफी संप्रदाय अर वेदांत सूं पूरा प्रभावित हा। भलांई ऐ महात्मा हा पण पूरै ठाटबाट सूं रैवता। अमूमन आबू माथै आपरो मन लागतो। तत्कालीन घणै चारण कवियां माथै आपरी पूरी किरपा ही। आपरी सिद्धाई अर चमत्कारां री घणी बातां चावी है। जिणां मांय सूं एक आ बात ई चावी है कै ओपाजी आढा नै कवित्व शक्ति आपरी कृपादृष्टि सूं मिली। सांईदीनजी रै अर ओपाजी रै बिचाल़ै आदर अर स्नेह रो कोई पारावार नीं हो।[…]

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नवल हुतो जद नैरवै

थलवट भांयखै रो गांम जुढियो समृद्ध साहित्यिक परंपरा रै पाण आथूणै राजस्थान में आपरी ठावी ठौड़ राखै। एक सूं बध’र एक सिरै कवि इण गांम में हुया जिणां राजस्थानी डिंगल़ काव्य नै पल्लवित अर पुष्पित कियो। उणरो हाल तांई चिन्योक ई लेखो-जोखो नीं हुयो है।

इणी गांम में सिरै कवि नवलदानजी लाल़स रो जनम हुयो। जद ऐ फखत आठ वरस रा ईज हा तद इणां रै मा-बाप रो सुरगवास हुय चूको हो। चूंकि इणांरा पिताजी रेऊदानजी लाल़स पाटोदी ठाकरां रा खास मर्जीदान हा सो इणांरो आगै रो पाल़ण-पोषण उठै ईज हुयो। उठै ईज दरवेश सांईदीनजी इणांनै आखर ज्ञान दियो।[…]

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प्रीत पुराणी नह पड़ै

हिंदी-राजस्थानी के युवा प्रखर कवि व लेखक डॉ.रेवंतदान ‘रेवंता’ की आदरणीय डॉ.आईदानसिंहजी भाटी पर सद्य संस्मरणात्मक प्रकाशित होने वाली पुस्तक के लिए ‘फूल सारू पांखड़ी’—-

मैं यह बात बिना किसी पूर्वाग्रह के कह रहा हूं कि राजस्थानी लिखने वाले तो ‘झाल’ भरलें उतने हैं परंतु नवपौध को सिखाने वालों की गणना करें तो विदित होगा कि ये संख्या अंगुलियों के पोरों पर भी कम पड़ जाए। या यों कहें तो भी कोई अनर्गल बात नहीं होगी कि राजस्थानी में उन लेखकों की संख्या पांच-दस में ही सिमट जाती हैं जिनसे नई पीढ़ी प्रेरित होकर उनका अनुसरण करें।[…]

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कविराज दयालदास सिंढायच

….दयालदासजी का स्थान राजस्थान के उन्नीसवीं शताब्दी के लेखकों में आदरणीय व अग्रगण्य है। गद्य के गजरे में बीकानेर के यशस्वी इतिहास को गूंथकर जो सुवास भरी वो आज भी महकती हुई तरोताजा है। नामचीन ख्यातकार, गजब के गीतकार, विश्वसनीय सलाहकार व प्रखर प्रतिभा के धनी दयालदासजी बीकानेर रियासत के देदीप्यमान नक्षत्र थे। जिन्होंने अपनी, प्रभा का प्रकाश चतुर्दिक फैलाया। ऋषि ऋण परिशोध की भावना से शोध के क्षेत्र में अभिरूचि रखने वालों को ऐसे मनीषी के साहित्यिक व ऐतिहासिक रचनाओं के शोध हेतु अग्रसर होना चाहिए ताकि इनकी लुप्त प्राय रचनाएं प्रकाश में आ सकें।[…]

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ચારણ મહાત્મા પિંગળશી પરબતજી પાયક (चारण महात्मा पिंगलसी परबत जी पायक)

ચારણનો શિરમોર હતો, લાખેણો લાયક,
વકતા ને વિદ્વાન, પ્રખર પિંગળશી પાયક.

આઈશ્રી સોનલમાના અંતેવાસી, સમાજને જાગૃત કરનાર, યુગપુરુષ સ્વશ્રી પીંગળશીભાઈ પાયક સાચા અર્થમાં ચારણ ઋષિ હતા. સ્વહિત કે પરિવારની ખેવના કર્યા વિના સમગ્ર જીવન સમાજ સેવામાં અર્પણ કરી સમગ્ર ચારણ સમાજને ઊજળો બનાવ્યો.[…]

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पींगल़शी भाई मेघाणंदभाई गढवी (लीला) – कंठ कहेणी अने कलम नो त्रिवेणी संगम।

પીંગળશીભાઇ.મેધાણંદભાઇ.ગઢવી (લીલા) – કંઠ, કહેણી અને કલમો ત્રિવેણી સંગમ

પીંગળશીભાઈ ગઢવી સુપ્રસિદ્ધ કવિ, લેખક અને કલાકાર – કંઠ, કહેણી અને કલમ જેનામાં ત્રિવેણી સંગમ થઈને વહે છે, જેણે પંદર-સોગ કવિતા વાર્તાના ગ્રંથોની ગુજરાતને ભેટ આપી છે તેવા શ્રી પીંગળશીભાઈનો જન્મ વિ. સં. ૧૯૭૦ અને ઇ. સ. ૧૯૧૪ના રોજ જુલાઈ માસમાં પોરબંદર પાસેના છત્રાવા ગાર્મ ચારણ કુળની લીલા શાખામાં થયો. પિતાનું નામ મેધાણંદ, અને માતાનું નામ શેણબાઈમાં, તેમનાં લગ્નના બાલુભાઈ ઉઢાસનાં સુપુત્રી જીબાબેન સાથે થયાં.મેધાણંદ ગઢવીના પનોતા અને પ્રતિભાશાળી બે પુત્રો જેમણે પિતાનો લોકસાહિત્યનો વારસો જાળવ્યો, એટલું જ નહિ પણ દીપાવ્યો છે. આ બે પુત્રોમાં મોટા સ્વ. મેરૂભા ગઢવી અને નાના પીંગળશીભાઈ ગઢવી.

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