दुर्गादास राठौड़ रो गीत तेजसी खिड़िया रो कहियो

असपत नूं लिखै नवाब इनायत, दाव घाव कर थाकौ दौड़।
मारूधरा मांहै मुगलां नूं, ठौड़ ठौड़ मारै राठौड़।।

कारीगरी न लागै कांई, घाव पेच कर दीठा घात।
किलमां नूं मारता न संकै, मरवि सूं न डरै तिलमात।।[…]

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काल कवि – डॉ. रेवंत दान बारहट

समय के महासमर में
मैंने शाश्वत शब्दघोष किया है
शब्द मेरे शस्त्र रहे हैं
शब्द शक्तियां आत्मसंयम रही हैं
मैं सनातन साक्षी हूं
असंख्य सभ्यताओं
संस्कृतियों की श्रृंखलाओं
शक्तिशाली सत्ताओं का,[…]
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शरणागत की रक्षार्थ प्राण अर्पित किए- (मा पुनसरी एक परिचय)

हमारी संस्कृति के मूलाधार गुणों में से एक गुण है शरणागत की रक्षा अपने प्राण देकर भी करना। ऐसे उदाहरणो की आभा से हमारा इतिहास व साहित्य आलोकित रहा है, जिसका उजास सदैव सद्कर्मों हेतु हमारा पथ प्रशस्त करता है।

जब हम अन्य महापुरूषों के साथ-साथ चारण मनस्विनियों के चरित्र का पठन या श्रवण करते हैं तो ऐसे उदाहरण हमारे समक्ष उभरकर आते हैं कि हमारा सिर बिना किसी ऊहापोह के उनके चरणकमलों में नतमस्तक हो जाता है।

ऐसी ही एक कहानी है गुजरात के कच्छ प्रदेश की त्याग व दया की प्रतिमूर्ति मा पुनसरी (पुनश्री) की।[…]

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सबै मिनख है एक सम (मा जानबाई एक परिचय)

…जब हम चारण देवियों का इतिहास पढ़ते हैं अथवा सुनते हैं तो हमारे समक्ष ऐसी कई देवियों के चारू चरित्र की चंद्रिका चमकती हुई दृष्टिगोचर होती है जिन्होंने साधारणजनों तथा खुद की संतति में कोई भेदभाव नहीं किया।

जिस छुआछूत को आजादी के इतने वर्षों बाद भी अथक प्रयासों के बावजूद हमारी सरकारें पूर्णरूपेण उन्मूलन नहीं कर सकी उसे हमारी देवियों ने पंद्रहवीं सदी व अठारहवीं सदी में ही अपने घर से सर्वथा उठा दिया था।

ऐसी ही एक देवी हुई है जानबाई। जिन्होंने छूआछूत को मनुष्य मात्र के लिए अभिशाप माना तथा उन्होंने इस अभिशिप्त अध्याय का पटाक्षेप अपने गांव डेरड़ी से किया।…

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जोधपुर स्थापना और पूर्व पीठीका !! – राजेन्द्रसिंह कविया संतोषपुरा

…किले की नींव का प्रथम शिलास्थापन भवभय भंजनी भगवती करनल किनियाँणी के कर कमलों द्वारा कराकर आगत अदृष्य अनिष्ट से अपने पीढीयों को आरक्षित करने के उद्देश्य से अमराजी चारण को माता जी को आंमत्रित कर के लाने हेतु भेजा व जब जगदम्बा पधारी तो उनके हाथो से वि. सं. १५१५ जेष्ठ माह की उजऴी ग्यारस को दुर्ग की स्थापना करवायी।

पन्दरा सौ पन्दरोतरै, जेठ मास जोधाण।
सुद ग्यारस वार शनि, मंडियो गढ महराण।।

मारवाड़ के प्रसिन्द इतिहासकार पं. विश्वेश्वरनाथ रेउ ने लिखा है कि ख्यातों मे लिखा है कि करनीजी नाम की चारण जाति की प्रसिध्द महिला द्वारा किले का स्थान बताया जाना व उसीके द्वारा उसका शिलारोपण होना भी लिखा है।…

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दीपै वारां देस, ज्यारां साहित जगमगै (एक) – डॉ. रेवंत दान बारहट

…राजस्थानी भाषा के इन युवा कवियों के बीच एक नौजवान और प्रगतिशील कविता की उभरती हुई बुलंद आवाज है-तेजस मुंगेरिया की।

यथा नाम तथा गुण। गिरधर दान जी के शब्दों में कहूं तो ‘बीज की बाजरी ‘ अर्थात बहुत ही अनमोल।

तेजस मुंगेरिया राजस्थानी कविता और खासकर डिंगल की उस प्राचीन विशिष्ट काव्य शैली का भरोसेमंद नाम है।…

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श्री करनीजी ने दी #महराणगढ़ की नींव

…यही नहीं ऐसे इतिहासकारों ने ऐतिहासिक व सांस्कृतिक संदर्भों को भी जनमानस की स्मृति से हटाने हेतु अपने इतिहास ग्रंथों में शामिल नहीं किया।

ऐसा ही एक सांस्कृतिक गौरव बिंदु है जोधपुर गढ़ की नींव करनीजी के हाथों निष्पादित होना।

डिंगल काव्य सहित कई जगह इस बात के संदर्भ मिलते हैं लेकिन आधुनिक इतिहासकारों में केवल किशोरसिंहजी बार्हस्पत्य को छोड़कर अन्य किसी ने इस महनीय बिंदु को उल्लेखित नहीं किया।[…]

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चारण – डॉ. रेवंत दान बारहठ

सृष्टि रचयिता ने
स्वर्ग के लिए जब पहली
बार रचे थे पांच देव –
देवता,विद्याधर,यक्ष,चारण और गंधर्व
तभी इहलोक पर रचा था केवल
एक नश्वर मनुष्य
मगर मनुष्य ने खुद को बांट दिया था
क्षत्रिय,बामण,वैश्य और शूद्र में
कहते हैं कि राजा पृथु ने
स्वर्ग के देवताओं में से
चारण गण को आहूत किया था[…]
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मातृ रूपेण संस्थिता

स्त्री की संपूर्णता व साफल्यमंडित जीवन का सारांश है मातृरूप का होना। जरूरी नहीं है कि मा जन्मदात्री ही होती है, मा वो भी होती है जो अपने ममत्व की सरस सलिला से दग्ध हृदय का सिंचन करती है तथा अपने स्नेह के आंचल में व्यथित व व्याकुल हृदयों को निर्भय होकर विश्रांति की शीतल छाया उपलब्ध करवाती है।
जब हम मध्यकालीन चारण काव्य का अध्ययन करते हैं तो निसंदेह हमारे सामने मानवीय मूल्यों के रक्षण तथा जीवमात्र के प्रति असीम दया के उदात्त उदाहरण मिलते हैं।
ऐसी ही एक दया, समर्पण, स्नेह व ममत्व की चतुष्टय दृष्टिगोचर होती है बाईस बाइयां की कथा।[…]

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डिंगळ/पिंगळ की पोषक एक महान संस्था “भुज की पाठशाला” एवं उसका त्रासद अंत

शियाले सोरठ भलो, उनाले गुजरात।
चोमासे वागड भली, कच्छडो बारे मास।।

इसी कच्छ के महाराव लखपति सिंह (सन १७१०-१७६१ ई.) ने गुजरात/राजस्थान की काव्य परंपरा को सुद्रढ़ एवं श्रंखलाबद्ध करने का अभूतपूर्व कार्य किया जिसका साहित्यिक के साथ साथ सांस्कृतिक महत्त्व भी है। उन्होंने भुजनगर में लोकभाषाओँ एवं उनके काव्य-शास्त्र के अध्ययन एवं अध्यापन के लिए सन १७४९ ई. में “रा. ओ. लखपत काव्यशाला, भुजनगर” की स्थापना की जो “डिंगळ-पाठशाला” एवं “भुज नी पोशाळ” अथवा “भुज की पाठशाला” के नाम से लोकप्रिय हुई। यह पाठशाला स्वातंत्र्य-पूर्व काल अर्थात सन १९४७ ई. तक कार्य करती रही।
अपने लगभग २०० वर्षों के अंतराल में भुज की इस अनौखी काव्यशाला ने काव्य जगत को सैंकड़ों विद्वान् कवि दिए जिन्होंने अनेकों ग्रन्थ रचे एवं डिंगल/पिंगल काव्य परंपरा को नयी ऊँचाइयों पर पहुचाया।[…]

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