पाण्डुलिपि संरक्षण – कवि गंगाराम जी बोगसा

प्रेषित: कवि गिरधरदान रतनू “दासोड़ी”
साभार: महेंद्र सिंह नरावत “सरवड़ी”
गंगारामजी बोगसा महाराजा तखतसिंह जी जोधपुर के समकालीन व डिंगल़ के श्रेष्ठतम कवियों में से एक थे। खूब स्तुतिपरक रचनाओं के साथ अपने समकालीन उदार पुरुषों पर इनकी रचनाएं मिलती है। आज जोधपुर में मेरे परम स्नेही महेंद्रसा नरावत सरवड़ी जो पीएचडी के छात्र व अच्छे कवि भी हैं। ये पांडुलिपियां लेकर हथाई करने आए। महेंद्रसा, गंगारामजी के चौथी पीढ़ी के वंशज हैं। अपने पर-पितामह की पांडुलिपियों का संरक्षण कर रहे हैं।
आज की युवा पीढ़ी जहां एक ओर पुराने साहित्य से दूर भाग रही हैं वहीं महेंद्रसा जैसे संस्कारित युवा भी हैं जो इस मुहिम में लगे हैं कि अपने पूर्वजों की लग्न व निष्ठा से लिखे गए इस महनीय साहित्य की अंवेर कैसे जाए? कुछ बानगियाँ प्रस्तुत है:
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डिंगल कवियों की यह उदारता भी रही है कि अपने मित्रों, हितेषियों व संबंधियों के आग्रह पर ये उन्हीं के नाम से भी रचनाएं लिख देते थे। ऐसे एक नहीं कई उदाहरण मिलते हैं। बाद में मूल कवि के स्थान पर उस कवि का नाम चल पड़ता है जिसके नाम से मूल कवि ने रचना बनाई। ऐसा ही एक उदाहरण आज गंगारामजी बोगसा सरवड़ी की कुछ पांडुलिपियां पढ़ते हुए मिला। गंगारामजी ने खांडप के ठाकुर सरदारसिंहजी के नित्य पाठ हेतु मा खूबड़ी की स्तुति लिखकर दी थी। राजेंद्रसा सरवड़ी के अनुसार ये खांडप के थे।
“श्री खूबड़जी री असतूत ठाकुरां सरदारसिंहजी(रै) पाठ करवा नै कहाड़ि(यो) बोगसा गंगाराम कनै सूं”
छंद का थोड़ासीक अंश प्रस्तुत है:
खूबड़ रो परचो खरो, है हाजरा हजूर।
काछेली ऊपर करै, कुल़जुग घोर करूर।।1
दूजा देवी देवता, सातादीप सधाय।
विघन वडारण सरवड़ी, मादाई महमाय।।2
कियां साद ऊपर करै, समर्यां सदा सहाय।
जगतम्ब सरदारो जपै, ऊपर करजो आय।।3
मनसुध साचो माहरै, वीसहथी विसवास।
समरै कर जोड़े सदो, आई पूरै आस।।4
।।छंद – त्रोटक।।
समरूं धर ध्यान सदा सगती। महमाय वरीसण सुध्द मती।
जय खूबड़ मात जगं जरणीकछराय सहाय सदा करणी।।1
जगदंब नको सुर आप जसो। करवूं जस हेकण जीभ कसो।
धणियाप सदा समर्यां धरणी। व्रहमंड पुरांण गुणां वरणी।।2
धरणी धर शंकर ध्यान धरै। मुनि सेस गुणेस सदा समरै।
सुरलोक भूगोळ पताळ सही। रम आप त्रहूं पुर मांह रही।।3
घटघाट सदा तुम भांज घड़ै, विध संभू हरि नह आप वड़ै,
भगती कर चुंड न्रपाळ भजी। मरू देस वरीस हुई मरजी।।4
सुरतांण भजी जग धांन सजै, भड़िया दळ बाइस लोक भजै।
कछवाह जेसाह जो ध्यान कियं। दळ रौद दल्लिपत गाळ दियं।।5
कमधांपत वीक भजी करणी। धर जंगळ री बगसी धरणी।
त्रसियो अखवी रण मांह तठै। जपियो अनपूरण आप जठै।।6
तण वार जो सेन हुई तरसी। विखमी पुळ वादळ ती वरसी।
लड़तांय चामंड वचाय लियो। दुख वार अगै दह नाम दियो।।7

“भंज्या निसंभ संभ भूप, आप रूप आवड़ा।।” की स्थाई पंक्ति वाले इस प्रसिद्ध छंद का कई भक्तजन नित्य पाठ करते हैं। कई जगह प्रकाशित भी है। इस छंद रचनाकार के साथ कमोबेस सभी संपादकों ने अन्याय किया है। वस्तुतः यह छंद नंदजी खिड़िया रचित है और पुरानी पांडुलिपियों में रचनाकार का यही नाम मिलता है। आदरणीय शक्तिदानजी कविया ने भी कईबार यह जानकारी मुझे दी थी। इसी जानकारी के आधार पर मैंने मेरे एक निबंध ‘भक्ति साहित्य री तीसरी धारा’ में इस रचना के साथ इस रचनाकार का नामोल्लेख किया था। लेकिन कुछ किताबों में यह छंद कहीं मेहाजी किनिया के नाम से तो कहीं मेहाजी वीठू के नाम से अंकित कर दिया गया। जिससे मूल रचनाकार का नाम गौण हो गया।
आज महेंद्रसा नरावत सरवड़ी द्वारा उपलब्ध गंगारामजी बोगसा के संग्रह की एक पांडुलिपी, जो 1923 वि. की लिखी गई है में यह छंद भी है। हालांकि छंद पूरा नहीं है। शायद संग्रहकर्ता को इतना ही याद हो। इसके अंत में दो कवत्त दिए गए हैं। जिसमें नंदजी का स्पष्ट नाम हैं। आपसे साझा कर रहा हूं-
साचै मन सुरराय, सको तन काज सुधारण।
तूं सीहायक सदा, वीसहथ वेल वधारण।
पग पग परचा पूर, दिया तेंहीज अनदाता।
कहै #नंदो कर जोड़, मूझ ऊपर कर माता।
दुख दीन मेट सुख दीजियो, जगत पतीजै जावड़ा।
सांभल़ो साद मोटी सगत, ऊपर कीजै आवड़ा।।
ते नवघण नीमतियो, लाख नव हेकण लारां।
कर कलुड़ाय कुलड़ी, तीसखट भोजन त्यारां।
पंचाल़ी पीपल़ी, हेम थाल़ी कर हाथां।
पांत्यो पाट बरह, जैज नह करही जीमातां।
परमांण धिनो अनपूरणा, धणी जांण हिरदै धरूं।
सुभियांण मात आवड़ सगत, की बखांण तोरा करूं।।
गंगारामजी बोगसा री वि.सं.1840 री एक पांडुलिपि। जिणनै लगैटगै उदैई जीम चूकी है। पण थोड़ी घणी बचगी। इण प्रति में सादो बोगसो, देथा हमीर, ढाढी दाना रै साथै ई हमीर रतनू रो एक गीत बचग्यो। शीर्षक है- रामजी सत छै। गीत रतनू हमीर रो कहियो धूप रो।
इण गीत में महाकवि हमीरजी धूप (आरती) री वेल़ा किण-किण नै याद करणा चाहीजै रो वर्णन कियो है।
अंतिम दूहालो-
नवां नारसिंघां धूप अष्ट भैरवां नमो,
जमदढां गढां जुगां नै जुगाद।
जतियां सतियां धूप सूरां पूरां जोगेसरां,
अवलियां मरदां ओऊ इल़ा आद।।
खेतरपाल़ री असतूत-बोगसो गंगाराम कहै
।।दूहा-सोरठा।।
लांगो लटियाल़ोह, चांमंड वाल़ो चेलको।
आवै उताल़ोह, चाल करेवा चारणां।।1
चांमंड रा चेलाह, वीर चारणां वाहरू।
हव सांभल़ हेलाह, आवै धणी उतावल़ो।।2
।।छंद – रेंणकी।।
सगती रा पुत्र चारणां स्हायक,
वायक साचा जगत वदै।
भूलूं नह भजन आपरो भैरूं,
राखूं नसदिन ध्यान रदै।
प्रभता अणपार त्रहुंपुर पूजै,
नाग उसर सुर सबै नमै।
बावन संग वीर लियां अतल़ीबल़,
रांमत खेतल वीर रमै।।1
बहुत सरस छंद है। लेकिन प्रतिलिपि करते समय आधा छोड़ दिया गया। पांचवां छंद आधा ही दिया गया है। नीचे किसी को बाजरी उधार दी उसका हिसाब है।
गंगारामजी बोगसा की चार-पांच पांडुलिपियां महेंद्रसा नरावत सरवड़ी नै भेजी। इनमें से एक महनीय पांडुलिपी है। इसमें कई महत्वपूर्ण कवियों की रचनाएं संग्रहित है। यथा आसाजी ईसरदासजी बारठ, मेहाजी वीठू, माधोदासजी गाडण, कवि चंद(चारण), एक जगह चंद रोहड़िया लिखा हुआ है।
हालांकि इसमें से आसाजी ईशरदासजी सहित कई कवियों की रचनाएं प्रकाश में आ चूकी है। इसी प्रकार मेहाजी की रचनाओं में से ‘पाबूजी रा छंद’ भैरूंजी रा छंद, भी छप चूके हैं। लेकिन ‘दसावतार रा छंद’ भी मिले हैं और इनके साथ बिना कवि का उल्लेख किए एक देवी का सारसी छंद भी है। हालांकि यह अधूरा है। ध्यातव्य है कि यह छंद मेरे संग्रह में पहले से पूरा है। वो भी अज्ञात कवि के नाम से।
इस प्रति में पाबूजी रा छंद, ‘दसावतार रा छंद’ के साथ ही यह छंद भी निरंतरता में है। अतः मेरा ऐसा अनुमान है कि यह छंद भी मेहाजी वीठू का ही होना चाहिए।
छंदों के उदाहरण आप विज्ञ जनों के समक्ष रख रहा हूं ताकि आप सही मार्ग प्रशस्त कर सकें। इनके साथ ही कई वीर गीत भी है जिनमें बलू चौहाण, कला रायमलोत, सवाईसिंह चांपावत आदि के हैं।
मेहा वीठू रचित दसावतार रा छंद का एक उदाहरण-
।।1: छंद – त्रिभंगी।।
मंछ रूप मुकंदं वालण वेदं,
करअ मेदं जस करती।
संखवाव वमाता अप
सु पाता,
मांन वधाता गुर मती।
संखासुर जीपै हंसा दीपै,
व्रहमा कीपै वध्धारू।
कव मेह प्रसन्नू जयो क्रसन्नू,
देयण दन्नू दातारू।।(अप्रकाशित)
अज्ञात कवि (संभवतः मेहाजी वीठू। आपके सुझावों की प्रतीक्षा)
।।2: छंद – सारसी।।
महामूल़ मनसा बीज मंत्र,
सबद ओउम संभरू।
वै सबद हूंता तेज समधर,
तेज जोती वसतरू,
उण जोत हूंता हुवो अंदजस,
वर धरम वक्रम विसतरी।
कोरंभ काया जुगै जाया,
आद माया ईसरी।
देवी आद माया ईसरी।।
(अप्रकाशित)
।।3: छंद -त्रिभंगी।।
देवी चामंडा दैत विखंडा,
देह प्रचंडा वल़वंडा।
डैहरू भुज डंडा खापर खंडा,
मरद निरासक चंड मुंडा।
मैहकासुर खंडा मुरपुर मंडा,
नवखंडा डंडा जमदंती।
जै जै जुगजामण जै सुरसामण,
जै जै सुरसती।।
(अप्रकाशित)
गुण माताजी रो अष्टक ध्यांन लिखते- (अज्ञात-किसी को ध्यान हों तो बताएं)
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