सिद्धि विनायक वंदना

।।दोहा।।
मूषकवाहन, द्रुत, चतुर, कवि कोविद गणनाथ।
सिंधुर-आनन, एक-रद, नमो! नमो! गजमाथ।।१
भाल-चंद्र! वर बाल शिव, आदि सुपूज्य अनंत!
वक्रतुंड! पिंगाक्ष जय! जयति जयति इकदंत!!२
।।मत्तगयंद छंद।।
हे इकदंत! सुसेवित संत! अनादि! अनंत! गणाधिप! प्यारै।
सिंधुर आनन! नाथ गजानन! श्रीगिरजा शिव राजदुलारै!
गान प्रबीन! पखावज बीन, लिए मुझ दीन के गेह पधारे!!
श्रीगणनायक! सिद्धि विनायक! देव! हरो दु:ख द्वंद हमारे!!१!!
अंग सों मातु उतारि उमा उदवर्तन सोच कियो उर भारे!
बालक मूर्ति बनाइ; दिए भर प्राण बिठाइ;पुनः निज द्वारे।
“ध्यान रखो कोउ आय सके न इहां सुनु पुत्र गणेश” उचारे!
श्रीगणनायक! सिद्धि विनायक! देव! हरो दु:ख द्वंद हमारे!!२!!
ताहि समै भव! भेषभयंकर! श्री गिरजा मिलने पगुधारै!
बाल किवार कियो अवरूद्ध; भये लखि कृद्ध सदाशिव भारे!
मस्तक काटि दियो छिन में कर सो निज वार करे फरसा रे!
श्रीगणनायक! सिद्धि विनायक! देव! हरो दु:ख द्वंद हमारे!!३!!
ता लखि गौरि भई अति व्याकुल शंकर आप दियो दु:ख भारे!
पुत्र गनेश बिना नहीं चैन; जियावहु नाथ “ये बैन उचारे!”
शंकर मस्तक जोरि गयंद को कीन्ह सजीवन बाल सकारे!
श्रीगणनायक! सिद्धि विनायक! देव! हरो दु:ख द्वंद हमारे!!४!!
गौरि के गोद विनोद करै मन मोद लिए कर मोदक धारै!
ताल मनोहर! नाचत सुंदर ले डमरु करताल बजा रै!
हेरि हॅंसे पुनि शंकर भामिनि, “पुत्र गणेश! गणेश” पुकारै!
श्रीगणनायक! सिद्धि विनायक! देव! हरो दु:ख द्वंद हमारे!!५!!
होड़ लगी दुहुं भ्रातन बीच कि कौन बड़ौ, शिवशांब उचारै।
“सृष्टि को घूम इहां अइहै पहिलै, वही श्रेष्ठ सुपुत्र हमारे! ”
जीत गये तुम षण्मुख से फिरि चक्कर मात पितु पद चारै!
श्रीगणनायक! सिद्धि विनायक! देव! हरो दु:ख द्वंद हमारे!!६!!
व्यास कियौ अनुरोध! ” गणाधिप भारत काव्य रचों चित म्हारै
बेद षडांग पुरानन सार निचोरि मुनिन्द्र सुपद्य उचारे!
लेखक आप गणेश बनें, बहुवल्कल पे सुप्रबंध उतारे!
श्रीगणनायक! सिद्धि विनायक! देव! हरो दु:ख द्वंद हमारे!!७!!
बाल विभाकर भाल सुछाजत, मंजुल माल प्रसूनन धारे!
यज्ञ-पवीत लसै शुभ दूब, फबै छबि खूब अनूप अपारे!
शीष किरीट, करो शुभ दीठ सुमूषिक-पीठ बिराजि सदा रे!
श्रीगणनायक! सिद्धि विनायक! देव! हरो दु:ख द्वंद हमारे!!८!!
सिद्धि रु रिद्धि नवेनिधि अग्र खरी तव पांव सदैव पखारै!
लाभ शुभादिक रावरै चाकर ठाकुर के तुम ठाकुर न्यारै!
नाम रटै उर आनंद मंगल चित्त गणेश रहो नित धारै!
श्रीगणनायक! सिद्धि विनायक! देव! हरो दु:ख द्वंद हमारे!!९!!
ढोल नगाड़ मृदंग बजै पुनि मंदिर लागि रहै जयकारै!
नारद शारद आदि विशारद बीन सितार बजावत सारै!
श्रीशुक शौनक व्यास वशिष्ट लिए कर दीप सु आरति बारै!
श्रीगणनायक! सिद्धि विनायक! देव! हरो दु:ख द्वंद हमारे!!१०!!
म्है मति मंद भर्यो छल छंद, सदैव करूं प्रभु कागद कारे!
आखर एक नहीं उपजै “नरपत्त” दयाकर नेकु निहारै!
विज्ञ! विधायक! हे श्रुति गायक! काव्य सुधा उर दो सरसा रै!
श्रीगणनायक! सिद्धि विनायक! देव! हरो दु:ख द्वंद हमारे!!११!!
।।कलश-छप्पय।।
जयति! जयति! गजमाथ, नाथ दु:ख हरन हमारे!
रिद्धि सिद्धि शुभ लाभ, सहित मम गेह पधारे!
सुमुख विकट गणराज, विनय करता कवि-किंकर!!
गद्य पद्य लय छंद, भाव उर भरहु मनोहर!
भाल-चंद्र! चित तम हरो, काव्य चंद्रिका कीजिए!
शिव गिरिजा सुत लाडले, “नरपत” पे प्रभु रीझिए!
।।दोहा।।
मोदकप्रिय गजकर्णक, रिधि सिधि के पतिदेव।
हेरंब, हर-सुत, गणपति, टाल़ कष्ट ततखेव।।
~~©डॉ. नरपत आसिया “वैतालिक”