एक दोहे ने कर दिया राव खेंगार का हृदय परिवर्तन

एक ऐतिहासिक घटना हेमचंद्राचार्य ने अपने ग्रंथ में अहिंसा के संदर्भ में लिखी है कि जूनागढ़ के चूड़ासमा शासक राव खेंगार प्रथम, शिकार के बहुत शौकीन थे। इसलिए वे जीव हत्या भी बहुत किया करता थे, एक समय वे शिकार करने निकले। अपने लवाजमे सहित जूनागढ़ से बहुत आगे निकल गए तो उनका लवाजमा पीछे छूट गया और स्वयं काफी आगे निकल गए। अकस्मात एक हरिण पर उनकी नजर पड़ी तब भाला लेकर उसके पीछे घोड़ा दौड़ाया लेकिन हरिण के नजदीक पहुंच नहीं सके। हरिण तेज गति से दौड़ कर आगे निकल गया। तब राव खेंगार दोपहर तक पीछा करते हुए एक ऐसी जगह पहुंचे जहां आगे दो मार्ग आए, राव जूनागढ वाले मार्ग से आए थे। आगे दो मार्ग और निकले। उन तीन मार्गों के संगम पर बबूल का पेड़ था जिसपर ढूमण चारण बैठे थे। वहां राजा ने उन्हें देखा तब उनसे कि कहा-“अरे भाई! मेरा शिकार हरिण इन दो मार्गों में से कौनसे मार्ग पर गया है?”
तब ढूमण चारण ने राजा को एक दोहा कहा, जो जैन उपदेश मंजरी में इस प्रकार दिया हुआ
जीव बधन्तां नग्ग गिह, अबधन्तां गिह सग्ग।
हूं जांणूं दुय वट्टङी, जिह भावै तिह लग्ग।।
ढूमण चारण ने कहा कि भाई! मैं तो पाप और पुण्य रूपी दो ही मार्ग ही जानता हूं। एक तो यह है कि जीव हत्या करने वाले नर्क के पथ पर जाते हैं और दूसरा यह है कि जो जीव हत्या नहीं करते हैं वे स्वर्ग के मार्ग पर जाते हैं। अतः तुम्हें जो मार्ग अच्छा लगे उसका चयन करलो!! ढूमण चारण का यह दोहा सुनते ही राजा ने भाला फैंक दिया और घोड़े से उतर कर वृक्ष के पास आए तब तक ढूमण चारण भी वृक्ष से नीचे उतर आए थे। जैसे ही ढूमण पेड़ से नीचे उतरे तो राजा उनके पैरों में पड़ गए, और कहा कि आपने मेरे ज्ञान चक्षु खोल दिए हैं अब मुझे पाप के मार्ग पर नहीं जाना है अब तो मैं धर्म के सन्मार्ग पर ही चलूंगा। ढूमण चारण के एक दोहे ने राव खेंगार का हृदय परिवर्तन कर दिया।
राव ने जूनागढ़ आकर जीव हत्या पर पूर्णतया प्रतिबंध लगा दिया।
आदरणीय नखतदानसा बारठ के आदेशों की पालना में इस प्रसंग और इस दोहे के भाव को मेरे शब्दों में वर्णित किया है जो आपकी सेवा में प्रेषित है-
गढपत जूनागड्ढ रो, खरो नाम खेंगार।
चढ अस वन में चालियो, सूरो रमण शिकार।।1
वड़गड़ियो वाजी वनां, धरती सारी धूंस।
मिल़ियो नको शिकार मुद, हिव नह छोडी हूंस।।2
आयो नजर अचाण रो, मलफंतो मिरगांण।
उण लारै अधपत दियो, कोकड़ियो केकांण।।3
वायु सूं बंतल़ां करै, उडतो बहै आकाश।
मातै ताजै मिरगलै, तन दी भूपत तास।।4
निजर कदै नजदीक रो, दीसै कदियक दूर।
अस थकियो थकियो अधप, म्रिग नको मजबूर।।5
अहर अरधतक ऐणविध, भटक थको जद भूप।
मुर मारग बिच में मिल्या, धुबै सीस पर धूप।।6
उणवर भूपत ईखियो, माणस तरवर माथ।
पूछण मारग पूगतो, वीर हलाई बात।।7
कुणसो मारग केण दिस, जासी कहजै जोय।
जूनागढ पूगूं जरू, कष्ट न पूगै कोय।।8
बैठे सँभल़ी विटप पर, सतधर ढूमण साद।
चारण बोल्यो चोज बिन, महिप रखण मरजाद।।9
जीव मारियां नरग जो, हणियां बिन सुर्ग हेर।
सुणिया मारग दोय सच, देख, कियां बिन देर।।10
जीकै हणै कर जीव नै, बहै नरग री वाट।
जुड़ै रिच्छा जो जीव री, नर जा सुरग निराट।।11
म्है तो साची माग ऐ, दीठा सांप्रत दोय।
मन थारो मानै मुदै, हेर जिकै पथ होय।।12
चारण ढूमण चाव सूं, नर सच मांड नचीत।
खरी कही खेंगार नै, नामी बातां नीत।।13
हिंसा जेहड़ो हेरजै, पुनि नह दूजो पाप।
परम धरम अहिंसा पुणो, अंतस धारण आप।।14
सुणिया वचन सतोल सद, खगपत बड खेंगार।
जीव हणण रो जोरवर, वड नर तज्यो विचार।।15
शस्त्र उणपुल़ सरब तज, पमँग छोड पड़ पाय।
गुर ढूमण मान्यो गुणी, नरपत सीस नमाय।।16
चखां कियो मुझ चानणो, अंतस निरमल़ आज।
सरग माग लेबा सहज, करसूं आगे काज।।17
हिंसा भाव हिरदै तज्यो, धिन्न दया उर धार
महिप मुनादी आ करी, सब जन तजो शिकार।।18
सिरै अहिंसा धरम सच, सधर करो सब कोय।
कव ढूमण शुद्ध मन कही, लाभ लहो हर लोय।।19
सरग नरग री वाट दुइ, हलसी जदतक हेर।
ढूमण रो उपदेश धुर, फल़ देसी चहुंफेर।।20
नह ढूमण खेंगार नह, गया जगत तज जोय।
आखर रहिया अमर इल़, पात दिया फिर पोय।।21
~~गिरधरदान रतनू “दासोड़ी”