एक दोहे ने कर दिया राव खेंगार का हृदय परिवर्तन

एक ऐतिहासिक घटना हेमचंद्राचार्य ने अपने ग्रंथ में अहिंसा के संदर्भ में लिखी है कि जूनागढ़ के चुडासमा शासक राव खेंगार प्रथम शिकार के बहुत शौकीन थे। इसलिए वे जीव हत्या भी बहुत किया करता थे। एक समय वे शिकार करने निकले। अपने लवाजमे सहित जूनागढ़ से बहुत आगे निकल गए एवं उनका लवाजमा काफी पीछे छूट गया और स्वयं काफी आगे निकल गए। अकस्मात एक हरिण पर उनकी नजर पड़ी तब भाला लेकर उसके पीछे घोड़ा दौड़ाया लेकिन हरिण के नजदीक पहुंच नहीं सके। हरिण तेज गति से दौड़ कर आगे निकल गया। तब राव खेंगार दोपहर तक पीछा करते हुए एक ऐसी जगह पहुंचे जहां आगे दो मार्ग आए, राव जूनागढ वाले मार्ग से आए। आगे दो मार्ग और निकले। उन तीन मार्गों के संगम पर बबूल का पेड़ था जिस पर ढुमण चारण बैठे थे। वहां राजा ने उन्हें देखा तब उनसे कि कहा अरे भाई! मेरा शिकार हरिण इन दो मार्गों में से कौनसे मार्ग पर गया है?[…]

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खरी कमाई खाय – कवि मोहन सिंह रतनू

खोटा रूपया खावतो, जावे सीधो जेल।
मिल जावे रज माजनो, बंश होय बिगड़ैल।।1
खोटा रूपया खावतो, लगे एसीबी लार।
निश्चय जावे नौकरी, बिगड़ जाय घरबार।।2
खोटा रूपया खावतो, चित्त में पड़े न चैन।
रात दिवस चिन्ता रहे, नींद न आवे नैन।।3
खोटा रूपया खावतो, खून ऊपजे खार।
घर कुसंप झगड़ो घणो, पूत जाय परवार।।4[…]

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भरतपुर अंग्रेज संग्राम और कविराजा बांकीदासजी आसिया – राजेन्द्रसिंह कविया

कविराजा बांकीदासजी आसिया पहले राष्ट्रीय भावना के प्रबल पक्षधर व स्वदेशप्रेम भावना से ओत-प्रोत कवि थे। कविराज नें डिंगऴ काव्य में अंग्रेजी शासनके खिलाफ बिगुल बजा दिया तथा तात्कालीन राजन्यवर्ग को रजपूती (वीरत्व) रखने के लिए निम्न प्रकार से प्रेरित किया:-

।।दोहा।।
महि जातां चींचाता महऴां, ऐ दुय मरण तणां अवसाण।
राखौ रे कैंहिक रजपूती, मरद हिन्दू की मुसऴमान।।

पुर जोधांण उदैपुर जैपुर, पह थारा खूटा परियांण।
आंकै गई आवसी आंकै, बांकै आसल किया बखांण।।[…]

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श्री करनी सुख रूप

लाठी लोवड़ियाल़ री, काठी जिणरी मार।
लागै पण लाधै नहीं, वीसहथी रो वार।।
पग पग पातक पेखियौ, जगै जगै पर झूठ।
इण सूं धर जांगल़धणी, अंब अराधूं ऊठ।।
करनी! जरणी धरणि री, तरणी करणी पार।
दुखहरणी बरणी इहग, सुख करणी संसार।।
खेंचरनी भुचरनी मां, दलणी दुष्ट हजार।
करनी बरनी मुकुटमणि, सरणी-अशरण-सार।।[…]

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रंग रे दोहा रंग – सखी!अमीणो साहिबो

काव्य का सृजन एक निरंतर प्रक्रिया है जो अनवरत कवि के मस्तिष्क में चलती रहती है। अच्छे कवि या लेखक होनें की प्रथम शर्त यह है कि आप को अच्छे पाठक होना चाहिए। कई बार हम अपने पूर्ववर्ती कवियों को पढते है तो उनके लेखन से अभिभूत हुए बगैर नहीं रह सकते। आज मैं मेरे खुद के लिखे ही कुछ दोहे आपको साझा कर रहा हूं जो मैंने डिंगल/राजस्थानी के प्रसिद्ध कवि बांकीदास आसिया की अमर पंक्ति “सखी! अमीणो साह्यबो” से प्रेरणा लेकर एक साल पहले लिखे थे। बांकीदास ने अपने ग्रंथ सूर छत्तीसी में “सखी! अमीणों साह्यबो” में उस काल के अनुरूप नायिका से वीर पत्नी के उद्गार स्वरूप वह दोहै कहलवाये थे।

मैं अपने बनाए दोहे यहाँ पर आप को साझा करूं उससे पहले कविराजा बांकीदास आसिया जिनकी एक अमर पंक्ति ने मुझ जैसे अकिंचन को लिखने का एक नया विषय दिया उनके दोहै साझा करता हूं।

सखी! अमीणों साह्यबो, बांकम सूं भरियोह।
रण बिगसे रितुराज में, ज्यूं तरवर हरियोह।।
वीर योद्धा की नायिका अपनी सहेली से कहती है “हे सखी मेरा प्रियतम वीरत्व से भरा हुआ है। वह युद्ध में इस प्रकार विकसित(खुश)होता है, जिस प्रकार बसंत रितु के आगमन पर पेड हरा भरा हो जाता है।[…]

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रंग रे दोहा रंग – हंस और बगुला

हंस और मानसरोवर का लोभ संवरण करने से ज्यादातर साहित्यकार खुदको रोक नहीं पाए है। आज मैं भी हंस, सरोवर, तरूवर और बगुला आदि पात्र/प्रतीकों से रचे गढे पुराने कवियों के कतिपय दोहे रूपी मौक्तिक आप सभी गुणीजन-पाठक-मराल के लिए राजस्थानी साहित्य/लोक साहित्य के मानसरोवर से चुन चुन कर प्रस्तुत कर रहा हूं।

सुण समदर सौ जोजना, लीक छोड़ मत जाह।
छोटा छीलर ऊझल़ै, तै घर रीत न आह।।
हे! सौ योजन तक फैले समुद्र तू अपनी सीमा मत लांघ। अपनी लीक से आगे मत जा। छोटे पोखर तालाब ही छलकते है क्योंकि वह अधूरे है। छलकना तुम्हारा स्वभाव नहीं। घर तुम्हारे घर की रीति या परंपरा नहीं है।

हीलोल़ा दरियाव रा, झाझा हंस सहंत।
बुगला कायर बापड़ा, पहली लहर पुल़ंत।।
समंदर की अनगिनत लहरें तो हंस ही झेल सकता है। बगुले जैसे कायर तो पहली लहर में ही धराशायी हो जाते है। यह बगुलों के बस की बात नहीं है।[…]

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रंग रे दोहा रंग – जोगमाया को रंग

शक्ति की भक्ति का पर्व चैत्र नवरात्र अपने चरमपर है। और अभी अभी ही फागुन और बसंत बीता है। लगता है फागुन के पलाश का रंग हमारे तन मन से अभी उतरने का नाम ही नहीं ले रहा है। जैसा कि पहले ही बता चुका हूं। राजस्थानी दोहा साहित्य में रंग के दोहों की एक भव्य परंपरा रही है। यह परंपरा आज भी आप किसी सुदूर थली थार के रेगिस्तान में गांव, चौपाल, ढाणी आदि के सुबह सुबह के मेल मिलाप (रेयाण)आदि में आप को ढूंढने पर जरूर दिखाई पडेगी।[…]

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वीरां माऊ वंदना

सिरुवै जैसल़मेर रा रतनू हरपाल़जी समरथदानजी रा आपरी बगत रा स्वाभिमानी अर साहसी पुरस हा। इणां री शादी रतनुवां रा बही राव, रावजी पूनमदान नरसिंहदानजी बिराई रै मुजब गांम सींथल़ रा बीठू किशोरजी डूंगरदानजी रां री बेटी वीरां बाई साथै होई।

जद जैसलमेर रा तत्कालीन महारावल़ जसवंतसिहजी (1759-1764वि)अर भाटी तेजमालजी रामसिंहोत रै बीच अदावदी बढी उण बगत हरपालजी ई भाटी तेजमालजी रै साथै हा। महारावल़ अर भाटी तेजमालजी रै बिचाल़ै हाबूर री गेह तल़ाई माथै लड़ाई होई उण बगत भाटी तेजमालजी संजोगवश निहत्था सो वीरगति(1763वि.बैसाग 8)नै पाई। (संदर्भ जैसलमेर भाटी शासक उनके पूर्वज एवं वंशजों का क्रमबद्ध स्वर्णिम इतिहास-गोपाल सिंह भाटी तेजमालता) महारावल़ उणां री पार्थिव देह नै अग्नि समर्पित करण सूं सबां नै मना कर दिया। उण बगत रतनू हरपालजी हाबूर ऊनड़ां साथै मिल़र महारावल़ री गिनर करियां बिनां दाग दियो-

झीबां पाव झकोल़िया, उडर हूवा अलग्ग।
पह रतनू हरपाल़ रा, प्रतन छूटा पग्ग।।[…]

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रंग रे दोहा रंग – हंस और काग

हंस को प्राचीन काव्य में, खास कर लोक साहित्य में खुब महिमान्वित किया गया है। हंस को आत्मा के प्रतीक रूप में भी कई संत कवियों ने प्रयुक्त किया गया है। पुराने जमाने में साधु संतो फकीरों और दिव्यगुणों से युक्त औलिया पुरूषों के आगे परमहंस बिरूद लगाया जाता था। जैसे कि रामकृष्ण परमहंस। आज भी बड़े बड़े संत महात्मा और महामंडलेश्वर अपने आगे परमहंस का बिरूद लगाते हुए आप को मिल जाएगें।

हंस के संबोधनी-काव्य दोहा, अन्योक्तियां, प्राचीन भजन, संस्कृत सुभाषित आदि से भारतीय साहित्य भरा पड़ा है। हंस में नीर क्षीर को परखने की द्रष्टि है, कला है, जो उसे अन्य पक्षीयों से अलग करती है। हंस मां सरस्वती का वाहन है। कवि नाथू सिंह महियारिया ने अपने ग्रंथ “वीर सतसई” में हंस जो कि सदैव मोती का चारा चुगता है उस को आधार बनाकर सरस्वती की श्रेष्ठता सिद्ध करने की कोशिश करी है। दोहा कुछ यूं है।

सुरपति वाहण तरु भखै, नरपति वाहण नाज।
तौ वाहण मोती चुगै, थूं सारां सिरताज।।[…]

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रंग! रे दोहा रंग! – हंस की अन्योक्ति

आज कल सोशियल मीडिया साहित्यिक ज्ञान के आदान प्रदान का एक सशक्त माध्यम बना हुआ है। सोशियल मीडिया पर ट्वीटर पर हाल ही में प्रताप सोमवंशी साहब जो कि दैनिक हिंदुस्तान में वरिष्ठ संपादक है और देश के बहुत ही उम्दा शायरों में शुमार एक शायर हैं, नें कुछ दिन पूर्व जब एक लोक दोहा जो हंस पर था वह शेयर किया जो उन्होंनें 1959 में कुतुर्उरल एन हैदर द्वारा लिखी किताब “आग का दरिया” में पढा था। दोहा कुछ यूं था।

ताल सूख पत्थर भयो, हंस कहीँ न जाय।
पीत पुरानी कारणे, चुन-चुन कांकर खाय।।

तो इस दोहे की वजह से उनसे साहित्यिक संवाद का स्वर्णिम अवसर मिला और मुझे लगा कि क्यों न हंस पर लिखे अन्य अन्योक्ति परक प्राचीन दोहे जो मेरे संज्ञान में है सुधि पाठकों के बीच साझा किये जाएँ ?[…]

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