हिंगळाज माताजी री स्तुति। – कवि रामचंद्र मोडरी (राणेसर)

।।छंद-रुपमुकुंद (रोमकंद)।।
करि कोप कंधाळम वीर वडाळम भूत कढाळम साव भले।
भयभीत भुजाळम रोख रढाळम झुझ बराळम खाग झले।
मिळिया मतवाळम पेट पेटाळम काळम पाळम पंथ कमे।
तरशूळ झले झळबोळ त्रिकाळिय रुप असेय हिंगोळ रमे।।1।।

हाडेतणी ताणम सैन सजाणम दैत जुआणम मेलि दळं।
रणि जंग मचाणम है जमराणम आग अवाणम मांय खळं।
खडि है खुरसाणम धज्ज धजाणम साहिकबाणम एणि समे।
तरसूळ झले झळबोळ त्रिकाळिय रुप असेय हिंगोळ रमे।।2।।[…]

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चोर निदाणै कै न्हासै!!

पुराणो जमानो मारकाट, लूट खसोट, दाबा मसल़ी रो हो अर्थात जिण री डांग उणरी ई भैंस! कणै लोग घात प्रतिघात कर लेता इणरो ठाह ई नीं लागत़ो। ऐहड़ो ई घात प्रतिघात रो एक किस्सो है तणोट रै राजकंवर देवराज भाटी रो।
देवराज भाटी भटींडै रै वराह राजपूतां रै अठै जान ले परणीजण गयो। वराह रै मन में भाटियां रै प्रति खारास उणां देवराज अर बीजै भाटियां साथै घात तेवड़ी अर पूरी जान रो धोखै सूं घाण कर दियो पण जोग सूं आ सुल़बल़ देवराज री सासू सुणली! उणरै मन में आपरी बेटी री ममता जागगी। बा नीं चावती कै कालै हाथ पील़ा किया अर आज उणरी बेटी लंबी पैरै! उण आपरी बेटी नैं विधवा होवण सूं बचावण सारु ‘आल’ राईकै नै बुलायो अर कैयो कै ‘देवराज नै रातो -रात कठै ई ऐहड़ी जागा छोडर आव जठै उणनै जीव रो जोखो नीं होवै। ‘ आल आपरी ‘जाणक’ सांढ माथै देवराज नै चढाय टुरियो जिको भटींडै सूं रात-रात में पोकरण री घाटी जाल़ां में पूगग्यो। अठै सांढ बेल़ास रो भार झाल नीं सकी जणै आल देवराज नै कैयो ‘भलांई म्हनै अठै उतारदो अर सांढ आप ले जावो अर भलांई आप अठै जाल़ां में उतर जावो अर सांढ म्हनै ले जावण दो, क्यूंकै अबै सांढ बेल़ास (दो सवार) रो भार झेल नीं सकै ! ‘  जणै देवराज कैयो कै ‘सांढ तूं लेय जा अर म्हनै अठै उतारदे। ‘[…]

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रैवूं तो कांई? म्है अठै पाणी ई नीं पीवूं!!

भलांई आदमी किणी री मदत करण रै ध्येय सूं उणरो मदतगार बणर जावो पण साम्हली जागा पोल अर कमजोरी देख कणै मदत करणियो दुस्मण बण बैठे कोई ठाह नीं लागे। मंडोवर सूं राव रिड़मल आपरी बैन हंसाबाई रै कैणै सूं बाल़क राणै कु़भै री मदत करण गयो पण उठै जाय रिड़मल देखियो कै सिसोदियां रा हाल सफा माड़ा है। चाचा अर मेहरो किणी री गिनर नीं कर रैया है। रिड़मल रै खांडै में तेज हो, उणां री भुजावां में बल़ हो। उण बेगो ई आपरो प्रभाव जमा लियो। कुंभै रै वैरियां नैं गिण गिण मोत रै घाट उतार दिया। ऐहड़ै संक्रमण काल़ में रिड़मल इतरो ताकतवर होयग्यो कै बो किणी री गिनर नीं करतो। सिसोदिया शंकित रैवण लागा अर उणांनै डर लागण लागो कै कठै ई रिड़मल ‘आई तो ही छाछ मांगण अर बण बैठी घर धणियाणी ‘ वाल़ी गत नीं कर देवै। आ नीं होवै कै चित्तौड़ रा धणी राठौड़ बण बैठे!!
उणां आ बात राजमाता हंसाबाई अर राणा कुंभा नै बताई अर ऊंधा-सूंव भल़ै भ्रमाय उणां नै रिड़मल रै पेटे पूरा शंकित कर र रिड़मल नै मारण सारु मून हां भरायली। पण सिंह रै मूंडै में हाथ कुण देवै। […]

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रंग रे दोहा रंग – सखी!अमीणो साहिबो

काव्य का सृजन एक निरंतर प्रक्रिया है जो अनवरत कवि के मस्तिष्क में चलती रहती है। अच्छे कवि या लेखक होनें की प्रथम शर्त यह है कि आप को अच्छे पाठक होना चाहिए। कई बार हम अपने पूर्ववर्ती कवियों को पढते है तो उनके लेखन से अभिभूत हुए बगैर नहीं रह सकते। आज मैं मेरे खुद के लिखे ही कुछ दोहे आपको साझा कर रहा हूं जो मैंने डिंगल/राजस्थानी के प्रसिद्ध कवि बांकीदास आसिया की अमर पंक्ति “सखी! अमीणो साह्यबो” से प्रेरणा लेकर एक साल पहले लिखे थे। बांकीदास ने अपने ग्रंथ सूर छत्तीसी में “सखी! अमीणों साह्यबो” में उस काल के अनुरूप नायिका से वीर पत्नी के उद्गार स्वरूप वह दोहै कहलवाये थे।

मैं अपने बनाए दोहे यहाँ पर आप को साझा करूं उससे पहले कविराजा बांकीदास आसिया जिनकी एक अमर पंक्ति ने मुझ जैसे अकिंचन को लिखने का एक नया विषय दिया उनके दोहै साझा करता हूं।

सखी! अमीणों साह्यबो, बांकम सूं भरियोह।
रण बिगसे रितुराज में, ज्यूं तरवर हरियोह।।
वीर योद्धा की नायिका अपनी सहेली से कहती है “हे सखी मेरा प्रियतम वीरत्व से भरा हुआ है। वह युद्ध में इस प्रकार विकसित(खुश)होता है, जिस प्रकार बसंत रितु के आगमन पर पेड हरा भरा हो जाता है।[…]

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हनुमान वंदना

🌺छंद मोतीदाम🌺
असीम! नमो वपुभीम! अनंत!
सुसेवित-सिद्ध-रू-किन्नर संत!
महा वरवीर! महारणधीर!
सदा अनुरक्त-सिया रघुवीर!
कराल! नमो वपु-बाल! कृपाल!
महाभड़! मानस-मंजु-मराल!
महागुणवान! कपीश! महान! नमो हड़ुमान नमो हड़ुमान! १[…]

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કાગળ પર

લૂ ની જેવા લખું નિસાસા કાગળ પર!
હરપળ નાટક રોજ તમાશા કાગળ પર!

તને પામવા લઉં સહારો પેન પત્ર નો,
ને સરવાળે મળે નિરાશા કાગળ પર!

ડરી ગયો છું નથી હવે જીવવાનો આરો,
કોણ મોકલે અમને જાસા કાગળ પર![…]

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જેણે રામને ઋણી રાખ્યા – કવિ શ્રી દુલા ભાયા કાગ

જમદઢ જાંબુવાન અને નળ અંગદ સુગ્રીવ નર્યા
પણ હજુ લગ હનુમાન ઈતો કાયમ બેઠો ‘કાગડા’

જગતમાં એક જ જનમ્યો રે કે જેણે રામને ઋણી રાખ્યા

રામને ચોપડે થાપણ કેરા ભંડાર ભરીને રાખ્યા
ન કરી કદીએ ઉઘરાણી જેમ, સામા ચોપડા ન રાખ્યા
જગતમાં એક જ જનમ્યો રે કે જેણે રામને ઋણી રાખ્યા[…]

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रंग रे दोहा रंग – हंस और बगुला

हंस और मानसरोवर का लोभ संवरण करने से ज्यादातर साहित्यकार खुदको रोक नहीं पाए है। आज मैं भी हंस, सरोवर, तरूवर और बगुला आदि पात्र/प्रतीकों से रचे गढे पुराने कवियों के कतिपय दोहे रूपी मौक्तिक आप सभी गुणीजन-पाठक-मराल के लिए राजस्थानी साहित्य/लोक साहित्य के मानसरोवर से चुन चुन कर प्रस्तुत कर रहा हूं।

सुण समदर सौ जोजना, लीक छोड़ मत जाह।
छोटा छीलर ऊझल़ै, तै घर रीत न आह।।
हे! सौ योजन तक फैले समुद्र तू अपनी सीमा मत लांघ। अपनी लीक से आगे मत जा। छोटे पोखर तालाब ही छलकते है क्योंकि वह अधूरे है। छलकना तुम्हारा स्वभाव नहीं। घर तुम्हारे घर की रीति या परंपरा नहीं है।

हीलोल़ा दरियाव रा, झाझा हंस सहंत।
बुगला कायर बापड़ा, पहली लहर पुल़ंत।।
समंदर की अनगिनत लहरें तो हंस ही झेल सकता है। बगुले जैसे कायर तो पहली लहर में ही धराशायी हो जाते है। यह बगुलों के बस की बात नहीं है।[…]

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आज वार इतवार

आज वार इतवार, आज घर-बार संभाळो।
आज वार इतवार, टूर पसवाड़ै टाळो।
आज वार इतवार, नहीं कित आणो-जाणो।
आज वार इतवार, न को महमान बुलाणो।
बैठ कर आज परिवार बिच, बिनां बात बातां करो।
गजराज तणी इण गल्ल पर, ध्यान नेक मीतां धरो।।[…]

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डिंगल काव्यधारा में प्रगतिशील चेतना

शौर्य, औदार्य, भक्ति, नीति, लोकव्यवहार एवं अनुरक्ति आदि विविध विषयों में रचित राजस्थानी साहित्य की डिंगल काव्यधारा का अपना अनुपम एवं गौरवमयी इतिहास है। धारातीर्थ धाम के रूप में स्वनामधन्य इस राजस्थान की धोरा धरती की शौर्यप्रधान संस्कृति के निर्माण और परित्राण में डिंगल काव्यधारा का विशेष योगदान रहा है। इस धारा के कवियों में हलांकि अनेक जाति वर्ग के लोगों का नाम आता है लेकिन इनमें अधिकांश कवि चारण रहे हेैं और आज भी हैं। अतः यह चारणी काव्य नाम से भी जाना जाता है। “आधुनिक हिंदी जगत में डिंगल काव्यधारा यानी चारण काव्य के लिए प्रायः भ्रामक धारणाएं व्याप्त है, जो लेशमात्र भी आप्त नहीं है। वस्तुतः चारण सामाजिक चेतना का संचारण एवं क्रांति का कारण है। वह स्वातंत्र्य का समर्थक, पौरुष का प्रशंसक और प्रगति का पोषक होने के साथ ही युगचेता, निर्भीक नेता और प्रख्यात प्रणेता रहा है। उत्कृष्ट का अभिनंदन एवं निकृष्ट का निंदन इसकी सहज वृत्ति रही है। सिद्धांत एवं स्वाभिमान हेतु संघर्ष करने वाले बागी वीरों का वह सदैव अनुरागी रहा है। “[…]

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