दोय दृष्टांन्त माँ भगवती इन्द्रेश भवानी के

।।माँ भगवती इन्द्रेश भवानी की समदृष्टि व कड़े अनुशासन की पालना के दो दृष्टांन्त।।
** १ **
भव-भय-भंजनी भगवती मावड़ी के चारण-वास में हुये प्रवास के दस दिवस के दौरान हर श्रध्दालुगण भक्तों नें माँ को मिजमानी देने की अथाह तथा पुरजोर कोशिश की तथा भाग्यशाली भक्तों के घर माँ भगवती ने पधार कर भोजन ग्रहण करना स्वीकार भी किया। वहीं पर साधारण व सदगृहस्थ भैरवदानजी जागावत भी रहते थे व उनकी धर्मपत्नि श्रीमती मोहनकुंवर कवियाणी बड़ी धर्मपरायणा व सीधी संकोची स्वभाव की नारी थी। इस दम्पति की भी हार्दिक भावना में माँ भगवती को अपने घर भोजन करवाने की बड़ी इच्छा हो रही थी। श्रीमती मोहनकंवर ने अपनी इच्छा इन्द्रबाईसा की सेवा में रहने वाले भक्तगणों से व्यक्त कर दी पर उनके समर्पण संदेश को किसी ने भी माँ से निवेदन नही किया। मोहनकुंवरजी, जिनका कि पीहर सवाईरामजी की ढाणी कविया था, भक्ति के संस्कारों से यहीं से ओत-प्रोत थी। परघर की माली हालात कमजोर होने से किसी भी भक्तगण ने उनके निवेदन पर गौर नही किया। पर माननीया मोहनकंवर जी नित्यप्रति स्नानादि से निवृत होकर भगवती की सेवा में चली जाती और देर रात तक सबकी सेवा तथा सबका कहा काम करती रहती थी। एक दिन भावातिरेक में उनको आंसू आ गये कि उनकी बात कोई भी अन्दाता तक नहीं पहुचा रहा है व उनको माँ के सामने बोलने का साहस संचार नही हो रहा है। उन्होने अपने आंसुओं को पौंछ लिया किसी को प्रकट नहीं होने दिया। अब जैसे ही श्रीभगवती के सामने बैठकर सभी मातृ-शक्ति चिरजागान कर रही थी, उसी समय माँ ने श्रीमुख से हुकम दिया कि “कल का भोजन भैरजी मामोसा के घर पर ही होगा।” माँ भगवती ने जैसे श्रीकृष्ण दुर्योधन के वैभव को छोड़ विदुर के घर पधारे, उसी सिध्दान्त को पुनः प्रतिपादित कर दिया।

देवी माँ दयालुता एवं ममत्व की मूर्ति थे। उनको धन वैभव नही भक्त की भावना के आधीन होना था। भैरूंदानजी के घर पर साधारण भोजन, कैर-सांगरी, काचर व फऴी की सब्जि के साथ दही व बाजरे की रोटी जीमने के बाद अपने ही श्रीमुख से इतनी बड़ी तारीफ करी किः……. “आजतो भोजनमें घणों आनन्द आयो।”

श्रीमती मोहनकंवर की तपस्या व साधना फलित हो गई। उनका मन अनिर्वचनीय सुख से भर गया। भक्ति भावना से गदगद हो गई, ऐसी थी पवित्र भक्ति व भगवती पराम्बा की भक्तो पर समदृष्टि।

** २ **

ऐक बार भगवती माँ के चारों तरफ भक्तो की कतार में महिला भक्तगण बैठी चिरजागान कर रही थी। उपरोक्त भक्तनारी मोहनकंवरजी भी वहीं खुड़द में ही गई हुई थी। चिरजा गायन के साथ-साथ चर्चा आदि व छोटे-छोटे कामकाज भी सभी भक्त नर नारी करते रहते हैं। यह परम्परा श्रीमढ खुड़द मे श्रीभगवती ने स्वंय ही स्थापित की थी तथा अभी भी अनवरत रूप से निरन्तर चालू है।

वहीं पर बैठी भक्तों में से किसी कुलीन घर की महिला ने खस-खस का इत्र बनवाया जिसको छोटी-छोटी कांच की शिशीयों में भरना था। सो मोहनकंवरजी को भी एक बर्तन में इत्र डालकर एक कुलीन महिलाने दे दिया। सारा इत्र शीशीयों मे भर देने के बाद थोड़ा सा इत्र बच गया। इस दरमियांन भगवती माँ आँखे मुन्द कर आराम करने लगे थे। मोहनकंवरजी ने बचे हुए इत्र के लिए उसी संभ्रांत महिला को पूछा कि इस इत्र का क्या किया जाये (किस बर्तन या शीशी मे डाला जाये)?

मोहनकंवरजी ने सरल भाव से पूछा पर कुलीन महिला ने कुटिल भाव से कहा किः…… “इण नैं आप पीयलो 

उसके गर्वोक्ति युक्त वचन सुनते ही भक्तवत्सला भगवती ने अचानक उठकर उस कुलीन नारी को फटकारते हुए कहा किः…….

“खबरदार है फिर कभी भी किसी से भी यह बात कही है तो, इस गरीब चारण की पुत्री को क्या पता है यह चीज पीने की है या नही, इसके बारे में तो आप अमीर लोग ही जानते हो। “

माँ भगवती की इस मुद्रा को देखते ही सन्नाटा पसर गया तथा उक्त महिला नें पांव पकड़कर माँ से माफी मांगी।

आज अधिकतर देवालयों में रूपये लेकर अति स्पेशल दर्शन करवाये जाते है। वहां भगवती ने एक स्वस्थ परंम्परा कायम की जो निर्बाध गति प्रचलन मे श्रीमढ खुड़द में है।

~~राजेन्द्रसिंह कविया (संतोषपुरा सीकर)

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