गुरु अमृत की खान

है वही जो ज्ञान के आलोक को जग में फैलाता।
है वही जो आदमी को आदमी बनना सिखाता।
जो सभी को  प्रेम का संदेश देता है सदा,
उस गुरु के श्रीचरण में लोक अपना सिर झुकाता।। (शक्तिसुत)

‘गुरु’ नाम उस शक्ति का है जो व्यक्ति को सही-गलत, असली-नकली, अच्छे-बुरे, उच्च-निम्न, उत्कृष्ट-निकृष्ट, उचित-अनुचित, प्रासंगिक-अप्रासंगिक, पवित्र-अपवित्र, ग्रहणीय-त्याज्य के बीच फर्क करना ही नहीं सिखाता वरन सत्य के वरण एवं असत्य के क्षरण का विवेक एवं साहस प्रदान करता है। वह ज्ञान रूपी प्रकाश से अज्ञान रूपी तमस को विदीर्ण कर अपने आचरण रूपी स्नेहिल समीर के प्रवाह से संदेह और आशंका के धुंधले बादलों को हटाता है, जिससे इंसान का भ्रम मिटता है और वह सच्चाई से साक्षात्कार करता है। ‘गुरु’ केवल उपदेशक नहीं होता वरन वह अपने आचरण से संसार को सीख देता है। महाकवि गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा कि ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे/जे आचरहिं ते नर न घनेरे’ मतलब यह कि संसार में दूसरों को उपदेश देने वाले लोग बहुत हैं लेकिन जो स्वयं वैसा आचरण करते हों, ऐसे लोग ज्यादा नहीं है। ‘गुरु’ उन चंद लोगों में से है, जो स्वयं आचरण करके अपने व्यवहार से और अपने आचार-विचार से सामाजिकों का मार्गदर्शन करता है।

सृष्टि नियंता ब्रह्माजी ने जब इस संसार का निर्माण किया तो उसमें सबसे सुंदर यानी सुंदरतम कृति जो बनी, वह मानव है। मानव ही है जिसे जगतपिता ने विवेक रूपी विशिष्ट शक्ति दी है, जिसके बल पर मानव संपूर्ण सृष्टि पर राज करता है। लेकिन यह विवेक रूपी अभिमन्यु बार-बार मोह, माया, लोभ, लालच, प्रतिशोध, अहंकार, ईष्र्या, डाह इत्यादि महायोद्धाओं के चक्रव्यूह में फंस कर अपने अस्तित्व के संकट से जूझता है। सभी योद्धा कभी एक साथ तो कभी बारी-बारी से आक्रमण कर विवेक को भयाक्रांत एवं हतोत्साहित करने का प्रबल प्रयास करते हैं। उस उहापोह एवं किंकत्र्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में विवेक रूपी महारथी को चक्रव्यूह बेधन कर शत्रु-समूह के छक्के छुड़ाने का हुनर एवं हिम्मत कोई देता है, तो वह ‘गुरु’ देता है। उस समय उस महारथी का गुरु उसके स्वाभिमानी संस्कार बनते हैं, जो राजा-रंक के भेद को छोड़कर मातृभूमि की रक्षार्थ, धर्म के रक्षार्थ, औरत की अस्मिता के रक्षार्थ एंव सत्य के संरक्षणार्थ मरने को भी मंगल मानने की प्रेरणा देते हैं-

धर जातां, ध्रम पलटतां, त्रिया पड़ंतां ताव।
तीन दिहाड़ा मरण रा कवण रंक कुण राव।।

यही कारण रहा कि लोक ने गुरु को भगवान ही माना है। गुरु एवं ईश्वर की सत्ता को विलग नहीं किया जा सकता। संस्कृत का यह श्लोक इस बात की पुष्टि करता है।

गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वरः
गुरुर्साक्षात परब्रहम्ः तस्मयैश्री गुरुवे नमः।

विस्तार में जाएं तो संसार के सार को चुनने तथा असार को तार-तार करने की प्रेरणा देने वाला हर व्यक्ति, हर वाक्य, हर कृत्य गुरु है। सिखों के दशम गुरु गोविंदसिंहजी को जब लगा कि समय की करारी मार के सामने अब किसी व्यक्ति विशेष का गुरु जैसे गुरुत्तर पद पर रहना, उसके अनुरूप आचरण करना तथा संसार के जाल-कपट से जूझकर दूध का दूध और पानी का पानी करना बहुत दुष्कर हो गया तब उन्होंने सार्वजनिक रूप से घोषण कर दी कि ग्रंथ को ही गुरु मानें और आज ‘गुरुग्रंथ साहब’ ही सिख धर्म का गुरु है। मेरी जानकारी में दुनिया का यह सिख धर्म एक अकेला धर्म है जो ‘गुरु कर मान ग्रंथ’ की परंपरा का प्रणेता बना है। इस दृष्टि से विचार करें तो सद-ग्रंथ, सद-विचार, सद-आचार ही गुरु है।

कबीर ने तो ‘गुरु गोविंद दोऊ खरे, काके लागूं पाय ?’ का प्रश्न करते हुए गुरु को गोविंद से पहले माना और उसका कारण भी स्पष्ट है कि एक गुरु ही है जो दूसरों को गोविंद की पहचान एवं प्राप्ति का मार्ग बताता है, बाकी तो सब अपना-अपना पकाने में लगे हैं। यही कारण है कि साहित्य में गुरु की महिमा एवं स्तुति से संबंधित अपार सामग्री है जो एक से एक विशिष्ट तथा एक से एक प्रेरणास्पद है। कवियों ने लिखा कि यह मानव शरीर विषबेल की तरह है, जिसे गुरु रूपी अमृत की खान के संसर्ग से अपने जहर से छुटकारा पाने का सौभाग्य मिल सकता है-

यह तन विष की बेलड़ी, गुरु अमृत की खान।
सीस दिए भी गुरु मिले, तो भी सस्ता जान।।

‘सीस दिए भी गुरु मिले’ पर एक दिन एक विज्ञान के विद्वान ने प्रश्नचिह्न लगाते हुए कबीर सहित इस विचार को मानने वाले हमारे सारे कुनबे को कटघरे में खड़ा कर दिया। उनका प्रश्न था कि जब सिर ही नहीं रहा तो फिर जान भी नहीं रहेगी अर्थात व्यक्ति मर जाएगा तो फिर गुरु का क्या करेगा और उनका आक्रोशित लहजे में ऐलान था कि यदि आपका गुरु ऐसा निर्दय है जो अपने शिष्य का सिर कटवाकर खुश होता है तो मैं ऐसी किसी सत्ता को सही और स्वीकार्य नहीं मान सकता। एक सामान्य आदमी का सामान्य व्यक्ति के प्रति यह प्रश्न वाजिब एवं जरूरी था परन्तु संतो, भक्तों एवं शिष्यों ने जिस गुरु की वंदना अग्रांकित रूप में की है, वह सामान्य होकर भी विशिष्ट है –

जै जै गुरुवंदन सब दुख संदन, आघ निरंदन कर कंदन।
तम भज्यां तरंदन, लहर समंदन, एक मनंदन कट फंदन।।
नमो सह वंदन, मेटण द्वंदन, सब घट वंदन तूं सारं।
धिन करुणांकारं, गुरु हमारं, ररंकार – ररंकार।।

ऐसे गुरु को सिर के बदले लेना महंगा नहीं है और यह भी जानना जरूरी है कि यहां सिर शब्द का अभिधार्थ नहीं है मतलब सामान्य अर्थ नहीं है यहां सिर का मतलब अहं यानी अहंकार से है। वास्तविकता यह है कि अहंकार का त्याग व्यक्ति मरते दम तक नहीं करना चाहता। ‘कट जाएं पर नहीं झुकेंगे’ की घोषणा करने वाला व्यक्ति अपने सिर को हमेशा ऊपर रखता है, उसे किसी के सामने झुकाना ही सिर देना है और उस विनम्रता से ही गुरु की प्राप्ति संभव है अतः साहित्य का अर्थ लगाते समय वाच्यार्थ के साथ साथ लक्ष्यार्थ एवं देश, काल, परिस्थितिजन्य अर्थ भी ग्रहण करके देखना जरूरी है। नई पीढ़ी के नौजवान अपने गुरुजनों तथा अपनी पुस्तकों के प्रति श्रद्धा का भाव बनाकर अपने अहंकार का त्याग करें तथा अपने वांछित लक्ष्य को हासिल करने में सफल होवें, इसके लिए पथप्रणेता गुरु का आशीर्वाद जरूरी है।

वैसे तो गुरु का दायरा बहुत वृहद है लेकिन पंसद से हो या परिस्थितियों से अंग्रेजी में कहें तो बाई-चोइस हो या बाई-चांस लेकिन आज का शिक्षक उस गुरु परंपरा का प्रतिनिधि है, उसे अपने पद की गुरुतर गरिमा का सदैव भान रहना चाहिए। अपने शिष्यों के अंतरतम में प्रेम की संकरी डगर से प्रविष्ठ होने का प्रयास सदैव करना चाहिए, जिससे कि उनके अंतस को पवित्र करके देश के सजग एवं सभ्य नागरिक बनाने का उपक्रम किया जा सके। पुस्तकें न केवल विद्यार्थियों वरन स्वयं शिक्षकों की भी गुरु है अतः मेरा शिक्षक साथियों से भी करबद्ध निवेदन है कि स्वाध्याय की आदत को बनाए रखें। आज का विद्यार्थी नवीन तकनीक से जुड़ाव रखने वाला, अपने भविष्य के प्रति अतीव सजग एवं आर्थिक आपाधापी की चकाचैंध में दिग्भ्रमित करने वाले चैराहे पर खड़ा कुशल किंतु किंकत्र्तव्यविमूढ़ युवा है, जिसे उचित एवं उत्तम मार्ग दिखाने का कार्य तभी संभव है जब हम शिक्षक स्वयं अपने ज्ञान को नित्य संधारित करेंगे।

युवा पीढ़ी से यही अपेक्षा एवं अपील है कि अपनी सामथ्र्य को पहचानें, उसके अनुरूप अपना लक्ष्य तय करें, उसी अनुरूप तैयारी करें, अवरोधों एवं बाधाओं का डटकर मुकाबला करें, अंतिम दम तक लक्ष्यार्जन की ललक बनाए रखें, नकारात्मक एंव विध्वंशात्मक शक्तियों से ना तो प्रभावित होना है और ना ही आतंकित वरन उनकी उपेक्षा करके अपने वांछित पथ पर अग्रसर होते रहना है। दुनिया में ऐसा कोई कार्य नहीं है जो आप कर नहीं सकेते, बस अपनी हस्ति को ऐसी बुलंदिया बख्शें की जो लोग आज हिकारत भरी निगाह से आपको घूर रहे हें, वे ही आगे आकर आपकी पीठ थपथपाने को मजबूर हो जाएं। ‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात’ की बात को ध्यान में रखते हुए यदि युवाओं को होनहार बिरवा मानें तो उन पौधों में जीवटता के जज्बात भरने हेतु मेरी ये चार पंक्तियां शिक्षक दिवस के अवसर पर युवा पीढ़ी को समर्पित करता हूं-

अपनी हस्ति से तू जर्रे जर्रे को हैरानी दे,
हर पौधे को जीवटता की गौरवमयी कहानी दे,
अपने पत्तों की तरुणाई से तू ऐसा जादू कर दे,
(कि) बरगद खुद बादल से बोले इस पौधे को पानी दे। (शक्तिसुत)

महर्षि अरविंद ने शिक्षक को राष्ट्र रूपी बाग के चतुर माली की संज्ञा दी है तथा बताया है कि यह चतुर माली अपने शिष्यों के हृदय रूपी खेत में संस्कार रूपी बीज बोता है तथा अपने ज्ञान एवं परिश्रम के खाद-पानी से संस्कारों की सुहावनी फसलों को फलीभूत करता है।

सच में शिक्षक वह शिल्पकार है जो अपने शिष्यों के विकृति से मुक्ति दिला कर सुंदर आकृति प्रदान करता है। जिस प्रकार एक कुम्भकार अपनी मेहनत, लग्न एवं हुनर के बल पर गीली मिट्टी को सुंदर घट के रूप में ढालता है। भीतर से कोमल हथेली का सहारा रखते हुए ऊपर से आवश्यकतानुसार चोट लगते हुए उस घट को वांछित आकर प्रदान करता है-

गुरु कुम्हार शिष कुम्भ है, गढ़ी-गढ़ी काढ़े खोट।
भीतर हाथ संभारि दे, बाहर बाहे चोट।।

यहाँ चोट का मतलब मार-पीट से नहीं है। अपने शिष्य के व्यवहार, आचरण एवं चरित्र में जहाँ-जहाँ कमियां लगती है, उन्हें कठोरता से दूर करना तथा जो कुछ भी अच्छा है,उन्हें प्रोत्साहित करते हुए और अधिक आगे बढ़ाना। बाहर की चोट एवं भीतर के सहारे का आशय यही है।

निष्कर्षतः शिक्षक अपने शिष्यों को एक अच्छा इंसान बनाने, उनमें राष्ट्रभक्ति के भाव जगाने, अपनी संस्कृति के प्रति श्रद्धाभाव जाग्रत करने, चरित्र को उन्नत बनाने का कार्य करता है। मुझे अपने गुरुजनों से जीवन के अनमोल अनुभव प्राप्त करने का अवसर मिला है, मैं अपने तमाम शिक्षकों के प्रति विनम्र कृतज्ञया व्यक्त करता हूँ। शिक्षक दिवस की आप सबको कोटिशः शुभकामनाएँ।

~~डाॅ. गजादान चारण “शक्तिसुत”
अध्यक्ष -स्नातकोत्तर हिंदी विभाग
राजकीय बाँगड़ महाविद्यालय, डीडवाना

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