श्री दुर्गा-बहत्तरी – महाकवि हिंगऴाजदान कविया

।।छन्द भुजंगप्रयात।।
मनंछा परब्रह्म हिंगोऴ माता।
समैं सात पौरां रमै दीप साता।
जंबू दीप में जाम एको जिकांरो।
दिशा पच्छमी दूर प्रासाद द्वारो।।1।।

जिको धोकबा काज जावै जमातां।
अपा पाप थावै बजै सिध्द आतां।
करामात री बात साखात कैई।
सता मातरी चन्द्र कूपादि सैई।।2।।[…]

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ऐतिहासिक तेमड़ाराय मंदिर देशनोक का करंड, रतनू आसराव नै दिया था अपनी बेटी को दहेज

जैसलमेर के महापराक्रमी वीर दुरजनशाल उर्फ दूदाजी जसौड़ को गद्दीनशीन करने में सिरुवा के रतनू आसरावजी का अविस्मरणीय योगदान रहा। दूदाजी भी कृतज्ञ नरेश थे, उन्होंने आसरावजी व उनकी संतति को हृदय से सम्मान दिया। कहतें कि एक बार दूदाजी अपनी ससुराल खींवसर गए हुए थे। खींवसर उन दिनों मांगलियों के क्षेत्राधिकार में था। वहां उनकी सालियों व सलहजों ने उनके साहस की परीक्षा लेने हेतु अपनी किसी सहेली के चोटी में गूंथने की आटी का सर्प बनाकर उनके शयनकक्ष के मार्ग में रख दिया। जब वे सोने जाने लगें तो उनके मार्ग में सर्पाकार वस्तु निगाह आई। उन्होंने बड़ी […]

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स्वामी कृष्णानन्द सरस्वती

वह महामानव थे। उदार थे, व्यवहारिक थे, यंत्र-तंत्र-मंत्र में विश्वास नहीं था उनका। मानव सेवा उनका कर्म था। उसी सेवा के आसपास सभी मसलों का वह हल देखते, खोजते समेटते थे। वह सहज थे, सरल थे, सादा जीवन जीते थे। पहनते बेशक वह गेरूआ वस्त्र थे लेकिन घुर, कट्टर साधुओं-स्वामियों-संतों जैसी भावभंगिमाओं से अछूते थे। गतिशील विचार थे, रचनात्मक सोच थे, विचारशील थे, वर्तमान स्थितियों-परिस्थितियों से परिचित थे, उपदेश से परहेज करते थे। गहन अध्ययन था। केवल धार्मिक, आध्यात्मिक ग्रंथों का ही नहीं क्लासिक ग्रंथों से भी भलीभांति परिचित थे। उनके गहन और व्यापक व्यक्तित्व को जानने-समझने-परखने के लिए पारखी नजरों की जरूरत हुआ करती थी। आशीर्वाद तो सभी को देते थे जो उनसे मुलाकात करने आता था लेकिन दिल की बातें उसी से किया करते थे जो उनकी पारखी नजरों पर खरा उतरते थे। जी हां, मैं जिक्र कर रहा हूं अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त संत स्वामी कृष्णानंद सरस्वती का।[…]

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हालाँ झालाँ रा कुँडळिया – ईसरदास जी बारहट

हालाँ झालाँ रा कुँडळिया” ईसरदास जी की सर्वोत्कृष्ट कृति है। यह डिंगल भाषा के सर्वश्रेष्ट ग्रंथों में से है। अपने कवि धर्म का पालन करने के लिए भक्तवर व भक्ति काव्य के प्रधान कवि इसरदास जी को इस वीर रस के काव्य का सर्जन क्यों करना पडा इसके पीछे निम्नलिखित किंवदंती प्रसिद्ध है।

एक बार हलवद नरेश झाला रायसिंह ध्रोळ राज्य के ठाकुर हाला जसाजी से मिलने के लिए ध्रोळ गये। ये उनके भानजे होते थे। एक दिन दोनों बैठकर चौपड़ खेलने लगे। इतने में कहीं से नगाड़े की आवाज इनके कानों में पड़ी। सुनकर जसाजी क्रोध से झल्ला उठे और बोले – “यह ऐसा कौन जोरावर है जो मेरे गांव की सीमा में नगाड़ा बजा रहा है” फौरन नौकर को भेजकर पता लगवाया गया।[…]

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चारण साहित्य का इतिहास – आठवाँ अध्याय – चारण काव्य का नव चरण (उपसंहार) – [Part-C]

(ख) कवि एवं कृतियाँ १. बद्रीदान:- ये कविया शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१८९० ई०) और पाली (मारवाड़) जिलान्तर्गत ग्राम बासनी के निवासी हैं। इन्होंने अपनी प्रारिम्भक शिक्षा मातृभाषा राजस्थानी में अपने पिता अजीतदान जी से प्राप्त की (१८९७ ई०)। साथ ही पं० शंकरलाल (बनेड़ा) से भी ज्ञान ग्रहण किया। इस प्रकार इन्होंने दस वर्ष की आयु में कविता लिखना आरम्भ कर दिया। यह देख कर रायपुर-ठाकुर हरीसिंह ने इन्हें अपने पास रख लिया। रायपुर राजघराने की सेवा करते हुए ये अपना ज्ञान बढ़ाते गये। ठाकुर साहब के निधन के बाद ये जोधपुर आ गये जहाँ इन्होंने वकालत की परीक्षा […]

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चारण साहित्य का इतिहास – आठवाँ अध्याय – चारण काव्य का नव चरण (उपसंहार) – [Part-B]

(१०) साहित्यिक अवस्था साहित्य विशिष्ट शब्द-रचना के रूप में नवीन भावों तथा विचारों से बना हुआ जीवन का रस है। भाषा भावों तथा विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम है जिसे अपनाये बिना काम नहीं चलता। मनुष्य अपने जीवन-जगत् में किसी न किसी भाषा का प्रयोग करता है और उसमें साहित्य-रचना करना भी कवियों तथा लेखकों का कर्म रहा है। प्राचीन काल से लेकर अर्वाचीन काल तक किसी भी भाषा में साहित्य की इस रस-गंगा के दर्शन किये जा सकते हैं। जैसा देश-काल होगा वैसा ही उसका साहित्य भी ! इतिहास इस कथन की पुष्टि करता है कि भारतीय साहित्य विभिन्न […]

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चारण साहित्य का इतिहास – आठवाँ अध्याय – चारण काव्य का नव चरण (उपसंहार) – [Part-A]

चारण साहित्य का इतिहास – भाग २ चारण-काव्य का नवचरण (उपसंहार) [सन १९५० – १९७५ई.] (१) सिंहावलोकन पिछले अध्यायों में राजस्थानी के चारण साहित्य का क्रमबद्ध विवेचन प्रस्तुत किया गया है। इस अनुशीलन से स्पष्ट है कि यह साहित्य अत्यंत विशद, गहन. एवं समृद्ध है। प्राचीन काल में इसका बीजारोपण हुआ। मध्य काल के प्रतिभा-सम्पन्न कवियों एवं लेखकों ने इसे सींचकर पल्लवित एवं पुष्पित बनाया। आधुनिक काल में यह एक विशाल वृक्ष के रूप में परिणित होकर दूर-दूर तक अपना सौरभ बिखेरने लगा। इस प्रकार प्राचीन काल से लेकर अर्वाचीन काल तक चारण काव्य परम्परा अक्षुण्ण रूप से चली आ […]

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चारण साहित्य का इतिहास – सातवाँ अध्याय – आधुनिक काल (द्वितीय उत्थान) – [Part-C]

५. श्रृंगारिक काव्य:- इस काल में आकर श्रृंगार रस की धारा विकास की ओर उन्मुख हुई और उसमें भिन्न-भिन्न प्रकार की रचनायें होने लगीं। सूर्यमल्ल, शिवबख्श, ऊमरदान, फतहकरण, किशोरसिंह, अमर सिंह देपावत प्रभृति कवियों के मुक्तक काव्य में यह प्रवृति पाई जाती है। सूर्यमल्ल ने करुण घटनाओं को सँजोकर वियोग का मार्मिक चित्रण किया है। नायक की युद्धवीरता में श्रृंगार का पुट देना उनके जैसे पहुँचे हुए कवियों का ही काम था। एक युद्ध के बाद ज्योंही प्रियतम के घाव भरने को आते त्योंही दूसरा युद्ध छिड़ जाता। इस प्रकार योद्धा के स्वस्थ होने पर नायिका यौवन का उपभोग करने […]

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चारण साहित्य का इतिहास – सातवाँ अध्याय – आधुनिक काल (द्वितीय उत्थान) – [Part-B]

(ख) आलोचना खण्ड: पद्य साहित्य १. प्रशंसात्मक काव्य (सर):- क्षत्रिय जाति के उज्जवल नक्षत्रों का गुण-गान करना चारण कवियों की वंश परम्परागत विशेषता है और इस काल के अधिकांश कवियों में यही प्रवृत्ति पाई जाती है। कहीं वीरता की प्रशंसा है तो कहीं दानशीलता की, कहीं तेजस्विता का वर्णन है तो कहीं प्रसुता का, कहीं आभार प्रदर्शन है तो कहीं शील निरूपण, कहीं धर्मवीरता है तो कहीं काव्य-अनुराग। इन विविध गुणों की व्यंजना करना ही कवियों का ध्येय रहा है। व्यक्तिगत स्वार्थ पूर्ति के लिए कोई रचना लिखी हुई नहीं दिखाई देती। कतिपय कवियों ने अपने समकालीन प्रसिद्ध कवियों, लेखकों […]

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चारण साहित्य का इतिहास – सातवाँ अध्याय – आधुनिक काल (द्वितीय उत्थान) – [Part-A]

चारण साहित्य का इतिहास – भाग २ आधुनिक काल, द्वितीय उत्थान [सन १८५० – १९५०ई.] (१) काल विभाजन आधुनिक चारण साहित्य का द्वितीय उत्थान १९वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से आरम्भ होकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक प्रवाहमान होता है। विदेशी संस्कृति के सम्पर्क में आकर राजस्थान ने जितना खोया उतना पाया नहीं। देशव्यापी प्रतिक्रिया होने से यहाँ भी अनेक अभूतपूर्व आंदोलन हुए जिनको दृष्टि-पथ पर रखते हुए आलोच्य काल को ‘क्रांति-युग’ की संज्ञा दी जा सकती है। राष्ट्रीयता एवं समाजवाद की भावनाओं का विकास होने लगा। राजनीतिक हलचलों एवं सामाजिक क्रांतियों का प्रभाव साहित्य पर भी पड़ा। कवियों का ध्यान राज-मार्ग से […]

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