वह महामानव थे। उदार थे, व्यवहारिक थे, यंत्र-तंत्र-मंत्र में विश्वास नहीं था उनका। मानव सेवा उनका कर्म था। उसी सेवा के आसपास सभी मसलों का वह हल देखते, खोजते समेटते थे। वह सहज थे, सरल थे, सादा जीवन जीते थे। पहनते बेशक वह गेरूआ वस्त्र थे लेकिन घुर, कट्टर साधुओं-स्वामियों-संतों जैसी भावभंगिमाओं से अछूते थे। गतिशील विचार थे, रचनात्मक सोच थे, विचारशील थे, वर्तमान स्थितियों-परिस्थितियों से परिचित थे, उपदेश से परहेज करते थे। गहन अध्ययन था। केवल धार्मिक, आध्यात्मिक ग्रंथों का ही नहीं क्लासिक ग्रंथों से भी भलीभांति परिचित थे। उनके गहन और व्यापक व्यक्तित्व को जानने-समझने-परखने के लिए पारखी नजरों की जरूरत हुआ करती थी। आशीर्वाद तो सभी को देते थे जो उनसे मुलाकात करने आता था लेकिन दिल की बातें उसी से किया करते थे जो उनकी पारखी नजरों पर खरा उतरते थे। जी हां, मैं जिक्र कर रहा हूं अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त संत स्वामी कृष्णानंद सरस्वती का।[…]
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