चारण साहित्य का इतिहास – छटा अध्याय – आधुनिक काल (प्रथम उत्थान) – [Part-C]

५. श्रंगारिक काव्य:- आलोच्य काल में केवल वांकीदास एवं मानजी ही ऐसे कवि हुए हैं जिनमें श्रंगार की प्रवृत्ति पाई जाती है। इस दृष्टि से वांकीदास कृत ‘झमाल राधिका सिख नख वर्णन’ एवं ‘हेमरोट छत्तीसी’ नामक रचनायें उल्लेखनीय हैं। नायक-नायिका के नख-शिख वर्णन करने की पद्धति पुरातन काल से ही चली आ रही है किन्तु इसे स्वतन्त्र विषय बनाने का श्रेय वांकीदास को ही है। कवि ने यत्र-तत्र अलौकिकता का पुट अवश्य दिया है किन्तु चित्र लौकिक ही हैँ। पूज्य भावना के अभाव में राधा तो सामान्य नायिका के स्तर पर उतर आई है। उपमान रूढ़िगत भी है और नवीन […]

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चारण साहित्य का इतिहास – छटा अध्याय – आधुनिक काल (प्रथम उत्थान) – [Part-B]

(ख) आलोचना खण्ड : पद्य साहित्य १. प्रशंसात्मक काव्य (सर):- आलोच्य काल में प्रशंसात्मक काव्य को (सर) कहा जाने लगा। ‘सर’ आदर-सूचक अंग्रेजी शब्द है जिसका अर्थ है- ‘श्रीमान’। इसका प्रचलन पाश्चात्य शिक्षा के कारण हुआ। इसके रचयिताओं ने विशिष्ट राजाओं, जागीरदारों एवं महापुरुषों के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की है। राजाओं एवं जागीरदारों के विषय में जहां एक ओर वीरता, दानशीलता, कृतज्ञता, तेजस्विता एवं प्रभुता के दृष्टान्त मिलते हैं वहां दूसरी ओर व्यक्तिगत स्वार्थ-भावना के वशीभूत होकर भी छंद-रचना की गई है। इसके अतिरिक्त कुछ कवि ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने अपने गुरुजनों के श्रीचरणों में नत मस्तक होकर […]

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चारण साहित्य का इतिहास – छटा अध्याय – आधुनिक काल (प्रथम उत्थान) – [Part-A]

चारण साहित्य का इतिहास – भाग २ आधुनिक काल, प्रथम उत्थान [सन १८०० – १८५०ई.] (१) – काल विभाजन राजस्थानी के चारण साहित्य में १९ वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध परिवर्तन-काल माना जायगा। पश्चिम में ज्ञान-विज्ञान का एक नया सितारा चमक उठा था जिसके दर्शन राजस्थान ने इस समय में किये। फलत: क्षत्रिय नरेशों ने अँग्रेजों का आधिपत्य स्वीकार कर संधियों पर हस्ताक्षर किये। पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति के संस्पर्श से इस काल में सर्वप्रथम आधुनिकता का अभ्युदय हुआ जिससे अनेक परिवर्तन हुए। विदेशी विचार-धारा का प्रभाव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र पर पड़ा। फोर्ट विलियम कॉलेज, कलकत्ता की स्थापना से शिक्षा […]

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चारण साहित्य का इतिहास – पांचवाँ अध्याय – मध्यकाल (द्वितीय उत्थान) – [Part-B]

(ख) आलोचना खण्ड : पद्य साहित्य १. प्रशंसात्मक काव्य:- चारण कवियों की प्रशंसा पद्धति प्राय: समान है। अत: विगत काल के सदृश इस काल में भी राजा-महाराजाओं एवं जागीरदारों की वीरता, दानशीलता, धर्म-वीरता, प्रभुता, तेजस्विता, कृतज्ञता एवं राग-रंग का ही वर्णन अधिक मिलता है। यह काव्य राजवंशों से सम्बद्ध एक विशेष पद्धति का द्योतक है। कतिपय कवि ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने साधु-महात्माओं का यशोगान किया है। इन समस्त कवियों ने फुटकर कवितायें लिखी है। क्षत्रिय नरेशों की वीरता चारण कवियों की प्रशंसा का अनिवार्य गुण है। इस दृष्टि से पता, गिरधर, सुजाणसिंह, बखता, भीकमचंद, श्री एवं श्रीमती करणीदान कविया, […]

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चारण साहित्य का इतिहास – पांचवाँ अध्याय – मध्यकाल (द्वितीय उत्थान) – [Part-A]

मध्यकाल (द्वितीय उत्थान) (सन् १६५०-१८०० ई.) (१) – काल-विभाजन मध्यकाल (प्रथम उत्थान) से आगे चलकर हम एक ऐसे युग में प्रवेश करते है जो इतिहास में मुगल-साम्राज्य का ‘पतन-काल’ कहा जाता है हिन्दी-साहित्य के लेखक जिसे रीति-काल (१६४३-१८४३ ई.) कहते हैं, डॅा. मेनारिया उसे राजस्थानी साहित्य के उत्तरकाल की संज्ञा देते हैं। यह काल सम्राट् औरंगजेब के सिंहासनारूढ़ होने के समय से (१६५८ ई.) सम्राट् शाहआलम तक (१८०३ ई.) अंग्रेजों के दिल्ली पर अधिकार करने तक प्रवाहमान होता है। चारण-काव्य की दृष्टि से यह युग पृथक महत्व रखता है क्योंकि परिवर्तित राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं साहित्यिक परिस्थितियों से प्रभावित होकर […]

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चारण साहित्य का इतिहास – चौथा अध्याय – मध्यकाल (प्रथम उत्थान) – [Part-B]

(ख) आलोचना खण्ड : पद्य साहित्य १. प्रशंसात्मक काव्य: इस युग का प्रशंसात्मक काव्य दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम, जिसमें आश्रयदाता की वीरता, दानशीलता, कृतज्ञता, तेजस्विता एवं कला-प्रियता का प्रकाशन किया गया है और द्वितीय, जिसे किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए लिखा गया है। प्रथम प्रकार के कवियों ने संसार में जितने भी विरुद हैं, उनसे अपने चरितनायकों को अलंकृत करने का प्रयत्न किया है। यहां जीवन के उत्तम गुण एकत्रित हो गये हैं। कहीं-कहीं तो ये गुण ऐसे घुल-मिल गये हैं कि जिन्हें पृथक नहीं किया जा सकता। इन कवियों में अत्युक्ति भी […]

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चारण साहित्य का इतिहास – चौथा अध्याय – मध्यकाल (प्रथम उत्थान) – [Part-A]

मध्यकाल (प्रथम उत्थान) (सन् १५००-१६५० ई.) (१) – काल विभाजन हिन्दी एवं राजस्थानी साहित्य के मर्मज्ञों ने आलोच्यकाल का विभाजन अपने-अपने ढंग से किया है। अत: चारण साहित्य की तत्कालीन प्रवृत्तियों को हृदयंगम करने में कोई सहायता नहीं मिलती। इस काल में भक्ति विषयक रचनाओं की एक अविच्छिन्न धारा फूट पड़ी, जो अपनी मन्थर गति से इस काल के द्वितीय उत्थान तक कल्लोल करती रही। भाषा एवं साहित्य की दृष्टि से यह आदान-प्रदान का समय था। राजस्थानी के कवि ब्रजभाषा में भी काव्य-रचना करने लगे। डॉ. मेनारिया के ‘राजस्थान का पिंगल साहित्य’ ग्रंथ से इस कथन की पुष्टि होती है। […]

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चारण साहित्य का इतिहास – तीसरा अध्याय – प्राचीन काल

प्राचीन काल (सन् ११५०-१५०० ई.) (१) – काल विभाजन भारतीय साहित्य में यह समय चारण-काल के नाम से प्रख्यात है। राजस्थान अपने प्राचीन साहित्य में समृद्ध है। यहां अन्य प्रान्तों की अपेक्षा अधिक रचनायें लिखी गई जिनसे साहित्य-संसार अपरिचित है। यद्यपि मां सरस्वती के द्वार प्रत्येक व्यक्ति एवं जाति के लिए समान रूप से खुले पड़े हैं तथापि यहां साहित्य का विकास अधिकांशत: धार्मिक भावनाओं के कारण हुआ। ब्राह्मण एवं जैन काव्य-धाराओं की गंगा-यमुना पहले से ही चली आ रही थी। चारण कवियों की सरस्वती ने मिल कर उसमें एक नवीन राग उत्पन्न कर दी। कहना न होगा कि इन […]

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चारण साहित्य का इतिहास – दूसरा अध्याय – चारण साहित्य की पृष्ठभूमि

चारण साहित्य की पृष्ठभूमि (सन् ६५०-११५० ई.) किसी देश या जाति की संस्कृति उसके साहित्य में जिस सहज सौन्दर्य के साथ अभिव्यक्त होती है, उतनी और किसी क्षेत्र में नहीं। सृष्टि के इतिहास में शताब्दियों तक इस पुण्य भूमि भारत और हिन्दू जाति की सांस्कृतिक स्वर-लहरी विशाल समुद्रों तथा उत्तुंग पर्वत श्रेणियों को चीर कर, समस्त विश्व में प्रतिध्वनित होती रही। वैदिक, रामायण-महाभारत, जैन-बौद्ध, पुराण एवं गुप्त काल के साहित्य में भारतीय संस्कृति की इतनी मनोहर अभिव्यक्ति हुई है कि यहां की प्रत्येक प्रांतीय भाषा तथा साहित्य पर उसका अक्षुण्ण प्रभाव परिलक्षित होता है। राजस्थान का चारण-साहित्य भी इसका अपवाद […]

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चारण साहित्य का इतिहास – पहला अध्याय – विषय प्रवेश

विषय-प्रवेश (१) – राजस्थान की महत्ता: राजस्थान भारत का एक महान प्रांत है। शासन एवं राजनीति की दृष्टि से इसकी सीमायें समय-समय पर बनती बिगड़ती रही हैं जिसका प्रभाव यहां के जन-जीवन पर भी पड़ता आया है। वर्तमान राजस्थान भूतपूर्व देशी राज्यों को मिला कर बनाया गया है। यह पहले राजपूताना के नाम से विख्यात था। यहां जिन राजा महाराजाओं का शासन रहा है, वे अधिकांश में राजपूत थे। सर्व-प्रथम जार्ज टामस ने इस नाम का प्रयोग किया था (१८०० ई०) तदनन्तर कर्नल टाड ने राजस्थान शब्द का प्रयोग किया (१८२९ ई०) स्वतंत्रता प्राप्ति के अनन्तर बिखरे हुए विभिन्न राज्यों […]

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