लोहित मसि में कलम डुबाकर कवि तुम प्रलय छंद लिख डालो

लोहित मसि में कलम डुबाकर कवि तुम प्रलय छंद लिख डालो।।

अम्बर के नीलम प्याले में ढली रात मानिक मदिरा-सी।
कर जग को बेहोश चाँदनी बिखर गई मदमस्त सुरा-सी।
तुमने उस मादक मस्ती के मधुमय गीत बहुत लिख डाले।
किन्तु कभी क्या देखे तुमने वसुंधरा के उर के छाले।
तुम इन पीप भरे छालों में रस का अनुसन्धान कर रहे।
मौत यहाँ पर नाच रही तुम परियों का आव्हान कर रहे।

» Read more

तुम कहते संघर्ष कुछ नहीं

तुम कहते संघर्ष कुछ नहीं, वह मेरा जीवन अवलंबन !

जहाँ श्वास की हर सिहरन में, आहों के अम्बार सुलगते !
जहाँ प्राण की प्रति धड़कन में, उमस भरे अरमान बिलखते !
जहाँ लुटी हसरतें ह्रदय की, जीवन के मध्यान्ह प्रहर में !
जहाँ विकल मिट्टी का मानव, बिक जाता है पुतलीघर में !
भटक चले भावों के पंछी, भव रौरव में पथ बिसार कर !
जहाँ ज़िंदगी साँस ल़े रही महामृत्यु के विकट द्वार पर !

» Read more

मैं प्रलय वह्नि का वाहक हूँ !

मैं प्रलय वह्नि का वाहक हूँ !
मिट्टी के पुतले मानव का संसार मिटाने आया हूँ !

शोषित दल के उच्छवासों से, वह काँप रहा अवनी अम्बर !
उन अबलाओं की आहों से, जल रहा आज घर नगर-नगर !
जल रहे आज पापों के पर, है फूट रहा भयकारी स्वर !
इस महा-मरण की वेला में त्यौहार मनाने आया हूँ !
मिट्टी के पुतले मानव का संसार मिटाने आया हूँ !

» Read more

पांडव यशेन्दु चन्द्रिका – षोड़श मयूख

।।षोड़श मयूख।। अंतिम पर्व वैशंपायन उवाच दोहा धृतराष्टर आदेश, धर्मपुत्र शिर पर धर्यो। यथा सुयोधन लेश, कबहुँ न अंगीकृत कर्यो।।१।। वैशंपायन मुनि आगे कहने लगे कि हे राजा जन्मेजय! धृतराष्ट की एक-एक आज्ञा को जिस प्रकार राजा युधिष्ठिर ने शिरोधार्य किया, उसी प्रकार दुर्योधन ने उनकी एक भी आज्ञा को नहीं माना था। दोहा स्नान दान गज गाय महि, भेजन सयन सुभाय। प्रथम करै धृतराष्ट्र जब, पीछे नृपति सदाय।।२।। श्रेष्ठ भाव से स्नान कर, हाथी, गायें एवं पृथ्वी का दान कर, भोजन और शयन आदि नित्य कार्य पहले धृतराष्ट्र करते उसके बाद धर्मराज युधिष्ठिर अपना नित्य कर्म निबटाते। जो पदार्थ […]

» Read more

मैं किसी आकुल ह्रदय की प्रीत लेकर क्या करूंगा !

मैं किसी आकुल ह्रदय की प्रीत लेकर क्या करूंगा !

सिकुड़ती परछाइयाँ, धूमिल-मलिन गोधूलि-बेला !
डगर पर भयभीत पग धर चल रहा हूँ मैं अकेला !
ज़िंदगी की साँझ में मधु-दिवस का यह गान कैसा ?
मोह-बंधन-मुक्त मन पर स्नेह-तंतु-वितान कैसा ?

मरण-बेला में मिलन-संगीत लेकर क्या करूँगा ?
मैं किसी आकुल-ह्रदय की प्रीत लेकर क्या करूँगा ![…]

» Read more

पांडव यशेन्दु चन्द्रिका – पंचदश मयूख

।।पंचदश मयूख।। शल्यपर्व वैशंपायन उवाच दोहा संजय और युयुत्सु दोउ, आये नृप कौं लैन। त्रियन युक्त कुरुखेत हित, बड़ी बधाई दैन।।१।। वैशंपायन कहने लगे कि हे जन्मेजय! युद्ध के सम्पूर्ण होने पर संजय और युयुत्सु ये दोनों, गांधारी आदि स्त्रियों सहित, राजा धृतराष्ट्र को कुरुक्षेत्र ले जाने को तथा बधाई देने को हस्तिनापुर में आए। संजय उवाच कवित्त भीम कौं दयो हो विष ता दिन बयो हो बीज, लाखागृह भये ताको अंकुर लखायो है। द्यूतक्रीड़ा काल बिसतार पाय बड़ो भयो, द्रौपदी हरन भये मंजरी तैं छायो है। मच्छ गाय घेरी जबै पुष्प फल भार भयो, तैंने ही कुमंत्र जल सींचिकै […]

» Read more

आज होली जल रही है !

राज्य-लिप्सा के नशे में, विहँसता है आज दानव !
दासता के पात में जो, पिस रहा है आज मानव !
आज उसकी आह से धन की हवेली हिल रही है !
आज होली जल रही है ![…]

» Read more

पांडव यशेन्दु चन्द्रिका – चतुर्दश मयूख

।।चतुर्दश मयूख।। कर्णपर्व (उत्तरार्द्ध) दोहा अर्जुन के द्रष्ट न पर्यो, धर्मपुत्र ध्वजदंड। कह्यो भीम तैं शोधि करि, कित हैं नृप बलबंड।।१।। संजय बताने लगा कि हे राजा! दुःशासन के वध के पश्चात् अर्जुन ने रणभूमि में चारों ओर देखा और जब उसे युधिष्ठिर का ध्वजदंड नजर नहीं आया तो उसने भीमसेन से पूछा कि हे भाई! बलवान धर्मराज कहाँ हैं? जाओ उनकी खबर लाओ। भीमोवाच मो अरि भर्गल मानिहैं, तुम ही शोधहु तात। आयो डेरन बीच रथ, लखि नृप चित हरखात।।२।। यह सुन कर भीमसेन ने कहा कि हे भाई! मेरे जाने से शत्रु यह कहेंगे कि मैं भाग गया […]

» Read more

आज जीवन गीत बनने जा रहा है !

आज जीवन गीत बनने जा रहा है !
ज़िंदगी के इस जलधि में ज्वार फिर से आ रहा है !

छा गई थी मौन पतझड़ की उदासी,
गान जब से बन गए मेरे प्रवासी !
आज उनको मुरलिका में पुनः कोई गा रहा है !
आज जीवन गीत बनने जा रहा है ![…]

» Read more

पांडव यशेन्दु चन्द्रिका – त्रयोदश मयूख

।।त्रयोदश मयूख।। कर्णपर्व (पूर्वार्द्ध) वैशंपायन उवाच दोहा लखि द्वै दिन को युद्ध पुनि, संजय परम सयान। कहि नृप तैं तव पुत्र को, कट्यो कर्न तनत्रान।।१।। वैशंपायन कहने लगे, हे जन्मेजय! फिर दो दिन का युद्ध देख कर परम सुजान संजय ने हस्तिनापुर में आ कर, धृतराष्ट्र से कहा कि तुम्हारे पुत्र का कवच वह कर्ण आज फट (मारा) गया। संजय उवाच कवित्त भीम वाडवागि जाको नेक हू न कीनो भय, सात्यकि तिमिंगल को त्रास हू न मान्यो राज। नकुल सहदेव धृष्टद्युम्न रु शिखंडी जैसे, महाबाहु ग्राहन को चिंत्यौ ना कछू इलाज। किरीटी के कोप वायु चंड खंड खंड कीनी, गांजिव […]

» Read more
1 27 28 29 30 31 55