अजै कांई रोटियां होवै!!

रावल़ मूल़राज अर रतनसी रै साको करियां पछै जैसल़मेर रो गढ घणा दिन सोग में डूब्योड़ो सूनो पड़ियो रह्यो।

जैसल़मेर जैड़ो गढ अर सूनो!! आ बात जद महेवै रै कुंवर जगमालजी मालावत नै ठाह पड़ी तो उणां आपरा आदमी अर सीधै रा सराजाम लेय जैसल़मेर कानी जावण रो मतो कियो।

उण दिनां काल़ काढण नै सिरूवै रा रतनू चंद्रभांणजी ई महेवै रैता, ऐड़ी सल़वल़ सुणी तो चंद्रभांणजी आपरै दादै आसरावजी नै समाचार कराया कै राठौड़ जैसल़मेर रो गढ दाबणो चावै!![…]

» Read more

राजस्थानी संस्कृति का प्राणतत्व – राजस्थानी लोकसाहित्य

संस्कृति वह आधारशिला है जिसके आश्रय से जाति, समाज एवं देष का विशाल भव्य प्रासाद निर्मित होता है। निरंतर प्रगतिशील मानव-जीवन प्रकृति तथा समाज के जिन-जिन असंख्य प्रभावों एवं संस्कारों से प्रभावित होता रहता है, उन सबके सामूहिक रूप को हम संस्कृति कहते हैं। मानव का प्रत्येक विचार तथा प्रत्येक कृति संस्कृति नहीं है पर जिन कार्यों से किसी देष विशेष के समक्ष समाज पर कोई अमिट छाप पड़े, वही स्थाई प्रभाव संस्कृति है।[…]

» Read more

सिद्ध मिलियो सादूऴ रो

ऊदावतां रो नीमाज ठिकाणो चावो। कनै ई पांच-सात कोस माथै कांवऴिया खिड़ियां रो गांम। उठै रा खिड़िया रुघनाथजी सादूऴजी रा मौजीज अर मोतबर मिनख। साहित्य अर संगीत रा प्रेमी तो कऴाकारां रा कद्रदान। कांवऴिया आपरी दातारगी अर उदारता रै पाण चावी रैयी है-

के के अदवा ऊबरै, छिप छिप छांवऴियाह।
आज व्रण में ऊजऴी, कीरत कांवऴियाह।।

इण नीमाज ठिकाणै रा ढोली नरो अर बहादरो गायबी में प्रवीण तो साथै ई ठिकाणै री धणियाप रै कारण करड़ाण ई राखता सो बीजै जोगतै मिनखां नै शुभराज कम ई करता।[…]

» Read more

जनकवि उमरदान जी लाळस – जीवन परिचय

जनकवि ऊमरदान का नाम राजस्थानी साहित्याकाश में एक ज्योतिर्मय नक्षत्र की भांति देदीप्यमान है। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की पृथक पहचान है। पाखण्ड-खंडन, नशा निवारण, राष्ट्र-गौरव एवं जन-जागरण का उद्घोष ही इस कवि का प्रमुख लक्ष्य था। इसकी रचनाओं में सामाजिक व्यंग की प्रधानता के साथ ही साहित्यिकता, ऐतिहासिकता एवं आध्यात्मिकता की त्रिवेणी सामान रूप से प्रवाहमान है। मरू-प्रदेश की प्राकृतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक छवियों के चितांकन में यहाँ के लोक-जीवन की आत्मा की अनुगूंज सुनाई देती है। डिंगल एवं पिंगल के विविध छंदों की अलंकृत छटा, चित्रात्मक शैली और नूतन भावाभिव्यंजना सहज ही पाठक का मन मोह लेती है।[…]

» Read more

हमारे गौरवशाली साहित्य से युवा पीढ़ी परिचित हो

यदाकदा खर दिमागी लोगों को चारण साहित्य या यों कहिए कि चारण जाति की आलोचना करते हुए सुनतें या पढ़तें हैं तो मन उद्वेलित या व्यथित नहीं होता क्योंकि यह उनका ज्ञान नहीं अपितु उनकी कुंठाग्रस्त मानसिकता का प्रकटीकरण है। अगर कोई आदमी अवसादग्रस्त है या कुंठाग्रस्त है तो स्वाभाविक है कि उसकी अभिव्यक्ति गरिमामय नहीं होगी। यानि खिसियानी बिल्ली खंभा नोंचे या यों कहिए कि कुम्हार, कुम्हारी को नहीं पहुंच सके तो गधे के कान ऐंठता है।[…]

» Read more

म्हारो कोई कागज आयो?

मैं उन दिनों ग्यारहवीं का विद्यार्थी था जब मुझे आत्मीजनों से पत्र द्वारा संवाद करने का शौक जागृत हुआ। मैं सींथल पढ़ा करता था, वहां मेरा ननिहाल था। यह बात 1989 की है। जब जस्सुसर गेट स्थित बिनाणी भवन में अकादमी का विशाल साहित्यकार सम्मेलन हुआ था। मैं ग्यारहवीं का विद्यार्थी था ऐसे में मेरी उसमें प्रतिभागिता की कोई संभावना ही नहीं थी। लेकिन महापुरूषों ने कहा है कि जहां चाह वहां राह। मैं भी सींथल से बीकानेर आ गया और छात्रावास के कुछ मित्रों के साथ सांयकाल नियत स्थान पर पहुंच गया। हालांकि गांगी कोई गीतों में नहीं थी फिर भी कवि होने का भ्रम तो था ही अतः हुंसरड़पणै से श्रोताओं में सबसे आगे बैठ गया।[…]

» Read more

डिगऴ में मर्यादा रौ मांडण

राजस्थानी रा साहित में मर्यादा रो आछो मंडण, विशेषकर चारण साहित में घणों सखरो अर सोहणो हुयो है। जीवण री गहराई ने समझ परख अर ऊंचाई पर थापित करणे री मर्यादावाँ कायम करी गई है। इण मर्यादा रे पाण ही माणस समाज संगठित अर सुव्यवस्थित रैय र आपरी खिमता अर शक्ति में उतरोतर बढाव करियो है। चारण कवेसरां कदैई नीति रो मारग नी छोडियो है, अर नीतिबिहूणा जीवण ने पाट तोड़ बिगाड़ करण हाऴी नदी रै कूंतै मानियो है, इण भाव रो दोहो निजरां पैश है।

।।दोहा।।
तोड़ नदी मत नीर तूं, जे जऴ खारौ थाय।
पांणी बहसी च्यार दिन, अवगुण जुगां न जाय।[…]

» Read more

संवैधानिक मान्यता की मोहताज मायड़भाषा राजस्थानी

माँ, मातृभूमि एवं मातृभाषा तीनों का स्थान अति महनीय है क्योंकि ये तीनों हमें आकार, आधार एवं अस्तित्व प्रदान करती हैं। माँ तथा मातृभूमि की तरह ही मातृभाषा की महत्ता निर्विवाद है। संस्कृति के सहज स्रोत के रूप में वहां की भाषा की भूमिका प्रमुख होती है। यह अटल सत्य है कि मातृभाषा ही वह सहज साधन-स्रोत है, जो मनुष्य के चेतन एवं अचेतन से अहर्निश जुड़ी रहती है। यही कारण है जैसे ही किसी समाज या समूह का अपनी मायड़भाषा से संबंध विच्छेद होता है, वैसे ही उस समाज एवं समूह के चिंतन की मौलिकता नष्ट हो जाती है।[…]

» Read more

दोय दृष्टांन्त माँ भगवती इन्द्रेश भवानी के

।।माँ भगवती इन्द्रेश भवानी की समदृष्टि व कड़े अनुशासन की पालना के दो दृष्टांन्त।।

** १ **

भव-भय-भंजनी भगवती मावड़ी के चारण-वास में हुये प्रवास के दस दिवस के दौरान हर श्रध्दालुगण भक्तों नें माँ को मिजमानी देने की अथाह तथा पुरजोर कोशिश की तथा भाग्यशाली भक्तों के घर माँ भगवती ने पधार कर भोजन ग्रहण करना स्वीकार भी किया। वहीं पर साधारण व सदगृहस्थ भैरवदानजी जागावत भी रहते थे व उनकी धर्मपत्नि श्रीमती मोहनकुंवर कवियाणी बड़ी धर्मपरायणा व सीधी संकोची स्वभाव की नारी थी।[…]

» Read more

राजस्थानी लोकसाहित्य में मूल्य-बोध

बाळक रै जनमतां ईं उणरी मां रै मूंढै उण सारू मूल्य री सीख सरू हुज्यावै जकी आखरी सांस तांई साथै रैवै। राजस्थानी लोकगीत ‘बाळो पांख्यां बारै आयो माता बैण सुणावै यूं ’ में राजस्थानी वीर माता आपरै बाळै नैं नाळो मोळती बिरियां मूल्य री सीख देवै-‘बैर्यां री फौजां रा बाळा सीस काट घर आइजे यूं’। इणीं भांत बा मायड़ झूलो झुलावती वेळा ई ‘इळा न देणी आपणी हालरिया हुलराय’ री लोरी गावै। रणांगण सारू जावती बखत आपरै बेटै अर पति दोनां नै अखरावती कैवै कै ‘‘सहणी सबरी हूं सखी दो उर उलटी दाह/ दूध लजाणै पूत सम, वलय लजाणै नाह’’ रण में खेत रैवणियै बेटै सारू त्राहि-त्राहि कर’र रोवण री बजाय वीर माता अंतस सूं अंजस रा आखर उच्चारै ‘बेटा दूध उजाळियो, तू कट पड़ियो जुद्ध/ नीर न आवै नयण पण थण आवै दुद्ध’। राजस्थान री नारी सारू वीर माता अर वीर नारी रो विरुद इणीं कारण है कै वा वीरत री कीरत नैं आपरै जीवणमूल्यां री जड़ मानै।[…]

» Read more
1 12 13 14 15 16 23