स्वातंत्र्य चेतना के प्रखर चिंतक: कविराजा बांकीदासजी आशिया

साहित्य की परिभाषा ही सब का हित संधान करने वाली होती है तो फिर इसका सृजक चाहे वो किसी भी जाति, समुदाय अथवा धर्म का क्यों न हो वो व्यष्टिपरक हितसंधान की बात कैसे सोच सकता है? क्या कबीर, रहीम, ईशरदास बारहठ आदि मनीषी केवल अपने धर्म तक ही सीमित रहे या उन्होंने उस क्षुद्र बंधनों को तोड़ा!!
इसी बात को मध्यनजर रखकर मैंने कविराजा बांकीदासजी आशिया को अनेकों बार पढ़ा। जब हम डिंगल कवि के बतौर बांकीदास जी को पढ़तें हैं तो जो आरोप डिंगल कवियों पर लगाए जाते रहें हैं वे सारे के सारे निर्मूल सिद्ध होते हैं।[…]
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