अपने चारों धाम खेत में

तीर्थ-स्नान तमाम खेत में।
अपने चारों धाम खेत में।।
श्रम की पूजा सांझ-सकारे।
और न दूजा देव हमारे।
जस उसका उसके जयकारे।
सच्चे सात सलाम खेत में।
अपने चारों धाम खेत में।।[…]
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तीर्थ-स्नान तमाम खेत में।
अपने चारों धाम खेत में।।
श्रम की पूजा सांझ-सकारे।
और न दूजा देव हमारे।
जस उसका उसके जयकारे।
सच्चे सात सलाम खेत में।
अपने चारों धाम खेत में।।[…]
सुनो सपूत हिंद के! सुपुत्रियो सुनो ज़रा!
सुनो तुम्हें पुकारती, ये मादरे वसुंधरा!
मनु के आत्मजो सुनो! सुनो आदम के अंशजो!
गुरु-ग्रंथ पूजको सुनो! सुनो यीशु के वंशजो!
जिनेन्द्र जैनियो सुनो! प्रबुद्ध बुद्ध अर्चको!
सुनो सुकर्म साधको! विशुद्ध ज्ञान चर्चको![…]
गीली माटी मांय प्रजापत, सूखी ल्याय मिलाई।
नीर मिला रौंदण जद लाग्यो, माटी तद मुस्काई।।
बोली अरे! कुंभकार क्यूं, बर-बर और मिलावै।
रौंदी उणनैं राम सिंवर कर, क्यूं नीं चाक चढ़ावै।।
कुंभकार बोल्यो सुण माटी, आज इसी मन आई।
चिलम बणाणी छोड़ चाव सूं, घड़स्यूं अबै सुराई।।
माटी भाग सरावत बोली, करी भली करतार।
तोर विचार बदळतां म्हारो, बदळ् गयो संसार।।[…]
अेक रात री बात बताऊं,
सुणी जकी सागण समझाऊं।
चकवो चकवी बोलण लाग्या,
रात अंधारो तोलण लाग्या।
पीपळ पर चकवी रो बासो,
चकवै रो बड़ अळगो खासो।
बातां करता टेम बितावै,
इतरै में आंधी आ ज्यावै।
चकवी रो मन डरपण लागै,
डरती बड़लै कानी भागै।[…]
खुद के भीतर देख निर्भया,
बदल ब्रह्म के लेख निर्भया,
तू सूरज है, तेजपुंज तू,
वहसी तम की रेख निर्भया,
खुद के भीतर देख निर्भया।
भीतर का भय त्याग निर्भया,
जगना होगा, जाग निर्भया,
तेरी ताकत सागर जैसी,
दुष्ट झाग सम पेख निर्भया,
खुद के भीतर देख निर्भया।[…]
मन रो तिमिर हरैला दीपक,
उण दिन ही उजियाल़ी होसी!
मिनखपणो होसी जद मंडित ,
देख देश दीवाल़ी होसी!!
🚩
जात -पांत सूं ऊपर उठनै,
पीड़ पाड़ोसी समझेला!
धरम धड़ै में बांटणियां वै,
घोषित उण दिन जाल़ी होसी!![…]
सूरज जद स्याह अंधेरी सूं,
रंग-रळियां करणो चावै है।
चांदै नैं स्यामल-रजनी रै,
आँचळ में आँणद आवै है।
इसड़ी अणहोणी वेळा में,
होणी रा गेला कद दीखै।
कहद्यो अै तारा टाबरिया,
कुणनैं देखै अर के सीखै?[…]
सुन आर्यभूमि का आर्तनाद, उठ गए देश के दीवाने।
जल उठी काल लपटें कराल, आ गए शमा पर परवाने।।
चुप रह ना सका सौदा प्रताप, जग उठा जाति का स्वाभिमान।
जगती तल के इतिहासों में, गूँजे थे जिसके कीर्ति-गान।।
आखिर चारण का बच्चा था, वह वीर “केसरी” का सपूत।
पद दलित देश की धरती पर, वह उतरा बनकर क्रांतिदूत।।[…]
लोहित मसि में कलम डुबाकर कवि तुम प्रलय छंद लिख डालो।।
अम्बर के नीलम प्याले में ढली रात मानिक मदिरा-सी।
कर जग को बेहोश चाँदनी बिखर गई मदमस्त सुरा-सी।
तुमने उस मादक मस्ती के मधुमय गीत बहुत लिख डाले।
किन्तु कभी क्या देखे तुमने वसुंधरा के उर के छाले।
तुम इन पीप भरे छालों में रस का अनुसन्धान कर रहे।
मौत यहाँ पर नाच रही तुम परियों का आव्हान कर रहे।
तुम कहते संघर्ष कुछ नहीं, वह मेरा जीवन अवलंबन !
जहाँ श्वास की हर सिहरन में, आहों के अम्बार सुलगते !
जहाँ प्राण की प्रति धड़कन में, उमस भरे अरमान बिलखते !
जहाँ लुटी हसरतें ह्रदय की, जीवन के मध्यान्ह प्रहर में !
जहाँ विकल मिट्टी का मानव, बिक जाता है पुतलीघर में !
भटक चले भावों के पंछी, भव रौरव में पथ बिसार कर !
जहाँ ज़िंदगी साँस ल़े रही महामृत्यु के विकट द्वार पर !